आचार्य विनोबा भावे अपने ज्ञान और सद्विचारों के कारण अत्यंत प्रिय थे। लोग उनसे उपदेश ग्रहण करने आते और प्राप्त ज्ञान को अपने व्यवहार में ढालकर बेहतर इंसान बनने का प्रयास करते। हर विषय पर उनके विचार इतने स्पष्ट और सरल होत कि सुनने वाले के हृदय में सीधे उत्तर जाते। उनके शिष्यों में न केवल भारतीय बल्कि विदेशी भी शामिल थे।
एक बार आचार्य विनोबा पदयात्रा करते हुए अजमेर पहुंचे। वहां भी उनके काफी शिष्य मौजूद थे। उन्होंने पहले अपना आवश्यक कार्य पूरा किया और फिर सभी से मिले। वहां उनके कुछ विदेशी शिष्य भी बैठे थे। उन्हीं में एक अमेरिकी शिष्य भी था। वह विनोबाजी से बोला- आचार्य जी, मैं अमेरिका वापस जा रहा हूं। अपने देशवासियों को आपकी ओर से क्या संदेश दूं।
विनोबाजी कुछ क्षण के लिए गंभीर हो गए और फिर बोले मैं क्या संदेश दूं? मैं तो बहुत छोटा आदमी हूं और आपका देश बहुत बड़ा हैं।
जब अमेरिकी ने काफी जिद की तो वे बोले- अपने देशवासियों से कहना कि वे अपने कारखानों में साल में तीन सौ पैसठ दिन काम कर खूब हथियार बनाएं क्योंकि तुम्हारे आयुध कारखानों और आदमियों को काम चाहिए। काम नहीं होगा, तो बेरोजगारी फैलेगी। किंतु जितने भी हथियार बनाएं, उन्हें तीन सौ पैसठवें दिन समुद्र में फेंक दें।
विनोबाजी की बात का मर्म समझकर अमेरिकी का सिर शर्म से झुक गया। क्योंकि अमेरिका की हिंसक नीति सर्वविदित है।
विनोबाजी का यह संदेश आज के युग में और महत्वपूर्ण हो गया है। जबकि चारो ओर हिंसा व्याप्त है। हिंसा दरअसल हिंसा को ही जन्म देती है। हिंसा को अहिंसा से ही दबाया जा सकता है। यदि मन में संकल्प कर लें, तो हिंसा अंतत: अहिंसा से पराजित हो जाती है।
12 सितंबर, 2010
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जवाब देंहटाएंबहुत अच्छी प्रस्तुति। 11.09.1895 को जन्मे विनोबा भावे के जन्म दिवस के उपलक्ष्य पर आपकी यह प्रस्तुति समसामयिक है। और सामयिक है उनका यह कथन भी कि "कोई भी देश हथियार नहीं, बल्कि नैतिक व्यवहार के बल पर सुरक्षित रहता है।" हार्दिक शुभकामनाएं!
जवाब देंहटाएंकाव्यशास्त्र (भाग-1) – काव्य का प्रयोजन, “मनोज” पर, आचार्य परशुराम राय की प्रस्तुति पढिए!
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जवाब देंहटाएंhttp://www.apnihindi.com/2010/04/blog-post_28.html