23 अप्रैल, 2010

नीरज के गीत

अब तो मजहब कोई, ऐसा भी चलाया जाए
जिसमें इनसान को, इनसान बनाया जाए

आग बहती है यहाँ, गंगा में, झेलम में भी
कोई बतलाए, कहाँ जाकर नहाया जाए

मेरा मकसद है के महफिल रहे रोशन यूँही
खून चाहे मेरा, दीपों में जलाया जाए

मेरे दुख-दर्द का, तुझपर हो असर कुछ ऐसा
मैं रहूँ भूखा तो तुझसे भी ना खाया जाए

जिस्म दो होके भी, दिल एक हो अपने ऐसे
मेरा आँसू, तेरी पलकों से उठाया जाए

गीत गुमसुम है, ग़ज़ल चुप है, रूबाई है दुखी
ऐसे माहौल में,‘नीरज’ को बुलाया जाए

गुरु नानकदेव के पद


झूठी देखी प्रीत

जगत में झूठी देखी प्रीत।
अपने ही सुखसों सब लागे, क्या दारा क्या मीत॥
मेरो मेरो सभी कहत हैं, हित सों बाध्यौ चीत।
अंतकाल संगी नहिं कोऊ, यह अचरज की रीत॥
मन मूरख अजहूँ नहिं समुझत, सिख दै हारयो नीत।
नानक भव-जल-पार परै जो गावै प्रभु के गीत॥

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को काहू को भाई

हरि बिनु तेरो को न सहाई।
काकी मात-पिता सुत बनिता, को काहू को भाई॥

धनु धरनी अरु संपति सगरी जो मानिओ अपनाई।
तन छूटै कुछ संग न चालै, कहा ताहि लपटाई॥

दीन दयाल सदा दु:ख-भंजन, ता सिउ रुचि न बढाई।
नानक कहत जगत सभ मिथिआ, ज्यों सुपना रैनाई॥

22 अप्रैल, 2010

यशपाल की कहानी - करवा का व्रत

कन्हैयालाल अपने दफ्तर के हमजोलियों और मित्रों से दो तीन बरस बड़ा ही था, परन्तु ब्याह उसका उन लोगों के बाद हुआ। उसके बहुत अनुरोध करने पर भी साहब ने उसे ब्याह के लिए सप्ताह-भर से अधिक छुट्टी न दी थी। लौटा तो उसके अन्तरंग मित्रों ने भी उससे वही प्रश्न पूछे जो प्रायः ऐसे अवसर पर दूसरों से पूछे जाते हैं और फिर वही परामर्श उसे दिये गये जो अनुभवी लोग नवविवाहितों को दिया करते हैं।

हेमराज को कन्हैयालाल समझदार मानता था। हेमराज ने समझाया-बहू को प्यार तो करना ही चाहिए, पर प्यार से उसे बिगाड़ देना या सिर चढ़ा लेना भी ठीक नहीं। औरत सरकश हो जाती है, तो आदमी को उम्रभर जोरू का गुलाम ही बना रहना पड़ता है। उसकी जरूरतें पूरी करो, पर रखो अपने काबू में। मार-पीट बुरी बात है, पर यह भी नहीं कि औरत को मर्द का डर ही न रहे। डर उसे ज़रूर रहना चाहिए... मारे नहीं तो कम-से-कम गुर्रा तो ज़रूर दे। तीन बात उसकी मानो तो एक में ना भी कर दो। यह न समझ ले कि जो चाहे कर या करा सकती है। उसे तुम्हारी खुशी-नाराजगी की परवाह रहे। हमारे साहब जैसा हाल न हो जाये। ...मैं तो देखकर हैरान हो गया। एम्पोरियम से कुछ चीजें लेने के लिये जा रहे थे तो घरवाली को पुकारकर पैसे लिये। बीवी ने कह दिया-' कालीन इस महीने रहने दो। अगले महीने सही', तो भीगी बिल्ली की तरह बोले ' अच्छा!' मर्द को रुपया-पैसा तो अपने पास में रखना चाहिये। मालिक तो मर्द है।

कन्हैया के विवाह के समय नक्षत्रों का योग ऐसा था कि ससुराल वाले लड़की की विदाई कराने के लिये किसी तरह तैयार नहीं हुये। अधिक छुट्टी नहीं थी इसलिये गौने की बात ' फिर' पर ही टल गई थी। एक तरह से अच्छा ही हुआ। हेमराज ने कन्हैया को लिखा-पढ़ा दिया कि पहले तुम ऐसा मत करना कि वह समझे कि तुम उसके बिना रह नहीं सकते, या बहुत खुशामद करने लगो।...अपनी मर्जी रखना, समझे। औरत और बिल्ली की जात एक। पहले दिन के व्यवहार का असर उस पर सदा रहता है। तभी तो कहते हैं कि ' गुर्बारा वररोजे अव्वल कुश्तन'- बिल्ली के आते ही पहले दिन हाथ लगा दे तो फिर रास्ता नहीं पकड़ती। ...तुम कहते हो, पढ़ी-लिखी है, तो तुम्हें और भी चौकस रहना चाहिये। पढ़ी-लिखी यों भी मिजाज दिखाती है।

निःश्वार्थ-भाव से हेमराज की दी हुई सीख कन्हैया ने पल्ले बाँध ली थी। सोचा- मुझे बाजार-होटल में खाना पड़े या खुद चौका-बर्तन करना पड़े, तो शादी का लाभ क्या? इसलिए वह लाजो को दिल्ली ले आया था। दिल्ली में सबसे बड़ी दिक्कत मकान की होती है। रेलवे में काम करने वाले, कन्हैया के जिले के बाबू ने उसे अपने क्वार्टर का एक कमरा और रसोई की जगह सस्ते किराये पर दे दी थी। सो सवा साल से मजे में चल रहा था।

लाजवन्ती अलीगढ़ में आठवीं जमात तक पढी थी। बहुत-सी चीजों के शौक थे। कई ऐसी चीजों के भी जिन्हें दूसरे घरों की लड़कियों को या नयी ब्याही बहुओं को करते देख मन मारकर रह जाना पड़ता था। उसके पिता और बड़े भाई पुराने ख्याल के थे। सोचती थी, ब्याह के बाद सही। उन चीजों के लिये कन्हैया से कहती। लाजो के कहने का ढंग कुछ ऐसा था कि कन्हैया का दिल इनकार करने को न करता, पर इस ख्याल से कि वह बहुत सरकश न हो जाये, दो बात मानकर तीसरी पर इनकार भी कर देता। लाजो मुँह फुला लेती। लाजो मुँह फुलाती तो सोचती कि मनायेंगे तो मान जाऊँगी, आखिर तो मनायेंगे ही। पर कन्हैया मनाने की अपेक्षा डाँट ही देता। एक-आध बार उसने थप्पड़ भी चला दिया। मनौती की प्रतीक्षा में जब थप्पड़ पड़ जाता तो दिल कटकर रह जाता और लाजो अकेले में फूट-फूटकर रोती। फिर उसने सोच लिया- ' चलो, किस्मत में यही है तो क्या हो सकता है?' वह हार मानकर खुद ही बोल पड़ती।

कन्हैया का हाथ पहली दो बार तो क्रोध की बेबसी में ही चला था, जब चल गया तो उसे अपने अधिकार और शक्ति का अनुभव होने लगा। अपनी शक्ति अनुभव करने के नशे से बड़ा नशा दूसरा कौन होगा ? इस नशे में राजा देश-पर-देश समेटते जाते थे, जमींदार गाँव-पर-गाँव और सेठ मिल और बैंक खरीदते चले जाते हैं। इस नशे की सीमा नहीं। यह चस्का पड़ा तो कन्हैया के हाथ उतना क्रोध आने की प्रतीक्षा किये बिना भी चल जाते।

मार से लाजो को शारीरिक पीड़ा तो होती ही थी, पर उससे अधिक होती थी अपमान की पीड़ा। ऐसा होने पर वह कई दिनों के लिये उदास हो जाती। घर का सब काम करती। बुलाने पर उत्तर भी दे देती। इच्छा न होने पर भी कन्हैया की इच्छा का विरोध न करती, पर मन-ही-मन सोचती रहती, इससे तो अच्छा है मर जाऊँ। और फिर समय पीड़ा को कम कर देता। जीवन था तो हँसने और खुश होने की इच्छा भी फूट ही पड़ती और लाजो हँसने लगती। सोच यह लिया था, ' मेरा पति है, जैसा भी है मेरे लिये तो यही सब कुछ है। जैसे यह चाहता है, वैसे ही मैं चलूँ।' लाजो के सब तरह अधीन हो जाने पर भी कन्हैया की तेजी बढ़ती ही जा रही थी। वह जितनी अधिक बेपरवाही और स्वच्छन्दता लाजो के प्रति दिखा सकता, अपने मन में उसे उतना ही अधिक अपनी समझने और प्यार का संतोष पाता।

क्वार के अन्त में पड़ोस की स्त्रियाँ करवा चौथ के व्रत की बात करने लगीं। एक-दूसरे को बता रही थीं कि उनके मायके से करवे में क्या आया। पहले बरस लाजो का भाई आकर करवा दे गया था। इस बरस भी वह प्रतीक्षा में थी। जिनके मायके शहर से दूर थे, उनके यहाँ मायके से रुपये आ गए थे। कन्हैया अपनी चिठ्ठी-पत्री दफ्तर के पते से ही मँगाता था। दफ्तर से आकर उसने बताया, ' तुम्हारे भाई ने करवे के दो रुपये भेजे हैं।'

करवे के रुपये आ जाने से ही लाजो को संतोष हो गया। सोचा, भैया इतनी दूर कैसे आते? कन्हैया दफ्तर जा रहा था तो उसने अभिमान से गर्दन कन्धे पर टेढ़ी कर और लाड़ के स्वर में याद दिलाया- ' हमारे लिए सरघी में क्या-क्या लाओगे...?'

और लाजो ने ऐसे अवसर पर लाई जाने वाली चीजें याद दिला दीं। लाजो पड़ोस में कह आई कि उसने भी सरघी का सामान मँगाया है। करवा चौथ का व्रत भला कौन हिन्दू स्त्री नहीं करती? जनम-जनम यही पति मिले, इसलिए दूसरे व्रतों की परवाह न करने वाली पढ़ी-लिखी स्त्रियां भी इस व्रत की उपेक्षा नहीं कर सकतीं।

अवसर की बात, उस दिन कन्हैया लंच की छुट्टी में साथियों के साथ कुछ ऐसे काबू में आ गया कि सवा तीन रुपये खर्च हो गये। वह लाजो का बताया सरघी का सामान घर नहीं ला सका। कन्हैया खाली हाथ घर लौटा तो लाजो का मन बुझ गया। उसने गम खाना सीखकर रूठना छोड़ दिया था, परन्तु उस साँझ मुँह लटक ही गया। आँसू पोंछ लिए और बिना बोले चौके-बर्तन के काम में लग गयी। रात के भोजन के समय कन्हैया ने देखा कि लाजो मुँह सुजाये है, बोल नहीं रही है, तो अपनी भूल कबूल कर उसे मनाने या कोई और प्रबंध करने का आश्वासन देने के बजाय उसने उसे डाँट दिया।

लाजो का मन और भी बिंध गया। कुछ ऐसा खयाल आने लगा-इन्ही के लिए तो व्रत कर रही हूँ और यही ऐसी रुखाई दिखा रहे हैं। ... मैं व्रत कर रही हूँ कि अगले जनम में भी 'इन' से ही ब्याह हो और मैं सुहा ही नहीं रही हूँ...। अपनी उपेक्षा और निरादर से भी रोना आ गया। कुछ खाते न बना। ऐसे ही सो गयी।

तड़के पड़ोस में रोज की अपेक्षा जल्दी ही बर्तन भांडे खटकने की आवाज आने लगी। लाजो को याद आने लगा-शान्ति बता रही थी कि उसके बाबू सरघी के लिये फेनियाँ लाये हैं, तार वाले बाबू की घरवाली ने बताया था कि खोए की मिठाई लाये हैं। लाजो ने सोचा, उन मर्दों को खयाल है न कि हमारी बहू हमारे लिये व्रत कर रही है; इन्हें जरा भी खयाल नहीं।

लाजो का मन इतना खिन्न हो गया कि सरघी में उसने कुछ भी न खाया। न खाने पर भी पति के नाम का व्रत कैसे न रखती। सुबह-सुबह पड़ोस की स्त्रियों के साथ उसने भी करवे का व्रत करने वाली रानी और करवे का व्रत करने वाली राजा की प्रेयसी दासी की कथा सुनने और व्रत के दूसरे उपचार निबाहे। खाना बनाकर कन्हैयालाल को दफ्तर जाने के समय खिला दिया। कन्हैया ने दफ्तर जाते समय देखा कि लाजो मुँह सुजाए है। उसने फिर डांटा- ' मालूम होता है कि दो-चार खाये बिना तुम सीधी नहीं होगी।'

लाजो को और भी रुलाई आ गयी। कन्हैया दफ्तर चला गया तो वह अकेली बैठी कुछ देर रोती रही। क्या जुल्म है। इन्ही के लिये व्रत कर रही हूँ और इन्हें गुस्सा ही आ रहा है। ...जनम-जनम ये ही मिलें इसीलिये मैं भूखी मर रही हूँ। ...बड़ा सुख मिल रहा है न!...अगले जनम में और बड़ा सुख देंगे!...ये ही जनम निबाहना मुश्किल हे रहा है। ...इस जनम में तो इस मुसीबत से मर जाना अच्छा लगता है, दूसरे जनम के लिये वही मुसीबत पक्की कर रही हूँ...।

लाजो पिछली रात भूखी थी, बल्कि पिछली दोपहर के पहले का ही खाया हुआ था। भूख के मारे कुड़मुड़ा रही थी और उसपर पति का निर्दयी व्यवहार। जनम-जनम, कितने जनम तक उसे ऐसा ही व्यवहार सहना पड़ेगा! सोचकर लाजो का मन डूबने लगा। सिर में दर्द होने लगा तो वह धोती के आँचल सिर बाँधकर खाट पर लेटने लगी तो झिझक गई-करवे के दिन बान पर नहीं लेटा या बैठा जाता। वह दीवार के साथ फर्श पर ही लेट रही।

लाजो को पड़ोसिनों की पुकार सुनाई दी। वे उसे बुलाने आई थीं। करवा-चौथ का व्रत होने के कारण सभी स्त्रियाँ उपवास करके भी प्रसन्न थीं। आज करवे के कारण नित्य की तरह दोपहर के समय सीने-पिरोने, काढ़ने-बुनने का काम किया नहीं जा सकता था; करवे के दिन सुई, सलाई, और चरखा छुआ नहीं जाता। काज से छुट्टी थी और विनोद के लिए ताश या जुए की बैठक जमाने का उपक्रम हो रहा था। वे लाजो को भी उसी के लिये बुलाने आयी थीं। सिर-दर्द और मन के दुःख के करण लाजो जा नहीं सकी। सिर-दर्द और बदन टूटने की बात कहकर वह टाल गयी और फिर सोचने लगी-ये सब तो सुबह सरघी खाये हुये हैं। जान तो मेरी ही निकव रही है।...फिर अपने दुःखी जीवन के कारण मर जाने का खयाल आयाऔर कल्पना करने लगी कि करवा-चौथ के दिन उपवास किये-किये मर जाये, तो इस पुण्य से जरूर ही यही पति अगले जन्म में मिले...।

लाजो की कल्पना बावली हो उठी। वह सोचने लगी-मैं मर जाऊँ तो इनका क्या है, और ब्याह कर लेंगे। जो आएगी वह भी करवाचौथ का व्रत करेगी। अगले जनम में दोनों का इन्हीं से ब्याह होगा, हम सौतें बनेंगी। सौत का खयाल उसे और भी बुरा लगा। फिर अपने-आप समाधान हो गया-नहीं, पहले मुझसे ब्याह होगा, मैं मर जाऊँगी तो दूसरी से होगा। अपने उपवास के इतने भयंकर परिणाम की चिंता से मन अधीर हो उठा। भूख अलग व्याकुल किये थी। उसने सोचा-क्यों मैं अपना अगला जनम भी बरबाद करूँ? भूख के कारण शरीर निढाल होने पर भी खाने को मन नहीं हो रहा था, परन्तु उपवास के परिणाम की कल्पना से मन मन क्रोध से जल उठा; वह उठ खड़ी हुई।

कन्हैयालाल के लिये उसने सुबह जो खाना बनाया था उसमें से बची दो रोटियाँ कटोरदान में पड़ी थीं। लाजो उठी और उपवास के फल से बचने के लिये उसने मन को वश में कर एक रोटी रूखी ही खा ली और एक गिलास पानी पीकर फिर लेट गई। मन बहुत खिन्न था। कभी सोचती-ठीक ही तो किया, अपना अगला जनम क्यों बरबाद करूँ? ऐसे पड़े-पड़े झपकी आ गई।

कमरे के किवाड़ पर धम-धम सुनकर लाजो ने देखा, रोशनदान से प्रकाश की जगह अन्धकार भीतर आ रहा था। समझ गई, दफ्तर से लौटे हैं। उसने किवाड़ खोले और चुपचाप एक ओर हट गई।

कन्हैयालाल ने क्रोध से उसकी तरफ देखा-' अभी तक पारा नहीं उतरा! मालूम होता है झाड़े बिना नहीं उतरेगा !'

लाजो के दुखे हुये दिल पर और चोट पड़ी और पीड़ा क्रोध में बदल गई। कुछ उत्तर न दे वह घूमकर फिर दीवार के सहारे फर्श पर बैठ गई।

कन्हैयालाल का गुस्सा भी उबल पड़ा- ' यह अकड़ है! ...आज तुझे ठीक कर ही दूँ।' उसने कहा और लाजो को बाँह से पकड़, खींचकर गिराते हुये दो थप्पड़ पूरे हाथ के जोर से ताबड़तोड़ जड़ दिये और हाँफते हुये लात उटाकर कहा, ' और मिजाज दिखा?... खड़ी हो सीधी।'

लाजो का क्रोध भी सीमा पार कर चुका था। खींची जाने पर भी फर्श से उठी नहीं। और मार खाने के लिये तैयार हो उसने चिल्लाकर कहा,' मार ले, मार ले! जान से मार डाल! पीछा छूटे! आज ही तो मारेगा! मैने कौन व्रत रखा है तेरे लिये जो जनम-जनम मार खाऊंगी। मार, मार डाल...!'

कन्हैयालाल का लात मारने के लिये उठा पाँव अधर में ही रुक गया। लाजो का हाथ उसके हाथ से छूट गया। वह स्तब्ध रह गया। मुँह में आई गाली भी मुँह में ही रह गई। ऐसे जान पड़ा कि अँधेरे में कुत्ते के धोखे जिस जानवर को मार बैठा था उसकी गुर्राहट से जाना कि वह शेर था; या लाजो को डाँट और मार सकने का अधिकार एक भ्रम ही था। कुछ क्षण वह हाँफता हुआ खड़ा सोचता रहा और फिर खाट पर बैठकर चिन्ता में डूब गया। लाजो फर्श पर पड़ी रो रही थी। उस ओर देखने का साहस कन्हैयालाल को न हो रहा था। वह उठा और बाहर चला गया।

लाजो पर्श पर पड़ी फूट-फूटकर रोती रही। जब घंटे-भर रो चुकी तो उठी। चूल्हा जलाकर कम-से-कम कन्हैया के लिए खाना तो बनाना ही था। बड़े बेमन उसने खाना बनाया। बना चुकी तब भी कन्हैयालाल लौटा नहीं था। लाजो ने खाना ढँक दिया और कमरे के किवाड़ उड़काकर फिर फर्श पर लेट गई। यही सोच रही थी, क्या मुसीबत है जिन्दगी। यही झेलना था तो पैदा ही क्यों हुई थी?...मैने क्या किया था जो मारने लगे।

किवाड़ों के खुलने का शब्द सुनाई दिया। वह उठने के लिये आँसुओं से भीगे चेहरे को आँचल से पोंछने लगी। कन्हैयालाल ने आते ही एक नजर उसकी ओर डाली। उसे पुकारे बिना ही वह दीवार के साथ बिछी चटाई पर चुपचाप बैट गया।

कन्हैयालाल का ऐसे चुप बैठ जाना नई बात थी, पर लाजो गुस्से में कुछ न बोल रसोई में चली गई। आसन डाल थाली-कटोरी रख खाना परोस दिया और लोटे में पानी लेकर हाथ धुलाने के लिए खड़ी थी। जब पाँच मिनट हो गये और कन्हैयालाल नहीं आया तो उसे पुकारना ही पड़ा, ' खाना परस दिया है।'

कन्हैयालाल आया तो हाथ नल से धोकर झाड़ते हुये भीतर आया। अबतक हाथ धुलाने के लिए लाजो ही उठकर पानी देती थी। कन्हैयालाल दो ही रोटी खाकर उठ गया। लाजो और देने लगी तो उसने कह दिया ' और नहीं चाहिये।' कन्हैयालाल खाकर उठा तो रोज की तरह हाथ धुलाने के लिये न कहकर नल की ओर चला गया।

लाजो मन मारकर स्वयं खाने बैठी तो देखा कि कद्दू की तरकारी बिलकुल कड़वी हो रही थी। मन की अवस्था ठीक न होने से हल्दी-नमक दो बार पड़ गया था। बड़ी लज्जा अनुभव हुई, ' हाय, इन्होंने कुछ कहा भी नहीं। यह तो जरा कम-ज्यादा हो जाने पर डाँट देते थे।'

लाजो से दुःख में खाया नहीं गया। यों ही कुल्ला कर, हाथ धोकर इधर आई कि बिस्तर ठीक कर दे, चौका फिर समेट देगी। देखा तो कन्हैयालाल स्वयं ही बिस्तर झाड़कर बिछा रहा था। लाजो जिस दिन से इस घर में आई थी ऐसा कभी नहीं हुआ था।

लाजो ने शरमाकर कहा, ' मैं आ गई, रहने दो। किये देती हूँ।' और पति के हाथ से दरी चादर पकड़ ली। लाजो बिस्तर ठीक करने लगी तो कन्हैयालाल दूसरी ओर से मदद करता रहा। फिर लाजो को सम्बोधित किया, ' तुमने कुछ खाया नहीं। कद्दू में नमक ज्यादा हो गया है। सुबह और पिछली रात भी तुमने कुछ नहीं खाया था। ठहरो, मैं तुम्हारे लिये दूध ले आता हूँ।'

लाजो के प्रति इतनी चिन्ता कन्हैयालाल ने कभी नहीं दिखाई थी। जरूरत भी नहीं समझी थी। लाजो को उसने 'चीज' समझा था। आज वह ऐसे बात कर रहा था जैसे लाजो भी इन्सान हो; उसका भी खयाल किया जाना चाहिये। लाजो को शर्म तो आ ही रही थी पर अच्छा भी लग रहा था। उसी रात से कन्हैयालाल के व्यवहार में एक नरमी-सी आ गई। कड़े बोल की तो बात क्या, बल्कि एक झिझक-सी हर बात में; जैसे लाजो के किसी बात के बुरा मान जाने की या नाराज हो जाने की आशंका हो। कोई काम अधूरा देखता तो स्वयं करने लगता। लाजो को मलेरिया बुखार आ गया तो उसने उसे चौके के समीप नहीं जाने दिया। बर्तन भी खुद साफ कर लिये। कई दिन तो लाजो को बड़ी उलझन और शर्म महसूस हुई, पर फिर पति पर और अधिक प्यार आने लगा। जहाँ तक बन पड़ता घर का काम उसे नहीं करने देती, 'यह काम करते मर्द अच्छे नहीं लगते...।'

उन लोगों का जीवन कुछ दूसरी ही तरह का हो गया। लाजो खाने के लिये पुकारती तो कन्हैया जिद करता, ' तुम सब बना लो, फिर एक साथ बैठकर खायेंगे।' कन्हैया पहले कोई पत्रिका या पुष्तक लाता था तो अकेला मन-ही-मन पढ़ा करता था। अब लाजो को सुनाकर पढ़ता या खुद सुन लेता। यह भी पूछ लेता, ' तुम्हे नींद तो नहीं आ रही ? '

साल बीतते मालूम न हुआ। फिर करवाचौथ का व्रत आ गया। जाने क्यों लाजो के भाई का मनीआर्डर करवे के लिये न पहुँचा था। करवाचौथ के पहले दिन कन्हैयालाल दफ्तर जा रहा था। लाजो ने खिन्नता और लज्जा से कहा, ' भैया करवा भेजना शायद भूल गये।'

कन्हैयालाल ने सांत्वना के स्वर में कहा,' तो क्या हुआ? उन्होंने जरूर भेजा होगा। डाकखाने वालों का हाल आजकल बुरा है। शायद आज आ जाये या और दो दिन बाद आये। डाकखाने वाले आजकल मनीआर्डर के पन्द्रह-पन्द्रह दिन लगा देते हैं। तुम व्रत-उपवास के झगड़े में मत पड़ना। तबियत खराब हो जाती है। यों कुछ मंगाना ही है तो बता दो, लेते आयेंगे, पर व्रत-उपवास से होता क्या है ? ' सब ढकोसले हैं।'

'वाह, यह कैसे हो सकता है! हम तो जरूर रखेंगे व्रत। भैया ने करवा नहीं भेजा न सही। बात तो व्रत की है, करवे की थोड़े ही।' लाजो ने बेपरवाही से कहा।

सन्ध्या-समय कन्हैयालाल आया तो रूमाल में बँधी छोटी गाँठ लाजो को थमाकर बोला, ' लो, फेनी तो मैं ले आया हूँ, पर ब्रत-व्रत के झगड़े में नहीं पड़ना।' लाजो ने मुस्कुराकर रूमाल लेकर आलमारी में रख दिया।

अगले दिन लाजो ने समय पर खाना तैयार कर कन्हैया को रसोई से पुकारा, ' आओ, खाना परस दिया है।' कन्हैया ने जाकर देखा, खाना एक ही आदमी के लिये परोसा था- ' और तुम?' उसने लाजो की ओर देखा।

' वाह, मेरा तो व्रत है! सुबह सरघी भी खा ली। तुम अभी सो ही रहे थे।' लाजो ने मुस्कराकर प्यार से बताया।

' यह बात...! तो हमारा भी ब्रत रहा।' आसन से उठते हुये कन्हैयालाल ने कहा।

लाजो ने पति का हाथ पकड़कर रोकते हुये समझाया, ' क्या पागल हो, कहीं मर्द भी करवाचौथ का व्रत रखते हैं!...तुमने सरघी कहाँ खाई?'

'नहीं, नहीं, यह कैसे हो सकता है ।' कन्हैया नहीं माना,' तुम्हें अगले जनम में मेरी जरूरत है तो क्या मुझे तुम्हारी नहीं है? या तुम भी व्रत न रखो आज!'

लाजो पति की ओर कातर आँखों से देखती हार मान गई। पति के उपासे दफ्तर जाने पर उसका हृदय गर्व से फूला नहीं समा रहा था।

मीरा के पद


दरद न जाण्यां कोय

हेरी म्हां दरदे दिवाणी म्हारां दरद न जाण्यां कोय।
घायल री गत घाइल जाण्यां, हिवडो अगण संजोय।
जौहर की गत जौहरी जाणै, क्या जाण्यां जिण खोय।
दरद की मार्यां दर दर डोल्यां बैद मिल्या नहिं कोय।
मीरा री प्रभु पीर मिटांगां जब बैद सांवरो होय॥

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अब तो हरि नाम लौ लागी

सब जग को यह माखनचोर, नाम धर्यो बैरागी।
कहं छोडी वह मोहन मुरली, कहं छोडि सब गोपी।
मूंड मुंडाई डोरी कहं बांधी, माथे मोहन टोपी।
मातु जसुमति माखन कारन, बांध्यो जाको पांव।
स्याम किशोर भये नव गोरा, चैतन्य तांको नांव।
पीताम्बर को भाव दिखावै, कटि कोपीन कसै।
दास भक्त की दासी मीरा, रसना कृष्ण रटे॥

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राम रतन धन पायो

पायो जी म्हे तो रामरतन धन पायो।
बस्तु अमोलक दी म्हारे सतगुरु, किरपा को अपणायो।
जनम जनम की पूँजी पाई, जग में सभी खोवायो।
खरचै नहिं कोई चोर न लेवै, दिन-दिन बढत सवायो।
सत की नाव खेवहिया सतगुरु, भवसागर तर आयो।
मीरा के प्रभु गिरधरनागर, हरख-हरख जस पायो॥

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हरि बिन कछू न सुहावै

परम सनेही राम की नीति ओलूंरी आवै।
राम म्हारे हम हैं राम के, हरि बिन कछू न सुहावै।
आवण कह गए अजहुं न आये, जिवडा अति उकलावै।
तुम दरसण की आस रमैया, कब हरि दरस दिलावै।
चरण कंवल की लगनि लगी नित, बिन दरसण दुख पावै।
मीरा कूं प्रभु दरसण दीज्यौ, आंणद बरण्यूं न जावै॥

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झूठी जगमग जोति

आवो सहेल्या रली करां हे, पर घर गावण निवारि।
झूठा माणिक मोतिया री, झूठी जगमग जोति।
झूठा सब आभूषण री, सांचि पियाजी री पोति।
झूठा पाट पटंबरारे, झूठा दिखणी चीर।
सांची पियाजी री गूदडी, जामे निरमल रहे सरीर।
छप्प भोग बुहाई दे है, इन भोगिन में दाग।
लूण अलूणो ही भलो है, अपणो पियाजी को साग।
देखि बिराणै निवांण कूं हे, क्यूं उपजावै खीज।
कालर अपणो ही भलो है, जामें निपजै चीज।
छैल बिराणे लाख को हे अपणे काज न होइ।
ताके संग सीधारतां हे, भला न कहसी कोइ।
वर हीणों आपणों भलो हे, कोढी कुष्टि कोइ।
जाके संग सीधारतां है, भला कहै सब लोइ।
अबिनासी सूं बालवां हे, जिपसूं सांची प्रीत।
मीरा कूं प्रभु मिल्या हे, ऐहि भगति की रीत॥

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अब तो मेरा राम

अब तो मेरा राम नाम दूसरा न कोई॥
माता छोडी पिता छोडे छोडे सगा भाई।
साधु संग बैठ बैठ लोक लाज खोई॥
सतं देख दौड आई, जगत देख रोई।
प्रेम आंसु डार डार, अमर बेल बोई॥
मारग में तारग मिले, संत राम दोई।
संत सदा शीश राखूं, राम हृदय होई॥
अंत में से तंत काढयो, पीछे रही सोई।
राणे भेज्या विष का प्याला, पीवत मस्त होई॥
अब तो बात फैल गई, जानै सब कोई।
दास मीरा लाल गिरधर, होनी हो सो होई॥

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म्हारे तो गिरधर गोपाल

म्हारे तो गिरधर गोपाल दूसरो न कोई॥
जाके सिर मोर मुगट मेरो पति सोई।
तात मात भ्रात बंधु आपनो न कोई॥
छाँडि दई कुद्दकि कानि कहा करिहै कोई॥
संतन ढिग बैठि बैठि लोकलाज खोई॥
चुनरीके किये टूक ओढ लीन्हीं लोई।
मोती मूँगे उतार बनमाला पोई॥
अंसुवन जू सींचि सींचि प्रेम बेलि बोई।
अब तो बेल फैल गई आणँद फल होई॥
भगति देखि राजी हुई जगत देखि रोई।
दासी मीरा लाल गिरधर तारो अब मोही॥

रहीम के दोहे


एकै साधे सब सधै, सब साधे सब जाय।
रहिमन मूलहिं सींचिबो, फूलै फलै अगाय॥

देनहार कोउ और है, भेजत सो दिन रैन।
लोग भरम हम पै धरैं, याते नीचे नैन॥

अब रहीम मुसकिल परी, गाढ़े दोऊ काम।
सांचे से तो जग नहीं, झूठे मिलैं न राम॥

गरज आपनी आप सों रहिमन कहीं न जाया।
जैसे कुल की कुल वधू पर घर जात लजाया॥

छमा बड़न को चाहिये, छोटन को उत्पात।
कह ‘रहीम’ हरि का घट्यौ, जो भृगु मारी लात॥

तरुवर फल नहिं खात है, सरवर पियहि न पान।
कहि रहीम पर काज हित, संपति सँचहि सुजान॥

खीरा को मुंह काटि के, मलियत लोन लगाय।
रहिमन करुए मुखन को, चहियत इहै सजाय॥

जो रहीम उत्तम प्रकृति, का करि सकत कुसंग।
चन्दन विष व्यापत नहीं, लपटे रहत भुजंग॥

जे गरीब सों हित करै, धनि रहीम वे लोग।
कहा सुदामा बापुरो, कृष्ण मिताई जोग॥

जो बड़ेन को लघु कहे, नहिं रहीम घटि जांहि।
गिरिधर मुरलीधर कहे, कछु दुख मानत नांहि॥

खैर, खून, खाँसी, खुसी, बैर, प्रीति, मदपान।
रहिमन दाबे न दबै, जानत सकल जहान॥

टूटे सुजन मनाइए, जो टूटे सौ बार।
रहिमन फिरि फिरि पोहिए, टूटे मुक्ताहार॥

बिगरी बात बने नहीं, लाख करो किन कोय।
रहिमन बिगरे दूध को, मथे न माखन होय॥

आब गई आदर गया, नैनन गया सनेहि।
ये तीनों तब ही गये, जबहि कहा कछु देहि॥

चाह गई चिंता मिटी, मनुआ बेपरवाह।
जिनको कछु नहि चाहिये, वे साहन के साह॥

रहिमन देख बड़ेन को, लघु न दीजिये डारि।
जहाँ काम आवै सुई, कहा करै तलवारि॥

माली आवत देख के, कलियन करे पुकारि।
फूले फूले चुनि लिये, कालि हमारी बारि॥

रहिमन वे नर मर गये, जे कछु माँगन जाहि।
उनते पहिले वे मुये, जिन मुख निकसत नाहि॥

रहिमन विपदा ही भली, जो थोरे दिन होय।
हित अनहित या जगत में, जानि परत सब कोय॥

बड़ा हुआ तो क्या हुआ, जैसे पेड़ खजूर।
पंथी को छाया नहीं, फल लागे अति दूर॥

रहिमन चुप हो बैठिये, देखि दिनन के फेर।
जब नीके दिन आइहैं, बनत न लगिहैं देर॥

बानी ऐसी बोलिये, मन का आपा खोय।
औरन को सीतल करै, आपहु सीतल होय॥

मन मोती अरु दूध रस, इनकी सहज सुभाय।
फट जाये तो ना मिले, कोटिन करो उपाय॥

वे रहीम नर धन्य हैं, पर उपकारी अंग।
बाँटनवारे को लगै, ज्यौं मेंहदी को रंग॥

रहिमह ओछे नरन सो, बैर भली ना प्रीत।
काटे चाटे स्वान के, दोउ भाँति विपरीत॥

रहिमन धागा प्रेम का, मत तोड़ो चटकाय।
टूटे से फिर ना जुड़े, जुड़े गाँठ परि जाय॥

रहिमन पानी राखिये, बिन पानी सब सून।
पानी गये न ऊबरे, मोती, मानुष, चून॥

कबीर की कुंडलियां

माला फेरत जुग गया फिरा ना मन का फेर
कर का मनका छोड़ दे मन का मन का फेर
मन का मनका फेर ध्रुव ने फेरी माला
धरे चतुरभुज रूप मिला हरि मुरली वाला
कहते दास कबीर माला प्रलाद ने फेरी
धर नरसिंह का रूप बचाया अपना चेरो

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आया है किस काम को किया कौन सा काम
भूल गए भगवान को कमा रहे धनधाम
कमा रहे धनधाम रोज उठ करत लबारी
झूठ कपट कर जोड़ बने तुम माया धारी
कहते दास कबीर साहब की सुरत बिसारी
मालिक के दरबार मिलै तुमको दुख भारी

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चलती चाकी देखि के दिया कबीरा रोय
दो पाटन के बीच में साबित बचा न कोय
साबित बचा न कोय लंका को रावण पीसो
जिसके थे दस शीश पीस डाले भुज बीसो
कहिते दास कबीर बचो न कोई तपधारी
जिन्दा बचे ना कोय पीस डाले संसारी

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कबिरा खड़ा बाजार में सबकी मांगे खैर
ना काहू से दोस्ती ना काहू से बैर
ना काहू से बैर ज्ञान की अलख जगावे
भूला भटका जो होय राह ताही बतलावे
बीच सड़क के मांहि झूठ को फोड़े भंडा
बिन पैसे बिन दाम ज्ञान का मारै डंडा

कबीर की साखियाँ - 2


चाह मिटी, चिंता मिटी मनवा बेपरवाह ।
जिसको कुछ नहीं चाहिए वह शहनशाह॥

माटी कहे कुम्हार से, तु क्या रौंदे मोय ।
एक दिन ऐसा आएगा, मैं रौंदूगी तोय ॥

तिनका कबहुँ ना निंदये, जो पाँव तले होय ।
कबहुँ उड़ आँखो पड़े, पीर घानेरी होय ॥

गुरु गोविंद दोनों खड़े, काके लागूं पाँय ।
बलिहारी गुरु आपनो, गोविंद दियो मिलाय ॥

सुख मे सुमिरन ना किया, दु:ख में करते याद ।
कह कबीर ता दास की, कौन सुने फरियाद ॥

साईं इतना दीजिये, जा मे कुटुम समाय ।
मैं भी भूखा न रहूँ, साधु ना भूखा जाय ॥

धीरे-धीरे रे मना, धीरे सब कुछ होय ।
माली सींचे सौ घड़ा, ॠतु आए फल होय ॥

कबीरा ते नर अँध है, गुरु को कहते और ।
हरि रूठे गुरु ठौर है, गुरु रूठे नहीं ठौर ॥

माया मरी न मन मरा, मर-मर गए शरीर ।
आशा तृष्णा न मरी, कह गए दास कबीर ॥

रात गंवाई सोय के, दिवस गंवाया खाय ।
हीरा जन्म अमोल था, कोड़ी बदले जाय ॥

दुःख में सुमिरन सब करे सुख में करै न कोय।
जो सुख में सुमिरन करे दुःख काहे को होय ॥

बडा हुआ तो क्या हुआ जैसे पेड़ खजूर।
पंथी को छाया नही फल लागे अति दूर ॥

साधु ऐसा चाहिए जैसा सूप सुभाय।
सार-सार को गहि रहै थोथा देई उडाय॥

साँई इतना दीजिए जामें कुटुंब समाय ।
मैं भी भूखा ना रहूँ साधु न भुखा जाय॥

जो तोको काँटा बुवै ताहि बोव तू फूल।
तोहि फूल को फूल है वाको है तिरसुल॥

उठा बगुला प्रेम का तिनका चढ़ा अकास।
तिनका तिनके से मिला तिन का तिन के पास॥

सात समंदर की मसि करौं लेखनि सब बनराइ।
धरती सब कागद करौं हरि गुण लिखा न जाइ॥

साधू गाँठ न बाँधई उदर समाता लेय।
आगे पाछे हरी खड़े जब माँगे तब देय॥

कबीर की साखियाँ


कस्तुरी कुँडली बसै, मृग ढ़ुढ़े बब माहिँ.
ऎसे घटि घटि राम हैं, दुनिया देखे नाहिँ..

प्रेम ना बाड़ी उपजे, प्रेम ना हाट बिकाय.
राजा प्रजा जेहि रुचे, सीस देई लै जाय ..

माला फेरत जुग गाया, मिटा ना मन का फेर.
कर का मन का छाड़ि, के मन का मनका फेर..

माया मुई न मन मुआ, मरि मरि गया शरीर.
आशा तृष्णा ना मुई, यों कह गये कबीर ..

झूठे सुख को सुख कहे, मानत है मन मोद.
खलक चबेना काल का, कुछ मुख में कुछ गोद..

वृक्ष कबहुँ नहि फल भखे, नदी न संचै नीर.
परमारथ के कारण, साधु धरा शरीर..

साधु बड़े परमारथी, धन जो बरसै आय.
तपन बुझावे और की, अपनो पारस लाय..

सोना सज्जन साधु जन, टुटी जुड़ै सौ बार.
दुर्जन कुंभ कुम्हार के, एके धकै दरार..

जिहिं धरि साध न पूजिए, हरि की सेवा नाहिं.
ते घर मरघट सारखे, भूत बसै तिन माहिं..

मूरख संग ना कीजिए, लोहा जल ना तिराइ.
कदली, सीप, भुजंग-मुख, एक बूंद तिहँ भाइ..

तिनका कबहुँ ना निन्दिए, जो पायन तले होय.
कबहुँ उड़न आखन परै, पीर घनेरी होय..

बोली एक अमोल है, जो कोइ बोलै जानि.
हिये तराजू तौल के, तब मुख बाहर आनि..

ऐसी बानी बोलिए,मन का आपा खोय.
औरन को शीतल करे, आपहुँ शीतल होय..

लघता ते प्रभुता मिले, प्रभुत ते प्रभु दूरी.
चिट्टी लै सक्कर चली, हाथी के सिर धूरी..

निन्दक नियरे राखिये, आँगन कुटी छवाय.
बिन साबुन पानी बिना, निर्मल करे सुभाय..

मानसरोवर सुभर जल, हंसा केलि कराहिं.
मुकताहल मुकता चुगै, अब उड़ि अनत ना जाहिं..

मैं रोया परदेस में भीगा माँ का प्यार - निदा फ़ाज़ली

मैं रोया परदेस में भीगा माँ का प्यार
दुख ने दुख से बात की बिन चिठ्ठी बिन तार
छोटा करके देखिये जीवन का विस्तार
आँखों भर आकाश है बाहों भर संसार


लेके तन के नाप को घूमे बस्ती गाँव
हर चादर के घेर से बाहर निकले पाँव
सबकी पूजा एक सी अलग-अलग हर रीत
मस्जिद जाये मौलवी कोयल गाये गीत
पूजा घर में मूर्ती मीर के संग श्याम
जिसकी जितनी चाकरी उतने उसके दाम


सातों दिन भगवान के क्या मंगल क्या पीर
जिस दिन सोए देर तक भूखा रहे फ़कीर
अच्छी संगत बैठकर संगी बदले रूप
जैसे मिलकर आम से मीठी हो गई धूप


सपना झरना नींद का जागी आँखें प्यास
पाना खोना खोजना साँसों का इतिहास
चाहे गीता बाचिये या पढ़िये क़ुरान
मेरा तेरा प्यार ही हर पुस्तक का ज्ञान

कहीं छत थी दीवार-ओ-दर थे कहीं - निदा फ़ाज़ली

कहीं छत थी दीवार-ओ-दर थे कहीं
मिला मुझको घर का पता देर से
दिया तो बहुत ज़िन्दगी ने मुझे
मगर जो दिया वो दिया देर से


हुआ न कोई काम मामूल से
गुज़ारे शब-ओ-रोज़ कुछ इस तरह
कभी चाँद चमका ग़लत वक़्त पर
कभी घर में सूरज उगा देर से


कभी रुक गये राह में बेसबब
कभी वक़्त से पहले घिर आई शब
हुये बंद दरवाज़े खुल खुल के सब
जहाँ भी गया मैं गया देर से


ये सब इत्तिफ़ाक़ात का खेल है
यही है जुदाई यही मेल है
मैं मुड़ मुड़ के देखा किया दूर तक
बनी वो ख़ामोशी सदा देर से


सजा दिन भी रौशन हुई रात भी
भरे जाम लहराई बरसात भी
रहे साथ कुछ ऐसे हालात भी
जो होना था जल्दी हुआ देर से


भटकती रही यूँ ही हर बंदगी
मिली न कहीं से कोई रौशनी
छुपा था कहीं भीड़ में आदमी
हुआ मुझ में रौशन ख़ुदा देर से

कभी कभी यूँ भी हमने अपने जी को बहलाया है - निदा फ़ाज़ली

कभी कभी यूँ भी हमने अपने जी को बहलाया है
जिन बातों को ख़ुद नहीं समझे औरों को समझाया है


हमसे पूछो इज़्ज़त वालों की इज़्ज़त का हाल कभी
हमने भी इस शहर में रह कर थोड़ा नाम कमाया है


उससे बिछड़े बरसों बीते लेकिन आज न जाने क्यों
आँगन में हँसते बच्चों को बे-कारण धमकाया है


कोई मिला तो हाथ मिलाया कहीं गए तो बातें की
घर से बाहर जब भी निकले दिन भर बोझ उठाया है

16 अप्रैल, 2010

लाज - कहानी

अरे बेटा.. दूर की चाची गोविन्द से कह रही थी- तुम्हें तो बहू ने फांस ही लिया। तुमने अपनी पढाई में लाखों रुपये खर्च किये और बहू ने तुम्हें दिया ही क्या? यही एक अलमारी, टीवी और बेड। भला ये भी कोई दहेज होता है शादी में।

वो तो ठीक है चाची। गोविन्द ने एक बार चाची की तरफ देखा और पास बैठी अपनी पत्नी के सिर पर हाथ रखते हुए कहा- लेकिन यदि मैं दहेज के पीछे भागता तो आज इतनी प्यारी पत्नी पाने से वंचित रह जाता। फिर मेरे लिए मेरी पत्नी ही लाखों में और लाखों की दहेज है। और पैसा क्या है? पैसा तो मैं कमा ही रहा हूं। सारी बातें सुन रही नई बहू राधिका को अपने पति पर गर्व हुआ। उसे लग रहा था कि आज पति ने उसकी लाज रख ली है।

[खेमकरण सोमन]

थोडा हंस लो

आपके लिए पेश है कुछ और चुटकुले:

3 दोस्त बाइक पर जा रहे थे..

ट्रैफिक वाला रोक कर बोला- तुम्हें मालूम नही ट्रिपलिंग अपराध है...

एक दोस्त- हमें मालूम है इसलिए तो एक को घर छोड़ने जा रहे हैं।


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आज मैंने एक जान बचायी, पूछो कैसे?

एक भिखारी से मैंने पूछा 1000 का नोट दूं तो क्या करेगा?

वो बोला खुशी से मर जाऊंगा!

तो मैंने उसे पैसे नही दिये...!

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रमेश- ये केला कैसे दिया है?

केले वाला- एक रुपये का एक

रमेश- 60 पैसे का देगा?

केले वाला- 60 पैसे में तो सिर्फ छिलका मिलेगा।

रमेश- ले 40 पैसे, छिलका रख और केला दे दे...


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1000 पन्नों की किताब कितने दिन में पढ़ी जा सकती है?

लेखक- 6 महीने में

डॉक्टर- 2 महीने में

वकील- 1 महीने में

इंजीनियर- पहले ये बताओं की परीक्षा कब है रातोंरात निपटा देंगे।

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भिखारी- कुछ खाने को दो बाबा..

रामू- टमाटर खाओ।

भिखारी- रोटी दे दो बाबा..

रामू- टमाटर खाओ..

भिखारी- तो टमाटर ही दे दो।

रामू के पड़ोसी ने कहा ये तोतले हैं, कह रहे हैं कमाकर खाओ।

थोडा हंस लो


रमा (राजू से)-तुम हफ्ते में कितनी बार शेव करते हो।

राजू (रमा से)- हफ्ते में नही, दिन में 30-40 बार।

रमा- क्या.. तुम पागल हो?

राजू- नही, मैं नाई हूं।


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बॉस ने एक मेहनती कर्मचारी को बुलाकर कहा- ये लो 5000 रुपये का चेक, अगर इसी तरह मेहनत से काम करते रहोगे तो साइन भी कर दूंगा।


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एक भारतीय युवक ने चाइनीज लड़की से शादी की।

एक साल बाद ही वो मर गयी .

उसे रोता देख उसका दोस्त बोला- यार दुख की बात तो है, पर सोच चाइना का माल और कितना चलेगा।


04 अप्रैल, 2010

बाबूजी का घर

बाबूजी छड़ी को सहारा देते रहे या छड़ी बाबूजी को, यह भी अनसुलझी पहेली बनी रही। बरसों-बरस बाबूजी के सिर का तेल पीकर दीवार पर जो आकृति बनी थी, वह बाबूजी की अनुपस्थिति में भी खौफ और अनुशासन को ज़िंदा रखने की ताकत रखा करती और बाबूजी की छड़ी ? छड़ी की ठक-ठक की आहट मात्र ही घर के हर सदस्य को चौकन्ना कर अपनी-अपनी मर्यादाओं में बांध सकने की शक्ति रखती थी।

लगभग पचास-पचपन साल पहले बना ‘पांडे सदन’ टूट रहा था। फिर बनने के लिए हेमंत की आंखों में मिले-जुले भाव तैर रहे थे। पिता की इस निशानी को खत्म कर फिर संवारने का यह ख्याल उसे अपराधबोध से ग्रसित कर रहा था। एक पल वह स्वयं को समझाइश देता कि उसका फैसला सही है, वह कुछ गलत नहीं कर रहा पर विचारों से मुक्ति कहां..। अगले ही क्षण बाबूजी की ज़िद से जुड़ी वे सारी बातें उसके ज़ेहन में घूम जातीं, जिसके कारण पिछले दस-बारह वर्षो से परिवार के हर सदस्य की इच्छा के बावजूद बड़ी-बड़ी इमारतों के बीच जर्जर-सा हो चला बूढ़ा मकान अपनी जवानी फिर पाने के लिए बेताब रहा।

बूढ़े मकान का नसीब बदले, आखिर बाबूजी को यह गवारा क्यों नहीं था? बाबूजी के पुराने दिन तो नहीं लौट सकते थे पर घर की रौनक तो लौटाई जा सकती थी। इस सच को बाबूजी क्यों नहीं समझ सके? मरते दम तक अपनी पैनी नाक को जिस शख्स ने सम्भाल रखा हो, अपनी हां और अपनी न के आगे जिसने किसी की न चलने दी हो, उसे दुनियादारी की किसी भी नई परिपाटी से जोड़ पाना, हेमंत की सबसे बड़ी शिकस्त रही।

लम्बे-चौड़े, पचासी की उम्र में भी चेहरे पर ग़जब का आकर्षण, चिकनी चमकदार गुलाबी त्वचा के मालिक श्री सर्वेश्वरदयाल पांडे की दौलत और यूं समझिए पूरी दुनिया ही थी ‘पांडे सदन’, जिसके लिए वे ताउम्र बेहद पज़ेसिव रहे। हकीकत भी यही थी कि घर की हर ईंट पर उनकी जी-तोड़ मेहनत और उसकी कमाई का हिसाब लिखा था, पर उनके भीतर यह अहसास इतना गहरा गया था कि उनके अपने ही लोगों को इस अहसास में अभिमान की बू महसूस होने लगी थी।

घर की व्यवस्थाओं में की गई छोटी-सी भी तदीली बाबूजी के बर्दाश्त के बाहर हो जायाकरती। ‘यह घर मेरा है!’ जब वे यदा-कदा इस जुमले का इस्तेमाल करते, तो लगता सचमुच यह घर ईंट-गारे का बना मकान नहीं, बल्कि उनके अतिरिक्त लाड़-प्यार में पल रही उनकी बिगड़ी औलाद है। हुआ भी कुछ ऐसा ही था। इस घर ने शुभ अवसरों की रौनक दिखाई थी, पर गम के साए से यह घर कोसों दूर रहा।

इस घर की यह खुशकिस्मती रही कि बाबूजी की दो बेटियों बड़ी वर्षा, छोटी मेघा और बेटे हेमंत के विवाह के मंगल अवसरों के अलावा बाबूजी के नाती-पोतों की दूसरी पीढ़ी की दुनिया भी इस घर ने खूब संवारी थी। अम्मा की मौत भी एक हादसा थी। अपने मायके उरई के प्रवास के दौरान अचानक अम्मा चल बसीं। मीलों दूर का यह गम ‘पांडे सदन’ तक आंसुओं के सूख जाने के बाद ही पहुंचा। समय के साथ सब कुछ बदला पर यदि नहीं बदला, तो बाबूजी का स्वभाव और घर का हुलिया।

अभी चार साल पहले की ही बात है। हेमंत की बेटी के ब्याह का मौका था। हेमन्त ने घर की रौनक बढ़ाने के लिए क्या-क्या उपाय नहीं सोचे थे पर बाबूजी के अड़ियल रुख के सामने वह ढेर होता चला गया था। बहुत ज्यादा बहस की गुंजाइश तो बाप-बेटे के इस रिश्ते में यूं भी कभी नहीं थी, पर पत्नी और बच्चों के कहने पर हेमंत ने बाबूजी के सामने बड़े संयम के साथ यह प्रस्ताव रखा, ‘बाबूजी! आप यदि आज्ञा दें, तो घर में एक कमरा बनवाया जा सकता है।

ऊपर की दुछतरी पर एक हॉल आराम से निकल आएगा, नीचे के गुसलखाने के ऊपर एक और गुसलखाना बन सकता है, मेहमानों को रुकवाने में सहूलियत हो जाएगी।’ बाबूजी को इस दलील में कोई सार नजर नहीं आया। बड़े ही अनमने और बे-रुखे ढंग से उन्होंने जवाब दिया-‘मेहमान तो चार दिन के लिए ही आएंगे न! उसके लिए ये ताम-झाम क्यों?’ हेमंत ने हिम्मत हारे बगैर एक और तर्क रखा-‘पर बाबूजी, दो-चार साल बाद अर्पित का ब्याह भी तो होगा और उसकी गृहस्थी बसेगी भी और बढ़ेगी भी।’

‘तो उसके लिए सारी जमा-पूंजी खर्च कर दी जाए? लोग दो कमरों के मकान में सारा कुनबा चला लेते हैं, आप लोगों को यह हवेली भी छोटी पड़ रही है।’

हेमंत बखूबी जानता था कि बाबूजी की नाराज़गी के संकेत क्या होते हैं। अक्सर ऐसे मौकों पर तुम की जगह आप के आदर से घोर निरादर का इशारा वे बड़ी आसानी से दे दिया करते हैं। ऐसे मौकों पर हेमंत अपनी शिकस्त हमेशा ही मान लिया करता है पर, आज वह कुछ और भी कह लेना चाहता है कि आखिर उसकी खुद की उम्र भी तो पचास की हो चली है। इस बात का लिहाज़ भी तो होना चाहिए। इसे बाबूजी समझें, हमेशा की तरह उसकी बातों को नज़रअंदाज़ न कर दें।

यह ध्यान में रखते हुए उसने फिर कहा- ‘बाबूजी, घर में दालान ज्यादा हैं, कमरे कम। थोड़े से हेर-फेर से घर का नशा नहीं बदल जाएगा।’ गंभीर स्वर में बाबूजी ने बात-बीच में ही काटी-‘पर मैं नक्शा नहीं बदलना चाहता।’ खीझते हुए हेमंत ने एक आखिरी तर्क दिया-‘बाबूजी, ऑफिस का हर शख्स लोन लेकर मकान बना चुका है। मैं तो एक हॉल बनवाने की बात कर रहा हूं। इन्कम टैक्स में रियायत मिल जाएगी। पचास की उम्र में लोन नहीं लिया, तो फिर कब ले पाऊंगा?’

पर भला बाबूजी इस बात से सहमत कैसे होते? उन्होंने बात खत्म करने के अंदाज़ में टका-सा जवाब दे दिया- ‘लोन लेना क्या फैशन में है? तुम लोन लिए बगैर या नाकाबिल और अधूरे साबित हो जाओगे? मुझे ये सब बातें कतई पसंद नहीं। तुम कुछ खर्च करना ही चाहते हो, तुम्हारी जेब यदि कुलबलाहट ही रही है और तुम्हारी नज़र में पैसों की कीमत नहीं है, तो ज्यादा से ज्यादा घर का रंग-रोगन करवा लो, उसी में घर चमक जाएगा।’ ले-देकर रंग-रोगन के लिए बाबूजी तैयार हुए थे, वह भी इस शर्त पर कि इस मकान में लगने वाले रुपए उनके बैंक अकाउंट से ही निकाले जाएं।

बाबूजी के इस फाइनल वर्डिक्ट को हेमंत समझ चुका था। वह चुपचाप वहां से उठा और चला गया। परदे के पीछे खड़ी पत्नी सुनंदा से नज़रें चार करने की भी हिम्मत उसमें नहीं थी। पहले तो तिलमिलाहट में उसने यह सोचा कि बेहतर यही है कि घर जैसा है, उसे वैसा ही पड़ा रहने दिया जाए पर, अपने बेबस हालात के मद्देनÊार उसने यह तय किया कि इससे पहले कि बाबूजी अपने इस फैसले पर पुनर्विचार करने लगें, बेहतर होगा कि रंग-रोगन का इंतज़ाम कर लिया जाए।

अगले ही दिन से रंग-रोगन का काम बाबूजी के सूक्ष्म निरीक्षण और ढेरों हस्तक्षेपों के बीच जैसे-तैसे शुरू हो पाया। शायद इस घर का यह आखिरी रंग-रोगन था। निकिता का याह हुआ। झिलमिल रोशनी में नहाए हुए अपने घर को निहारते हुए बाबूजी की आंखों में जो चमक थी, वह हेमंत की आंखों में अब तक कैद है। घर को लेकर बाबूजी का अतिरिक्त मोह हेमंत की समझ से परे था। पर ऐसा भी नहीं था कि हेमंत ने इस बारे में कभी निष्पक्ष होकर सोचा न हो।

यह हेमंत की खुशकिस्मती थी कि उसे अपने इस पैतृक निवास में मिली पनाह ने घर बनाने के दर्द से उसे कोसों दूर रखा था। इस छत्रछाया से दूर किसी बसेरे की कल्पना भी उसने कभी नहीं की थी, यही सब सोचकर वह बाबूजी के स्वभाव की इस कमी को नज़रअंदाज़ करता रहा। पर हद तो यह थी कि बाबूजी अपनी दिनचर्या के साथ भी कभी समझौता पसंद नहीं करते। घर की बैठक में टीवी के सामने रखा बड़ा लकड़ी का काउच उनके लिए आरक्षित था। कोच के बगल में रखी टेबल, उस पर न जाने किस Êामाने का बड़ा मरफी रेडियो, कुछ किताबें, कुछ कागज़ात, कुछ गैर जरूरी चीजों, कभी न चलने वाले पेन आदि-आदि उनकी आरक्षित स्थान की अति महत्वपूर्ण निधि घोषित किए जा चुके थे।

अलसुबह चार बजे तारों के साथ बाबूजी की पहली चाय होती पर सुनंदा को यह बात सदा याद रही कि चाहे अम्मा के जीते जी की बात हो या अम्मा के जाने के बाद का वक्त, बाबूजी ने इस पहली चाय में न ही अम्मा को और न किसी और को शामिल होने के लिए बाध्य किया। यह सालों साल का एक उपक्रम ही था कि रोज रात को रसोई की सफाई के बाद दूधदानी, शक्करदानी, कप और छोटी छलनी के साथ चाय की ट्रे सजा दी जाती।

सुबह बाबूजी पानी गरम कर अपनी चाय खुद तैयार करते। यह अलग बात है कि पहले रेडियो, फिर टीवी के समाचारों की तेज़ आवाज से ही घर के हर सदस्य की नींद टूटती। बाबूजी घूमकर लौटते और फिर जम जाते काउच पर, कम से कम दो से तीन अखबारों के साथ एक-एक अखबार जब बाबूजी की नज़रों से होकर गुजर जाता, तब कहीं वह परिवार के दूसरे सदस्यों के हाथों और आंखों को नसीब होता। ‘बहू तरकारी है या लानी है’, दिन के दूसरे प्रहर की दिनचर्या यहां से शुरू होती।

रामायण की चौपाइयों की आवाजों पूरे मोहल्ले को खबर दे देतीं कि बाबूजी अब नहाकर पूजा कर रहे हैं। ठण्ड हो या गरमी, आज तक ऐसा कोई दिन नहीं गया जब जल्दबाज़ी में ही सही, बाबूजी ने मालिश किए बगैर स्नान किया हो। स्नान के बाद भी ढेर-सा तेल वे सिर में डालते। सिर पर फुर्ती से दौड़ते उनके हाथों की गति के साथ ही चौपाइयों के स्वर भी कभी ऊपर, तो कभी नीचे की ओर दौड़ते। बाबूजी को देखे बगैर घर का हर सदस्य उनके हर कार्यकलाप का अंदाज़ा दूर से ही लगा लिया करता।

तेल पी-पी कर उनकी बेंत की छड़ और बैठक में आरक्षित कोच के ठीक पीछे की दीवार, अपनी मज़बूती की दास्तान आसानी से बयां कर सकती थी। बाबूजी छड़ी को सहारा देते रहे या छड़ी बाबूजी को, यह भी अनसुलझी पहेली बनी रही। बरसों-बरस बाबूजी के सिर का तेल पीकर दीवार पर जो आकृति बनी थी, वह बाबूजी की अनुपस्थिति में भी खौफ और अनुशासन को ज़िंदा रखने की ताकत रखा करती और बाबूजी की छड़ी .? छड़ी की ठक-ठक की आहट मात्र ही घर के हर सदस्य को चौकन्ना कर अपनी-अपनी मर्यादाओं में बांध सकने की शक्ति रखती थी। यहां तक कि काउच की गादी, उस पर पड़ी सिलवटें, बरसों से हो रहे इस्तेमाल को बयां करते कोच के हत्थे, उन पर उभर आए निशान, घिस-घिस कर रेडियो के कानों की फीकी हो चली चमक आदि-आदि बाबूजी के अनुशासन को जिंदा रखने वाले सिपहसालार थे।



एक दफा सुनंदा ने घर के सफाई कार्यक्रम में बाबूजी के काउच के साथ रखी टेबल, उस पर रखे रेडियो, बेतरतीब रखे कागज़ात और किताबों के ढेर को करीने से सजाने और संवारने का दुस्साहस किया था पर उसके दुष्परिणाम जानने के बाद बाबूजी के जिंदा रहते किसी ने भी यह जुर्रत नहीं की कि वह बाबूजी के अधिकार क्षेत्र की इन तमाम चीजों को हाथ भी लगा सके। जिस ठसक, अदब और रौब का गवाह था बाबूजी का यह घर, उसे उन्होंने अपनी ज़िंदगी के आखिरी दम तक बनाए रखा।

शाम सात बजे के समाचार सुनकर बाबूजी भोजन किया करते। काउच पर सीधे तने बैठे बाबूजी के सामने सुनंदा स्टूल सरका गई। भोजन तैयार होने के इस संकेत के बावजूद बाबूजी हाथ धोने नहीं उठे, वे जैसे बैठे थे बस बैठे ही रह गए। रात भर बैठक में उनका शव रखा रहा। चेहरे पर वही धीर-गंभीर भाव अभी भी पढ़े जा सकते थे। घर के हर सदस्य की नम आंखें इस संभावना को भी नकार नहीं पा रहीं थी कि बाबूजी अभी उठेंगे, कोने में रखी छड़ी की ठक-ठक से ही सबको सूचना देते हुए घर से बाहर निकल पड़ेंगे।

कहा जाता है, ‘आज मरे कल तीसरा होय।’ बाबूजी को गुज़रे कब साल निकल गया, यह पता चला भी और नहीं भी। कुछ ऐसा जो सबने महसूस तो किया पर जबान पर नहीं आया। अब कुछ खुला-खुला-सा हो चला था। घर का वातावरण, मानो आजादी की मंद शीतल मधुर बयार के संचार से घर को नया जीवन मिल रहा हो। सिर पर अर्पित के ब्याह की तैयारियां थीं। अब तो बाबूजी भी नहीं रहे। नवंबर का ब्याह जून तक टाला गया इसलिए ताकि घर को नए सिरे से सजाया जा सके।

आर्किटेक्ट आए, इंजीनियर आए, घर के पुराने कंधों पर नए साजो-सामान की ज़िम्मेदारियों का अनुमान लगाया गया। हथौड़े, कुदाल और फावड़े की चोट से धराशायी होते घर के हिस्सों में से यादों की आत्माएं बाहर निकलती जा रही थीं। बैठक की दीवार पर जितनी बार चोट पड़ती, हेमंत के सामने बाबूजी की छाया खड़ी हो जाती। अब बारी थी काउच के पीछे बाबूजी के सिर का तेल पी-पीकर मज़बूत बनी दीवार के टूटने की। पिछले साल भर से बाबूजी के न रहने के बावजूद इस काउच पर बैठकर दीवार से सिर टिकाने की हिम्मत कोई नहीं कर सका था।

हेमंत देख रहा था- लगातार हथौड़े की चोट से मुश्किल से टूट रही दीवार के अब उस हिस्से पर चोट हो रही थी, जो अमूर्त चित्र की तरह ही सही, बाबूजी को अब तक ज़िंदा किए हुए थी। ‘परिवर्तन जीवन का नियम है, बाबूजी भी इसे स्वीकार कर आशीर्वाद देंगे’, विचारों के द्वंद्व में उलझता हुआ हेमंत भावनाओं के समुद्र में उतरता चला जा रहा था। एक भारी चोट से दीवार बिखर गई। अवाक् से खड़े हेमंत का रोंया-रोंया कांप उठा। वह पल फिर अपनी पूरी पीड़ा के साथ जीवित हो उठा, जब बाबूजी की चिता को अग्नि में प्रवेश करवाने के बाद एक मात्र पुत्र हेमंत ने बाबूजी की कपाल-क्रिया की थी। आज साल भर बाद बाबूजी के अस्तित्व को मटियामेट कर रही यह कपालक्रिया करना भी शायद उसी का फर्ज़ था।

-शोभा चतुर्वेदी

पलाश को खिलने दो - कहानी

हर वक्त नारी की तुलना में स्वयं को शक्तिशाली सिद्ध करने वाला पुरूष विधुर होते ही अचानक इतना कमज़ोर हो जाता है कि एक बच्चे को भी अकेले नहीं पाल पाता! बच्चे के पालन-पोषण का हवाला देकर तुरंत पुरुष पर पुनर्विवाह के लिए ज़ोर डाला जाता है। वहीं नारी को अबला की संज्ञा देने वाले समाज द्वारा स्त्री को विधवा के रूप में अकेले जीवन का भार ढोने के लिए छोड़ दिया जाता है।


‘मम्मा, कल चलोगी न अरुण अंकल के घर होली खेलने?’ पलाश की आवाज़ से बरखा की तंद्रा टूटी। पिछले कई दिनों से एक अंतर्द्वद सा मन-मस्तिष्क में चल रहा था। जब से डॉ. अरुण ने बरखा के समक्ष विवाह-प्रस्ताव रखा, तबसे एक अजीब से तनाव में घिर गई थी वह। आखिर क्या जवाब दे..उसने एक हफ्ते का समय मांगा था सोचने के लिए। आज उस हफ्ते का आखिरी दिन है। कल सुबह कुछ तो स्पष्ट करना ही होगा। अपने लिए नहीं, तो कम से कम अरूण के लिए..।

बरखा को अरुण की माताजी की बात स्मरण हो आई-‘बेटी या तो अरुण की ब्याहता बनकर उसको सम्भाल लो या कम से कम उसे स्वतंत्र कर दो.. उसके जीवन से दूर चली जाओ क्योंकि जब तक तुम उसके सम्मुख रहोगी, वह किसी और के बारे में सोच भी नहीं सकेगा।’ माताजी ने एक नेक-सुशील लड़की की फोटो भी दिखाई थी बरखा को।

‘सुलभा नाम है इसका..पढ़ी-लिखी सुशील लड़की है।’ तस्वीर में वाकई सुंदर लग रही थी सुलभा, पर बरखा को अरुण की शादी की बात सुनकर न जाने क्यों मन में कुछ दरकता-सा अनुभव हुआ। मन में अरुण के चिर-सानिध्य की इच्छा जो सुप्त अवस्था में दबी-छिपी थी, शायद वही मुखरित होने लगी थी। पलाश भी तो अरुण का साथ पाकर खिल उठता है, परंतु अपने स्वार्थ के लिए अरुण का जीवन दांव पर लगा देना भी तो ठीक नहीं..।’ तो क्या करें वह? शादी कर ले अरुण से?

इसी प्रश्न ने पिछले कई दिनों से बरखा का चैन छीन लिया था। वैवाहिक जीवन की तीन साल की छोटी सी अवधि में ही स्वप्निल उसे अकेले वैधव्य भोगने के लिए छोड़ गए थे। एक रात कार्यालय से लौटते समय स्वप्निल की मोटर साइकिल दुर्घटना में मृत्यु हो गई थी। तब पलाश केवल दो साल का था। पलाश को लेकर बरखा मां के पास आ गई थी। बरखा के विवाह पश्चात मां भी तो अकेली रह गई थी।

जीवन भर बरखा को मां ने अकेले ही पाला पोसा था। बाप का साया तो उसके सिर से बचपन में ही उठ गया था। आज वही इतिहास जब दोहराया गया, तो मां भी अंदर तक टूट गई थी। पर बरखा व पलाश की खातिर खड़ी रही.. डटकर खड़ी रही। पिछले साल जब पलाश को निमोनिया हो गया, तब इलाज के सिलसिले में ही डॉ. अरुण से मुलाकात हुई थी।

हंसने-खेलने की उम्र में सफेद लिबास में लिपटी खोई-खोई सी बरखा को जिन गहरी नज़रों से डॉ. अरुण देखते, इससे बरखा भले ही अनभिज्ञ थी, पर मां की पारखी नज़रों ने बहुत कुछ जान-समझ लिया। डॉ. अरुण ने भी दो-चार मुलाकातों में औपचारिकताओं को परे कर दिया था। मां को अरुण बिल्कुल घर का सदस्य सा महसूस होता। वह था भी मिलनसार, खुशमिज़ाज..। बरखा ने महसूस किया कि गुमसुम रहने वाला पलाश अरुण के आते ही चहकने लगता है। उसे भी तो अरुण का साथ अच्छा लगने लगा था।

पर मानव-मन की स्वाभाविक सोच के उभरते ही न जाने क्यों उसका मन अपराध-बोध से घिरने लगता। भारतीय नारी को अधिकार ही कहां, जो एक से दूसरे पुरुष को मन में स्थान दे सके। फिर पति चाहे जैसा भी हो.. जीवित हो या मृत। ‘पति-परमेश्वर’ के संस्कार की जड़े स्त्री के मन-मस्तिष्क में तभी से अपनी पैठ जमाना शुरू कर देती है, जब वह बालिका होती है। फि र किशोरी से युवा होते-होते यही संस्कार उसे नियमबद्ध कर डालते हैं। इन नियमों से परे सोचा नहीं कि घोर अपराध कर डालने की ऐसी ग्लानि मन में उत्पन्न होने लगती है, मानो महापाप कर डाला हो।

क्लीनिक बंद कर घर जाते-जाते अरूण रोज़ पलाश को चॉकलेट देते हुए जाना नहीं भूलते। एकाध दिन भी क्लीनिक में देर हो जाती, तो बरखा न जाने कितनी बार घड़ी पर नज़र डालती, फिर अपनी मनोदशा पर स्वयं ही लज्जित होती। बरखा स्वयं नहीं समझ पा रही थी कि यह कैसी स्थिति है? मन ही मन आत्म-विश्लेषण करती शायद यह इंतज़ार पलाश के मद्देनज़र ही होता है।

पलाश बेहद खुश जो हो जाता है अरुण के आते ही। और बरखा स्वयं? दलीलें तो लोगों के समझ पेश करने के लिए होती हैं, अपने मन को इनसे संतुष्ट नहीं किया जा सकता है। बरखा स्पष्ट महसूस कर रही थी कि अकेले पलाश ही नहीं, वह स्वयं भी पुलकित हो जाती है डॉ. अरुण के आने पर। अरुण का सानिध्य उसमें नया उत्साह व स्फूर्ति का संचार कर देता है। पर ऐसा होना क्या ठीक है? लोग क्या सोचेंगे, मां क्या सोचेंगी? विचारों का ज्वार-सा था, जो किसी निर्णय पर थमने का नाम ही नहीं ले रहा था।

बरखा की मन:स्थिति को पहचान कर मां ने ही एक दिन अरुण से क्लीनिक पहुंचकर इस विषय पर बात करने की पहल की थी। अरुण तो जैसे पहले से ही तैयार बैठे थे। केवल हिम्मत जुटाने की देरी थी, जो आज मां ने स्वयं बात कर दिला दी थी। मां ने ही अरूण को स्वयं बरखा से विवाह की बात करने के लिए प्रेरित किया था। अरुण के विवाह-प्रस्ताव पर बरखा ने चुप्पी साध ली थी। न करने का मन नहीं कर रहा था और हां में जहां एक ओर उसकी व पलाश की जीवन भर की खुशियां समाहित थीं, तो वहीं साथ थीं समाज के लोगों द्वारा की जाने वाली टिप्पणियां..अवांछित प्रश्नों की झड़ियां.. लोगों की तिरस्कृत, व्यंग्य कसती नज़रें..।

ढेर सारी सामाजिक वर्जनाओं व नियमों से पटे समाज में स्त्री-पुरुष के लिए इतने भिन्न-भिन्न मापदंड क्यों हैं? हर वक्त नारी की तुलना में स्वयं को शक्तिशाली सिद्ध करने वाला पुरुष विधुर होते ही अचानक इतना कमज़ोर हो जाता है कि एक बच्चे को भी अकेले नहीं पाल पाता! बच्चे के पालन-पोषण का हवाला देकर तुरंत पुरूष पर पुनर्विवाह के लिए ज़ोर डाला जाता है। वहीं नारी को अबला की संज्ञा देने वाले समाज द्वारा स्त्री को विधवा के रूप में अकेले जीवन का भार ढोने के लिए छोड़ दिया जाता है। एक अबला नारी विधवा होते ही अकेली जीवन भर स्वयं को तथा बच्चे को पालने में अचानक सक्षम, समर्थ कैसे हो जाती है? जीवन के स्वाभाविक उत्साह-उमंग को सफेद वस्त्रों से ढंक भर देने से मन की सारी संवेदनाएं मर जाती हैं क्या? ऐसी न जाने कितनी विवशताओं को गले में बांधकर स्त्री, गरिमामयी, सहनशील, सर्व-समर्था के थोथे लेबल लटकाए रहती है।

अरुण ने बरखा को सोचने-समझने का पूरा अवसर दिया था। बरखा फिर से अरुण द्वारा लिखा पत्र पढ़ने लगी- ‘बरखा, मैंने तुम पर दया या परोपकार की दृष्टि से विवाह करने का मन नहीं बनाया है। बल्कि यह निर्णय तुमसे व पलाश से अनुराग के तहत ही है। हां, यदि विवाह के बाद दूसरी संतान के आने पर पलाश की उपेक्षा का भय मन में पाले हो, तो तुम्हें यह भी स्पष्ट कर दूं कि मैंने हमेशा से जीवन में एक संतान का ध्येय तय कर रखा था। वह तुमसे विवाह पश्चात भी कायम रहेगा।

प्यार लुटाने के लिए संतान की रग में अपना ही खून दौड़े, यह मैं नहीं मानता। तुम्हें अपनाने से पलाश स्वयं मेरा अपना हो जाएगा। बरखा, तुम चाहोगी, तो तुम्हारे इन सफेद वस्त्रों में छिपे सभी इंद्रधनुषी रंग तुम्हारे व पलाश के जीवन को रंगमयी कर देंगे। जल्दबाज़ी में तुम कोई निर्णय लो, यह मैं भी नहीं चाहता। पर तुम्हारी स्वीकृति में तीन ज़िंदगियों की खुशियां समाहित है, यह अवश्य स्मरण रखना। कुछ ही दिनों के अंतराल पर रंगपंचमी है। तुम्हारी स्वीकृति के रूप में उस दिन मैं तुम्हें इन सफेद वस्त्रों में नहीं बल्कि इंद्रधनुषी रंगों में लिपटा देखना चाहूंगा।’

सदैव तुम्हारा अरुण

कई बार इन अक्षरों को पढ़ चुकी थी बरखा। पूरे हफ्ते अरुण एक बार भी उससे व पलाश से मिलने नहीं आया था। यह समय उसने बरखा को बिना किसी खलल के, तसल्ली से सोचने-समझने के लिए दिया था। असमंजस्य की स्थिति में फंसी बरखा चुपचाप अपना सिर थामे बैठी थी। मां ने आकर बरखा के माथे पर हौले से हाथ फेरा और बोलीं-‘बेटी, इतना ही कहूंगी कि केवल अपनी अंतरात्मा की बात मानना, इसके आगे और कुछ मत सोच।’

‘मां, तुमने भी तो अपना पूरा जीवन वैधव्य में ही काटा है।’
‘हां बेटी, इसीलिए तो नहीं चाहती कि तू भी इस लम्बे जीवन को नीरस बनाने के लिए बाध्य रहे। समाज नियम तो बनाता है पर नियम से उपजी समस्याएं हल करने नहीं आता।’ मां ने समझाया।

‘परंतु स्त्री के लिए पर-पुरुष के बारे में सोचना तक पाप है न मां? और स्वप्निल की आत्मा को क्या कष्ट नहीं होगा?’ बरखा अब भी दुविधाग्रस्त थी।

‘पर-पुरुष कौन बरखा? हां, सामाजिक परिभाषा के तहत तो केवल पति अपना व उसके अलावा हर पुरुष पराया होता है पर आसपास नज़र डालोगी, तो न जाने कितने ऐसे उदाहरण मिल जाएंगे, जहां पति ‘अपने’ होते हुए भी पत्नी की खुशियों को ताक पर रखकर जीते हैं और जो तेरे भले की सोच रहा है.. तेरी खुशी के बारे में सोच रहा है..तुझे मान दे रहा है.. सम्मानजनक जीवन जीने के लिए प्रेरित कर रहा है, वह पराया कैसे हो सकता है? अरुण क्या केवल इसलिए पराया है क्योंकि तेरे जीवन में पहले स्वप्निल आ चुका था?’

‘बेटी, जो गुज़र जाता है, कभी न लौटने के लिए वह स्वप्न ही होता है। स्वप्निल भी तेरी ज़िंदगी का स्वप्न ही था और रही उसकी आत्मा दुखाने की बात, तो क्या स्वप्निल ने कभी चाहा था कि तू और पलाश जीवन को बोझ की तरह लादकर जिओ? पलाश की ओर देख बरखा.. अपने भविष्य की ओर देख..। और तू अकेली नहीं है..। मैं हूं न तेरे साथ.. हर मोर्चे पर तेरी ढाल बनने के लिए तत्पर।’

कितनी व्यग्र.. कितनी व्यथित थी बरखा पर मां ने हर दुविधा को मिटा दिया था। ‘नहीं..अब नहीं भागूंगी मैं यथार्थ से..वास्तविकता की कसौटी पर सही साबित होने वाला, जीवन में खुशियों के रंग बिखेरने वाला उसका निर्णय महापाप कदापि नहीं हो सकता।’

हफ्तेभर से अरुण की अनुपस्थिति से मुरझाए पलाश को बरखा ने प्यार से चूम लिया, ‘बेटा, अरुण अंकल को फोन कर दो, हम सुबह रंग खेलने आ रहे हैं।’
मां भी तो यही चाहती थी कि बरखा के जीवन में अरुण के प्रवेश से इंद्रधनुषी रंग छा जाए और पलाश खिल उठे।


-स्निग्धा श्रीवास्तव

03 अप्रैल, 2010

हमदर्दी

वर्मा जी अपनी पत्नी के साथ मोटर साइकिल पर जा रहे थे। जैसे ही वे कॉलोनी में घुसे कि सामने से एक कुत्ते ने भागकर सडक पार करनी चाही। वह मोटर साइकिल के आगे आ गया। उसको बचाने के चक्कर में वर्मा जी मोटर साइकिल को संभाल नहीं पाए और पत्नी समेत सडक पर गिर पडे। कुत्ता बच गया, लेकिन मोटर साइकिल से टकरा जाने के कारण वह चिल्लाने लगा। आस-पास के लोग घरों से बाहर निकल आए। भीड लग गई। उनमें से किसी ने वर्मा जी और उनकी पत्नी को उठाना-संभालना तो दूर, यह जानने की भी कोशिश नहीं की कि उन्हें कहीं कोई चोट तो नहीं आई। दूसरी ओर कुत्ते अपने साथी की हमदर्दी में लगातार भौंके जा रहे थे।


-गोपालबाबू शर्मा


मिलावट

मिसेज शर्मा ने झल्लाते हुए दूधवाले से कहा बार-बार कहने के बाद भी तुमने पानी मिलाना कम नहीं किया, अब तुम्हें तय करना है कि या तो मिलावट बन्द करो वरना मेरे यहां दूध देना ही बन्द कर दो।

दूधवाले ने कहा- मैडम आप दूध बारह रुपए लीटर ले रही हैं, और पानी पन्द्रह रुपए लीटर दुकानों पर बिक रहा है, अब आप ही बताओ दूध में पानी मिलाने से मेरा क्या लाभ होगा। पानी मिलाकर आपकी झिडकी सुनने से तो बेहतर है कि मैं बोतलबन्द पानी बेंच कर गुजारा कर लूंगा, कम से कम रोज-रोज झिडकी तो नहीं सुननी पडेगी।

[कृष्णकुमार उपाध्याय]

8/262, बैरिहवां, गांधीनगर, बस्ती- 272001

विजेता

कभी-कभी वो पोस्ट ऑफिस के साथ वाली गली से निकलकर, अचानक मेरे सामने आ जाता है। नाक पर टिका हुआ इतने मोटे लैंस का चश्मा कि लैंस के पीछे छुपी हुई उसकी आंखें बिल्कुल भी दिखलाई नहीं देतीं। सिर पर घने घुंघराले बाल। कुछ लम्बाई लेता हुआ तीखे नाक-नक्श वाला चेहरा। दरमियाना कद और दुबली काठी पर झूलते हुए ढीले-ढाले कपडे। कमोबेश उसका हुलिया आज भी वैसा ही है जैसा वर्षो पहले विद्यालय में पढने के समय हुआ करता था। तीस-पैंतीस साल बाद भी उसमें ऐसा कोई परिवर्तन नहीं आया है कि उसे पहचाना न जा सके। अलबत्ता बढती हुई आयु के साथ अब वो उतना दुबला नहीं दिखता जितना कि छात्र जीवन में दिखा करता था।

विद्यालय में वो दंगल का दिन था। ब्वॉयस हॉस्टल के खुले मैदान के एक कोने में खोदकर बना लिए गए अखाडे में कुछ तगडे और कुछ बेहद तगडे पहलवाननुमा लडके ताल ठोंक रहे थे। उनके शरीर का गठन देखकर ही लगता था कि वे कायदे के पहलवान हैं। चारों ओर दंगल देखने को जुट आए छात्रों की भीड जमा थी। दंगल शुरू हुआ। एक के बाद एक पहलवान पटके जाने लगे। जो जीतता वो हुंकारता हुआ अखाडे का चक्कर काटता और शाबाशी लेकर कपडे पहन लेता। दंगल के अंतिम चरण में एक लम्बे-चौडे गठे हुए शरीर वाला पहलवान लगातार जीत रहा था। उसने दो तीन पहलवानों को बुरी तरह पटककर चित कर दिया था और अब हुंकारता, ताल ठोंकता और ललकारता हुआ अखाडे में किसी शेर की तरह घूम रहा था। भीड में बहुत से छात्र उसके पक्ष में आवाज भी उठा रहे थे। वह काफी देर तक ताल ठोंकता हुआ अखाडे में घूमता रहा पर कोई भी पहलवान उससे कुश्ती लडने के लिए तैयार नहीं हुआ। दरअसल उससे लड चुके पहलवानों का हश्र सभी ने देख लिया था और अब कोई भी उससे भिडने का हौंसला नहीं जुटा पा रहा था।

उछल-उछलकर ताल ठोंकते और अखाडे में चारो तरफ घूमते हुए अचानक वो पहलवान चिल्लाने लगा कोई मर्द नहीं रहा? जिसने मां का दूध पिया हो, आ जाए।

वो बार-बार उछल-उछलकर ललकार रहा था। उसका स्वर इतना तीखा और अशिष्ट हो चुका था कि भीड में सन्नाटा पसर गया। उसके पक्ष में बोलने वाले छात्र भी चुप हो गए। निश्चय ही उसकी विजय ने उस पर नशा जैसा कर दिया था और वो अपनी विजय के दर्प में अखाडे की मर्यादा भी भूल गया था। सारी भीड सकते में खडी थी, शायद भीतर ही भीतर उसकी ललकार पर कुढ भी रही थी- पर कुछ भी बोलने की हिम्मत किसी में नहीं थी।

पहलवान ने फिर ललकार भरी और अखाडे का चक्कर लगाया। तभी हमने देखा कि भीड में खडा हुआ एक बेहद दुबला-पतला लडका आगे बढकर चीखते हुए कह रहा है-ठहर जा। मैं लडूंगा। पहलवान ने उस लडके को गौर से देखा और ठहाका लगाकर हंसा। जैसा कि भीड का मनोविज्ञान होता है, भीड भी पहलवान की हंसी के समर्थन में हंसने लगी। पर इन बातों को उस लडके पर कोई प्रभाव नहीं हुआ। उसने हाथ से घडी उतारकर अपने साथी को पकडाई और कमीज के बटन खोलने लगा। जिस समय उसने बनियान उतारी तो भीड एक बार फिर हंसी। वो इतना दुबला था कि उसकी एक-एक पसली दिखलाई दे रही थी।

साधारण से झूलते हुए कच्छे में अपना दुबला-पतला शरीर लेकर वो अखाडे में घुसा और किसी पहलवान ही की तरह माटी को माथे से लगाया और ताल ठोंकी। सूखी हुई पतली-पतली टांगों पर उसके हथेली मारते ही भीड की फिर हंसी छूट गई। कोई क्या करता वो दृश्य ही ऐसा था। किसी को ध्यान आया कि उस लडके ने चश्मा नहीं उतारा है। उसे पुकार कर चश्मा उतारने के लिए कहा गया। पर उसने सुना-अनसुना कर दिया। तभी पलक झपकते ही अब तक के विजेत पहलवान ने उसे उठाकर अखाडे में पटक दिया। उसके जमीन पर गिरते ही चश्मा छिटककर दूर जा गिरा। वो फुर्ती से उठ बैठा पर शायद चश्में के बिना उसे कुछ भी स्पष्ट दिखाई नहीं दे रहा था। वो मिट्टी में हाथ मार-मार कर चश्मा ढूंढने लगा। भीड फिर हंसने लगी। उसके दोस्त ने चश्मा उठाकर उसे पहनाया तो वो फिर खडा होकर पहलवान की तरफ लपका।

कुछ ही क्षणों मे उसे आठ-दस पटकनी लग चुकी थीं। पहलवान के सामने उसकी स्थिति शेर और मेमने वाली थी।

मर जाएगा। अखाडा छोड दे। इस बेजोड कुश्ती से शायद पहलवान भी खिसिया गया था। मरूंगा तो मैं, तू क्यों परेशान होता है। उसने हांफते हुए जवाब दिया। पहलवान ने उसे उठाकर कुछ और पटकियां दीं। इस बार भी उसने बेहद लडखडाते हुए कदमों से उठने की कोशिश की पर गिर गया फिर किसी तरह उठ खडा हुआ। उस लडके की हालत अब तक, काफी बिगड चुकी थी पर वो पीछे हटने को तैयार नहीं था।

पता नहीं क्यों पहलवान उसे चित करके कुश्ती खत्म नहीं कर रहा था। शायद पटक-पटककर उसे उसकी धृष्टता का मजा चखाना चाहता था या फिर सोचता था कि इतनी पटकनियों के बाद वो खुद ही भाग जाएगा। क्योंकि उस जैसे दुबले-पतले कमजोर लडके को चित करके पहलवान को न तो वाह-वाही मिलने वाली थी और न ही आत्म-संतोष।

लडके की बिगडती हुई हालत देख कर अब तक आनंद ले रही भीड चिंतित होने लगी, पहले भीड में से उसके बचाव में आवाजें उभरने लगीं और फिर एका-एक काफी लोग अपने जूतों सहित अखाडे में उतर आए। कुश्ती रोक दी गई। कुछ ने जबरन उस लडके को किनारे किया और कुछ लडके समझाकर पहलवान को दूसरी तरफ ले गए। पर ज्यादा भीड उस कमजोर लडके को घेर कर खडी हुई थी। वो लडका धीरे-धीरे बदन से मिट्टी झाडते हुए घडी, कपडे, मोजे पहन रहा था और बुरी तरह हांफ रहा था।

तुझे क्या हो गया था भाई! पहाड से सिर टकराने लगा। किसी ने हंसते हुए कहा। लडने ने जवाब देने की कोशिश की पर उसकी सांस इतनी उखडी हुई थी कि बोल नहीं सका। यद्यपि उसके हाव-भाव से लग रहा था कि वो अभी भी पीछे हटने को तैयार नहीं है।

उस दिन तो शायद मैं भी उस कमजोर लडके को लगती हुई पटकनियों पर हंसा था। पर जैसे-जैसे आयु बढती गई मेरे मन से उस लडके के लिए सम्मान बढता गया। मां के दूध और मर्दानगी को ललकारने वाली उस पहलवान की अशिष्ट और अमर्यादित चुनौती के सामने खडा होने वाला उस भीड में कोई एक तो था।

आज न तो वो मुझे जानता है, न मैं उसे जानता हूं। मैं उसे पहचानता हूं, वो तो शायद मुझे पहचानता भी नहीं। पर जब कभी भी वो मुझे सडक पर मिल जाता है तो मैं हाथ हिलाकर गर्दन की हल्की सी जुम्बिश के साथ उसका अभिवादन करता हुआ आगे बढ जाता हूं। मैंने कई बार अनुभव किया है कि वो अपने मोटे चश्में के पीछे से मुझे पहचानने की चेष्टा कर रहा है। वास्तव में तो यहां मेरी पहचान का कोई अर्थ है भी नहीं। शायद मैं कभी उसे बता भी न पाऊं कि एक दिन भीड के साथ मैं भी उस पर हंसा था। पर मेरे भीतर उसकी पहचान और सम्मान एक वास्तविक विजेता की सी है जो हकीकत में भले ही कहीं भी दर्ज न हो पर मेरे भीतर ता-उम्र दर्ज रहेगी।

[जितेन ठाकुर]

थोडा हंस लो

डॉक्टर मरीज के पीछे भाग रहा था।

एक आदमी ने पूछा क्या हुआ?

डॉक्टर- 4 बार ऐसा ही हुआ है ये आदमी सिर का ऑपरेशन करवाने आता है और बाल कटवाकर भाग जाता है।

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संता पहली बार हवाई जहाज में बैठा। हवाई जहाज रन वे पर दौड़ रहा था।

संता ने पायलट को थप्पड़ मारा और गुस्से से बोला- एक तो पहले ही देर हो रही है और तू है कि सड़क से ही जा रहा है।

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संता (बंता से)- यार उत्तर पत्रिका पर क्या लिखूं ?

बंता (संता से)- यही कि इस शीट पर लिखे गये सभी जवाब काल्पनिक है जिनका किसी भी किताब से कोई संबंध नही है।

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संता (बंता से)- चल रेस लगाते हैं, जो हारेगा वो 1000 रुपये देगा।

बंता (संता से)- ठीक है पर मुझे रास्ता नही पता।

संता- बस तू मेरे पीछे-पीछे रहना।

बंता- थैंक्स भाई।

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संता को परीक्षा में किसी भी सवाल का जवाब नही आता था,

संता ने हर सवाल के नीचे /////////////// लाइन लगा दी और लिखा स्क्रैच करके जवाब पढ़ लेना।


थोडा हंस लो

एक शराबी चांद की ओर इशारा करके पूछता है- ये चांद है या सूरज?

दूसरा शराबी- मुझे नही पता, मैं भी इस शहर में नया हूं॥!

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अध्यापक (राजू से)- आज का पेपर आसान था या मुश्किल...

राजू (अध्यापक से) पढ़ने में तो आसान था, पर करने में मुश्किल।

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संता (बंता से)- किस से बात कर रहे हो।

बंता (संता से)- बीवी से..

संता- इतने..प्यार से?

बंता- तेरी है।

01 अप्रैल, 2010

ताला

चुनाव में खड़े एक नेता को चुनाव चिन्ह ‘साइकिल’ मिला। प्रचार के लिए वह अपने सहयोगियों को लेकर एक बुढ़िया के पास पहुंचा और बोला, ‘माता जी, साइकिल का ध्यान रखना।’ उसकी बात सुनकर माता ने जवाब दिया, ‘मैं तो अभी दूध लेने जा रही हूं बेटा, तू ताला लगा जा अपनी साइकिल को।’

कोट

‘माफ़ कीजिए जनाब, मेरे पास आपका बिल चुकाने के लिए पैसे नहीं हैं।’ एक ग्राहक ने रैस्टोरेंट के मैनेजर से कहा।

‘फ़िक्र मत कीजिए, हम आपका नाम दीवार पर लिख देंगे, आप जब अगली बार आएंगे, तो पैसे दे दीजिएगा।’ मैनेजर ने कहा।
‘मुझे यह बात पसंद नहीं आई, सभी मेरा नाम पढ़ेंगे।’ ग्राहक बोला।
‘ऐसा नहीं होगा, ऊपर आपका कोट जो टंगा होगा।’ मैनेजर ने उत्तर दिया।

जोकर

एक आदमी साइकोलॉजिस्ट से मशविरा लेने आया था। वह अपनी बारी के इंतज़ार में चेंबर के बाहर बैठा था। उसकी शक्ल से ही लग रहा था कि वह महादुखी मानव है। चेहरा लटका हुआ, होंठों पर हंसी का एक निशान तक न था।

वह औरों से बोलना तो दूर, उनकी तरफ़ देख भी नहीं रहा था। कुछ देर बाद उसका भी नंबर आया। साइकोलॉजिस्ट अनुभवी था। वह उसे देखते ही पहचान गया कि यह अवसाद का केस है। फिर भी उसने समस्या पूछी। आदमी ने बोलना शुरू किया,‘डॉक्टर साहब, मैं हमेशा हताशा में ही डूबा रहता हूं। चाहे कुछ भी कर लूं, मन में उत्साह जागता ही नहीं।

अब आप ही बताएं कि मैं क्या करूं!’ मनोचिकित्सक ने कहा, ‘मेरे साथ उस खिड़की तक आओ।’ जब वह उसके पीछे वहां तक पहुंचा, तो मनोचिकित्सक ने खिड़की से बाहर इशारा करते हुए कहा, ‘तुम दूर वो तंबू देख रहे हो? वह सर्कस का तंबू है। मैंने वह सर्कस देखा है, बहुत शानदार है। वहां तुम्हें ढेर सारे करतब देखने को मिलेंगे,ख़ासतौर पर एक जोकर के कारनामे देखकर तो हंस-हंस कर लोट-पोट हो जाओगे।

वह जब तक तुम्हारी नज़रों के सामने रहेगा, तुम हंसी नहीं रोक पाओगे। मैं शर्त लगाकर कह सकता हूं कि एक बार उस जोकर की कलाकारी देख लेने के बाद अवसाद ज़िन्दगी में दुबारा तुम्हारे पास नहीं फटकेगा।’
यह सब सुनकर भी उस आदमी के चेहरे पर कोई मुस्कान नहीं आई। उसका लटका मुंह देखकर साइकोलॉजिस्ट ने कहा, ‘तुम वहां जाकर तो देखो।’ वह आदमी बोला, ‘साहब, वह जोकर मैं ही हूं।’

सबक: इस दुनिया में हर कोई अभिनय कर रहा है। हंसी-मजाक की ओट में कोई ग़म छिपा रहा है, तो कोई बेवजह आंसू बहाकर औरों से सहानुभूति बटोरने की कोशिश कर रहा है।
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