30 जनवरी, 2010

भय - कहानी (श्याम नारायण श्रीव)

वह गांव में रहता था। बहुत खुश था। पूरा परिवार एक साथ था। माता-पिता, भाई-बहन सब एक साथ। वह पला-बढ़ा और उच्च शिक्षा ली। फिर नगर में जाकर कम आय की नौकरी करने लगा। एक साइकिल खरीद ली। प्रतिदिन शाम को घर वापस आ जाता था। वह अब भी खुश था। परिवार का उत्तरदायित्व निभा रहा था। उसकी शादी हो गई। इच्छाएं बढ़ीं, तो पांव के लिए उसकी चादर छोटी पड़ने लगी। वह एक नगर से दूसरे नगर में आ गया। आय बढ़ गई। किंतु परिवार दूर हो गया।

दिन-माह-वर्ष पंख लगाकर उड़ने लगे। दिन-प्रतिदिन उसकी चादर छोटी होने लगी। नगर से महानगर की ओर भागा। इस भाग-दौड़ में परिवार की परिभाषा भी बदल गई। उसकी पत्नी और तीन बच्चे, बस यही रह गया परिवार कहने को।



दूर छूट गया उसका गांव, माता-पिता, भाई-बहन और संगी साथी। महानगर की भीड़ में उसे स्पष्ट दिख रही थी, बड़ी मछली द्वारा छोटी मछली को निगल जाने की क्रिया। नदी के समुद्र में विलुप्त हो जाने की प्रक्रिया और बार-बार छोटी होती चादर को बढ़ाने की लालसा में अपने परिवार की सुख-शांति के समाप्त हो जाने का सम्पूर्ण भय।

29 जनवरी, 2010

थपकी वाली रोटी - कहानी

घर में मेहमान आया। घर के सदस्यों द्वारा आदर-सत्कार हुआ। एक ने आकर राम-राम की। दूसरे ने पानी पिलाया। तीसरे ने कुशलक्षेम पूछी। दिन अस्त होने को आया। अंधेरा घिर आया। रात पड़ने लगी। खाने की तैयारियां शुरू हो गईं। घर में छह प्राणी थे। कमाने वाला एक ही था। सुबह कमाता, शाम को सब खाते। रोटियां बननी शुरू हुईं।

रोटियों की खुशबू से घर में सोए मेहमान की भूख भड़क उठी। सोया-सोया सुनता रहा रसोई में बन रही रोटियों की थपकियां। कुल छह ही थपकियां बजी। शायद आटा इतना ही था। मेहमान के लिए रोटी आई। मेहमान ने कहा- ‘मुझे भूख नहीं है। आते वक्त खाना खाकर ही तो आया।’ और वह सो गया। सोच रहा था- ‘मेरे खातिर घर का कोई एक सदस्य भूखा क्यों सोए? मैं आज नहीं खाऊंगा, तो क्या फर्क पड़ जाएगा।’ और वह सुबह जल्दी निकल गया।


बूढ़ी मां अपने बेटी को दांत पीस धमका रही थी-‘तुमसे बिना थपकी बजाए रोटी नहीं बनती। बेचारा मेहमान भूखा चला गया।’

देवेन्द्र कुमार भाट

28 जनवरी, 2010

एक टोकरी मिट्टी -कहानी

एक गांव के ज़मींदार ने एक वृद्धा का खेत छीन लिया। वृद्ध महिला ज़मींदार के पास गई और हाथ जोड़कर बोली, ‘मैं आपसे खेत मांगने नहीं आई हूं। बस इतनी-सी याचना है कि आप मुझे उस खेत में से एक टोकरी मिट्टी लेने दें। इससे मेरी आत्मा को संतोष मिलता रहेगा।’

ज़मींदार ने कुछ सोचकर कहा, ‘ठीक है, जाओ ले लो।’ वृद्धा खेत की ओर गई। ज़मींदार के मन में चोर समाया था, इसलिए वह भी खेत पर जा पहुंचा। वृद्धा रो-रोकर मिट्टी खोद रही थी। टोकरी भर जाने पर वृद्धा ने आंसू पोंछते हुए कहा, ‘ज़रा यह टोकरी उठवाकर मेरे सिर पर रख दो।’



ज़मींदार ने कहा, ‘उठवा तो दूं, लेकिन यदि तू इतना बोझ उठाएगी, तो मर जाएगी।’ वृद्धा ने बेहद सरलता से जवाब दिया, ‘यदि मैं एक टोकरी मिट्टी उठाने से मर जाऊंगी, तो आप मुझसे पूरा खेत छीनकर कैसे जीवित रहेंगे?

27 जनवरी, 2010

डॉक्टर - कहानी

नई-नई आई वह रोगिणी मेरे परामर्श कक्ष से जाने लगी, तो उसने मुड़कर मुझे अजीब सी नजरों से देखा।
‘क्या हुआ..?’ मैंने पूछा।

‘कह नहीं सकती!’ वह बोली- ‘मैं निर्धारित समय से पांच मिनट पहले चली आई थी पर आपने मुझे तुरंत भीतर बुला लिया और ढेर-सा वक्त भी दिया। आपने जो-जो हिदायतें दी, उनका एक-एक शब्द मैं समझ गई, आपने दवा की जो पर्ची लिखकर दी है, इसे भी मैं पढ़ सकती हूं!’ अब उसने और गंभीरता से पूछा- ‘आप सच्ची-मुच्ची डॉक्टर हो न?’

26 जनवरी, 2010

महत्वपूर्ण बात - कहानी

एक मलिका थी- नाम था लैला। दूर-दूर तक उसका साम्राज्य फैला था। बड़ी विदुषी, इंसाफ़ करने वाली, अपनी प्रजा की भलाई के काम में रात-दिन लगी रहती। उसकी सैना बहुत शक्तिशाली थी। राज्य काफ़ी धनी, संपन्न।

एक दिन उसका वज़ीर लंबी यात्रा से लौटा। वह ग़ुस्से से तमतमा रहा था। आते ही बोला, ‘ए महान सुल्ताना, मैं पूरी सल्तनत का दौरा करके आया हूं। आपके इंसाफ़ और इंतज़ाम की वजह से दूर-दूर तक अमन-चैन है। लोग सुखी हैं। फिर भी कई ऐसे लोग हैं, जो आपके फ़ैसलों का मज़ाक़ बना रहे हैं। आपके बारे में भद्दी अफ़वाहें फैलाते हैं। मैं ऐसे लोगों की फ़ैहरिस्त बनाकर लाया हूं। हुक्म दें, तो उन सबको सज़ा-ए-मौत दिलवाऊं।’

लैला ने मुस्कुराकर कहा, ‘ऐ वज़ीर, सातों ज़मीनों तक मेरी सल्तनत फैली है। दूर-दूर तक •यादातर लोग मेरे इंसाफ़ को मानते हैं। मुझे इ•ज़त देते हैं। मेरे पास इतनी ताक़त है, जितनी आज दुनिया में किसी इंसान के पास नहीं। मैं चाहूं, तो सात ज़मीनों में सारे दरवाज़े एक इशारे पर बंद हो जाएंगे।

लेकिन फिर भी मैं लोगों का मुंह बंद नहीं कर सकती। महत्वपूर्ण यह नहीं कि कुछ लोग मेरे बारे में क्या बातें करते हैं। महत्वपूर्ण यह है कि मैं तमाम लोगों के लिए क्या करती हूं, क्या करना चाहती हूं।’

25 जनवरी, 2010

इश्क़

साहित्यकारों की ही नहीं आम आदमी की भी और पार्टियों के वर्करों की भी ज़िंदगी रंगीनियों से भरी हो सकती है। यह सब तो आदमी के स्वभाव पर निर्भर करता है। ऐसा ही एक एहसास यहां..

पिछले दिनों लाहौर में हमीद अ़ख्तर से हुई मुलाक़ात और बातचीत बहुत दिलचस्प थी। वह साहिर लुधियानवी और उनके इश्क़ की बातें कर रहे थे, तो मैंने कहा-‘आप साहिर के क़रीबी दोस्तों में से हैं तथा उनके हर इश्क़ की कहानी के गवाह भी हैं। लेकिन क्या आपने कभी इश्क़ नहीं किया?’



वह धीमे से मुस्कुराए और धीरे से बोले, ‘देश विभाजन के बाद मैं पाकिस्तान चला आया था और लाहौर में संत नगर के एक मकान के आधे हिस्से में रह रहा था। एक चारपाई, दरी, तकिया, मेज और ख़स्ताहाल दो कुर्सियों के अलावा चाय के दो बर्तन ही मेरी मलकियत थे। इस मकान पर ताला भी कम ही लगता था, बल्कि दरवाÊो आमतौर पर खुले ही रहते थे। मोहल्ले की एक नौजवान लड़की मुझ पर बहुत मेहरबान थी।



यद्यपि उस लड़की में कोई ख़ास बात तो नहीं थी, लेकिन जवानी के मौसम में ऐसे हादसात प्राय: सभी को पेश आते हैं। कम्युनिस्ट पार्टी से मेरा संबंध था तथा इसी हवाले से मैं इस तरह की बातों से सचेत और सावधान रहता था। इस ख़ातून का इसरार था कि मैं घर पर रहते समय इसके चारों दरवाÊो खुले रखूं ताकि जिस दरवाÊो से भी उसे दाख़िल होने का मौक़ा मिले, वह उसे इस्तेमाल में ले आए।



एक दिन हमारी पार्टी का एक कामरेड दोस्त अबदुल्ला मलिक भी हमें मिलने आया और खुले दरवाÊो से उसी तरह भीतर आ गया, जिस तरह वह लड़की आती थी। इस समय भी वह अंदर मौजूद थी और मलिक को देखते ही वह भाग गई। मलिक ने मुझे डराना-धमकाना शुरू किया कि तुम कामरेड होकर ऐसा काम कर रहे हो। मैंने सच बोला कि बस दिल लगी तक ही सीमित है। लेकिन उसने धमकी दी कि वह इसकी रिपरेट कर देगा।



मैं उसकी बात से इतना घबराया कि रात को सो नहीं सका और सोचता रहा कि अगर रिपरेट हो गई, तो पार्टी से निकाल दिया जाऊंगा। रातभर सोचने के बाद अगली सुबह साइकिल लेकर ख़ुद बन्ने भाई (अली सज्जाद ज़हीर) के पास पहुंचकर अपनी रिपरेट दर्ज करा दी कि शायद Êाुर्म क़बूल करने के बाद आसानी से माफ़ी मिल जाए। मैंने कहा- ‘बन्ने भाई, मुझे माफ़ कर दो। बहुत बड़ी भूल हो गई। मगर मेरा कसूर हरगिज़ नहीं हैं।



मेरा दिल साफ़ है। वह लड़की ही मेरे पीछे पड़ी है। वह ख़ुद ही आती है, बातें करती है और चली जाती है। मैं इस ग़लती पर नादम हूं । वादा करता हूं कि आइंदा ऐसा कुछ नहीं होगा, बल्कि वह घर ही छोड़ दूंगा’ मैंने मलिक की बात बताई कि वह आपसे मेरी शिकायत करने वाले हैं। मेरी बात समाप्त होने पर कुछ देर ख़ामोशी रही। मैंने नज़र उठाकर देखा, तो बन्ने भाई मुस्कुरा रहे थे।



वह सहजभाव से बोले- ‘मलिक को बकने दो। कम्युनिस्ट पार्टी इश्क़ करने पर पाबंदी थोड़े ही लगाती है। यह तो इंसानी फ़ितरत है। नौज़वान इश्क़ न करें, तो इनकी ज़िंदगी अधूरी। इश्क़ के बग़ैर इंसान अधूरा है। हमारी पार्टी में रहते हुए कैफ़ी आज़मी ने इश्क़ किया, अली सरदार जाफ़री, मज़ाज, कृश्न चंदर और साहिर ने इश्क़ किया, तो क्या बुरा किया। ये सब तऱक्क़ी पसंद हैं और तुम भी, लेकिन क्योंकि सियासी वर्कर हो, इसलिए ज़रा एहतियात से काम लेना॥। यह फैसला सुनकर हम शेर हो गए। शाम को मलिक मिला, तो बात बताते हुए उससे कहा- ‘हमें तो इश्क़ की इजाÊात मिल गई है। अब तुम करते फिरो रिपरेट’। वह बोला,‘यार मैं तो पार्टी लेने के लिए मज़ाक़ कर रहा था। तुमने गुड़-गोबर कर दिया।’



- डॉ. केवल धीर

सुल्तान और फ़क़ीर - कहानी

एक फ़क़ीर ध्यान में मग्न बैठा था। पास से सुल्तान की सवारी निकली। ध्यानमग्न फ़क़ीर को पता भी नहीं चला। लेकिन सुल्तान की नज़र उस फ़क़ीर पर पड़ गई। वह चिढ़कर बोला, ‘ये फटे-पैबंध लगे चोगे वाले अपने को समझते क्या हैं? इनमें जरा भी सलीक़ा-शिष्टाचार नहीं है!’

सुल्तालन का वजीर फ़क़ीर के पास पहुंचा और बोला, ‘माना कि तुम बड़े आध्यात्मिक आदमी हो, पर इतनी तमीज़तो होनी चाहिए कि दुनिया का सबसे ताक़तवर सुल्तान जब सामने से गुज़रे,तो खड़े होकर उसका अभिवादन कर सको।’

फ़क़ीर ने तीखी नज़र से वजीर को देखा और कहा, ‘अपने सुल्तान को बता दो कि वह अभिवादन की उम्मीद उनसे रखे, जो उसकी उदारता से कोई लाभ हासिल करते हैं। साथ में उन्हें यह भी बता दो कि भगवान ने प्रजा की देखभाल के लिए सुल्तान बनाए हैं, सुल्तान की सेवा के लिए लोग नहीं बनाए।’

24 जनवरी, 2010

लगन - कहानी

द्वन्द्व युद्ध के महारथी एक ज़ेन साधक बन्जो के पास माताजुरो नाम का एक युवक आया और उनसे द्वन्द्व कला सीखने की इच्छा जताई। बन्जो ने कहा, ‘कठोर साधना करनी पड़ेगी। मेरे शिष्य छह-छह घंटे रोज कड़ा अभ्यास करते हैं तब जाकर दस साल में सीख पाते हैं। सोच लो। तुममें इतनी लगन और धैर्य हो तो मेरे शिष्य बनो।’उत्साही माताजुरो ने कहा, ‘दस साल तक छह-छह घंटे रोज मेहनत करने में मुझे कोई परेशानी नहीं, बल्कि मैं तो रोज बारह-बारह घंटे अभ्यास करने को भी तैयार हूं।’ जेन साधक बन्ज़ो ने कहा, ‘तब तो तुम्हें सीखने में बीस साल लग जाएंगे। क्योंकि तब तुम्हारा ध्यान सीखने में नहीं, बल्कि जल्दी से जल्दी महारथी बनने में लगा रहेगा।’

23 जनवरी, 2010

आंखों ने इंतजार किया, हमने क्या किया - ग़ज़ल - दाग़ देहलवी

ग़म उस पर आशक़ार किया, हमने क्या किया
ग़ाफ़िल को होशियार किया, हमने क्या किया



हां-हां, तड़प-तड़प के गुजरी तुम्हीं ने रात
तुमने ही इंतजार किया, हमने क्या किया



इतरा रहा है नक़दे-मुहब्बत पे दिल बहुत
ओछे को मालदार किया, हमने क्या किया



क्या फ़र्ज था कि सब्र ही करते फ़िराक़ में
क्यों जब्र ए़ख्तियार किया, हमने क्या किया



नासेह भी है रक़ीब, यह मालूम ही न था
किसको सलाहकार किया, हमने क्या किया



तड़पा है दिल और खाए जिगर ने भी दाग़े-हिज्र
आंखों ने इंतजार किया, हमने क्या किया



मायने
आशक़ार=प्रकट करना/ग़ाफ़िल=लापरवाह/नासेह=नसीहत देने वाला, सदुपदेशक/रक़ीब= एक स्त्री से प्रेम करने वाले दो व्यक्ति

झगडा - कहानी

एक किसान की गाड़ी में दो घोड़े जुते हुए थे। दोनों पूरे व़क्त झगड़ते रहते। ..हर समय चख-चख। अचानक एक दिन उनमें से एक घोड़ा मर गया। दूसरे घोड़े को अब महसूस हुआ कि अकेलापन क्या होता है। उसे पूरे समय अपने साथी की याद सताने लगी। जब वह नहीं है, तो लगता है कि कुछ समय प्रेम से बिताते, तो कितना अच्छा होता।

किसान ने नया घोड़ा ले लिया। पुराने घोड़े ने सोचा कि इस नए साथी से कभी झगड़ेगा नहीं, लेकिन नए घोड़े से जान-पहचान का औपचारिक व़क्त बीतते-न-बीतते दोनों में फिर खींचतान और झगड़ेबाज़ी शुरू हो गई। एक दिन अचानक यूं ही झगड़ते-झगड़ते पुराने घोड़े को अपना पुराना साथी याद आ गया। उसे याद आया कि उसके मरने पर उसे कितना दुख हुआ था। फिर मैं वैसी ही हरक़त दोबारा क्यों करने लगा। उसने आश्चर्य में पड़ कर सोचा।

रात को अस्तबल में उसने एक पुराने गधे को सारी बात बताई। घोड़े की पूरी बात सुनकर वह बोला- ‘झगड़ना सबका स्वभाव हो जाता है। इससे बचने का एक ही तरीक़ा है-तुम हर व़क्त यह याद रखो कि तुम कभी भी मर सकते हो। साथ ही यह भी कि अगले ही क्षण तुम्हारे सामने जो दूसरा है-मर सकता है। अगर मौत हर क्षण तुम्हारे साथ होगी, तो तुम कभी भी छोटी-मोटी बातों पर मौजूदा व़क्त बरबाद नहीं करना चाहोगे।

22 जनवरी, 2010

लक्ष्य - कहानी

कंपनी ने सोचा कि सैन्य प्रशिक्षण से उसके कर्मचारियों के फोकस, समस्या सुलझाने की क्षमता और अनुशासन में बढ़ोतरी होगी। सो, उसने वरिष्ठ तकनीकी सहायता स्टाफ को सैन्य अकादमी में भेजा। वहां सबसे पहले उन्हें राइफल रेंज में ले जाया गया और राइफल, गोली, लक्ष्य आदि के बारे में जानकारी दी गई। उन्हें लक्ष्य पर ध्यान केंद्रित करने और धड़कनों को काबू में रखकर घोड़ा दबाने के बारे में बताया गया। फिर उन्हें राइफल और कुछ गोलियां देकर टारगेट पर निशाना लगाने के लिए कहा गया।



उन कर्मचारियों ने पोजीशन ली और गोलियां चलाना शुरू कर दिया। धांय-धांय..धांय। निशानेबा का पहला दौर समाप्त होने पर यह देखा गया कि किस कर्मचारी की कितनी गोलियां निशाने पर लगीं। टारगेट की ओर खड़े सैनिकों ने हर टारगेट को जांचा। उन्होंने देखा कि एक कर्मचारी का कोई भी निशाना सही नहीं लगा था। उसे दुबारा निशाना लगाने के बारे में समझाया गया और फिर से कुछ गोलियां दी गईं। कर्मचारी ने राइफल संभाली और अपनी पोजीशन ले ली। उसने सोचा कि हो सकता है राइफल में ही कुछ गड़बड़ हो। सो, उसने पहले राइफल को ही अच्छी तरह जांचने का फ़ैसला किया। उसने नली में से देखा, तो टारगेट नÊार आ रहा था। इसके बाद उसने उसमें गोली भरी और Êामीन की तरफ़ नली करके घोड़ा दबा दिया।



धांय की आवा हुई, कुछ धूल उड़ी और Êामीन पर छोटा-सा गड्ढा बन गया। वह खों-खों करने लगा। Êामीन से उठती धूल और उसे खांसता देखकर लोग उसकी तरफ़ दौड़े। उन्होंने देखा कि वह तो हंस रहा था। एक सैन्य अधिकारी ने उससे कड़ककर पूछा कि क्या हुआ? वह हंसते हुए बोला, ‘यह तो काम कर रही है। आप लोग बेकार में ही मुझे दोषी ठहरा रहे थे।’ किसी को कुछ समझ में न आया। वह कर्मचारी टारगेट वाले सिरे की ओर इशारा करते हुए चिल्लाया, ‘मेरी राइफल बिल्कुल सही ढंग से काम कर रही है। ट्रिगर दबाने पर गोली भी बराबर छूट रही है। इसका मतलब है कि दि़क्क़त तो टारगेट वाले सिरे की ओर है। फिर निशाना सही नहीं लग पा रहा है, तो मेरी क्या ग़लती?’

अल्लामा की रूह

मुशायरे हों या साहित्यिक समारोह, शायरों और अदीबों के हवाले से अक्सर कई दिलचस्प वाक़यात होते हैं। तऱक्क़ी पसंद अदीबों की एक कॉन्फ्रेंस हैदराबाद में हुई। इसमें बंबई के प्राय: सभी अदीब शायर मौजूद थे। उस समय तऱक्क़ी पसंद तहरीक के बानी अली सज्जाद ज़हीर (बन्ने भाई) थे तथा यह कॉन्फ्रेंस उन्हीं के नेतृत्व में हो रही थी।



उन दिनों हैदराबाद रेडियो के स्टेशन डायरैक्टर मुशताक अहमद थे, बहुत रौबदार थे। हमेशा सफ़ेद सलवार-कुर्ते पर सफ़ेद शेरवानी पहनते तथा जूता भी हमेशा सफ़ेद ही होता। रेडियो स्टेशन की ईमारत में उनके सामने परिंदा भी पर नहीं मार सकता था, लेकिन यह मशहूर था कि शाम को यहां से निकलने के बाद वह जी भरकर ताड़ी पीते थे और आमतौर पर किसी गली या सड़क पर गिरे हुए मिलते थे।



कॉन्फ्रेंस के दिनों में कई नामवर अदीबों-शायरों को रेडियो पर बुलया जाता था तथा अनेक अदीब-शायर मुशताक अहमद से परिचित हो गए थे। एक दिन कॉन्फ्रेंस में शाम के इजलास के बाद हैदराबाद के नवाब की दावत से जब देर रात को सभी अदीब लौट रहे थे, तो उन्हें दूर से एक सफ़ेद-सी चीज़ ज़मीन पर पड़ी दिखाई दी। ़ख्वाजा अहमद अब्बास, मजाज़ लखनवी, अली सरदार जाफ़री, साहिर, हमीद अ़ख्तर, बन्ने भाई आदि सभी ठिठक गए।



क़रीब पहुंचकर देखा, तो पाया कि वह मुशताक अहमद थे। क़द-काठ में लंबे-तगड़े दोहरे बदनवाले वह बीच सड़क में ओंधे मुंह लेटे हुए थे। उन्हें बहुत कठिनाई से उठाया गया। थोड़ी देर बाद वह उठकर खड़े हो गए और डगमगाते हुए क़दमों से आगे बढ़कर ़ख्वाजा अहमद अब्बास के सामने आकर रुक गए। उन्हें ग़ौर से देखा, पूछा- ‘आप अब्बास साहिब ही हैं न।’ अब्बास साहिब ने कहा- ‘जी, मैं ही ़ख्वाजा अहमद अब्बास हूं।’ बिल्कुल निकट आकर वह अब्बास साहिब से लिपट गए और जारो-क़तार रोने लगे। कभी वह अब्बास को चूमते, कभी लिपटते, कभी ग़ौर से उनके चेहरे को दोनों हाथों से पकड़कर देखते और दहाड़ें मारकर रोने लगते।



‘मुशताक साहिब, आप रो क्यों रहे हैं?’ बन्ने भाई ने पूछा। मुशताक साहिब ने ़ख्वाजा अहमद अब्बास की तरफ़ इशारा करते हुए और एक ज़ोरदार चीख़ मारते हुए बोले- ‘यहां ़ख्वाजा अलताफ़ हुसैन हाली का नवासा और इतना गंजा।’



कॉन्फ्रेंस के अंतिम दिन रात को मुशायरा होना था। अचानक ख़बर मिली कि कुछ विरोधी तत्व मुशायरे में गड़बड़ करने का प्रोग्राम बना रहे हैं। रात को मुशायरा शुरू हुआ, हॉल खचाखच भरा हुआ था। कई शायरों ने इतमीनान से अपना कलाम सुनाया। उन दिनों योम-ए-इक़बाल यानी अल्लामा इक़बाल का जन्म दिन था। जब अली सरदार जाफ़री माइक पर आए, तो उन्होंने अल्लामा की तारीफ़ में कुछ शब्द कहे। अभी वह बोल ही रहे थे कि साहब उठकर खड़े हो गए, ज़ोर से बोले- ‘सरदार जाफ़री, अल्लामा इक़बाल को कम्यूनिस्ट बनाकर पेश कर रहे हैं। उनकी यह तकरीर सुनकर अल्लामा की रूह तड़प रही होगी।’ इस पर हंगामा हो गया।



अपीलों के बावजूद हुल्लड़बाज़ी जारी रही। मजाज़ लखनवी, जो स्टेज पर बैठे थे और बहुत कम बोलते थे, अचानक उठकर माइक पर आ गए तथा ऊंची आवाज़ में बोले- ‘हज़रात, असल में यह साहब ख़ुद तड़प रहे हैं और अपने आपको अल्लामा की रूह समझ रहे हैं।’ मजाज़ का इतना कहना था कि हाल में कहकहे गूंज उठे और मुशायरे की कार्यवाही सामान्य ढंग से चलने लगी।


डॉ. केवल धीर

21 जनवरी, 2010

दिलीप और लार्ड बायरन का इश्क़

सिने कलाकार दिलीप कुमार को दुनिया एक महान एक्टर यानी अदाकार के तौर पर जानती है, लेकिन कम लोग जानते हैं कि उर्दू अदब में उनकी गहरी दिलचस्पी थी। मीर, ग़ालिब, फ़ैज़ आदि बड़े शायरों का कलाम उन्हें ज़बानी याद था।

एक बार दिलीप कुमार अपने मित्रों फ़िल्मी कलाकार राज कपूर और राजिंदर कुमार के साथ गाड़ी में बंबई से बंगलौर जा रहे थे तथा वह फ्रंट सीट पर राजिंदर कुमार के साथ बैठे थे। पिछली सीट पर बैठे राज कपूर शराब पी रहे थे। राजकपूर ज़रा तरंग में आए, तो दिलीप कुमार को संबोधित कर बोले- ‘यार, कोई शेर सुना।’ दिलीप कुमार ने निराश नहीं किया, बल्कि फ़ैज़ अहमद फ़ैज़ की एक मशहूर नज्म ‘तन्हाई’ सुनाने लगे।

‘अपने ब़ेख्वाब किवाड़ों को मुकफ़िल कर लो’, पहला ही मिसरा सुनकर राजकपूर ने हाथ के इशारे से दिलीप कुमार को टोका और बोले- ‘यार, ‘मुकफ़िल’ का क्या मतलब है?’ राजकपूर को नशे की हालत में देखकर दिलीप कुमार ने इस शब्द का आसान-सा मतलब सोचते हुए कहा- ‘इसका मतलब है ताला बंदी।’ राजकपूर रोने लगे और बोले- ‘लानत है मुझ पर।

मैं पृथ्वीराज का पुत्तर हूं और मुझे ‘मुकफ़िल’ का मतलब पता नहीं।’ इसके बाद उसने दिलीप कुमार से सारी नज्म सुनी और ख़ूब वाह वाह की।

कुछ समय के बाद फ़ैज़ बंबई आए तथा राजकपूर के स्टूडियो में उनके सम्मान में एक समारोह का आयोजन हुआ तथा खाने के बाद उनसे शेर सुनाने की फ़रमायश हुई। उन्होंने बहुत धीमे अंदाज़ में अपनी न•म ‘तन्हाई’ सुनानी शुरू की- ‘आपने ब़ेख्वाब किवाड़ों को मुकफ़िल कर लो’- तो राजकपूर फ़ौरन खड़े हो गए और बोले- ‘फ़ैज़ साहिब, आप बहुत बड़े शायर हैं। बुरा न मानें, यह न•म तो हमारे दिलीप कुमार साहिब की है। आप कोई अपना कलाम सुनाएं।’ फ़ैज़ साहिब ने मुस्कुराकर दिलीप कुमार की तरफ़ देखा और दूसरे ही क्षण अपनी एक अन्य न•म सुनाने लगे।

दिलीप कुमार और अंग्रेज़ी शायर बायरन में बहुत-सी बातों में समानता है। लार्ड बायरन अदब का आदमी थे, लेकिन उन्हें अभिनय का हुनर भी आता था। दिलीप कुमार अभिनय की दुनिया के आदमी हैं, लेकिन अदब में उनकी बहुत गहरी पैठ है। इटली में लार्ड बायरन एक ऐसे मकान में रहते थे, जो दरिया किनारे था। बायरन खिड़की में बैठकर काव्य रचना करते थे। इटली के एक कसाई अजीस की बहुत ही ख़ूबसूरत बीवी थी, जवान और शोख़ थी।

एक दिन उन दोनों में झगड़ा हो गया तथा बीवी ने दरिया में छलांग लगा दी और तैरती हुई वह खिड़की के पास आ गई। बायरन उसे देखते ही शायरी भूल गए, हाथ बढ़ाकर उसे पानी से निकाला और भीतर ले आए। छ: महीने वह अपने हुस्न की छुरी बायरन पर चलाती रही और जब वह कण-कण होकर पूरे घर में बिखर गए, तो उन्होंने दोबारा दरिया में छलांग लगा दी और अपने कसाई पति के पास लौट गई।

दिलीप के साथ भी सायरा बानो ऐसे अंदाज में मिलीं तथा उन्होंने हुस्न के आगे सर-तसलीम-ख़म कर दिया। फिर अचानक दिलीप कुमार आसिमा के इश्क़ में गिऱफ्तार हो गए। शादी कर ली, लेकिन जब सायरा ने वावेला मचाया, तो आसिमा को तलाक़ देकर, इश्क़ के दरिया में तैरते हुए, सायरा के पास लौट आए। तो हुई न दिलीप कुमार और बायरन में इश्क़ की समानता।

20 जनवरी, 2010

योद्धा - कहानी

एक ज़ेन साधक अपने समय का जाना-माना योद्धा था। वृद्धावस्था में वह सारा समय ध्यान में और शिष्यों के बीच बिताता था। उन्हीं दिनों एक नौजवान योद्धा की काफ़ी धूम थी। वह अत्यंत कुशल लड़ाका था और अच्छे-अच्छे उसके सामने टिक नहीं पाते थे। चतुर भी था। एक दिन ऐसा आया कि इस वयोवृद्ध ज़ेन साधक योद्धा के अलावा सब नामी योद्धाओं को पराजित कर चुका था।

‘तो इसे भी क्यों छोड़ूं’ नौजवान योद्धा ने सोचा और वृद्ध साधक को द्वंद्व की चुनौती दे दी। शिष्यों-भक्तों के लाख मना करने पर भी साधक ने चुनौती स्वीकार कर ली। नियत दिन पर दोनों योद्धा आमने-सामने हुए।

चतुर युवा योद्धा, सामने खड़े वृद्ध किंतु एकदम शांत और स्थिर प्रतिद्वंदी को देखकर समझ गया कि उसके सामने एक महान शक्ति मौजूद है और इस शक्ति का स्रोत शरीर में नहीं, बल्कि मन के भीतर कहीं है। तो उसने अपनी रणनीति का इस्तेमाल करते हुए वृद्ध को गालियां देनी शुरू कर दीं। एक से एक गंदी और अपमानजनक बातें कहीं, जिनसे कि वृद्ध विचलित हो, किंतु वृद्ध एकदम शांत खड़ा रहा। कुछ देर बाद युवा योद्धा ने हथियार फैंक, हार मान ली।

वृद्ध साधक के शिष्यों ने उससे पूछा, ‘यह क्या, वह आपसे बिना लड़े भाग गया और आप इतनी गालियां और अपमान सुनकर भी चुपचाप खड़े रहे?’

‘उसकी मेरे बारे में कही गई कोई भी बात सच नहीं थी’, साधक ने कहा, ‘इसलिए मैंने उन्हें स्वीकार नहीं किया।’

19 जनवरी, 2010

डर -कहानी

एक व्यक्ति ने रात में सपना देखा कि एक शेर उसके पीछे पड़ गया है। और वह भागकर किसी तरह एक पेड़ पर चढ़ जाता है। उसने ऊपर पहुंचकर दम लिया और नीचे देखा, तो शेर अब भी नीचे बैठा हुआ था।

वह जान गया कि उसे का़फी समय तक इसी तरह इस पेड़ पर व़क्त गुÊारना होगा। उसने थोड़ा आराम से बैठने के लिए इधर-उधर नजर डाली, तो उसका दिल ही बैठ गया। उसकी नजर दो चूहों पर पड़ती है, जो उस शाख को कुतर रहे थे, जिस पर वह बैठा था। इनमें से एक चूहा काला और दूसरा सफेद था। वह जान गया कि देर-सवेर वह शाख भी Êारूर गिरगी।

घबराकर उसने एक बार फिर नीचे को चारों ओर नÊार घुमाई। इस बार उसने देखा कि शेर से थोड़ी दूर एक अजगर ठीक उसके नीचे अपना मुंह फाड़े उसके गिरने की राह ही देख रहा है। घबराहट में उसे कुछ सूझ नहीं रहा था। उसने ऊपर ईश्वर की ओर देखते हुए प्रार्थना करना शुरू की। प्रार्थना के लिए ज्यों ही उसका मुंह खुला अचानक ही उसे लगा कि जैसे उसके मुंह में कुछ मीठी वस्तु आ गई है। उसने देखा उसके ठीक ऊपर एक शहद का छत्ता था, जिससे रिस-रिस कर शहद की बूंदें धीर-धीर गिर रही हैं।

इस मिठास ने उसके मुंह का जायका ही बदल दिया। वह मुंह खोलकर बार-बार बूंद के टपकने का इंतÊार करने लगा। अब उसे इसमें आनंद सा मिलने लगा। जब भी बूंद गिरती वह ़खुशी में कूदने सा लगता। चारों ओर खतरों से घिर होने के अहसास और उस ़खौफ को भूलकर वह इस खेल में मस्त हो गया। उसे उस समय सिवाय छत्ते और शहद की बूंद के मिठास के कुछ भी दिखाई देना बंद हो चुका था।

सबक: यह सारा डर बस मृत्यु का डर है। अगर मृत्यु के बार में ही सोचते रहेंगे, हर जगह उसे ही देखते रहेंगे, तो जीवन रूपी शहद के आनंद से वंचित रह जाएंगे। जीवन के आनंद को पहचानने वाला ही जीवन का रस ले पाता है।

दीवाली की वह रात - कहानी (बानो कुदसिया)

रूपा के माता-पिता और भाई-बहन परेशान थे कि आख़िर उसे हो क्या गया है? न मुस्कुराना, न हंस-हंसकर बातें करना, न किसी सहेली से मिलना, न खाने का ख्याल, न पहनने की चिंता। वे लोग सोचते-सोचते इस निष्कर्ष पर पहुंचे कि लड़की जवान हो गई है। अब इसके हाथ पीले कर देने चाहिए। वह रूपा के विवाह की धुन में लग गए।

समय तेज़ी से उड़ता चला जा रहा था। दीवाली फिर आ गई। रूपा की नज़रों में पिछली दीवाली का वह अविस्मरणीय दृश्य धूम गया। आंखों में आंसू जारी हो गए। दिल में एक ऐसी पीड़ा उठी कि उसे दबाना कठिन हो गया। रूपा व्याकुलता से मोमन खां की सवारी की प्रतीक्षा करने लगी।

आख़िर दिन ढला और शाम हुई। लोग ख़ुशी से दीए जलाने लगे। देखते-देखते चारों ओर एक आकर्षक दृश्य फैल गया। मोमन ख़ां का आगन की कोई आशा न थी, लेकिन रूपा का मन कह रहा था कि वह अवश्य आएगा। वह बड़े अरमान से उसकी प्रतीक्षा करती रही।

आख़िर उसकी मुराद पूरी हुई। दिल की कली खिल गई। नक्कारों की आवाज़ वायुमंडल में गूंज गई। रूपा ने आंखें मल-मलकर देखा। वह सचमुच मोमन ख़ां की सवारी थी।

रूपा की हालत अजीब-सी हो गई। मोमन ख़ां उस दिन बहुत ख़ुश नज़र आ रहा था। दीवाली की ख़ुशी में वह भी बराबर शामिल था। रूपा का दिल ज़ोर-ज़ोर से धड़कने लगा। वह भावनाओं के तीव्र तूफ़ान में एक तुच्छ तिनके की तरह बह गई। दिल के धड़कते शोलों ने ऊंचे उठकर उसके विवेक को भस्म करके रख दिया।

उसके दिल में एक अजीब-सी हूक उठी। रूपा वह हूक दबा न सकी। प्रेम जुनून की सीमा तक पहुंच गया। मर्यादा और लज्जा की दीवारें ढह गईं।

सड़क पर दोनों ओर खड़े हुए लोगों ने एक अजीब दृश्य देखा। एक लड़की पागलों की तरह दौड़ती हुई, सुरक्षा-दस्ते को चीरती हुई नवाब मोमन ख़ां के समने जा खड़ी हुई। एक क्षण के लिए मोमन ख़ां की आंखें चुंधिया गईं। उसे ऐसा लगा, जैसे चांद अचानक उसके ऐन सामने आ गया हो, जैसे सुंदरता की देवी ने उसकी परीक्षा लेने का निश्चय कर लिया हो। रूपा के लंबे काले बाल उसके गालों और कंधों पर बिखरे हुए थे।

मोमन ख़ां घोड़े से उतर गया। उसे यह पसंद नहीं था कि वह स्वयं घोड़े पर सवार रहे और बात करने वाला नीचे खड़ा हो। उसने नरम आवाज़ में लड़की से सवाल किया, ‘शायद आप हमसे कुछ कहना चाहती हैं?’ रूपा कुछ बोल न सकी, ‘हां’ में सिर हिलाकर रह गई। मोमन ख़ां ने कहा, ‘हम सुनना चाहते हैं, फ़रमाइए।’

रूपा ने इस प्रकार उसकी ओर देखा, जैसे अपना उद्देश्य आंखों ही आंखों से बयान कर देना चाहती हो। एक क्षण के लिए मौन छा गया। सारे लोग हैरान और चुपचाप खड़े थे। रूपा ब़ेख्याली में अपना आंचल उंगलियों पर लपेटने लगी। फिर घबराई हुई आवाज़ में बोली, ‘कितना अच्छा हो, यदि ईश्वर मुझे आपकी शक्ल और आपकी सीरत का एक लड़का प्रदान करे।’

न जाने किस शक्ति और भावना ने रूपा के मुंह से अनायास ही यह कहलवा दिया। उसे शायद अहसास रहा होगा कि क्या पता, सामना फिर हो, न हो। समय भी कम है। जो कहना है, अभी कह देना चाहिए। उसका सुंदर चेहरा शर्म से सुर्ख़ हो गया। ख़ूबसूरत आंखें मेंहदी-रचे पांवों में खुभ गईं।

ओह। हम समझ गए। समझदार मोमन ख़ां बात की तह तक पहुंच गया। उसने कहा, ‘बीबी, आपके रिवाÊा और हैं, हमारी रस्में और। आप हिंदू हैं, मैं मुसलमान। इसलिए हमारी शादी दुनिया की नज़र में एक ग़लत बात होगी। उंगलियां उठाने वाले हमें हवसपरस्त कहेंगे। लोग न आपको चैन लेने देंगे, न हमें।’

रूपा के सुंदर होंठों में जुम्बिश पैदा नहीं हुई। मोमन ख़ां ने अपनी बात जारी रखी- ‘हम आपके ज•बात की क़द्र करते हैं, लेकिन यह भी तो सोचिए, अगर आप और हम दुनिया की परवाह किए बिना शादी कर भी लें, तो हो सकता है, हमारे औलाद ही न हो। अगर हो भी, तो इसकी जमानत कौन दे सकता है कि वह लड़का ही होगा। ख़ैर, अगर यह मान लिया जाए, हमारा लड़का ही होगा, तो क्या ज़रूरी है कि वह शक्ल सीरत में आपकी आरÊाू के मुताबिक़ हो। फ़र्क़ भी हो सकता है।’

इस तर्क का रूपा क्या जवाब देती? कांपती आवाज़ में कहने लगी, ‘मैं भगवान से प्रार्थना..।’मोमन ख़ां ने उसकी बात काट दी, आपकी प्रार्थना बेकार नहीं जाएगी। दिल से निकली हुई दुआ ज़रूर मंजूर होती है और मैं आपके यह ख़ुशख़बरी सुनाता हूं कि आपकी दुआ क़बूल हो चुकी है।

रूपा ने विस्मित दृष्टि से उसकी ओर देखा। मोमन ख़ां बोला, ‘इधर देखिए। आपको हम जैसा लड़का चाहिए न? हम अपनी तलवार की क़सम खाकर कहते हैं कि आज से आप हमारी मां हैं।’

मोमन ख़ां ने अपनी बात पर सच्चई की मोहर लगाने में देर नहीं की। असंख्य लोगों की उत्सुक दृष्टि ने एक विस्मयकारी घटना देखी। नवाब मोमन ख़ां अपने ओहदे और शान की परवाह किए बिना अपनी मुंहबोली मां रूपा के चरणों में झुका हुआ था।

इसके बाद मोमन ख़ां नंगे पांव रूपा के घर गया और इतिहास साक्षी है कि वह जब तक जीवित रहा, सगी मां की तरह रूपा का सम्मान करता रहा। रूपा ने सारी उम्र शादी नहीं की। मोमन ख़ां दशहरे, रक्षाबंधन, बैसाखी और दीवाली आदि त्योहारों पर उसके घर सदा उपहार ले जाता और उसके चरण छूता रहा। नवाब मीर मोमन ख़ां बुझारी नस्ल का सैयद था। उसका मक़बरा लाहौर के भाटी दरवाज़े के बाहर दाता के मज़ार के पश्चिम में है, जो आज भी पुरानी यादें ताज़ा कर रहा है।

18 जनवरी, 2010

आंखों में फिर जज्ब हुआ इक दर्द का मंजर और - ग़ज़ल (नक्श इलाहबादी)

आंखों में फिर जज्ब हुआ इक दर्द का मंजर और
आज एक ही बूंद में डूबा एक समंदर और

रब्त मेरा जब बाहर की दुनिया से टूटता है
इक संसार जनम लेता है मेरे अंदर और

फ़िक्र-ओ-घुटन बेव़क्त की दस्तक बेरब्त आवाजें
इसके अलावा देता भी क्या मुझको मेरा घर और

उसकी झुलसती रूह पे रख दो मेरे बदन की छांव
मेरे पिघलते जिस्म पे लिख दो एक दोपहर और

उसका आख़िरी तीर बचा है मेरी आख़िरी सांस
कहर बहर सूरत टूटेगा एक न इक पर और

सुब्ह की पहली किरन तलक मैं बन जाऊंगा ़ख्वाब
तू भी मुझमें कर ले बसेरा सिर्फ़ रात भर और

मायनेरब्त=संबंध, दोस्ती, तआल्लुक/बेरब्त=बेढंगी, बेमेल /बहर=समुद्र

17 जनवरी, 2010

सेल्समैन और मैनेजर - कहानी

एक आदमी काम की तलाश में छोटे क़स्बे से बड़े शहर में पहुंचा था। वह अपने क़स्बे में भी अच्छा काम कर रहा था, लेकिन वहां तऱक्क़ी की गुंजाइश कम थी, इसलिए वह शहर आ गया था। शहर में उसने एक बड़ी दुकान के मैनेजर से संपर्क किया। मैनेजर ने कहा कि सेल्समैन की जगह तो ख़ाली है, पर तुम्हें इस काम का कितना अनुभव है। उसने जवाब दिया, ‘अपने क़स्बे में मैं बड़ा अच्छा सेल्समैन समझा जाता था।’ मैनेजर ने कहा, ‘वह तो एक दिन में ही पता चल जाएगा। दिनभर के तुम्हारे प्रदर्शन के आधार पर तय होगा कि तुम यहां काम करने के काबिल हो या नहीं।’ उस आदमी को मौक़ा मिल गया।

रात को दुकान का शटर गिरने के बाद मैनेजर ने उसे बुलाकर पूछा कि उसने दिनभर में कितने ग्राहकों को कुछ ख़रीदने के लिए राÊाी किया। आदमी ने जवाब दिया, ‘एक।’ मैनेजर- ‘बस एक! हमारा एक औसत सेल्समैन दिनभर में 20-30 ग्राहकों को कुछ न कुछ बेच देता है। ख़ैर, तुमने कितने पैसों का सामान बेचा उसे?’ जवाब मिला, ‘12,26,632 रुपयों का।’ इतनी बड़ी रक़म सुनकर मैनेजर को बड़ा आश्चर्य हुआ। ‘ऐसा क्या बेच दिया तुमने उसे?’



क़स्बे के आदमी ने जवाब दिया, ‘पहले मैंने उसे मछली पकड़ने का कांटा बेचा। उसके बाद मैंने उसे मछली मारने की पूरी किट बेची। फिर मैंने उस ग्राहक से पूछा कि वह मछलियां पकड़ने कहां जाएगा। जब उसने बड़ी नदी का नाम लिया, तो मैंने उसे सुझाव दिया कि क्यों न वह एक मोटरबोट भी ख़रीद ले। मोटरबोट लेने के बाद उसे ख्याल आया कि उसकी पुरानी जीप बोट को ढोकर नदी तक नहीं ले जा पाएगी, तो उसने नई जीप के बारे में पूछताछ की। तब मैं उसे आटोमोटिव डिपार्टमेंट में ले गया और उसने लगे हाथ जीप और ट्रॉली भी ख़रीद ली।’



मैनेजर ने अविश्वास से लगभग चीख़ते हुए कहा, ‘वह मछली पकड़ने का कांटा लेने आया था और तुमने उसे इतना सबकुछ बेच डाला!’ उस आदमी ने जवाब दिया, ‘नहीं, दरअसल वह तो घर पर डिनर के लिए कैंडल लेने आया था।’



1. संख्या नहीं, गुणवत्ता महत्वपूर्ण होती है।
2. संभावनाओं का कोई ओर-छोर नहीं होता।

16 जनवरी, 2010

उद्देश्य -कहानी ( मीरा जैन)

‘कितनी देर कर दी? मैं कब से तुम्हारी राह देख रही थी, दो ही घंटे की तो पूजा है और इसे शुरू हुए आधे घंटे बीत चुके हैं, फिर तुम्हारे यहां बहू भी तो है।’

‘यही तो रोना है। उसे कितनी बार कहा, आज जल्दी खाना बना देना, मुझे पूजा में जाना है, लेकिन उसके कान पर जूं तक नहीं रेंगती। उसे जब जो करना है वही करती है। आज बैंक का ज़रूरी काम कहकर चली गई। एक घंटे में लौटी। कुछ कहो, तो उल्टा जवाब देगी- ‘दाल-सब्ज़ी तो बनी रखी थी, ज्यादा जल्दी थी तो दो रोटी खुद ही सेंककर खा लेतीं!’ अब तुम्हीं बताओ मेरी उम्र है क्या, रोटी बनाने की?’



‘हां, तुमने बिल्कुल ठीक कहा। आज-कल की बहुएं होती ही हैं नकचढ़ी। एक बोलो, दस सुनाती हैं। मैं तो खूब ठोक बजाकर लाऊंगी, अगर उसने ज्यादा चूं-चपट की, तो मायके का रास्ता दिखा दूंगी। चल आज की पूजा तो समाप्त हो गई, कल समय पर आ जाना..।’

शराबी - कहानी

एक आदमी अपने दोस्त के घर पार्टी में गया हुआ था। पार्टी देर रात तक चलती रही और जाम पर जाम टकराते रहे। मु़फ्त की मिल रही थी, इसलिए उस आदमी ने खूब पी ली। इतनी पी ली कि कुछ-कुछ होश तो बाक़ी रहा, पर उससे ढंग से चला भी नहीं जा रहा था।

वहां कुछ ऐसे भी दोस्त थे, जिन्होंने थोड़े संयम से काम लिया था। वे गाड़ी चलाकर अपने घर तक पहुंचने की हालत में थे। उन्होंने इस आदमी को घर तक छोड़ देने की पेशकश की, लेकिन उसने मना कर दिया। जैसा कि शराब पीने के बाद किसी व्यक्ति का दुस्साहस मूर्खता की हद तक बढ़ जाता है, उसने ख़ुद ड्राइव करते हुए घर जाने का निर्णय लिया।



चूंकि रात बहुत हो चुकी थी और मेजबान समेत कोई भी दोस्त बहस करने के मूड में नहीं था, इसलिए किसी ने उसे ज्यादा रोका-टोका नहीं। इस तरह वह अपनी गाड़ी लेकर निकल गया। उसका घर ज्यादा दूर नहीं था और रास्ता ख़ाली, इसलिए दोस्तों ने भी ख़ास चिंता नहीं की।



भले ही रास्ता कितना छोटा हो, पर उसके गाड़ी चलाने के ढंग से साफ़ नजर आ रहा था कि वह नशे में है। तो रास्ते के बीच में ही पुलिस की गाड़ी ने उसे रोक लिया और अपनी गाड़ी से बाहर आने के लिए कहा। बाहर आने के बाद पुलिसवालों ने उसका नाम-पता नोट किया।



वे उससे पूछताछ कर ही रहे थे कि उन्हें वायरलेस पर मुख्यालय से सूचना मिली कि उस जगह से दो-चार घर छोड़कर डकैती हो गई है। पुलिसवालों ने उसका नाम-पता तो लिख ही लिया था, सो अपनी वापसी तक उसे वहीं खड़ा रहने की हिदायत देकर वे दौड़ते हुए घटनास्थल की ओर चल दिए। कुछ देर हो गई। कुछ और देर हो गई। वह आदमी उकता गया था।



शराब के नशे में उसका दिमाग़ भी पता नहीं कहां-कहां दौड़ रहा था। उसने सोचा, पुलिसवालों ने नाम-पता लिख लिया है, तो क्या हुआ, अगली सुबह तक तो सब नशा उतर जाएगा, फिर वे कौन-सा केस चला लेंगे। यह सोचकर उसने आसपास देखा, गाड़ी उठाई और निकल लिया।



घर पहुंचकर उसने गाड़ी गैराज में रखी और बीवी से कह दिया कि मैं सोने जा रहा हूं, कोई आए तो कह देना कि मुझे तो फ्लू हो गया है और मैं कल से बिस्तर पर ही हूं। एकाध घंटे के बाद दरवाजे पर खटखट हुई। पत्नी ने दरवाजा खोला, तो पुलिस को देखकर हैरान रह गई। वह पतिव्रता स्त्री थी, इसलिए पति ने जैसा सिखाया था, वैसा कह दिया।



पुलिसवाले तो मानने को तैयार ही नहीं थे। पर उन्होंने उस आदमी को हाजिर करने की जिद नहीं की। उन्होंने कहा कि आप तो अपने पतिदेव को आराम करने दें, हमें बस उनकी गाड़ी दिखा दें। पत्नी को भला क्या आपत्ति होती। उसने नीचे आकर गैराज खोला, तो वहां पुलिस की गाड़ी खड़ी थी और उसमें ऊपर लगी लाइट अभी भी जल रही थी।

15 जनवरी, 2010

ज़ेन गुरु और साइकिल

एक जेन गुरु ने देखा कि उनके पांच शिष्य बाहर से अपनी-अपनी साइकिलों पर लौट रहे हैं। जब वे साइकिलों से उतर गए, तब गुरु ने उनसे पूछा, ‘तुम सब साइकिलें क्यों चलाते हो?’ पहले शिष्य ने उत्तर या, ‘मेरी साइकिल पर आलुओं का बोरा बंधा है। इससे मुझे उसे अपनी पीठ पर नहीं ढोना पड़ता।’

गुरु ने कहा, ‘तुम बहुत होशियार हो। जब तुम बूढ़े हो जाओगे, तो तुम्हें मेरी तरह झुककर नहीं चलना पड़ेगा।’ दूसरे शिष्य ने उत्तर दिया, ‘मुझे साइकिल चलाते समय पेड़ों और खेतों को देखना अच्छा लगता है।’ गुरु मुस्कुराए और बोले, ‘तुम हमेशा अपनी आंखें खुली रखते हो और दुनिया को देखते हो।’ तीसरा शिष्य बोला, ‘जब मैं साइकिल चलाता हूं, तब मंत्रों का जाप करता रहता हूं।’ गुरु ने उसे शाबाशी दी, ‘तुम्हारा मन किसी नए कसे हुए पहिए की तरह रमा रहेगा।’



चौथा शिष्य बोला, ‘साइकिल चलाने पर मैं सभी जीवों से एकात्मकता अनुभव करता हूं।’ गुरु प्रसन्न हुए और बोले, ‘तुम अहिंसा के स्वर्णिम पथ पर बढ़ रहे हो।’ पांचवे शिष्य ने उत्तर दिया, ‘मैं साइकिल चलाने के लिए साइकिल चलाता हूं।’ गुरु उठकर पांचवे शिष्य के चरणों में बैठ गए और बोले, ‘मैं आपका शिष्य हूं।’

14 जनवरी, 2010

आग हम लगा देते वरना इस जमाने में - ग़ज़ल (‘मयंक’ अकबराबादी)

परिचय
जनाब केके सिंह बतख़ल्लुस ‘मयंक’ अकबराबादी की पैदाइश 1944 में उप्र के मथुरा जिले में हुई। कुछ समय बाद वे आगरा चले आए और वहीं उनकी शिक्षा पूरी हुई। उन्हें बचपन से ही कविता, गीत, ग़ज़ल लिखने का शौक़ रहा। तक़रीबन 30 साल से उर्दू अदब की ख़िदमत कर रहे हैं। मयंक साहब का कलाम फिल्म, दूरदर्शन, रेडियो और कैसेट, सीडियों के जरिए अवाम तक पहुंच रहा है।



उम्र बीत जाती है जिसको घर बनाने में।
आग क्यों लगाते हो उसके आशियाने में।।



ख़ास इक तअल्लुक़ है इक गज़ब का रिश्ता है।
जीस्त की कहानी में इश्क़ के फ़साने में।।



कब मुझे गवारा है मुफ़लिसी की रुसवाई।
मुंह छुपाए बैठा हूं मैं ग़रीबख़ाने में।।



रात भर चला आख़िर खेल ये मुहब्बत का।
कट गई शबे-रंगीं रूठने-मनाने में।।



दोस्त तो बना लेना हर किसी को है आसां।
मुश्किलें हजारों हैं दोस्ती निभाने में।।



मश्विरा ये मेरा है भूल के भी मत करना।
तजकिरा वफ़ाओं का बेवफ़ा जमाने में।।


क्या करें ‘मयंक’ अपना बस नहीं चलता।

आग हम लगा देते वरना इस जमाने में।।



मायने

जीस्त= जिंदगी,जीवन /मुफ़लिसी= दरिद्रता, निर्धनता, कंगाली/ रुसवाई=बदनामी,निंदा, अपयश,कुख्याति / तल्ख़ियां= कटुता, कड़वापन, सच्चाई / तजकिरा= चर्चा, फिक्र, वार्तालाप



13 जनवरी, 2010

उद्धार - कहानी (प्रेमचंद)

१।

हिंदू समाज की वैवाहिक प्रथा इतनी दुषित, इतनी चिंताजनक, इतनी भयंकर हो गयी है कि कुछ समझ में नहीं आता, उसका सुधार क्योंकर हो। बिरलें ही ऐसे माता−पिता होंगे जिनके सात पुत्रों के बाद एक भी कन्या उत्पन्न हो जाय तो वह सहर्ष उसका स्वागत करें। कन्या का जन्म होते ही उसके विवाह की चिंता सिर पर सवार हो जाती है और आदमी उसी में डुबकियां खाने लगता है। अवस्था इतनी निराशमय और भयानक हो गई है कि ऐसे माता−पिताओं की कमी नहीं है जो कन्या की मृत्यु पर ह्रदय से प्रसन्न होते है, मानों सिर से बाधा टली। इसका कारण केवल यही है कि देहज की दर, दिन दूनी रात चौगुनी, पावस−काल के जल−गुजरे कि एक या दो हजारों तक नौबत पहुंच गई है। अभी बहुत दिन नहीं गुजरे कि एक या दो हजार रुपये दहेज केवल बड़े घरों की बात थी, छोटी−छोटी शादियों पांच सौ से एक हजार तक तय हो जाती थीं; अब मामुली−मामुली विवाह भी तीन−चार हजार के नीचे तय नहीं होते । खर्च का तो यह हाल है और शिक्षित समाज की निर्धनता और दरिद्रता दिन बढ़ती जाती है। इसका अन्त क्या होगा ईश्वर ही जाने। बेटे एक दर्जन भी हों तो माता−पिता का चिंता नहीं होती। वह अपने ऊपर उनके विवाह−भार का अनिवार्य नहीं समझता, यह उसके लिए ‘कम्पलसरी’ विषय नहीं, ‘आप्शनल’ विषय है। होगा तों कर देगें; नही कह देंगे−−बेटा, खाओं कमाओं, कमाई हो तो विवाह कर लेना। बेटों की कुचरित्रता कलंक की बात नहीं समझी जाती; लेकिन कन्या का विवाह तो करना ही पड़ेगा, उससे भागकर कहां जायेगें ? अगर विवाह में विलम्ब हुआ और कन्या के पांव कहीं ऊंचे नीचे पड़ गये तो फिर कुटुम्ब की नाक कट गयी; वह पतित हो गया, टाट बाहर कर दिया गया। अगर वह इस दुर्घटना को सफलता के साथ गुप्त रख सका तब तो कोई बात नहीं; उसकों कलंकित करने का किसी का साहस नहीं; लेकिन अभाग्यवश यदि वह इसे छिपा न सका, भंडाफोड़ हो गया तो फिर माता−पिता के लिए, भाई−बंधुओं के लिए संसार में मुंह दिखाने को नहीं रहता। कोई अपमान इससे दुस्सह, कोई विपत्ति इससे भीषण नहीं। किसी भी व्याधि की इससे भयंकर कल्पना नहीं की जा सकती। लुत्फ तो यह है कि जो लोग बेटियों के विवाह की कठिनाइयों को भोगा चुके होते है वहीं अपने बेटों के विवाह के अवसर पर बिलकुल भुल जाते है कि हमें कितनी ठोकरें खानी पड़ी थीं, जरा भी सहानुभूति नही प्रकट करतें, बल्कि कन्या के विवाह में जो तावान उठाया था उसे चक्र−वृद्धि ब्याज के साथ बेटे के विवाह में वसूल करने पर कटिबद्ध हो जाते हैं। कितने ही माता−पिता इसी चिंता में ग्रहण कर लेता है, कोई बूढ़े के गले कन्या का मढ़ कर अपना गला छुड़ाता है, पात्र−कुपात्र के विचार करने का मौका कहां, ठेलमठेल है।

मुंशी गुलजारीलाल ऐसे ही हतभागे पिताओं में थे। यों उनकी स्थिति बूरी न थी। दो−ढ़ाई सौ रुपये महीने वकालत से पीट लेते थे, पर खानदानी आदमी थे, उदार ह्रदय, बहुत किफायत करने पर भी माकूल बचत न हो सकती थी। सम्बन्धियों का आदर−सत्कार न करें तो नहीं बनता, मित्रों की खातिरदारी न करें तो नही बनता। फिर ईश्वर के दिये हुए दो पुत्र थे, उनका पालन−पोषण, शिक्षण का भार था, क्या करते ! पहली कन्या का विवाह टेढ़ी खीर हो रहा था। यह आवश्यक था कि विवाह अच्छे घराने में हो, अन्यथा लोग हंसेगे और अच्छे घराने के लिए कम−से−कम पांच हजार का तखमीना था। उधर पुत्री सयानी होती जाती थी। वह अनाज जो लड़के खाते थे, वह भी खाती थी; लेकिन लड़कों को देखो तो जैसे सूखों का रोग लगा हो और लड़की शुक्ल पक्ष का चांद हो रही थी। बहुत दौड़−धूप करने पर बचारे को एक लड़का मिला। बाप आबकारी के विभाग में ४०० रु० का नौकर था, लड़का सुशिक्षित। स्त्री से आकार बोले, लड़का तो मिला और घरबार−एक भी काटने योग्य नहीं; पर कठिनाई यही है कि लड़का कहता है, मैं अपना विवाह न करुंगा। बाप ने समझाया, मैने कितना समझाया, औरों ने समझाया, पर वह टस से मस नहीं होता। कहता है, मै कभी विवाह न करुंगा। समझ में नहीं आता, विवाह से क्यों इतनी घृणा करता है। कोई कारण नहीं बतलाता, बस यही कहता है, मेरी इच्छा। मां बाप का एकलौता लड़का है। उनकी परम इच्छा है कि इसका विवाह हो जाय, पर करें क्या? यों उन्होने फलदान तो रख लिया है पर मुझसे कह दिया है कि लड़का स्वभाव का हठीला है, अगर न मानेगा तो फलदान आपको लौटा दिया जायेगा।


स्त्री ने कहा−−तुमने लड़के को एकांत में बुलावकर पूछा नहीं?


गुलजारीलाल−−बुलाया था। बैठा रोता रहा, फिर उठकर चला गया। तुमसे क्या कहूं, उसके पैरों पर गिर पड़ा; लेकिन बिना कुछ कहे उठाकर चला गया।

स्त्री−−देखो, इस लड़की के पीछे क्या−क्या झेलना पड़ता है?


गुलजारीलाल−−कुछ नहीं, आजकल के लौंडे सैलानी होते हैं। अंगरेजी पुस्तकों में पढ़ते है कि विलायत में कितने ही लोग अविवाहित रहना ही पसंद करते है। बस यही सनक सवार हो जाती है कि निर्द्वद्व रहने में ही जीवन की सुख और शांति है। जितनी मुसीबतें है वह सब विवाह ही में है। मैं भी कालेज में था तब सोचा करता था कि अकेला रहूंगा और मजे से सैर−सपाटा करुंगा।

स्त्री−−है तो वास्तव में बात यही। विवाह ही तो सारी मुसीबतों की जड़ है। तुमने विवाह न किया होता तो क्यों ये चिंताएं होतीं ? मैं भी क्वांरी रहती तो चैन करती।


सके एक महीना बाद मुंशी गुलजारीलाल के पास वर ने यह पत्र लिखा−−


‘पूज्यवर,


सादर प्रणाम।

मैं आज बहुत असमंजस में पड़कर यह पत्र लिखने का साहस कर रहा हूं। इस धृष्टता को क्षमा कीजिएगा।

आपके जाने के बाद से मेरे पिताजी और माताजी दोनों मुझ पर विवाह करने के लिए नाना प्रकार से दबाव डाल रहे है। माताजी रोती है, पिताजी नाराज होते हैं। वह समझते है कि मैं अपनी जिद के कारण विवाह से भागता हूं। कदाचिता उन्हे यह भी सन्देह हो रहा है कि मेरा चरित्र भ्रष्ट हो गया है। मैं वास्तविक कारण बताते हुए डारता हूं कि इन लोगों को दु:ख होगा और आश्चर्य नहीं कि शोक में उनके प्राणों पर ही बन जाय। इसलिए अब तक मैने जो बात गुप्त रखी थी, वह आज विवश होकर आपसे प्रकट करता हूं और आपसे साग्रह निवेदन करता हूं कि आप इसे गोपनीय समझिएगा और किसी दशा में भी उन लोगों के कानों में इसकी भनक न पड़ने दीजिएगा। जो होना है वह तो होगा है, पहले ही से क्यों उन्हे शोक में डुबाऊं। मुझे ५−६ महीनों से यह अनुभव हो रहा है कि मैं क्षय रोग से ग्रसित हूं। उसके सभी लक्षण प्रकट होते जाते है। डाक्टरों की भी यही राय है। यहां सबसे अनुभवी जो दो डाक्टर हैं, उन दोनों ही से मैने अपनी आरोग्य−परीक्षा करायी और दोनो ही ने स्पष्ट कहा कि तुम्हे सिल है। अगर माता−पिता से यह कह दूं तो वह रो−रो कर मर जायेगें। जब यह निश्चय है कि मैं संसार में थोड़े ही दिनों का मेहमान हूं तो मेरे लिए विवाह की कल्पना करना भी पाप है। संभव है कि मैं विशेष प्रयत्न करके साल दो साल जीवित रहूं, पर वह दशा और भी भयंकर होगी, क्योकि अगर कोई संतान हुई तो वह भी मेरे संस्कार से अकाल मृत्यु पायेगी और कदाचित् स्त्री को भी इसी रोग−राक्षस का भक्ष्य बनना पड़े। मेरे अविवाहित रहने से जो बीतेगी, मुझ पर बीतेगी। विवाहित हो जाने से मेरे साथ और कई जीवों का नाश हो जायगा। इसलिए आपसे मेरी प्रार्थना है कि मुझे इस बन्धन में डालने के लिए आग्रह न कीजिए, अन्यथा आपको पछताना पड़ेगा।

सेवक

‘हजारीलाल।’

पत्र पढ़कर गुलजारीलाल ने स्त्री की ओर देखा और बोले−−इस पत्र के विषय में तुम्हारा क्या विचार हैं।

स्त्री−−मुझे तो ऐसा मालूम होता है कि उसने बहाना रचा है।

गुलजारीलाल−−बस−बस, ठीक यही मेरा भी विचार है। उसने समझा है कि बीमारी का बहाना कर दूंगा तो आप ही हट जायेंगे। असल में बीमारी कुछ नहीं। मैने तो देखा ही था, चेहरा चमक रहा था। बीमार का मुंह छिपा नहीं रहता।

स्त्री−−राम नाम ले के विवाह करो, कोई किसी का भाग्य थोड़े ही पढ़े बैठा है।

गुलजारीलाल−−यही तो मै सोच रहा हूं।

स्त्री−−न हो किसी डाक्टर से लड़के को दिखाओं । कहीं सचमुच यह बीमारी हो तो बेचारी अम्बा कहीं की न रहे। गुलजारीलाल−तुम भी पागल हो क्या? सब हीले−हवाले हैं। इन छोकरों के दिल का हाल मैं खुब जानता हूं। सोचता होगा अभी सैर−सपाटे कर रहा हूं, विवाह हो जायगा तो यह गुलछर्रे कैसे उड़ेगे!

स्त्री−−तो शुभ मुहूर्त देखकर लग्न भिजवाने की तैयारी करो।


हजारीलाल बड़े धर्म−सन्देह में था। उसके पैरों में जबरदस्ती विवाह की बेड़ी डाली जा रही थी और वह कुछ न कर सकता था। उसने ससुर का अपना कच्चा चिट्ठा कह सुनाया; मगर किसी ने उसकी बालों पर विश्वास न किया। मां−बाप से अपनी बीमारी का हाल कहने का उसे साहस न होता था। न जाने उनके दिल पर क्या गुजरे, न जाने क्या कर बैठें? कभी सोचता किसी डाक्टर की शहदत लेकर ससूर के पास भेज दूं, मगर फिर ध्यान आता, यदि उन लोगों को उस पर भी विश्वास न आया, तो? आजकल डाक्टरी से सनद ले लेना कौन−सा मुश्किल काम है। सोचेंगे, किसी डाक्टर को कुछ दे दिलाकर लिखा लिया होगा। शादी के लिए तो इतना आग्रह हो रहा था, उधर डाक्टरों ने स्पष्ट कह दिया था कि अगर तुमने शादी की तो तुम्हारा जीवन−सुत्र और भी निर्बल हो जाएगा। महीनों की जगह दिनों में वारा−न्यारा हो जाने की सम्भावाना है।

लग्न आ चुकी थी। विवाह की तैयारियां हो रही थीं, मेहमान आते−जाते थे और हजारीलाल घर से भागा−भागा फिरता था। कहां चला जाऊं? विवाह की कल्पना ही से उसके प्राण सूख जाते थे। आह ! उस अबला की क्या गति होगी ? जब उसे यह बात मालूम होगी तो वह मुझे अपने मन में क्या कहेगी? कौन इस पाप का प्रायश्चित करेगा ? नहीं, उस अबला पर घोर अत्याचार न करुंगा, उसे वैधव्य की आग में न जलाऊंगा। मेरी जिन्दगी ही क्या, आज न मरा कल मरुंगा, कल नहीं तो परसों, तो क्यों न आज ही मर जाऊं। आज ही जीवन का और उसके साथ सारी चिंताओं को, सारी विपत्तियों का अन्त कर दूं। पिता जी रोयेंगे, अम्मां प्राण त्याग देंगी; लेकिन एक बालिका का जीवन तो सफल हो जाएगा, मेरे बाद कोई अभागा अनाथ तो न रोयेगा।

क्यों न चलकर पिताजी से कह दूं? वह एक−दो दिन दुःखी रहेंगे, अम्मां जी दो−एक रोज शोक से निराहार रह जायेगीं, कोई चिंता नहीं। अगर माता−पिता के इतने कष्ट से एक युवती की प्राण−रक्षा हो जाए तो क्या छोटी बात है?

यह सोचकर वह धीरे से उठा और आकर पिता के सामने खड़ा हो गया।

रात के दस बज गये थे। बाबू दरबारीलाल चारपाई पर लेटे हुए हुक्का पी रहे थे। आज उन्हे सारा दिन दौड़ते गुजरा था। शामियाना तय किया; बाजे वालों को बयाना दिया; आतिशबाजी, फुलवारी आदि का प्रबन्ध किया। घंटो ब्राहमणों के साथ सिर मारते रहे, इस वक्त जरा कमर सीधी कर रहें थे कि सहसा हजारीलाल को सामने देखकर चौंक पड़ें। उसका उतरा हुआ चेहरा सजल आंखे और कुंठित मुख देखा तो कुछ चिंतित होकर बोले−−क्यों लालू, तबीयत तो अच्छी है न? कुछ उदास मालूम होते हो।

हजारीलाल−−मै आपसे कुछ कहना चाहता हूं; पर भय होता है कि कहीं आप अप्रसन्न न हों।

दरबारीलाल−−समझ गया, वही पुरानी बात है न ? उसके सिवा कोई दूसरी बात हो शौक से कहो।

हजारीलाल−−खेद है कि मैं उसी विषय में कुछ कहना चाहता हूं।


दरबारीलाल−−यही कहना चाहता हो न मुझे इस बन्धन में न डालिए, मैं इसके अयोग्य हूं, मै यह भार सह नहीं सकता, बेड़ी मेरी गर्दन को तोड़ देगी, आदि या और कोई नई बात ?

हजारीलाल−−जी नहीं नई बात है। मैं आपकी आज्ञा पालन करने के लिए सब प्रकार तैयार हूं; पर एक ऐसी बात है, जिसे मैने अब तक छिपाया था, उसे भी प्रकट कर देना चाहता हूं। इसके बाद आप जो कुछ निश्चय करेंगे उसे मैं शिरोधार्य करुंगा।

हजारीलाल ने बड़े विनीत शब्दों में अपना आशय कहा, डाक्टरों की राय भी बयान की और अन्त में बोलें−−ऐसी दशा में मुझे पूरी आशा है कि आप मुझे विवाह करने के लिए बाध्य न करेंगें। दरबारीलाल ने पुत्र के मुख की और गौर से देखा, कहे जर्दी का नाम न था, इस कथन पर विश्वास न आया; पर अपना अविश्वास छिपाने और अपना हार्दिक शोक प्रकट करने के लिए वह कई मिनट तक गहरी चिंता में मग्न रहे। इसके बाद पीड़ित कंठ से बोले−−बेटा, इस इशा में तो विवाह करना और भी आवश्यक है। ईश्वर न करें कि हम वह बुरा दिन देखने के लिए जीते रहे, पर विवाह हो जाने से तुम्हारी कोई निशानी तो रह जाएगी। ईश्वर ने कोई संतान दे दी तो वही हमारे बुढ़ापे की लाठी होगी, उसी का मुंह देखरेख कर दिल को समझायेंगे, जीवन का कुछ आधार तो रहेगा। फिर आगे क्या होगा, यह कौन कह सकता है ? डाक्टर किसी की कर्म−रेखा तो नहीं पढ़ते, ईश्वर की लीला अपरम्पार है, डाक्टर उसे नहीं समझ सकते । तुम निश्चिंत होकर बैठों, हम जो कुछ करते है, करने दो। भगवान चाहेंगे तो सब कल्याण ही होगा।

हजारीलाल ने इसका कोई उत्तर नहीं दिया। आंखे डबडबा आयीं, कंठावरोध के कारण मुंह तक न खोल सका। चुपके से आकर अपने कमरे मे लेट रहा।

तीन दिन और गुजर गये, पर हजारीलाल कुछ निश्चय न कर सका। विवाह की तैयारियों में रखे जा चुके थे। मंत्रेयी की पूजा हो चूकी थी और द्वार पर बाजों का शोर मचा हुआ था। मुहल्ले के लड़के जमा होकर बाजा सुनते थे और उल्लास से इधर−उधर दौड़ते थे।

संध्या हो गयी थी। बरात आज रात की गाड़ी से जाने वाली थी। बरातियों ने अपने वस्त्राभूष्ण पहनने शुरु किये। कोई नाई से बाल बनवाता था और चाहता था कि खत ऐसा साफ हो जाय मानों वहां बाल कभी थे ही नहीं, बुढ़े अपने पके बाल को उखड़वा कर जवान बनने की चेष्टा कर रहे थे। तेल, साबुन, उबटन की लूट मची हुई थी और हजारीलाल बगीचे मे एक वृक्ष के नीचे उदास बैठा हुआ सोच रहा था, क्या करुं?

अन्तिम निश्चय की घड़ी सिर पर खड़ी थी। अब एक क्षण भी विल्म्ब करने का मौका न था। अपनी वेदना किससे कहें, कोई सुनने वाला न था।


उसने सोचा हमारे माता−पिता कितने अदुरदर्शी है, अपनी उमंग में इन्हे इतना भी नही सूझता कि वधु पर क्या गुजरेगी। वधू के माता−पिता कितने अदूरर्शी है, अपनी उमंग मे भी इतने अन्धे हो रहे है कि देखकर भी नहीं देखते, जान कर नहीं जानते।

क्या यह विवाह है? कदापि नहीं। यह तो लड़की का कुएं में डालना है, भाड़ मे झोंकना है, कुंद छुरे से रेतना है। कोई यातना इतनी दुस्सह, कर अपनी पुत्री का वैधव्य् के अग्नि−कुंड में डाल देते है। यह माता−पिता है? कदापि नहीं। यह लड़की के शत्रु है, कसाई है, बधिक हैं, हत्यारे है। क्या इनके लिए कोई दण्ड नहीं ? जो जान−बूझ कर अपनी प्रिय संतान के खुन से अपने हाथ रंगते है, उसके लिए कोई दण्ड नहीं? समाज भी उन्हे दण्ड नहीं देता, कोई कुछ नहीं कहता। हाय !

यह सोचकर हजारीलाल उठा और एक ओर चुपचाप चल दिया। उसके मुख पर तेज छाया हुआ था। उसने आत्म−बलिदान से इस कष्ट का निवारण करने का दृढ़ संकल्प कर लिया था। उसे मृत्यु का लेश−मात्र भी भय न था। वह उस दशा का पहुंच गया था जब सारी आशाएं मृत्यु पर ही अवलम्बित हो जाती है।

उस दिन से फिर किसी ने हजारीलाल की सूरत नहीं देखी। मालूम नहीं जमीन खा गई या आसमान। नादियों मे जाल डाले गए, कुओं में बांस पड़ गए, पुलिस में हुलिया गया, समाचार−पत्रों मे विज्ञप्ति निकाली गई, पर कहीं पता न चला ।

कई हफ्तो के बाद, छावनी रेलवे से एक मील पश्चिम की ओर सड़क पर कुछ हड्डियां मिलीं। लोगो को अनुमान हुआ कि हजारीलाल ने गाड़ी के नीचे दबकर जान दी, पर निश्चित रुप से कुछ न मालुम हुआ।


भादों का महीना था और तीज का दिन था। घरों में सफाई हो रही थी। सौभाग्यवती रमणियां सोलहो श्रृंगार किए गंगा−स्नान करने जा रही थीं। अम्बा स्नान करके लौट आयी थी और तुलसी के कच्चे चबूतरे के सामने खड़ी वंदना कर रही थी। पतिगृह में उसे यह पहली ही तीज थी, बड़ी उमंगो से व्रत रखा था। सहसा उसके पति ने अन्दर आ कर उसे सहास नेत्रों से देखा और बोला−−मुंशी दरबारी लाल तुम्हारे कौन होते है, यह उनके यहां से तुम्हारे लिए तीज पठौनी आयी है। अभी डाकिया दे गया है।


यह कहकर उसने एक पार्सल चारपाई पर रख दिया। दरबारीलाल का नाम सुनते ही अम्बा की आंखे सजल हो गयीं। वह लपकी हुयी आयी और पार्सल स्मृतियां जीवित हो गयीं, ह्रदय में हजारीलाल के प्रति श्रद्धा का एक उद्−गार−सा उठ पड़ा। आह! यह उसी देवात्मा के आत्मबलिदान का पुनीत फल है कि मुझे यह दिन देखना नसीब हुआ। ईश्वर उन्हे सद्−गति दें। वह आदमी नहीं, देवता थे, जिसने अपने कल्याण के निमित्त अपने प्राण तक समर्पण कर दिए।

पति ने पूछा−−दरबारी लाल तुम्हारी चचा हैं।

अम्बा−−हां।

पति−−इस पत्र में हजारीलाल का नाम लिखा है, यह कौन है?

अम्बा−−यह मुंशी दरबारी लाल के बेटे हैं।

पति−−तुम्हारे चचरे भाई ?

अम्बा−−नहीं, मेरे परम दयालु उद्धारक, जीवनदाता, मुझे अथाह जल में डुबने से बचाने वाले, मुझे सौभाग्य का वरदान देने वाले।


पति ने इस भाव कहा मानो कोई भूली हुई बात याद आ गई हो−−आह! मैं समझ गया। वास्तव में वह मनुष्य नहीं देवता थे।

12 जनवरी, 2010

ईश्वरीय न्याय - कहानी (प्रेमचंद)



कानपुर जिले में पंडित भृगुदत्त नामक एक बड़े जमींदार थे। मुंशी सत्यनारायण उनके कारिंदा थे। वह बड़े स्वामिभक्त और सच्चरित्र मनुष्य थे। लाखों रुपये की तहसील और हजारों मन अनाज का लेन-देन उनके हाथ में था; पर कभी उनकी नियत डावॉँडोल न होती। उनके सुप्रबंध से रियासत दिनोंदिन उन्नति करती जाती थी। ऐसे कत्तर्व्यपरायण सेवक का जितना सम्मान होना चाहिए, उससे अधिक ही होता था। दु:ख-सुख के प्रत्येक अवसर पर पंडित जी उनके साथ बड़ी उदारता से पेश आते। धीरे-धीरे मुंशी जी का विश्वास इतना बढ़ा कि पंडित जी ने हिसाब-किताब का समझना भी छोड़ दिया। सम्भव है, उनसे आजीवन इसी तरह निभ जाती, पर भावी प्रबल है। प्रयाग में कुम्भ लगा, तो पंडित जी भी स्नान करने गये। वहॉँ से लौटकर फिर वे घर न आये। मालूम नहीं, किसी गढ़े में फिसल पड़े या कोई जल-जंतु उन्हें खींच ले गया, उनका फिर कुछ पता ही न चला। अब मुंशी सत्यनाराण के अधिकार और भी बढ़े। एक हतभागिनी विधवा और दो छोटे-छोटे बच्चों के सिवा पंडित जी के घर में और कोई न था। अंत्येष्टि-क्रिया से निवृत्त होकर एक दिन शोकातुर पंडिताइन ने उन्हें बुलाया और रोकर कहा—लाला, पंडित जी हमें मँझधार में छोड़कर सुरपुर को सिधर गये, अब यह नैया तुम्ही पार लगाओगे तो लग सकती है। यह सब खेती तुम्हारी लगायी हुई है, इसे तुम्हारे ही ऊपर छोड़ती हूँ। ये तुम्हारे बच्चे हैं, इन्हें अपनाओ। जब तक मालिक जिये, तुम्हें अपना भाई समझते रहे। मुझे विश्वास है कि तुम उसी तरह इस भार को सँभाले रहोगे।

सत्यनाराण ने रोते हुए जवाब दिया—भाभी, भैया क्या उठ गये, मेरे तो भाग्य ही फूट गये, नहीं तो मुझे आदमी बना देते। मैं उन्हीं का नमक खाकर जिया हूँ और उन्हीं की चाकरी में मरुँगा भी। आप धीरज रखें। किसी प्रकार की चिंता न करें। मैं जीते-जी आपकी सेवा से मुँह न मोडूँगा। आप केवल इतना कीजिएगा कि मैं जिस किसी की शिकायत करुँ, उसे डॉँट दीजिएगा; नहीं तो ये लोग सिर चढ़ जायेंगे।


इस घटना के बाद कई वर्षो तक मुंशीजी ने रियासत को सँभाला। वह अपने काम में बड़े कुशल थे। कभी एक कौड़ी का भी बल नहीं पड़ा। सारे जिले में उनका सम्मान होने लगा। लोग पंडित जी को भूल- सा गये। दरबारों और कमेटियों में वे सम्मिलित होते, जिले के अधिकारी उन्हीं को जमींदार समझते। अन्य रईसों में उनका आदर था; पर मान-वृद्वि की महँगी वस्तु है। और भानुकुँवरि, अन्य स्त्रियों के सदृश पैसे को खूब पकड़ती। वह मनुष्य की मनोवृत्तियों से परिचित न थी। पंडित जी हमेशा लाला जी को इनाम इकराम देते रहते थे। वे जानते थे कि ज्ञान के बाद ईमान का दूसरा स्तम्भ अपनी सुदशा है। इसके सिवा वे खुद भी कभी कागजों की जॉँच कर लिया करते थे। नाममात्र ही को सही, पर इस निगरानी का डर जरुर बना रहता था; क्योंकि ईमान का सबसे बड़ा शत्रु अवसर है। भानुकुँवरि इन बातों को जानती न थी। अतएव अवसर तथा धनाभाव-जैसे प्रबल शत्रुओं के पंजे में पड़ कर मुंशीजी का ईमान कैसे बेदाग बचता?

कानपुर शहर से मिला हुआ, ठीक गंगा के किनारे, एक बहुत आजाद और उपजाऊ गॉँव था। पंडित जी इस गॉँव को लेकर नदी-किनारे पक्का घाट, मंदिर, बाग, मकान आदि बनवाना चाहते थे; पर उनकी यह कामना सफल न हो सकी। संयोग से अब यह गॉँव बिकने लगा। उनके जमींदार एक ठाकुर साहब थे। किसी फौजदारी के मामले में फँसे हुए थे। मुकदमा लड़ने के लिए रुपये की चाह थी। मुंशीजी ने कचहरी में यह समाचार सुना। चटपट मोल-तोल हुआ। दोनों तरफ गरज थी। सौदा पटने में देर न लगी, बैनामा लिखा गया। रजिस्ट्री हुई। रुपये मौजूद न थे, पर शहर में साख थी। एक महाजन के यहॉँ से तीस हजार रुपये मँगवाये गये और ठाकुर साहब को नजर किये गये। हॉँ, काम-काज की आसानी के खयाल से यह सब लिखा-पढ़ी मुंशीजी ने अपने ही नाम की; क्योंकि मालिक के लड़के अभी नाबालिग थे। उनके नाम से लेने में बहुत झंझट होती और विलम्ब होने से शिकार हाथ से निकल जाता। मुंशीजी बैनामा लिये असीम आनंद में मग्न

भानुकुँवरि के पास आये। पर्दा कराया और यह शुभ-समाचार सुनाया। भानुकुँवरि ने सजल नेत्रों से उनको धन्यवाद दिया। पंडित जी के नाम पर मन्दिर और घाट बनवाने का इरादा पक्का हो गया।

मुँशी जी दूसरे ही दिन उस गॉँव में आये। आसामी नजराने लेकर नये स्वामी के स्वागत को हाजिर हुए। शहर के रईसों की दावत हुई। लोगों के नावों पर बैठ कर गंगा की खूब सैर की। मन्दिर आदि बनवाने के लिए आबादी से हट कर रमणीक स्थान चुना गया।

३।

यद्यपि इस गॉँव को अपने नाम लेते समय मुंशी जी के मन में कपट का भाव न था, तथापि दो-चार दिन में ही उनका अंकुर जम गया और धीरे-धीरे बढ़ने लगा। मुंशी जी इस गॉँव के आय-व्यय का हिसाब अलग रखते और अपने स्वामिनों को उसका ब्योरो समझाने की जरुरत न समझते। भानुकुँवरि इन बातों में दखल देना उचित न समझती थी; पर दूसरे कारिंदों से बातें सुन-सुन कर उसे शंका होती थी कि कहीं मुंशी जी दगा तो न देंगे। अपने मन का भाव मुंशी से छिपाती थी, इस खयाल से कि कहीं कारिंदों ने उन्हें हानि पहुँचाने के लिए यह षड़यंत्र न रचा हो।

इस तरह कई साल गुजर गये। अब उस कपट के अंकुर ने वृक्ष का रुप धारण किया। भानुकुँवरि को मुंशी जी के उस मार्ग के लक्षण दिखायी देने लगे। उधर मुंशी जी के मन ने कानून से नीति पर विजय पायी, उन्होंने अपने मन में फैसला किया कि गॉँव मेरा है। हॉँ, मैं भानुकुँवरि का तीस हजार का ऋणी अवश्य हूँ। वे बहुत करेंगी तो अपने रुपये ले लेंगी और क्या कर सकती हैं? मगर दोनों तरफ यह आग अन्दर ही अन्दर सुलगती रही। मुंशी जी अस्त्रसज्जित होकर आक्रमण के इंतजार में थे और भानुकुँवरि इसके लिए अवसर ढूँढ़ रही थी। एक दिन उसने साहस करके मुंशी जी को अन्दर बुलाया और कहा—लाला जी ‘बरगदा’ के मन्दिर का काम कब से लगवाइएगा? उसे लिये आठ साल हो गये, अब काम लग जाय तो अच्छा हो। जिंदगी का कौन ठिकाना है, जो काम करना है; उसे कर ही डालना चाहिए।

इस ढंग से इस विषय को उठा कर भानुकुँवरि ने अपनी चतुराई का अच्छा परिचय दिया। मुंशी जी भी दिल में इसके कायल हो गये। जरा सोच कर बोले—इरादा तो मेरा कई बार हुआ, पर मौके की जमीन नहीं मिलती। गंगातट की जमीन असामियों के जोत में है और वे किसी तरह छोड़ने पर राजी नहीं।

भानुकुँवरि—यह बात तो आज मुझे मालूम हुई। आठ साल हुए, इस गॉँव के विषय में आपने कभी भूल कर भी दी तो चर्चा नहीं की। मालूम नहीं, कितनी तहसील है, क्या मुनाफा है, कैसा गॉँव है, कुछ सीर होती है या नहीं। जो कुछ करते हैं, आप ही करते हैं और करेंगे। पर मुझे भी तो मालूम होना चाहिए?

मुंशी जी सँभल उठे। उन्हें मालूम हो गया कि इस चतुर स्त्री से बाजी ले जाना मुश्किल है। गॉँव लेना ही है तो अब क्या डर। खुल कर बोले—आपको इससे कोई सरोकार न था, इसलिए मैंने व्यर्थ कष्ट देना मुनासिब न समझा।

भानुकुँवरि के हृदय में कुठार-सा लगा। पर्दे से निकल आयी और मुंशी जी की तरफ तेज ऑंखों से देख कर बोली—आप क्या कहते हैं! आपने गॉँव मेरे लिये लिया था या अपने लिए! रुपये मैंने दिये या आपने? उस पर जो खर्च पड़ा, वह मेरा था या आपका? मेरी समझ में नहीं आता कि आप कैसी बातें करते हैं।

मुंशी जी ने सावधानी से जवाब दिया—यह तो आप जानती हैं कि गॉँव हमारे नाम से बसा हुआ है। रुपया जरुर आपका लगा, पर मैं उसका देनदार हूँ। रहा तहसील-वसूल का खर्च, यह सब मैंने अपने पास से दिया है। उसका हिसाब-किताब, आय-व्यय सब रखता गया हूँ।

भानुकुँवरि ने क्रोध से कॉँपते हुए कहा—इस कपट का फल आपको अवश्य मिलेगा। आप इस निर्दयता से मेरे बच्चों का गला नहीं काट सकते। मुझे नहीं मालूम था कि आपने हृदय में छुरी छिपा रखी है, नहीं तो यह नौबत ही क्यों आती। खैर, अब से मेरी रोकड़ और बही खाता आप कुछ न छुऍं। मेरा जो कुछ होगा, ले लूँगी। जाइए, एकांत में बैठ कर सोचिए। पाप से किसी का भला नहीं होता। तुम समझते होगे कि बालक अनाथ हैं, इनकी सम्पत्ति हजम कर लूँगा। इस भूल में न रहना, मैं तुम्हारे घर की ईट तक बिकवा लूँगी।

यह कहकर भानुकुँवरि फिर पर्दे की आड़ में आ बैठी और रोने लगी। स्त्रियॉँ क्रोध के बाद किसी न किसी बहाने रोया करती हैं। लाला साहब को कोई जवाब न सूझा। यहॉँ से उठ आये और दफ्तर जाकर कागज उलट-पलट करने लगे, पर भानुकुँवरि भी उनके पीछे-पीछे दफ्तर में पहुँची और डॉँट कर बोली—मेरा कोई कागज मत छूना। नहीं तो बुरा होगा। तुम विषैले साँप हो, मैं तुम्हारा मुँह नहीं देखना चाहती।

मुंशी जी कागजों में कुछ काट-छॉँट करना चाहते थे, पर विवश हो गये। खजाने की कुन्जी निकाल कर फेंक दी, बही-खाते पटक दिये, किवाड़ धड़ाके-से बंद किये और हवा की तरह सन्न-से निकल गये। कपट में हाथ तो डाला, पर कपट मन्त्र न जाना।

दूसरें कारिंदों ने यह कैफियत सुनी, तो फूले न समाये। मुंशी जी के सामने उनकी दाल न गलने पाती। भानुकुँवरि के पास आकर वे आग पर तेल छिड़कने लगे। सब लोग इस विषय में सहमत थे कि मुंशी सत्यनारायण ने विश्वासघात किया है। मालिक का नमक उनकी हड्डियों से फूट-फूट कर निकलेगा।

दोनों ओर से मुकदमेबाजी की तैयारियॉँ होने लगीं! एक तरफ न्याय का शरीर था, दूसरी ओर न्याय की आत्मा। प्रकृति का पुरुष से लड़ने का साहस हुआ।

भानकुँवरि ने लाला छक्कन लाल से पूछा—हमारा वकील कौन है? छक्कन लाल ने इधर-उधर झॉँक कर कहा—वकील तो सेठ जी हैं, पर सत्यनारायण ने उन्हें पहले गॉँठ रखा होगा। इस मुकदमें के लिए बड़े होशियार वकील की जरुरत है। मेहरा बाबू की आजकल खूब चल रही है। हाकिम की कलम पकड़ लेते हैं। बोलते हैं तो जैसे मोटरकार छूट जाती है सरकार! और क्या कहें, कई आदमियों को फॉँसी से उतार लिया है, उनके सामने कोई वकील जबान तो खोल नहीं सकता। सरकार कहें तो वही कर लिये जायँ।

छक्कन लाल की अत्युक्ति से संदेह पैदा कर लिया। भानुकुँवरि ने कहा—नहीं, पहले सेठ जी से पूछ लिया जाय। उसके बाद देखा जायगा। आप जाइए, उन्हें बुला लाइए।

छक्कनलाल अपनी तकदीर को ठोंकते हुए सेठ जी के पास गये। सेठ जी पंडित भृगुदत्त के जीवन- काल से ही उनका कानून-सम्बन्धी सब काम किया करते थे। मुकदमे का हाल सुना तो सन्नाटे में आ गये। सत्यनाराण को यह बड़ा नेकनीयत आदमी समझते थे। उनके पतन से बड़ा खेद हुआ। उसी वक्त आये। भानुकुँवरि ने रो-रो कर उनसे अपनी विपत्ति की कथा कही और अपने दोनों लड़कों को उनके सामने खड़ा करके बोली—आप इन अनाथों की रक्षा कीजिए। इन्हें मैं आपको सौंपती हूँ।

सेठ जी ने समझौते की बात छेड़ी। बोले—आपस की लड़ाई अच्छी नहीं।

भानुकुँवरि—अन्यायी के साथ लड़ना ही अच्छा है।

सेठ जी—पर हमारा पक्ष निर्बल है।

भानुकुँवरि फिर पर्दे से निकल आयी और विस्मित होकर बोली—क्या हमारा पक्ष निर्बल है? दुनिया जानती है कि गॉँव हमारा है। उसे हमसे कौन ले सकता है? नहीं, मैं सुलह कभी न करुँगी, आप कागजों को देखें। मेरे बच्चों की खातिर यह कष्ट उठायें। आपका परिश्रम निष्फल न जायगा। सत्यनारायण की नीयत पहले खराब न थी। देखिए जिस मिती में गॉँव लिया गया है, उस मिती में तीस हजार का क्या खर्च दिखाया गया है। अगर उसने अपने नाम उधार लिखा हो, तो देखिए, वार्षिक सूद चुकाया गया या नहीं। ऐसे नरपिशाच से मैं कभी सुलह न करुँगी।

सेठ जी ने समझ लिया कि इस समय समझाने-बुझाने से कुछ काम न चलेगा। कागजात देखें, अभियोग चलाने की तैयारियॉँ होने लगीं।


४।

मुंशी सत्यनारायणलाल खिसियाये हुए मकान पहुँचे। लड़के ने मिठाई मॉँगी। उसे पीटा। स्त्री पर इसलिए बरस पड़े कि उसने क्यों लड़के को उनके पास जाने दिया। अपनी वृद्धा माता को डॉँट कर कहा—तुमसे इतना भी नहीं हो सकता कि जरा लड़के को बहलाओ? एक तो मैं दिन-भर का थका-मॉँदा घर आऊँ और फिर लड़के को खेलाऊँ? मुझे दुनिया में न और कोई काम है, न धंधा। इस तरह घर में बावैला मचा कर बाहर आये, सोचने लगे—मुझसे बड़ी भूल हुई। मैं कैसा मूर्ख हूँ। और इतने दिन तक सारे कागज-पत्र अपने हाथ में थे। चाहता, कर सकता था, पर हाथ पर हाथ धरे बैठे रहा। आज सिर पर आ पड़ी, तो सूझी। मैं चाहता तो बही-खाते सब नये बना सकता था, जिसमें इस गॉँव का और रुपये का जिक्र ही न होता, पर मेरी मूर्खता के कारण घर में आयी हुई लक्ष्मी रुठी जाती हैं। मुझे क्या मालूम था कि वह चुड़ैल मुझसे इस तरह पेश आयेगी, कागजों में हाथ तक न लगाने देगी।

इसी उधेड़बुन में मुंशी जी एकाएक उछल पड़े। एक उपाय सूझ गया—क्यों न कार्यकर्त्ताओं को मिला लूँ? यद्यपि मेरी सख्ती के कारण वे सब मुझसे नाराज थे और इस समय सीधे बात भी न करेंगे, तथापि उनमें ऐसा कोई भी नहीं, जो प्रलोभन से मुठ्ठी में न आ जाय। हॉँ, इसमें रुपये पानी की तरह बहाना पड़ेगा, पर इतना रुपया आयेगा कहॉँ से? हाय दुर्भाग्य? दो-चार दिन पहले चेत गया होता, तो कोई कठिनाई न पड़ती। क्या जानता था कि वह डाइन इस तरह वज्र-प्रहार करेगी। बस, अब एक ही उपाय है। किसी तरह कागजात गुम कर दूँ। बड़ी जोखिम का काम है, पर करना ही पड़ेगा।

दुष्कामनाओं के सामने एक बार सिर झुकाने पर फिर सँभलना कठिन हो जाता है। पाप के अथाह दलदल में जहॉँ एक बार पड़े कि फिर प्रतिक्षण नीचे ही चले जाते हैं। मुंशी सत्यनारायण-सा विचारशील मनुष्य इस समय इस फिक्र में था कि कैसे सेंध लगा पाऊँ!

मुंशी जी ने सोचा—क्या सेंध लगाना आसान है? इसके वास्ते कितनी चतुरता, कितना साहब, कितनी बुद्वि, कितनी वीरता चाहिए! कौन कहता है कि चोरी करना आसान काम है? मैं जो कहीं पकड़ा गया, तो मरने के सिवा और कोई मार्ग न रहेगा।

बहुत सोचने-विचारने पर भी मुंशी जी को अपने ऊपर ऐसा दुस्साहस कर सकने का विश्वास न हो सका। हॉँ, इसमें सुगम एक दूसरी तदबीर नजर आयी—क्यों न दफ्तर में आग लगा दूँ? एक बोतल मिट्टी का तेल और दियासलाई की जरुरत हैं किसी बदमाश को मिला लूँ, मगर यह क्या मालूम कि वही उसी कमरे में रखी है या नहीं। चुड़ैल ने उसे जरुर अपने पास रख लिया होगा। नहीं; आग लगाना गुनाह बेलज्जत होगा।

बहुत देर मुंशी जी करवटें बदलते रहे। नये-नये मनसूबे सोचते; पर फिर अपने ही तर्को से काट देते। वर्षाकाल में बादलों की नयी-नयी सूरतें बनती और फिर हवा के वेग से बिगड़ जाती हैं; वही दशा इस समय उनके मनसूबों की हो रही थी।

पर इस मानसिक अशांति में भी एक विचार पूर्णरुप से स्थिर था—किसी तरह इन कागजात को अपने हाथ में लाना चाहिए। काम कठिन है—माना! पर हिम्मत न थी, तो रार क्यों मोल ली? क्या तीस हजार की जायदाद दाल-भात का कौर है?—चाहे जिस तरह हो, चोर बने बिना काम नहीं चल सकता। आखिर जो लोग चोरियॉँ करते हैं, वे भी तो मनुष्य ही होते हैं। बस, एक छलॉँग का काम है। अगर पार हो गये, तो राज करेंगे, गिर पड़े, तो जान से हाथ धोयेंगे।

५।

रात के दस बज गये। मुंशी सत्यनाराण कुंजियों का एक गुच्छा कमर में दबाये घर से बाहर निकले। द्वार पर थोड़ा-सा पुआल रखा हुआ था। उसे देखते ही वे चौंक पड़े। मारे डर के छाती धड़कने लगी। जान पड़ा कि कोई छिपा बैठा है। कदम रुक गये। पुआल की तरफ ध्यान से देखा। उसमें बिलकुल हरकत न हुई! तब हिम्मत बॉँधी, आगे बड़े और मन को समझाने लगे—मैं कैसा बौखल हूँ

अपने द्वार पर किसका डर और सड़क पर भी मुझे किसका डर है? मैं अपनी राह जाता हूँ। कोई मेरी तरफ तिरछी ऑंख से नहीं देख सकता। हॉँ, जब मुझे सेंध लगाते देख ले—नहीं, पकड़ ले तब अलबत्ते डरने की बात है। तिस पर भी बचाव की युक्ति निकल सकती है।

अकस्मात उन्होंने भानुकुँवरि के एक चपरासी को आते हुए देखा। कलेजा धड़क उठा। लपक कर एक अँधेरी गली में घुस गये। बड़ी देर तक वहॉँ खड़े रहे। जब वह सिपाही ऑंखों से ओझल हो गया, तब फिर सड़क पर आये। वह सिपाही आज सुबह तक इनका गुलाम था, उसे उन्होंने कितनी ही बार गालियॉँ दी थीं, लातें मारी थीं, पर आज उसे देखकर उनके प्राण सूख गये।

उन्होंने फिर तर्क की शरण ली। मैं मानों भंग खाकर आया हूँ। इस चपरासी से इतना डरा मानो कि वह मुझे देख लेता, पर मेरा कर क्या सकता था? हजारों आदमी रास्ता चल रहे हैं। उन्हीं में मैं भी एक हूँ। क्या वह अंतर्यामी है? सबके हृदय का हाल जानता है? मुझे देखकर वह अदब से सलाम करता और वहॉँ का कुछ हाल भी कहता; पर मैं उससे ऐसा डरा कि सूरत तक न दिखायी। इस तरह मन को समझा कर वे आगे बढ़े। सच है, पाप के पंजों में फँसा हुआ मन पतझड़ का पत्ता है, जो हवा के जरा-से झोंके से गिर पड़ता है।

मुंशी जी बाजार पहुँचे। अधिकतर दूकानें बंद हो चुकी थीं। उनमें सॉँड़ और गायें बैठी हुई जुगाली कर रही थी। केवल हलवाइयों की दूकानें खुली थी और कहीं-कहीं गजरेवाले हार की हॉँक लगाते फिरते थे। सब हलवाई मुंशी जी को पहचानते थे, अतएव मुंशी जी ने सिर झुका लिया। कुछ चाल बदली और लपकते हुए चले। एकाएक उन्हें एक बग्घी आती दिखायी दी। यह सेठ बल्लभदास सवकील की बग्घी थी। इसमें बैठकर हजारों बार सेठ जी के साथ कचहरी गये थे, पर आज वह बग्घी कालदेव के समान भयंकर मालूम हुई। फौरन एक खाली दूकान पर चढ़ गये। वहॉँ विश्राम करने वाले सॉँड़ ने समझा, वे मुझे पदच्युत करने आये हैं! माथा झुकाये फुंकारता हुआ उठ बैठा; पर इसी बीच में बग्घी निकल गयी और मुंशी जी की जान में जान आयी। अबकी उन्होंने तर्क का आश्रय न लिया। समझ गये कि इस समय इससे कोई लाभ नहीं, खैरियत यह हुई कि वकील ने देखा नहीं। यह एक घाघ हैं। मेरे चेहरे से ताड़ जाता।

कुछ विद्वानों का कथन है कि मनुष्य की स्वाभाविक प्रवृत्ति पाप की ओर होती है, पर यह कोरा अनुमान ही अनुमान है, अनुभव-सिद्ध बात नहीं। सच बात तो यह है कि मनुष्य स्वभावत: पाप-भीरु होता है और हम प्रत्यक्ष देख रहे हैं कि पाप से उसे कैसी घृणा होती है।

एक फर्लांग आगे चल कर मुंशी जी को एक गली मिली। वह भानुकुँवरि के घर का एक रास्ता था। धुँधली-सी लालटेन जल रही थी। जैसा मुंशी जी ने अनुमान किया था, पहरेदार का पता न था। अस्तबल में चमारों के यहॉँ नाच हो रहा था। कई चमारिनें बनाव-सिंगार करके नाच रही थीं। चमार मृदंग बजा-बजा कर गाते थे—

‘नाहीं घरे श्याम, घेरि आये बदरा।
सोवत रहेउँ, सपन एक देखेउँ, रामा।
खुलि गयी नींद, ढरक गये कजरा।
नाहीं घरे श्याम, घेरि आये बदरा।’

दोनों पहरेदार वही तमाशा देख रहे थे। मुंशी जी दबे-पॉँव लालटेन के पास गए और जिस तरह बिल्ली चूहे पर झपटती है, उसी तरह उन्होंने झपट कर लालटेन को बुझा दिया। एक पड़ाव पूरा हो गया, पर वे उस कार्य को जितना दुष्कर समझते थे, उतना न जान पड़ा। हृदय कुछ मजबूत हुआ। दफ्तर के बरामदे में पहुँचे और खूब कान लगाकर आहट ली। चारों ओर सन्नाटा छाया हुआ था। केवल चमारों का कोलाहल सुनायी देता था। इस समय मुंशी जी के दिल में धड़कन थी, पर सिर धमधम कर रहा था; हाथ-पॉँव कॉँप रहे थे, सॉँस बड़े वेग से चल रही थी। शरीर का एक-एक रोम ऑंख और कान बना हुआ था। वे सजीवता की मूर्ति हो रहे थे। उनमें जितना पौरुष, जितनी चपलता, जितना-साहस, जितनी चेतना, जितनी बुद्वि, जितना औसान था, वे सब इस वक्त सजग और सचेत होकर इच्छा-शक्ति की सहायता कर रहे थे।

दफ्तर के दरवाजे पर वही पुराना ताला लगा हुआ था। इसकी कुंजी आज बहुत तलाश करके वे बाजार से लाये थे। ताला खुल गया, किवाड़ो ने बहुत दबी जबान से प्रतिरोध किया। इस पर किसी ने ध्यान न दिया। मुंशी जी दफ्तर में दाखिल हुए। भीतर चिराग जल रहा था। मुंशी जी को देख कर उसने एक दफे सिर हिलाया, मानो उन्हें भीतर आने से रोका।

मुंशी जी के पैर थर-थर कॉँप रहे थे। एड़ियॉँ जमीन से उछली पड़ती थीं। पाप का बोझ उन्हें असह्य था।

पल-भर में मुंशी जी ने बहियों को उलटा-पलटा। लिखावट उनकी ऑंखों में तैर रही थी। इतना अवकाश कहॉँ था कि जरुरी कागजात छॉँट लेते। उन्होंनें सारी बहियों को समेट कर एक गट्ठर बनाया और सिर पर रख कर तीर के समान कमरे के बाहर निकल आये। उस पाप की गठरी को लादे हुए वह अँधेरी गली से गायब हो गए।

तंग, अँधेरी, दुर्गन्धपूर्ण कीचड़ से भरी हुई गलियों में वे नंगे पॉँव, स्वार्थ, लोभ और कपट का बोझ लिए चले जाते थे। मानो पापमय आत्मा नरक की नालियों में बही चली जाती थी।

बहुत दूर तक भटकने के बाद वे गंगा किनारे पहुँचे। जिस तरह कलुषित हृदयों में कहीं-कहीं धर्म का धुँधला प्रकाश रहता है, उसी तरह नदी की काली सतह पर तारे झिलमिला रहे थे। तट पर कई साधु धूनी जमाये पड़े थे। ज्ञान की ज्वाला मन की जगह बाहर दहक रही थी। मुंशी जी ने अपना गट्ठर उतारा और चादर से खूब मजबूत बॉँध कर बलपूर्वक नदी में फेंक दिया। सोती हुई लहरों में कुछ हलचल हुई और फिर सन्नाटा हो गया।


६।

मुंशी सतयनाराणलाल के घर में दो स्त्रियॉँ थीं—माता और पत्नी। वे दोनों अशिक्षिता थीं। तिस पर भी मुंशी जी को गंगा में डूब मरने या कहीं भाग जाने की जरुरत न होती थी ! न वे बॉडी पहनती थी, न मोजे-जूते, न हारमोनियम पर गा सकती थी। यहॉँ तक कि उन्हें साबुन लगाना भी न आता था। हेयरपिन, ब्रुचेज, जाकेट आदि परमावश्यक चीजों का तो नाम ही नहीं सुना था। बहू में आत्म- सम्मान जरा भी नहीं था; न सास में आत्म-गौरव का जोश। बहू अब तक सास की घुड़कियॉँ भीगी बिल्ली की तरह सह लेती थी—हा मूर्खे ! सास को बच्चे के नहलाने-धुलाने, यहॉँ तक कि घर में झाड़ू देने से भी घृणा न थी, हा ज्ञानांधे! बहू स्त्री क्या थी, मिट्टी का लोंदा थी। एक पैसे की जरुरत होती तो सास से मॉँगती। सारांश यह कि दोनों स्त्रियॉँ अपने अधिकारों से बेखबर, अंधकार में पड़ी हुई पशुवत् जीवन व्यतीत करती थीं। ऐसी फूहड़ थी कि रोटियां भी अपने हाथों से बना लेती थी। कंजूसी के मारे दालमोट, समोसे कभी बाजार से न मँगातीं। आगरे वाले की दूकान की चीजें खायी होती तो उनका मजा जानतीं। बुढ़िया खूसट दवा-दरपन भी जानती थी। बैठी-बैठी घास- पात कूटा करती।

मुंशी जी ने मॉँ के पास जाकर कहा—अम्मॉँ ! अब क्या होगा? भानुकुँवरि ने मुझे जवाब दे दिया।

माता ने घबरा कर पूछा—जवाब दे दिया?

मुंशी—हॉँ, बिलकुल बेकसूर!

माता—क्या बात हुई? भानुकुँवरि का मिजाज तो ऐसा न था।

मुंशी—बात कुछ न थी। मैंने अपने नाम से जो गॉँव लिया था, उसे मैंने अपने अधिकार में कर लिया। कल मुझसे और उनसे साफ-साफ बातें हुई। मैंने कह दिया कि गॉँव मेरा है। मैंने अपने नाम से लिया है, उसमें तुम्हारा कोई इजारा नहीं। बस, बिगड़ गयीं, जो मुँह में आया, बकती रहीं। उसी वक्त मुझे निकाल दिया और धमका कर कहा—मैं तुमसे लड़ कर अपना गॉँव ले लूँगी। अब आज ही उनकी तरफ से मेरे ऊपर मुकदमा दायर होगा; मगर इससे होता क्या है? गॉँव मेरा है। उस पर मेरा कब्जा है। एक नहीं, हजार मुकदमें चलाएं, डिगरी मेरी होगी?

माता ने बहू की तरफ मर्मांतक दृष्टि से देखा और बोली—क्यों भैया? वह गॉँव लिया तो था तुमने उन्हीं के रुपये से और उन्हीं के वास्ते?

मुंशी—लिया था, तब लिया था। अब मुझसे ऐसा आबाद और मालदार गॉँव नहीं छोड़ा जाता। वह मेरा कुछ नहीं कर सकती। मुझसे अपना रुपया भी नहीं ले सकती। डेढ़ सौ गॉँव तो हैं। तब भी हवस नहीं मानती।

माना—बेटा, किसी के धन ज्यादा होता है, तो वह उसे फेंक थोड़े ही देता है? तुमने अपनी नीयत बिगाड़ी, यह अच्छा काम नहीं किया। दुनिया तुम्हें क्या कहेगी? और दुनिया चाहे कहे या न कहे, तुमको भला ऐसा करना चाहिए कि जिसकी गोद में इतने दिन पले, जिसका इतने दिनों तक नमक खाया, अब उसी से दगा करो? नारायण ने तुम्हें क्या नहीं दिया? मजे से खाते हो, पहनते हो, घर में नारायण का दिया चार पैसा है, बाल-बच्चे हैं, और क्या चाहिए? मेरा कहना मानो, इस कलंक का टीका अपने माथे न लगाओ। यह अपजस मत लो। बरक्कत अपनी कमाई में होती है; हराम की कौड़ी कभी नहीं फलती।

मुंशी—ऊँह! ऐसी बातें बहुत सुन चुका हूँ। दुनिया उन पर चलने लगे, तो सारे काम बन्द हो जायँ। मैंने इतने दिनों इनकी सेवा की, मेरी ही बदौलत ऐसे-ऐसे चार-पॉँच गॉँव बढ़ गए। जब तक पंडित जी थे, मेरी नीयत का मान था। मुझे ऑंख में धूल डालने की जरुरत न थी, वे आप ही मेरी खातिर कर दिया करते थे। उन्हें मरे आठ साल हो गए; मगर मुसम्मात के एक बीड़े पान की कसम खाता हूँ; मेरी जात से उनको हजारों रुपये-मासिक की बचत होती थी। क्या उनको इतनी भी समझ न थी कि यह बेचारा, जो इतनी ईमानदारी से मेरा काम करता है, इस नफे में कुछ उसे भी मिलना चाहिए? यह कह कर न दो, इनाम कह कर दो, किसी तरह दो तो, मगर वे तो समझती थी कि मैंने इसे बीस रुपये महीने पर मोल ले लिया है। मैंने आठ साल तक सब किया, अब क्या इसी बीस रुपये में गुलामी करता रहूँ और अपने बच्चों को दूसरों का मुँह ताकने के लिए छोड़ जाऊँ? अब मुझे यह अवसर मिला है। इसे क्यों छोडूँ? जमींदारी की लालसा लिये हुए क्यों मरुँ? जब तक जीऊँगा, खुद खाऊँगा। मेरे पीछे मेरे बच्चे चैन उड़ायेंगे।

माता की ऑंखों में ऑंसू भर आये। बोली—बेटा, मैंने तुम्हारे मुँह से ऐसी बातें कभी नहीं सुनी थीं, तुम्हें क्या हो गया है? तुम्हारे आगे बाल-बच्चे हैं। आग में हाथ न डालो।

बहू ने सास की ओर देख कर कहा—हमको ऐसा धन न चाहिए, हम अपनी दाल-रोटी में मगन हैं।

मुंशी—अच्छी बात है, तुम लोग रोटी-दाल खाना, गाढ़ा पहनना, मुझे अब हल्वे-पूरी की इच्छा है।

माता—यह अधर्म मुझसे न देखा जायगा। मैं गंगा में डूब मरुँगी।

पत्नी—तुम्हें यह सब कॉँटा बोना है, तो मुझे मायके पहुँचा दो, मैं अपने बच्चों को लेकर इस घर में न रहूँगी!

मुंशी ने झुँझला कर कहा—तुम लोगों की बुद्वि तो भॉँग खा गयी है। लाखों सरकारी नौकर रात-दिन दूसरों का गला दबा-दबा कर रिश्वतें लेते हैं और चैन करते हैं। न उनके बाल-बच्चों ही को कुछ होता है, न उन्हीं को हैजा पकड़ता है। अधर्म उनको क्यों नहीं खा जाता, जो मुझी को खा जायगा। मैंने तो सत्यवादियों को सदा दु:ख झेलते ही देखा है। मैंने जो कुछ किया है, सुख लूटूँगा। तुम्हारे मन में जो आये, करो।

प्रात:काल दफ्तर खुला तो कागजात सब गायब थे। मुंशी छक्कनलाल बौखलाये से घर में गये और मालकिन से पूछा—कागजात आपने उठवा लिए हैं।

भानुकुँवरि ने कहा—मुझे क्या खबर, जहॉँ आपने रखे होंगे, वहीं होंगे।

फिर सारे घर में खलबली पड़ गयी। पहरेदारों पर मार पड़ने लगी। भानुकुँवरि को तुरन्त मुंशी सत्यनारायण पर संदेह हुआ, मगर उनकी समझ में छक्कनलाल की सहायता के बिना यह काम होना असम्भव था। पुलिस में रपट हुई। एक ओझा नाम निकालने के लिए बुलाया गया। मौलवी साहब ने कुर्रा फेंका। ओझा ने बताया, यह किसी पुराने बैरी का काम है। मौलवी साहब ने फरमाया, किसी घर के भेदिये ने यह हरकत की है। शाम तक यह दौड़-धूप रही। फिर यह सलाह होने लगी कि इन कागजातों के बगैर मुकदमा कैसे चले। पक्ष तो पहले से ही निर्बल था। जो कुछ बल था, वह इसी बही-खाते का था। अब तो सबूत भी हाथ से गये। दावे में कुछ जान ही न रही, मगर भानकुँवरि ने कहा—बला से हार जाऍंगे। हमारी चीज कोई छीन ले, तो हमारा धर्म है कि उससे यथाशक्ति लड़ें, हार कर बैठना कायरों का काम है। सेठ जी (वकील) को इस दुर्घटना का समाचार मिला तो उन्होंने भी यही कहा कि अब दावे में जरा भी जान नहीं है। केवल अनुमान और तर्क का भरोसा है। अदालत ने माना तो माना, नहीं तो हार माननी पड़ेगी। पर भानुकुँवरि ने एक न मानी। लखनऊ और इलाहाबाद से दो होशियार बैरिस्टिर बुलाये। मुकदमा शुरु हो गया।

सारे शहर में इस मुकदमें की धूम थी। कितने ही रईसों को भानुकुँवरि ने साथी बनाया था। मुकदमा शुरु होने के समय हजारों आदमियों की भीड़ हो जाती थी। लोगों के इस खिंचाव का मुख्य कारण यह था कि भानुकुँवरि एक पर्दे की आड़ में बैठी हुई अदालत की कारवाई देखा करती थी, क्योंकि उसे अब अपने नौकरों पर जरा भी विश्वास न था।

वादी बैरिस्टर ने एक बड़ी मार्मिक वक्तृता दी। उसने सत्यनाराण की पूर्वावस्था का खूब अच्छा चित्र खींचा। उसने दिखलाया कि वे कैसे स्वामिभक्त, कैसे कार्य-कुशल, कैसे कर्म-शील थे; और स्वर्गवासी पंडित भृगुदत्त का उस पर पूर्ण विश्वास हो जाना, किस तरह स्वाभाविक था। इसके बाद उसने सिद्ध किया कि मुंशी सत्यनारायण की आर्थिक व्यवस्था कभी ऐसी न थी कि वे इतना धन-संचय करते। अंत में उसने मुंशी जी की स्वार्थपरता, कूटनीति, निर्दयता और विश्वास-घातकता का ऐसा घृणोत्पादक चित्र खींचा कि लोग मुंशी जी को गोलियॉँ देने लगे। इसके साथ ही उसने पंडित जी के अनाथ बालकों की दशा का बड़ा करूणोत्पादक वर्णन किया—कैसे शोक और लज्जा की बात है कि ऐसा चरित्रवान, ऐसा नीति-कुशल मनुष्य इतना गिर जाय कि अपने स्वामी के अनाथ बालकों की गर्दन पर छुरी चलाने पर संकोच न करे। मानव-पतन का ऐसा करुण, ऐसा हृदय-विदारक उदाहरण मिलना कठिन है। इस कुटिल कार्य के परिणाम की दृष्टि से इस मनुष्य के पूर्व परिचित सदगुणों का गौरव लुप्त हो जाता है। क्योंकि वे असली मोती नहीं, नकली कॉँच के दाने थे, जो केवल विश्वास जमाने के निमित्त दर्शाये गये थे। वह केवल सुंदर जाल था, जो एक सरल हृदय और छल- छंद से दूर रहने वाले रईस को फँसाने के लिए फैलाया गया था। इस नर-पशु का अंत:करण कितना अंधकारमय, कितना कपटपूर्ण, कितना कठोर है; और इसकी दुष्टता कितनी घोर, कितनी अपावन है। अपने शत्रु के साथ दया करना एक बार तो क्षम्य है, मगर इस मलिन हृदय मनुष्य ने उन बेकसों के साथ दगा दिया है, जिन पर मानव-स्वभाव के अनुसार दया करना उचित है! यदि आज हमारे पास बही-खाते मौजूद होते, अदालत पर सत्यनारायण की सत्यता स्पष्ट रुप से प्रकट हो जाती, पर मुंशी जी के बरखास्त होते ही दफ्तर से उनका लुप्त हो जाना भी अदालत के लिए एक बड़ा सबूत है।

शहर में कई रईसों ने गवाही दी, पर सुनी-सुनायी बातें जिरह में उखड़ गयीं। दूसरे दिन फिर मुकदमा पेश हुआ।

प्रतिवादी के वकील ने अपनी वक्तृता शुरु की। उसमें गंभीर विचारों की अपेक्षा हास्य का आधिक्य था—यह एक विलक्षण न्याय-सिद्धांत है कि किसी धनाढ़य मनुष्य का नौकर जो कुछ खरीदे, वह उसके स्वामी की चीज समझी जाय। इस सिद्धांत के अनुसार हमारी गवर्नमेंट को अपने कर्मचारियों की सारी सम्पत्ति पर कब्जा कर लेना चाहिए। यह स्वीकार करने में हमको कोई आपत्ति नहीं कि हम इतने रुपयों का प्रबंध न कर सकते थे और यह धन हमने स्वामी ही से ऋण लिया; पर हमसे ऋण चुकाने का कोई तकाजा न करके वह जायदाद ही मॉँगी जाती है। यदि हिसाब के कागजात दिखलाये जायँ, तो वे साफ बता देंगे कि मैं सारा ऋण दे चुका। हमारे मित्र ने कहा कि ऐसी अवस्था में बहियों का गुम हो जाना भी अदालत के लिये एक सबूत होना चाहिए। मैं भी उनकी युक्ति का समर्थन करता हूँ। यदि मैं आपसे ऋण ले कर अपना विवाह करुँ तो क्या मुझसे मेरी नव- विवाहित वधू को छीन लेंगे?

‘हमारे सुयोग मित्र ने हमारे ऊपर अनाथों के साथ दगा करने का दोष लगाया है। अगर मुंशी सत्यनाराण की नीयत खराब होती, तो उनके लिए सबसे अच्छा अवसर वह था जब पंडित भृगुदत्त का स्वर्गवास हुआ था। इतने विलम्ब की क्या जरुरत थी? यदि आप शेर को फँसा कर उसके बच्चे को उसी वक्त नहीं पकड़ लेते, उसे बढ़ने और सबल होने का अवसर देते हैं, तो मैं आपको बुद्विमान न कहूँगा। यथार्थ बात यह है कि मुंशी सत्यनाराण ने नमक का जो कुछ हक था, वह पूरा कर दिया। आठ वर्ष तक तन-मन से स्वामी के संतान की सेवा की। आज उन्हें अपनी साधुता का जो फल मिल रहा है, वह बहुत ही दु:खजनक और हृदय-विदारक है। इसमें भानुकुँवरि का दोष नहीं। वे एक गुण-सम्पन्न महिला हैं; मगर अपनी जाति के अवगुण उनमें भी विद्यमान हैं! ईमानदार मनुष्य स्वभावत: स्पष्टभाषी होता है; उसे अपनी बातों में नमक-मिर्च लगाने की जरुरत नहीं होती। यही कारण है कि मुंशी जी के मृदुभाषी मातहतों को उन पर आक्षेप करने का मौका मिल गया। इस दावे की जड़ केवल इतनी ही है, और कुछ नहीं। भानुकुँवरि यहॉँ उपस्थित हैं। क्या वे कह सकती हैं कि इस आठ वर्ष की मुद्दत में कभी इस गॉँव का जिक्र उनके सामने आया? कभी उसके हानि-लाभ, आय-व्यय, लेन-देन की चर्चा उनसे की गयी? मान लीजिए कि मैं गवर्नमेंट का मुलाजिम हूँ। यदि मैं आज दफ्तर में आकर अपनी पत्नी के आय-व्यय और अपने टहलुओं के टैक्सों का पचड़ा गाने लगूँ, तो शायद मुझे शीघ्र ही अपने पद से पृथक होना पड़े, और सम्भव है, कुछ दिनों तक बरेली की अतिथिशाला में भी रखा जाऊँ। जिस गॉँव से भानुकुँवरि का सरोवार न था, उसकी चर्चा उनसे क्यों की जाती?’

इसके बाद बहुत से गवाह पेश हुए; जिनमें अधिकांश आस-पास के देहातों के जमींदार थे। उन्होंने बयान किया कि हमने मुंशी सत्यनारायण असामियों को अपनी दस्तखती रसीदें और अपने नाम से खजाने में रुपया दाखिल करते देखा है।

इतने में संध्या हो गयी। अदालत ने एक सप्ताह में फैसला सुनाने का हुक्म दिया।

७।

सत्यनाराण को अब अपनी जीत में कोई सन्देह न था। वादी पक्ष के गवाह भी उखड़ गये थे और बहस भी सबूत से खाली थी। अब इनकी गिनती भी जमींदारों में होगी और सम्भव है, यह कुछ दिनों में रईस कहलाने लगेंगे। पर किसी न किसी कारण से अब शहर के गणमान्य पुरुषों से ऑंखें मिलाते शर्माते थे। उन्हें देखते ही उनका सिर नीचा हो जाता था। वह मन में डरते थे कि वे लोग कहीं इस विषय पर कुछ पूछ-ताछ न कर बैठें। वह बाजार में निकलते तो दूकानदारों में कुछ कानाफूसी होने लगती और लोग उन्हें तिरछी दृष्टि से देखने लगते। अब तक लोग उन्हें विवेकशील और सच्चरित्र मनुष्य समझते, शहर के धनी-मानी उन्हें इज्जत की निगाह से देखते और उनका बड़ा आदर करते थे। यद्यपि मुंशी जी को अब तक इनसे टेढ़ी-तिरछी सुनने का संयोग न पड़ा था, तथापि उनका मन कहता था कि सच्ची बात किसी से छिपी नहीं है। चाहे अदालत से उनकी जीत हो जाय, पर उनकी साख अब जाती रही। अब उन्हें लोग स्वार्थी, कपटी और दगाबाज समझेंगे। दूसरों की बात तो अलग रही, स्वयं उनके घरवाले उनकी उपेक्षा करते थे। बूढ़ी माता ने तीन दिन से मुँह में पानी नहीं डाला! स्त्री बार-बार हाथ जोड़ कर कहती थी कि अपने प्यारे बालकों पर दया करो। बुरे काम का फल कभी अच्छा नहीं होता! नहीं तो पहले मुझी को विष खिला दो।

जिस दिन फैसला सुनाया जानेवाला था, प्रात:काल एक कुंजड़िन तरकारियॉँ लेकर आयी और मुंशियाइन से बोली—

‘बहू जी! हमने बाजार में एक बात सुनी है। बुरा न मानों तो कहूँ? जिसको देखो, उसके मुँह से यही बात निकलती है कि लाला बाबू ने जालसाजी से पंडिताइन का कोई हलका ले लिया। हमें तो इस पर यकीन नहीं आता। लाला बाबू ने न सँभाला होता, तो अब तक पंडिताइन का कहीं पता न लगता। एक अंगुल जमीन न बचती। इन्हीं में एक सरदार था कि सबको सँभाल लिया। तो क्या अब उन्हीं के साथ बदी करेंगे? अरे बहू! कोई कुछ साथ लाया है कि ले जायगा? यही नेक-बदी रह जाती है। बुरे का फल बुरा होता है। आदमी न देखे, पर अल्लाह सब कुछ देखता है।’

बहू जी पर घड़ों पानी पड़ गया। जी चाहता था कि धरती फट जाती, तो उसमें समा जाती। स्त्रियॉँ स्वभावत: लज्जावती होती हैं। उनमें आत्माभिमान की मात्रा अधिक होती है। निन्दा-अपमान उनसे सहन नहीं हो सकता है। सिर झुकाये हुए बोली—बुआ! मैं इन बातों को क्या जानूँ? मैंने तो आज ही तुम्हारे मुँह से सुनी है। कौन-सी तरकारियॉँ हैं?

मुंशी सत्यनारायण अपने कमरे में लेटे हुए कुंजड़िन की बातें सुन रहे थे, उसके चले जाने के बाद आकर स्त्री से पूछने लगे—यह शैतान की खाला क्या कह रही थी।

स्त्री ने पति की ओर से मुंह फेर लिया और जमीन की ओर ताकते हुए बोली—क्या तुमने नहीं सुना? तुम्हारा गुन-गान कर रही थी। तुम्हारे पीछे देखो, किस-किसके मुँह से ये बातें सुननी पड़ती हैं और किस-किससे मुँह छिपाना पड़ता है।

मुंशी जी अपने कमरे में लौट आये। स्त्री को कुछ उत्तर नहीं दिया। आत्मा लज्जा से परास्त हो गयी। जो मनुष्य सदैव सर्व-सम्मानित रहा हो; जो सदा आत्माभिमान से सिर उठा कर चलता रहा हो, जिसकी सुकृति की सारे शहर में चर्चा होती हो, वह कभी सर्वथा लज्जाशून्य नहीं हो सकता; लज्जा कुपथ की सबसे बड़ी शत्रु है। कुवासनाओं के भ्रम में पड़ कर मुंशी जी ने समझा था, मैं इस काम को ऐसी गुप्त-रीति से पूरा कर ले जाऊँगा कि किसी को कानों-कान खबर न होगी, पर उनका यह मनोरथ सिद्ध न हुआ। बाधाऍं आ खड़ी हुई। उनके हटाने में उन्हें बड़े दुस्साहस से काम लेना पड़ा; पर यह भी उन्होंने लज्जा से बचने के निमित्त किया। जिसमें यह कोई न कहे कि अपनी स्वामिनी को धोखा दिया। इतना यत्न करने पर भी निंदा से न बच सके। बाजार का सौदा बेचनेवालियॉँ भी अब अपमान करतीं हैं। कुवासनाओं से दबी हुई लज्जा-शक्ति इस कड़ी चोट को सहन न कर सकी। मुंशी जी सोचने लगे, अब मुझे धन-सम्पत्ति मिल जायगी, ऐश्वर्यवान् हो जाऊँगा, परन्तु निन्दा से मेरा पीछा न छूटेगा। अदालत का फैसला मुझे लोक-निन्दा से न बचा सकेगा। ऐश्वर्य का फल क्या है?—मान और मर्यादा। उससे हाथ धो बैठा, तो ऐश्वर्य को लेकर क्या करुँगा? चित्त की शक्ति खोकर, लोक-लज्जा सहकर, जनसमुदाय में नीच बन कर और अपने घर में कलह का बीज बोकर यह सम्पत्ति मेरे किस काम आयेगी? और यदि वास्तव में कोई न्याय-शक्ति हो और वह मुझे इस कुकृत्य का दंड दे, तो मेरे लिए सिवा मुख में कालिख लगा कर निकल जाने के और कोई मार्ग न रहेगा। सत्यवादी मनुष्य पर कोई विपत्त पड़ती हैं, तो लोग उनके साथ सहानुभूति करते हैं। दुष्टों की विपत्ति लोगों के लिए व्यंग्य की सामग्री बन जाती है। उस अवस्था में ईश्वर अन्यायी ठहराया जाता है; मगर दुष्टों की विपत्ति ईश्वर के न्याय को सिद्ध करती है। परमात्मन! इस दुर्दशा से किसी तरह मेरा उद्धार करो! क्यों न जाकर मैं भानुकुँवरि के पैरों पर गिर पड़ूँ और विनय करुँ कि यह मुकदमा उठा लो? शोक! पहले यह बात मुझे क्यों न सूझी? अगर कल तक में उनके पास चला गया होता, तो बात बन जाती; पर अब क्या हो सकता है। आज तो फैसला सुनाया जायगा।

मुंशी जी देर तक इसी विचार में पड़े रहे, पर कुछ निश्चय न कर सके कि क्या करें।

भानुकुँवरि को भी विश्वास हो गया कि अब गॉँव हाथ से गया। बेचारी हाथ मल कर रह गयी। रात-भर उसे नींद न आयी, रह-रह कर मुंशी सत्यनारायण पर क्रोध आता था। हाय पापी! ढोल बजा कर मेरा पचास हजार का माल लिए जाता है और मैं कुछ नहीं कर सकती। आजकल के न्याय करने वाले बिलकुल ऑंख के अँधे हैं। जिस बात को सारी दुनिया जानती है, उसमें भी उनकी दृष्टि नहीं पहुँचती। बस, दूसरों को ऑंखों से देखते हैं। कोरे कागजों के गुलाम हैं। न्याय वह है जो दूध का दूध, पानी का पानी कर दे; यह नहीं कि खुद ही कागजों के धोखे में आ जाय, खुद ही पाखंडियों के जाल में फँस जाय। इसी से तो ऐसी छली, कपटी, दगाबाज, और दुरात्माओं का साहस बढ़ गया है। खैर, गॉँव जाता है तो जाय; लेकिन सत्यनारायण, तुम शहर में कहीं मुँह दिखाने के लायक भी न रहे।

इस खयाल से भानुकुँवरि को कुछ शान्ति हुई। शत्रु की हानि मनुष्य को अपने लाभ से भी अधिक प्रिय होती है, मानव-स्वभाव ही कुछ ऐसा है। तुम हमारा एक गॉँव ले गये, नारायण चाहेंगे तो तुम भी इससे सुख न पाओगे। तुम आप नरक की आग में जलोगे, तुम्हारे घर में कोई दिया जलाने वाला न रह जायगा।

फैसले का दिन आ गया। आज इजलास में बड़ी भीड़ थी। ऐसे-ऐसे महानुभाव उपस्थित थे, जो बगुलों की तरह अफसरों की बधाई और बिदाई के अवसरों ही में नजर आया करते हैं। वकीलों और मुख्तारों की पलटन भी जमा थी। नियत समय पर जज साहब ने इजलास सुशोभित किया। विस्तृत न्याय भवन में सन्नाटा छा गया। अहलमद ने संदूक से तजबीज निकाली। लोग उत्सुक होकर एक-एक कदम और आगे खिसक गए।

जज ने फैसला सुनाया—मुद्दई का दावा खारिज। दोनों पक्ष अपना-अपना खर्च सह लें।

यद्यपि फैसला लोगों के अनुमान के अनुसार ही था, तथापि जज के मुँह से उसे सुन कर लोगों में हलचल-सी मच गयी। उदासीन भाव से फैसले पर आलोचनाऍं करते हुए लोग धीरे-धीरे कमरे से निकलने लगे।

एकाएक भानुकुँवरि घूँघट निकाले इजलास पर आ कर खड़ी हो गयी। जानेवाले लौट पड़े। जो बाहर निकल गये थे, दौड़ कर आ गये। और कौतूहलपूर्वक भानुकुँवरि की तरफ ताकने लगे।

भानुकुँवरि ने कंपित स्वर में जज से कहा—सरकार, यदि हुक्म दें, तो मैं मुंशी जी से कुछ पूछूँ।

यद्यपि यह बात नियम के विरुद्ध थी, तथापि जज ने दयापूर्वक आज्ञा दे दी।

तब भानुकुँवरि ने सत्यनारायण की तरफ देख कर कहा—लाला जी, सरकार ने तुम्हारी डिग्री तो कर ही दी। गॉँव तुम्हें मुबारक रहे; मगर ईमान आदमी का सब कुछ है। ईमान से कह दो, गॉँव किसका है?

हजारों आदमी यह प्रश्न सुन कर कौतूहल से सत्यनारायण की तरफ देखने लगे। मुंशी जी विचार-सागर में डूब गये। हृदय में संकल्प और विकल्प में घोर संग्राम होने लगा। हजारों मनुष्यों की ऑंखें उनकी तरफ जमी हुई थीं। यथार्थ बात अब किसी से छिपी न थी। इतने आदमियों के सामने असत्य बात मुँह से निकल न सकी। लज्जा से जबान बंद कर ली—‘मेरा’ कहने में काम बनता था। कोई बात न थी; किंतु घोरतम पाप का दंड समाज दे सकता है, उसके मिलने का पूरा भय था। ‘आपका’ कहने से काम बिगड़ता था। जीती-जितायी बाजी हाथ से निकली जाती थी, सर्वोत्कृष्ट काम के लिए समाज से जो इनाम मिल सकता है, उसके मिलने की पूरी आशा थी। आशा के भय को जीत लिया। उन्हें ऐसा प्रतीत हुआ, जैसे ईश्वर ने मुझे अपना मुख उज्जवल करने का यह अंतिम अवसर दिया है। मैं अब भी मानव-सम्मान का पात्र बन सकता हूँ। अब अपनी आत्मा की रक्षा कर सकता हूँ। उन्होंने आगे बढ़ कर भानुकुँवरि को प्रणाम किया और कॉँपते हुए स्वर से बोले—आपका!

हजारों मनुष्यों के मुँह से एक गगनस्पर्शी ध्वनि निकली—सत्य की जय!

जज ने खड़े होकर कहा—यह कानून का न्याय नहीं, ईश्वरीय न्याय है! इसे कथा न समझिएगा; यह सच्ची घटना है। भानुकुँवरि और सत्य नारायण अब भी जीवित हैं। मुंशी जी के इस नैतिक साहस पर लोग मुगध हो गए। मानवीय न्याय पर ईश्वरीय न्याय ने जो विलक्षण विजय पायी, उसकी चर्चा शहर भर में महीनों रही। भानुकुँवरि मुंशी जी के घर गयी, उन्हें मना कर लायीं। फिर अपना सारा कारोबार उन्हें सौंपा और कुछ दिनों उपरांत यह गॉँव उन्हीं के नाम हिब्बा कर दिया। मुंशी जी ने भी उसे अपने अधिकार में रखना उचित न समझा, कृष्णार्पण कर दिया। अब इसकी आमदनी दीन-दुखियों और विद्यार्थियों की सहायता में खर्च होती है।

11 जनवरी, 2010

ईदगाह - कहानी (प्रेमचंद)

रमजान के पूरे तीस रोजों के बाद ईद आयी है। कितना मनोहर, कितना सुहावना प्रभाव है। वृक्षों पर अजीब हरियाली है, खेतों में कुछ अजीब रौनक है, आसमान पर कुछ अजीब लालिमा है। आज का सूर्य देखो, कितना प्यारा, कितना शीतल है, यानी संसार को ईद की बधाई दे रहा है। गॉंव में कितनी हलचल है। ईदगाह जाने की तैयारियॉँ हो रही हैं। किसी के कुरते में बटन नहीं है, पड़ोस के घर में सुई-धागा लेने दौड़ा जा रहा है। किसी के जूते कड़े हो गए हैं, उनमें तेल डालने के लिए तेली के घर पर भागा जाता है। जल्दी-जल्दी बैलों को सानी-पानी दे दें। ईदगाह से लौटते-लौटते दोपहर हो जाएगी। तीन कोस का पेदल रास्ता, फिर सैकड़ों आदमियों से मिलना-भेंटना, दोपहर के पहले लोटना असम्भव है। लड़के सबसे ज्यादा प्रसन्न हैं। किसी ने एक रोजा रखा है, वह भी दोपहर तक, किसी ने वह भी नहीं, लेकिन ईदगाह जाने की खुशी उनके हिस्से की चीज है। रोजे बड़े-बूढ़ो के लिए होंगे। इनके लिए तो ईद है। रोज ईद का नाम रटते थे, आज वह आ गई। अब जल्दी पड़ी है कि लोग ईदगाह क्यों नहीं चलते। इन्हें गृहस्थी चिंताओं से क्या प्रयोजन! सेवैयों के लिए दूध ओर शक्कर घर में है या नहीं, इनकी बला से, ये तो सेवेयां खाऍंगे। वह क्या जानें कि अब्बाजान क्यों बदहवास चौधरी कायमअली के घर दौड़े जा रहे हैं। उन्हें क्या खबर कि चौधरी ऑंखें बदल लें, तो यह सारी ईद मुहर्रम हो जाए। उनकी अपनी जेबों में तो कुबेर काधन भरा हुआ है। बार-बार जेब से अपना खजाना निकालकर गिनते हैं और खुश होकर फिर रख लेते हैं। महमूद गिनता है, एक-दो, दस,-बारह, उसके पास बारह पैसे हैं। मोहनसिन के पास एक, दो, तीन, आठ, नौ, पंद्रह पैसे हैं। इन्हीं अनगिनती पैसों में अनगिनती चीजें लाऍंगें— खिलौने, मिठाइयां, बिगुल, गेंद और जाने क्या-क्या।

और सबसे ज्यादा प्रसन्न है हामिद। वह चार-पॉँच साल का गरीब सूरत, दुबला-पतला लड़का, जिसका बाप गत वर्ष हैजे की भेंट हो गया और मॉँ न जाने क्यों पीली होती-होती एक दिन मर गई। किसी को पता क्या बीमारी है। कहती तो कौन सुनने वाला था? दिल पर जो कुछ बीतती थी, वह दिल में ही सहती थी ओर जब न सहा गया,. तो संसार से विदा हो गई। अब हामिद अपनी बूढ़ी दादी अमीना की गोद में सोता है और उतना ही प्रसन्न है। उसके अब्बाजान रूपये कमाने गए हैं। बहुत-सी थैलियॉँ लेकर आऍंगे। अम्मीजान अल्लहा मियॉँ के घर से उसके लिए बड़ी अच्छी-अच्छी चीजें लाने गई हैं, इसलिए हामिद प्रसन्न है। आशा तो बड़ी चीज है, और फिर बच्चों की आशा! उनकी कल्पना तो राई का पर्वत बना लेती हे। हामिद के पॉंव में जूते नहीं हैं, सिर परएक पुरानी-धुरानी टोपी है, जिसका गोटा काला पड़ गया है, फिर भी वह प्रसन्न है। जब उसके अब्बाजान थैलियॉँ और अम्मीजान नियमतें लेकर आऍंगी, तो वह दिल से अरमान निकाल लेगा। तब देखेगा, मोहसिन, नूरे और सम्मी कहॉँ से उतने पैसे निकालेंगे।

अभागिन अमीना अपनी कोठरी में बैठी रो रही है। आज ईद का दिन, उसके घर में दाना नहीं! आज आबिद होता, तो क्या इसी तरह ईद आती ओर चली जाती! इस अन्धकार और निराशा में वह डूबी जा रही है। किसने बुलाया था इस निगोड़ी ईद को? इस घर में उसका काम नहीं, लेकिन हामिद! उसे किसी के मरने-जीने के क्या मतल? उसके अन्दर प्रकाश है, बाहर आशा। विपत्ति अपना सारा दलबल लेकर आये, हामिद की आनंद-भरी चितबन उसका विध्वसं कर देगी।

हामिद भीतर जाकर दादी से कहता है—तुम डरना नहीं अम्मॉँ, मै सबसे पहले आऊँगा। बिल्कुल न डरना।

अमीना का दिल कचोट रहा है। गॉँव के बच्चे अपने-अपने बाप के साथ जा रहे हैं। हामिद का बाप अमीना के सिवा और कौन है! उसे केसे अकेले मेले जाने दे? उस भीड़-भाड़ से बच्चा कहीं खो जाए तो क्या हो? नहीं, अमीना उसे यों न जाने देगी। नन्ही-सी जान! तीन कोस चलेगा कैसे? पैर में छाले पड़ जाऍंगे। जूते भी तो नहीं हैं। वह थोड़ी-थोड़ी दूर पर उसे गोद में ले लेती, लेकिन यहॉँ सेवैयॉँ कोन पकाएगा? पैसे होते तो लौटते-लोटते सब सामग्री जमा करके चटपट बना लेती। यहॉँ तो घंटों चीजें जमा करते लगेंगे। मॉँगे का ही तो भरोसा ठहरा। उस दिन फहीमन के कपड़े सिले थे। आठ आने पेसे मिले थे। उस उठन्नी को ईमान की तरह बचाती चली आती थी इसी ईद के लिए लेकिन कल ग्वालन सिर पर सवार हो गई तो क्या करती? हामिद के लिए कुछ नहीं हे, तो दो पैसे का दूध तो चाहिए ही। अब तो कुल दो आने पैसे बच रहे हैं। तीन पैसे हामिद की जेब में, पांच अमीना के बटुवें में। यही तो बिसात है और ईद का त्यौहार, अल्ला ही बेड़ा पर लगाए। धोबन और नाइन ओर मेहतरानी और चुड़िहारिन सभी तो आऍंगी। सभी को सेवेयॉँ चाहिए और थोड़ा किसी को ऑंखों नहीं लगता। किस-किस सें मुँह चुरायेगी? और मुँह क्यों चुराए? साल-भर का त्योंहार हैं। जिन्दगी खैरियत से रहें, उनकी तकदीर भी तो उसी के साथ है: बच्चे को खुदा सलामत रखे, यें दिन भी कट जाऍंगे।

गॉँव से मेला चला। ओर बच्चों के साथ हामिद भी जा रहा था। कभी सबके सब दौड़कर आगे निकल जाते। फिर किसी पेड़ के नींचे खड़े होकर साथ वालों का इंतजार करते। यह लोग क्यों इतना धीरे-धीरे चल रहे हैं? हामिद के पैरो में तो जैसे पर लग गए हैं। वह कभी थक सकता है? शहर का दामन आ गया। सड़क के दोनों ओर अमीरों के बगीचे हैं। पक्की चारदीवारी बनी हुई है। पेड़ो में आम और लीचियॉँ लगी हुई हैं। कभी-कभी कोई लड़का कंकड़ी उठाकर आम पर निशान लगाता हे। माली अंदर से गाली देता हुआ निंलता है। लड़के वहाँ से एक फलॉँग पर हैं। खूब हँस रहे हैं। माली को केसा उल्लू बनाया है।

बड़ी-बड़ी इमारतें आने लगीं। यह अदालत है, यह कालेज है, यह क्लब घर है। इतने बड़े कालेज में कितने लड़के पढ़ते होंगे? सब लड़के नहीं हैं जी! बड़े-बड़े आदमी हैं, सच! उनकी बड़ी-बड़ी मूँछे हैं। इतने बड़े हो गए, अभी तक पढ़ते जाते हैं। न जाने कब तक पढ़ेंगे ओर क्या करेंगे इतना पढ़कर! हामिद के मदरसे में दो-तीन बड़े-बड़े लड़के हें, बिल्कुल तीन कौड़ी के। रोज मार खाते हैं, काम से जी चुराने वाले। इस जगह भी उसी तरह के लोग होंगे ओर क्या। क्लब-घर में जादू होता है। सुना है, यहॉँ मुर्दो की खोपड़ियां दौड़ती हैं। और बड़े-बड़े तमाशे होते हें, पर किसी कोअंदर नहीं जाने देते। और वहॉँ शाम को साहब लोग खेलते हैं। बड़े-बड़े आदमी खेलते हें, मूँछो-दाढ़ी वाले। और मेमें भी खेलती हैं, सच! हमारी अम्मॉँ को यह दे दो, क्या नाम है, बैट, तो उसे पकड़ ही न सके। घुमाते ही लुढ़क जाऍं।

महमूद ने कहा—हमारी अम्मीजान का तो हाथ कॉँपने लगे, अल्ला कसम।

मोहसिन बोल—चलों, मनों आटा पीस डालती हैं। जरा-सा बैट पकड़ लेगी, तो हाथ कॉँपने लगेंगे! सौकड़ों घड़े पानी रोज निकालती हैं। पॉँच घड़े तो तेरी भैंस पी जाती है। किसी मेम को एक घड़ा पानी भरना पड़े, तो ऑंखों तक अँधेरी आ जाए।

महमूद—लेकिन दौड़तीं तो नहीं, उछल-कूद तो नहीं सकतीं।

मोहसिन—हॉँ, उछल-कूद तो नहीं सकतीं; लेकिन उस दिन मेरी गाय खुल गई थी और चौधरी के खेत में जा पड़ी थी, अम्मॉँ इतना तेज दौड़ी कि में उन्हें न पा सका, सच।

आगे चले। हलवाइयों की दुकानें शुरू हुई। आज खूब सजी हुई थीं। इतनी मिठाइयॉँ कौन खाता? देखो न, एक-एक दूकान पर मनों होंगी। सुना है, रात को जिन्नात आकर खरीद ले जाते हैं। अब्बा कहते थें कि आधी रात को एक आदमी हर दूकान पर जाता है और जितना माल बचा होता है, वह तुलवा लेता है और सचमुच के रूपये देता है, बिल्कुल ऐसे ही रूपये।

हामिद को यकीन न आया—ऐसे रूपये जिन्नात को कहॉँ से मिल जाऍंगी?

मोहसिन ने कहा—जिन्नात को रूपये की क्या कमी? जिस खजाने में चाहें चले जाऍं। लोहे के दरवाजे तक उन्हें नहीं रोक सकते जनाब, आप हैं किस फेर में! हीरे-जवाहरात तक उनके पास रहते हैं। जिससे खुश हो गए, उसे टोकरों जवाहरात दे दिए। अभी यहीं बैठे हें, पॉँच मिनट में कलकत्ता पहुँच जाऍं।

हामिद ने फिर पूछा—जिन्नात बहुत बड़े-बड़े होते हैं?

मोहसिन—एक-एक सिर आसमान के बराबर होता है जी! जमीन पर खड़ा हो जाए तो उसका सिर आसमान से जा लगे, मगर चाहे तो एक लोटे में घुस जाए।

हामिद—लोग उन्हें केसे खुश करते होंगे? कोई मुझे यह मंतर बता दे तो एक जिनन को खुश कर लूँ।

मोहसिन—अब यह तो न जानता, लेकिन चौधरी साहब के काबू में बहुत-से जिन्नात हैं। कोई चीज चोरी जाए चौधरी साहब उसका पता लगा देंगे ओर चोर का नाम बता देगें। जुमराती का बछवा उस दिन खो गया था। तीन दिन हैरान हुए, कहीं न मिला तब झख मारकर चौधरी के पास गए। चौधरी ने तुरन्त बता दिया, मवेशीखाने में है और वहीं मिला। जिन्नात आकर उन्हें सारे जहान की खबर दे जाते हैं।

अब उसकी समझ में आ गया कि चौधरी के पास क्यों इतना धन है और क्यों उनका इतना सम्मान है।

आगे चले। यह पुलिस लाइन है। यहीं सब कानिसटिबिल कवायद करते हैं। रैटन! फाय फो! रात को बेचारे घूम-घूमकर पहरा देते हैं, नहीं चोरियॉँ हो जाऍं। मोहसिन ने प्रतिवाद किया—यह कानिसटिबिल पहरा देते हें? तभी तुम बहुत जानते हों अजी हजरत, यह चोरी करते हैं। शहर के जितने चोर-डाकू हें, सब इनसे मुहल्ले में जाकर ‘जागते रहो! जाते रहो!’ पुकारते हें। तभी इन लोगों के पास इतने रूपये आते हें। मेरे मामू एक थाने में कानिसटिबिल हें। बरस रूपया महीना पाते हें, लेकिन पचास रूपये घर भेजते हें। अल्ला कसम! मैंने एक बार पूछा था कि मामू, आप इतने रूपये कहॉँ से पाते हैं? हँसकर कहने लगे—बेटा, अल्लाह देता है। फिर आप ही बोले—हम लोग चाहें तो एक दिन में लाखों मार लाऍं। हम तो इतना ही लेते हैं, जिसमें अपनी बदनामी न हो और नौकरी न चली जाए।

हामिद ने पूछा—यह लोग चोरी करवाते हैं, तो कोई इन्हें पकड़ता नहीं?

मोहसिन उसकी नादानी पर दया दिखाकर बोला..अरे, पागल! इन्हें कौन पकड़ेगा! पकड़ने वाले तो यह लोग खुद हैं, लेकिन अल्लाह, इन्हें सजा भी खूब देता है। हराम का माल हराम में जाता है। थोड़े ही दिन हुए, मामू के घर में आग लग गई। सारी लेई-पूँजी जल गई। एक बरतन तक न बचा। कई दिन पेड़ के नीचे सोए, अल्ला कसम, पेड़ के नीचे! फिरन जाने कहॉँ से एक सौ कर्ज लाए तो बरतन-भॉँड़े आए।

हामिद—एक सौ तो पचार से ज्यादा होते है?

‘कहॉँ पचास, कहॉँ एक सौ। पचास एक थैली-भर होता है। सौ तो दो थैलियों में भी न आऍं?

अब बस्ती घनी होने लगी। ईइगाह जाने वालो की टोलियॉँ नजर आने लगी। एक से एक भड़कीले वस्त्र पहने हुए। कोई इक्के-तॉँगे पर सवार, कोई मोटर पर, सभी इत्र में बसे, सभी के दिलों में उमंग। ग्रामीणों का यह छोटा-सा दल अपनी विपन्नता से बेखबर, सन्तोष ओर धैर्य में मगन चला जा रहा था। बच्चों के लिए नगर की सभी चीजें अनोखी थीं। जिस चीज की ओर ताकते, ताकते ही रह जाते और पीछे से आर्न की आवाज होने पर भी न चेतते। हामिद तो मोटर के नीचे जाते-जाते बचा।

सहसा ईदगाह नजर आई। ऊपर इमली के घने वृक्षों की छाया हे। नाचे पक्का फर्श है, जिस पर जाजम ढिछा हुआ है। और रोजेदारों की पंक्तियॉँ एक के पीछे एक न जाने कहॉँ वक चली गई हैं, पक्की जगत के नीचे तक, जहॉँ जाजम भी नहीं है। नए आने वाले आकर पीछे की कतार में खड़े हो जाते हैं। आगे जगह नहीं हे। यहॉँ कोई धन और पद नहीं देखता। इस्लाम की निगाह में सब बराबर हें। इन ग्रामीणों ने भी वजू किया ओर पिछली पंक्ति में खड़े हो गए। कितना सुन्दर संचालन है, कितनी सुन्दर व्यवस्था! लाखों सिर एक साथ सिजदे में झुक जाते हैं, फिर सबके सब एक साथ खड़े हो जाते हैं, एक साथ झुकते हें, और एक साथ खड़े हो जाते हैं, एक साथ खड़े हो जाते हैं, एक साथ झुकते हें, और एक साथ खड़े हो जाते हैं, कई बार यही क्रिया होती हे, जैसे बिजली की लाखों बत्तियाँ एक साथ प्रदीप्त हों और एक साथ बुझ जाऍं, और यही ग्रम चलता, रहे। कितना अपूर्व दृश्य था, जिसकी सामूहिक क्रियाऍं, विस्तार और अनंतता हृदय को श्रद्धा, गर्व और आत्मानंद से भर देती थीं, मानों भ्रातृत्व का एक सूत्र इन समस्त आत्माओं को एक लड़ी में पिरोए हुए हैं।


नमाज खत्म हो गई। लोग आपस में गले मिल रहे हैं। तब मिठाई और खिलौने की दूकान पर धावा होता है। ग्रामीणों का यह दल इस विषय में बालकों से कम उत्साही नहीं है। यह देखो, हिंडोला हें एक पैसा देकर चढ़ जाओ। कभी आसमान पर जाते हुए मालूम होगें, कभी जमीन पर गिरते हुए। यह चर्खी है, लकड़ी के हाथी, घोड़े, ऊँट, छड़ो में लटके हुए हैं। एक पेसा देकर बैठ जाओं और पच्चीस चक्करों का मजा लो। महमूद और मोहसिन ओर नूरे ओर सम्मी इन घोड़ों ओर ऊँटो पर बैठते हें। हामिद दूर खड़ा है। तीन ही पैसे तो उसके पास हैं। अपने कोष का एक तिहाई जरा-सा चक्कर खाने के लिए नहीं दे सकता।

सब चर्खियों से उतरते हैं। अब खिलौने लेंगे। अधर दूकानों की कतार लगी हुई है। तरह-तरह के खिलौने हैं—सिपाही और गुजरिया, राज ओर वकी, भिश्ती और धोबिन और साधु। वह! कत्ते सुन्दर खिलोने हैं। अब बोला ही चाहते हैं। महमूद सिपाही लेता हे, खाकी वर्दी और लाल पगड़ीवाला, कंधें पर बंदूक रखे हुए, मालूम होता हे, अभी कवायद किए चला आ रहा है। मोहसिन को भिश्ती पसंद आया। कमर झुकी हुई है, ऊपर मशक रखे हुए हैं मशक का मुँह एक हाथ से पकड़े हुए है। कितना प्रसन्न है! शायद कोई गीत गा रहा है। बस, मशक से पानी अड़ेला ही चाहता है। नूरे को वकील से प्रेम हे। कैसी विद्वत्ता हे उसके मुख पर! काला चोगा, नीचे सफेद अचकन, अचकन के सामने की जेब में घड़ी, सुनहरी जंजीर, एक हाथ में कानून का पौथा लिये हुए। मालूम होता है, अभी किसी अदालत से जिरह या बहस किए चले आ रहे है। यह सब दो-दो पैसे के खिलौने हैं। हामिद के पास कुल तीन पैसे हैं, इतने महँगे खिलौन वह केसे ले? खिलौना कहीं हाथ से छूट पड़े तो चूर-चूर हो जाए। जरा पानी पड़े तो सारा रंग घुल जाए। ऐसे खिलौने लेकर वह क्या करेगा, किस काम के!

मोहसिन कहता है—मेरा भिश्ती रोज पानी दे जाएगा सॉँझ-सबेरे

महमूद—और मेरा सिपाही घर का पहरा देगा कोई चोर आएगा, तो फौरन बंदूक से फैर कर देगा।

नूरे—ओर मेरा वकील खूब मुकदमा लड़ेगा।

सम्मी—ओर मेरी धोबिन रोज कपड़े धोएगी।

हामिद खिलौनों की निंदा करता है—मिट्टी ही के तो हैं, गिरे तो चकनाचूर हो जाऍं, लेकिन ललचाई हुई ऑंखों से खिलौनों को देख रहा है और चाहता है कि जरा देर के लिए उन्हें हाथ में ले सकता। उसके हाथ अनायास ही लपकते हें, लेकिन लड़के इतने त्यागी नहीं होते हें, विशेषकर जब अभी नया शौक है। हामिद ललचता रह जाता है।

खिलौने के बाद मिठाइयाँ आती हैं। किसी ने रेवड़ियॉँ ली हें, किसी ने गुलाबजामुन किसी ने सोहन हलवा। मजे से खा रहे हैं। हामिद बिरादरी से पृथक् है। अभागे के पास तीन पैसे हैं। क्यों नहीं कुछ लेकर खाता? ललचाई ऑंखों से सबक ओर देखता है।

मोहसिन कहता है—हामिद रेवड़ी ले जा, कितनी खुशबूदार है!

हामिद को सदेंह हुआ, ये केवल क्रूर विनोद हें मोहसिन इतना उदार नहीं है, लेकिन यह जानकर भी वह उसके पास जाता है। मोहसिन दोने से एक रेवड़ी निकालकर हामिद की ओर बढ़ाता है। हामिद हाथ फैलाता है। मोहसिन रेवड़ी अपने मुँह में रख लेता है। महमूद नूरे ओर सम्मी खूब तालियॉँ बजा-बजाकर हँसते हैं। हामिद खिसिया जाता है।

मोहसिन—अच्छा, अबकी जरूर देंगे हामिद, अल्लाह कसम, ले जा।

हामिद—रखे रहो। क्या मेरे पास पैसे नहीं है?

सम्मी—तीन ही पेसे तो हैं। तीन पैसे में क्या-क्या लोगें?

महमूद—हमसे गुलाबजामुन ले जाओ हामिद। मोहमिन बदमाश है।

हामिद—मिठाई कौन बड़ी नेमत है। किताब में इसकी कितनी बुराइयॉँ लिखी हैं।

मोहसिन—लेकिन दिन मे कह रहे होगे कि मिले तो खा लें। अपने पैसे क्यों नहीं निकालते?

महमूद—इस समझते हें, इसकी चालाकी। जब हमारे सारे पैसे खर्च हो जाऍंगे, तो हमें ललचा- ललचाकर खाएगा।

मिठाइयों के बाद कुछ दूकानें लोहे की चीजों की, कुछ गिलट और कुछ नकली गहनों की। लड़कों के लिए यहॉँ कोई आकर्षण न था। वे सब आगे बढ़ जाते हैं, हामिद लोहे की दुकान पररूक जात हे। कई चिमटे रखे हुए थे। उसे ख्याल आया, दादी के पास चिमटा नहीं है। तबे से रोटियॉँ उतारती हैं, तो हाथ जल जाता है। अगर वह चिमटा ले जाकर दादी को दे दे तो वह कितना प्रसन्न होगी! फिर उनकी ऊगलियॉँ कभी न जलेंगी। घर में एक काम की चीज हो जाएगी। खिलौने से क्या फायदा? व्यर्थ में पैसे खराब होते हैं। जरा देर ही तो खुशी होती है। फिर तो खिलौने को कोई ऑंख उठाकर नहीं देखता। यह तो घर पहुँचते-पहुँचते टूट-फूट बराबर हो जाऍंगे। चिमटा कितने काम की चीज है। रोटियॉँ तवे से उतार लो, चूल्हें में सेंक लो। कोई आग मॉँगने आये तो चटपट चूल्हे से आग निकालकर उसे दे दो। अम्मॉँ बेचारी को कहॉँ फुरसत हे कि बाजार आऍं और इतने पैसे ही कहॉँ मिलते हैं? रोज हाथ जला लेती हैं।

हामिद के साथी आगे बढ़ गए हैं। सबील पर सबके सब शर्बत पी रहे हैं। देखो, सब कतने लालची हैं। इतनी मिठाइयॉँ लीं, मुझे किसी ने एक भी न दी। उस पर कहते है, मेरे साथ खेलो। मेरा यह काम करों। अब अगर किसी ने कोई काम करने को कहा, तो पूछूँगा। खाऍं मिठाइयॉँ, आप मुँह सड़ेगा, फोड़े-फुन्सियॉं निकलेंगी, आप ही जबान चटोरी हो जाएगी। तब घर से पैसे चुराऍंगे और मार खाऍंगे। किताब में झूठी बातें थोड़े ही लिखी हें। मेरी जबान क्यों खराब होगी? अम्मॉँ चिमटा देखते ही दौड़कर मेरे हाथ से ले लेंगी और कहेंगी—मेरा बच्चा अम्मॉँ के लिए चिमटा लाया है। कितना अच्छा लड़का है। इन लोगों के खिलौने पर कौन इन्हें दुआऍं देगा? बड़ों का दुआऍं सीधे अल्लाह के दरबार में पहुँचती हैं, और तुरंत सुनी जाती हैं। में भी इनसे मिजाज क्यों सहूँ? मैं गरीब सही, किसी से कुछ मॉँगने तो नहीं जाते। आखिर अब्बाजान कभीं न कभी आऍंगे। अम्मा भी ऑंएगी ही। फिर इन लोगों से पूछूँगा, कितने खिलौने लोगे? एक-एक को टोकरियों खिलौने दूँ और दिखा हूँ कि दोस्तों के साथ इस तरह का सलूक किया जात है। यह नहीं कि एक पैसे की रेवड़ियॉँ लीं, तो चिढ़ा-चिढ़ाकर खाने लगे। सबके सब हँसेंगे कि हामिद ने चिमटा लिया है। हंसें! मेरी बला से! उसने दुकानदार से पूछा—यह चिमटा कितने का है?

दुकानदार ने उसकी ओर देखा और कोई आदमी साथ न देखकर कहा—तुम्हारे काम का नहीं है जी!

‘बिकाऊ है कि नहीं?’

‘बिकाऊ क्यों नहीं है? और यहॉँ क्यों लाद लाए हैं?’

तो बताते क्यों नहीं, कै पैसे का है?’

‘छ: पैसे लगेंगे।‘

हामिद का दिल बैठ गया।

‘ठीक-ठीक पॉँच पेसे लगेंगे, लेना हो लो, नहीं चलते बनो।‘

हामिद ने कलेजा मजबूत करके कहा तीन पैसे लोगे?

यह कहता हुआ व आगे बढ़ गया कि दुकानदार की घुड़कियॉँ न सुने। लेकिन दुकानदार ने घुड़कियॉँ नहीं दी। बुलाकर चिमटा दे दिया। हामिद ने उसे इस तरह कंधे पर रखा, मानों बंदूक है और शान से अकड़ता हुआ संगियों के पास आया। जरा सुनें, सबके सब क्या-क्या आलोचनाऍं करते हैं!

मोहसिन ने हँसकर कहा—यह चिमटा क्यों लाया पगले, इसे क्या करेगा?

हामिद ने चिमटे को जमीन पर पटकर कहा—जरा अपना भिश्ती जमीन पर गिरा दो। सारी पसलियॉँ चूर-चूर हो जाऍं बचा की।

महमूद बोला—तो यह चिमटा कोई खिलौना है?

हामिद—खिलौना क्यों नही है! अभी कन्धे पर रखा, बंदूक हो गई। हाथ में ले लिया, फकीरों का चिमटा हो गया। चाहूँ तो इससे मजीरे काकाम ले सकता हूँ। एक चिमटा जमा दूँ, तो तुम लोगों के सारे खिलौनों की जान निकल जाए। तुम्हारे खिलौने कितना ही जोर लगाऍं, मेरे चिमटे का बाल भी बॉंका नही कर सकतें मेरा बहादुर शेर है चिमटा।

सम्मी ने खँजरी ली थी। प्रभावित होकर बोला—मेरी खँजरी से बदलोगे? दो आने की है।

हामिद ने खँजरी की ओर उपेक्षा से देखा-मेरा चिमटा चाहे तो तुम्हारी खॅजरी का पेट फाड़ डाले। बस, एक चमड़े की झिल्ली लगा दी, ढब-ढब बोलने लगी। जरा-सा पानी लग जाए तो खत्म हो जाए। मेरा बहादुर चिमटा आग में, पानी में, ऑंधी में, तूफान में बराबर डटा खड़ा रहेगा।

चिमटे ने सभी को मोहित कर लिया, अब पैसे किसके पास धरे हैं? फिर मेले से दूर निकल आए हें, नौ कब के बज गए, धूप तेज हो रही है। घर पहुंचने की जल्दी हो रही हे। बाप से जिद भी करें, तो चिमटा नहीं मिल सकता। हामिद है बड़ा चालाक। इसीलिए बदमाश ने अपने पैसे बचा रखे थे।

अब बालकों के दो दल हो गए हैं। मोहसिन, महमद, सम्मी और नूरे एक तरफ हैं, हामिद अकेला दूसरी तरफ। शास्त्रर्थ हो रहा है। सम्मी तो विधर्मी हा गया! दूसरे पक्ष से जा मिला, लेकिन मोहनि, महमूद और नूरे भी हामिद से एक-एक, दो-दो साल बड़े होने पर भी हामिद के आघातों से आतंकित हो उठे हैं। उसके पास न्याय का बल है और नीति की शक्ति। एक ओर मिट्टी है, दूसरी ओर लोहा, जो इस वक्त अपने को फौलाद कह रहा है। वह अजेय है, घातक है। अगर कोई शेर आ जाए मियॉँ भिश्ती के छक्के छूट जाऍं, जो मियॉँ सिपाही मिट्टी की बंदूक छोड़कर भागे, वकील साहब की नानी मर जाए, चोगे में मुंह छिपाकर जमीन पर लेट जाऍं। मगर यह चिमटा, यह बहादुर, यह रूस्तमे-हिंद लपककर शेर की गरदन पर सवार हो जाएगा और उसकी ऑंखे निकाल लेगा।

मोहसिन ने एड़ी—चोटी का जारे लगाकर कहा—अच्छा, पानी तो नहीं भर सकता?

हामिद ने चिमटे को सीधा खड़ा करके कहा—भिश्ती को एक डांट बताएगा, तो दौड़ा हुआ पानी लाकर उसके द्वार पर छिड़कने लगेगा।

मोहसिन परास्त हो गया, पर महमूद ने कुमुक पहुँचाई—अगर बचा पकड़ जाऍं तो अदालम में बॅधे-बँधे फिरेंगे। तब तो वकील साहब के पैरों पड़ेगे।

हामिद इस प्रबल तर्क का जवाब न दे सका। उसने पूछा—हमें पकड़ने कौने आएगा?

नूरे ने अकड़कर कहा—यह सिपाही बंदूकवाला।

हामिद ने मुँह चिढ़ाकर कहा—यह बेचारे हम बहादुर रूस्तमे—हिंद को पकड़ेगें! अच्छा लाओ, अभी जरा कुश्ती हो जाए। इसकी सूरत देखकर दूर से भागेंगे। पकड़ेगें क्या बेचारे!

मोहसिन को एक नई चोट सूझ गई—तुम्हारे चिमटे का मुँह रोज आग में जलेगा।

उसने समझा था कि हामिद लाजवाब हो जाएगा, लेकिन यह बात न हुई। हामिद ने तुरंत जवाब दिया—आग में बहादुर ही कूदते हैं जनाब, तुम्हारे यह वकील, सिपाही और भिश्ती लैडियों की तरह घर में घुस जाऍंगे। आग में वह काम है, जो यह रूस्तमे-हिन्द ही कर सकता है।

महमूद ने एक जोर लगाया—वकील साहब कुरसी—मेज पर बैठेगे, तुम्हारा चिमटा तो बाबरचीखाने में जमीन पर पड़ा रहने के सिवा और क्या कर सकता है?

इस तर्क ने सम्मी औरनूरे को भी सजी कर दिया! कितने ठिकाने की बात कही हे पट्ठे ने! चिमटा बावरचीखाने में पड़ा रहने के सिवा और क्या कर सकता है?

हामिद को कोई फड़कता हुआ जवाब न सूझा, तो उसने धॉँधली शुरू की—मेरा चिमटा बावरचीखाने में नही रहेगा। वकील साहब कुर्सी पर बैठेगें, तो जाकर उन्हे जमीन पर पटक देगा और उनका कानून उनके पेट में डाल देगा।

बात कुछ बनी नही। खाल गाली-गलौज थी, लेकिन कानून को पेट में डालनेवाली बात छा गई। ऐसी छा गई कि तीनों सूरमा मुँह ताकते रह गए मानो कोई धेलचा कानकौआ किसी गंडेवाले कनकौए को काट गया हो। कानून मुँह से बाहर निकलने वाली चीज हे। उसको पेट के अन्दर डाल दिया जाना बेतुकी-सी बात होने पर भी कुछ नयापन रखती हे। हामिद ने मैदान मार लिया। उसका चिमटा रूस्तमे-हिन्द हे। अब इसमें मोहसिन, महमूद नूरे, सम्मी किसी को भी आपत्ति नहीं हो सकती।

विजेता को हारनेवालों से जो सत्कार मिलना स्वाभविक है, वह हामिद को भी मिल। औरों ने तीन-तीन, चार-चार आने पैसे खर्च किए, पर कोई काम की चीज न ले सके। हामिद ने तीन पैसे में रंग जमा लिया। सच ही तो है, खिलौनों का क्या भरोसा? टूट-फूट जाऍंगी। हामिद का चिमटा तो बना रहेगा बरसों?

संधि की शर्ते तय होने लगीं। मोहसिन ने कहा—जरा अपना चिमटा दो, हम भी देखें। तुम हमार भिश्ती लेकर देखो।

महमूद और नूरे ने भी अपने-अपने खिलौने पेश किए।

हामिद को इन शर्तो को मानने में कोई आपत्ति न थी। चिमटा बारी-बारी से सबके हाथ में गया, और उनके खिलौने बारी-बारी से हामिद के हाथ में आए। कितने खूबसूरत खिलौने हैं।

हामिद ने हारने वालों के ऑंसू पोंछे—मैं तुम्हे चिढ़ा रहा था, सच! यह चिमटा भला, इन खिलौनों की क्या बराबर करेगा, मालूम होता है, अब बोले, अब बोले।

लेकिन मोहसनि की पार्टी को इस दिलासे से संतोष नहीं होता। चिमटे का सिल्का खूब बैठ गया है। चिपका हुआ टिकट अब पानी से नहीं छूट रहा है।

मोहसिन—लेकिन इन खिलौनों के लिए कोई हमें दुआ तो न देगा?

महमूद—दुआ को लिय फिरते हो। उल्टे मार न पड़े। अम्मां जरूर कहेंगी कि मेले में यही मिट्टी के खिलौने मिले?

हामिद को स्वीकार करना पड़ा कि खिलौनों को देखकर किसी की मां इतनी खुश न होगी, जितनी दादी चिमटे को देखकर होंगी। तीन पैसों ही में तो उसे सब-कुछ करना था ओर उन पैसों के इस उपयों पर पछतावे की बिल्कुल जरूरत न थी। फिर अब तो चिमटा रूस्तमें—हिन्द हे ओर सभी खिलौनों का बादशाह।

रास्ते में महमूद को भूख लगी। उसके बाप ने केले खाने को दियें। महमून ने केवल हामिद को साझी बनाया। उसके अन्य मित्र मुंह ताकते रह गए। यह उस चिमटे का प्रसाद थां।



ग्यारह बजे गॉँव में हलचल मच गई। मेलेवाले आ गए। मोहसिन की छोटी बहन दौड़कर भिश्ती उसके हाथ से छीन लिया और मारे खुशी के जा उछली, तो मियॉं भिश्ती नीचे आ रहे और सुरलोक सिधारे। इस पर भाई-बहन में मार-पीट हुई। दानों खुब रोए। उसकी अम्मॉँ यह शोर सुनकर बिगड़ी और दोनों को ऊपर से दो-दो चॉँटे और लगाए।

मियॉँ नूरे के वकील का अंत उनके प्रतिष्ठानुकूल इससे ज्यादा गौरवमय हुआ। वकील जमीन पर या ताक पर हो नहीं बैठ सकता। उसकी मर्यादा का विचार तो करना ही होगा। दीवार में खूँटियाँ गाड़ी गई। उन पर लकड़ी का एक पटरा रखा गया। पटरे पर कागज का कालीन बिदाया गया। वकील साहब राजा भोज की भाँति सिंहासन पर विराजे। नूरे ने उन्हें पंखा झलना शुरू किया। आदालतों में खर की टट्टियॉँ और बिजली के पंखे रहते हें। क्या यहॉँ मामूली पंखा भी न हो! कानून की गर्मी दिमाग पर चढ़ जाएगी कि नहीं? बॉँस कापंखा आया ओर नूरे हवा करने लगें मालूम नहीं, पंखे की हवा से या पंखे की चोट से वकील साहब स्वर्गलोक से मृत्युलोक में आ रहे और उनका माटी का चोला माटी में मिल गया! फिर बड़े जोर-शोर से मातम हुआ और वकील साहब की अस्थि घूरे पर डाल दी गई।

अब रहा महमूद का सिपाही। उसे चटपट गॉँव का पहरा देने का चार्ज मिल गया, लेकिन पुलिस का सिपाही कोई साधारण व्यक्ति तो नहीं, जो अपने पैरों चलें वह पालकी पर चलेगा। एक टोकरी आई, उसमें कुछ लाल रंग के फटे-पुराने चिथड़े बिछाए गए जिसमें सिपाही साहब आराम से लेटे। नूरे ने यह टोकरी उठाई और अपने द्वार का चक्कर लगाने लगे। उनके दोनों छोटे भाई सिपाही की तरह ‘छोनेवाले, जागते लहो’ पुकारते चलते हें। मगर रात तो अँधेरी होनी चाहिए, नूरे को ठोकर लग जाती है। टोकरी उसके हाथ से छूटकर गिर पड़ती है और मियॉँ सिपाही अपनी बन्दूक लिये जमीन पर आ जाते हैं और उनकी एक टॉँग में विकार आ जाता है।

महमूद को आज ज्ञात हुआ कि वह अच्छा डाक्टर है। उसको ऐसा मरहम मिला गया है जिससे वह टूटी टॉँग को आनन-फानन जोड़ सकता हे। केवल गूलर का दूध चाहिए। गूलर का दूध आता है। टाँग जावब दे देती है। शल्य-क्रिया असफल हुई, तब उसकी दूसरी टाँग भी तोड़ दी जाती है। अब कम-से-कम एक जगह आराम से बैठ तो सकता है। एक टॉँग से तो न चल सकता था, न बैठ सकता था। अब वह सिपाही संन्यासी हो गया है। अपनी जगह पर बैठा-बैठा पहरा देता है। कभी-कभी देवता भी बन जाता है। उसके सिर का झालरदार साफा खुरच दिया गया है। अब उसका जितना रूपांतर चाहों, कर सकते हो। कभी-कभी तो उससे बाट का काम भी लिया जाता है।

अब मियॉँ हामिद का हाल सुनिए। अमीना उसकी आवाज सुनते ही दौड़ी और उसे गोद में उठाकर प्यार करने लगी। सहसा उसके हाथ में चिमटा देखकर वह चौंकी।

‘यह चिमटा कहॉं था?’

‘मैंने मोल लिया है।‘

‘कै पैसे में?

‘तीन पैसे दिये।‘

अमीना ने छाती पीट ली। यह कैसा बेसमझ लड़का है कि दोपहर हुआ, कुछ खाया न पिया। लाया क्या, चिमटा! ‘सारे मेले में तुझे और कोई चीज न मिली, जो यह लोहे का चिमटा उठा लाया?’

हामिद ने अपराधी-भाव से कहा—तुम्हारी उँगलियॉँ तवे से जल जाती थीं, इसलिए मैने इसे लिया।

बुढ़िया का क्रोध तुरन्त स्नेह में बदल गया, और स्नेह भी वह नहीं, जो प्रगल्भ होता हे और अपनी सारी कसक शब्दों में बिखेर देता है। यह मूक स्नेह था, खूब ठोस, रस और स्वाद से भरा हुआ। बच्चे में कितना व्याग, कितना सदभाव और कितना विवेक है! दूसरों को खिलौने लेते और मिठाई खाते देखकर इसका मन कितना ललचाया होगा? इतना जब्त इससे हुआ कैसे? वहॉँ भी इसे अपनी बुढ़िया दादी की याद बनी रही। अमीना का मन गदगद हो गया।

और अब एक बड़ी विचित्र बात हुई। हामिद कें इस चिमटे से भी विचित्र। बच्चे हामिद ने बूढ़े हामिद का पार्ट खेला था। बुढ़िया अमीना बालिका अमीना बन गई। वह रोने लगी। दामन फैलाकर हामिद को दुआऍं देती जाती थी और आँसूं की बड़ी-बड़ी बूंदे गिराती जाती थी। हामिद इसका रहस्य क्या समझता!

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