20 नवंबर, 2009

माता का ह्रदय - कहानी (प्रेमचंद)

माधवी की आंखों में सारा संसार अंधेरा हो रहा था । काई अपना मददगार दिखाई न देता था। कहीं आशा की झलक न थी। उस निर्धन घर में वह अकेली पडी रोती थी और कोई आंसू पोंछने वाला न था। उसके पति को मरे हुए २२ वर्ष हो गए थे। घर में कोई सम्पत्ति न थी। उसने न- जाने किन तकलीफों से अपने बच्चे को पाल-पोस कर बडा किया था। वही जवान बेटा आज उसकी गोद से छीन लिया गया था और छीनने वाले कौन थे ? अगर मृत्यु ने छीना होता तो वह सब्र कर लेती। मौत से किसी को द्वेष नहीं होता। मगर स्वार्थियों के हाथों यह अत्याचार असहृ हो रहा था। इस घोर संताप की दशा में उसका जी रह-रह कर इतना विफल हो जाता कि इसी समय चलूं और उस अत्याचारी से इसका बदला लूं जिसने उस पर निष्ठुर आघात किया है। मारूं या मर जाऊं। दोनों ही में संतोष हो जाएगा।
कितना सुंदर, कितना होनहार बालक था ! यही उसके पति की निशानी, उसके जीवन का आधार उसकी अम्रं भर की कमाई थी। वही लडका इस वक्त जेल मे पडा न जाने क्या-क्या तकलीफें झेल रहा होगा ! और उसका अपराध क्या था ? कुछ नही। सारा मुहल्ला उस पर जान देता था। विधालय के अध्यापक उस पर जान देते थे। अपने-बेगाने सभी तो उसे प्यार करते थे। कभी उसकी कोई शिकायत सुनने में नहीं आयी।ऐसे बालक की माता होन पर उसे बधाई देती थी। कैसा सज्जन, कैसा उदार, कैसा परमार्थी ! खुद भूखो सो रहे मगर क्या मजाल कि द्वार पर आने वाले अतिथि को रूखा जबाब दे। ऐसा बालक क्या इस योग्य था कि जेल में जाता ! उसका अपराध यही था, वह कभी-कभी सुनने वालों को अपने दुखी भाइयों का दुखडा सुनाया करता था। अत्याचार से पीडित प्राणियों की मदद के लिए हमेशा तैयार रहता था। क्या यही उसका अपराध था?
दूसरो की सेवा करना भी अपराध है ? किसी अतिथि को आश्रय देना भी अपराध है ?
इस युवक का नाम आत्मानंद था। दुर्भाग्यवश उसमें वे सभी सद्गुण थे जो जेल का द्वार खोल देते है। वह निर्भीक था, स्पष्टवादी था, साहसी था, स्वदेश-प्रेमी था, नि:स्वार्थ था, कर्तव्यपरायण था। जेल जाने के लिए इन्हीं गुणो की जरूरत है। स्वाधीन प्राणियों के लिए वे गुण स्वर्ग का द्वार खोल देते है, पराधीनो के लिए नरक के ! आत्मानंद के सेवा-कार्य ने, उसकी वक्तृतताओं ने और उसके राजनीतिक लेखो ने उसे सरकारी कर्मचारियों की नजरों में चढा दिया था। सारा पुलिस-विभाग नीचे से ऊपर तक उससे सर्तक रहता था, सबकी निगाहें उस पर लगीं रहती थीं। आखिर जिले में एक भयंकर डाके ने उन्हे इच्छित अवसर प्रदान कर दिया।
आत्मानंद के घर की तलाशी हुई, कुछ पत्र और लेख मिले, जिन्हें पुलिस ने डाके का बीजक सिद्व किया। लगभग २० युवकों की एक टोली फांस ली गयी। आत्मानंद इसका मुखिया ठहराया गया। शहादतें हुई । इस बेकारी और गिरानी के जमाने में आत्मा सस्ती और कौन वस्तु हो सकती है। बेचने को और किसी के पास रह ही क्या गया है। नाम मात्र का प्रलोभन देकर अच्छी-से-अच्छी शहादतें मिल सकती है, और पुलिस के हाथ तो निकृष्ट-से- निकृष्ट गवाहियां भी देववाणी का महत्व प्राप्त कर लेती है। शहादतें मिल गयीं, महीनें-भर तक मुकदमा क्या चला एक स्वांग चलता रहा और सारे अभियुक्तों को सजाएं दे दी गयीं। आत्मानंद को सबसे कठोर दंड मिला ८ वर्ष का कठिन कारावास। माधवी रोज कचहरी जाती; एक कोने में बैठी सारी कार्यवाई देखा करती।
मानवी चरित्र कितना दुर्बल, कितना नीच है, इसका उसे अब तक अनुमान भी न हुआ था। जब आत्मानंद को सजा सुना दी गयी और वह माता को प्रणाम करके सिपाहियों के साथ चला तो माधवी मूर्छित होकर गिर पडी । दो-चार सज्जनों ने उसे एक तांगे पर बैठाकर घर तक पहुंचाया। जब से वह होश में आयी है उसके हृदय में शूल-सा उठ रहा है। किसी तरह धैर्य नही होता । उस घोर आत्म-वेदना की दशा में अब जीवन का एक लक्ष्य दिखाई देता है और वह इस अत्याचार का बदला है।
अब तक पुत्र उसके जीवन का आधार था। अब शत्रुओं से बदला लेना ही उसके जीवन का आधार होगा। जीवन में उसके लिए कोई आशा न थी। इस अत्याचार का बदला लेकर वह अपना जन्म सफल समझगी। इस अभागे नर-पिशाच बगची ने जिस तरह उसे रक्त के आसूं रॅलाये हैं उसी भांति यह भी उस रूलायेगी। नारी-हृदय कोमल है लेकिन केवल अनुकूल दशा में: जिस दशा में पुरूष दूसरों को दबाता है, स्त्री शील और विनय की देवी हो जाती है। लेकिन जिसके हाथों में अपना सर्वनाश हो गया हो उसके प्रति स्त्री की पुरूष से कम घ्ज्ञृणा ओर क्रोध नहीं होता अंतर इतना ही है कि पुरूष शास्त्रों से काम लेता है, स्त्री कौशल से ।
रात भीगती जाती थी और माधवी उठने का नाम न लेती थी। उसका दु:ख प्रतिकार के आवेश में विलीन होता जाता था। यहां तक कि इसके सिवा उसे और किसी बात की याद ही न रही। उसने सोचा, कैसे यह काम होगा? कभी घर से नहीं निकली।वैधव्य के २२ साल इसी घर कट गये लेकिन अब निकूलूंगीं। जबरदस्ती निकलूंगी, भिखारिन बनूगीं, टहलनी बनूगी, झूठ बोलूंगी, सब कुकर्म करूंगी। सत्कर्म के लिए संसार में स्थान नहीं। ईश्वर ने निराश होकर कदाचित् इसकी ओर से मुंह फेर लिया है। जभी तो यहां ऐसे-ऐसे अत्याचार होते है। और पापियों को दडं नहीं मिलता। अब इन्हीं हाथों से उसे दंड दूगी।

2

संध्या का समय था। लखनऊ के एक सजे हुए बंगले में मित्रों की महफिल जमी हुई थी। गाना-बजाना हो रहा था। एक तरफ आतशबाजियां रखी हुई थीं। दूसरे कमरे में मेजों पर खना चुना जा रहा था। चारों तरफ पुलिस के कर्मचारी नजर आते थें वह पुलिस के सुपरिंटेंडेंट मिस्टर बगीची का बंगला है। कई दिन हुए उन्होने एक मार्के का मुकदमा जीता था।अफसरो ने खुश होकर उनकी तरक्की की दी थी। और उसी की खुशी में यह उत्सव मनाया जा रहा था। यहां आये दिन ऐसे उत्सव होते रहते थे। मुफ्त के गवैये मिल जाते थे, मुफ्त की अतशबाजी; फल और मेवे और मिठाईयां आधे दामों पर बाजार से आ जाती थीं। और चट दावतो हो जाती थी। दूसरों के जहों सौ लगते, वहां इनका दस से काम चल जाता था। दौड़-धूप करने को सिपाहियों की फौज थी हीं। और यह मार्के का मुकदमा क्या था? वह जिसमें निरपराध युवकों को बनावटी शहादत से जेल में ठूस दिया गया था।
गाना समाप्त होने पर लोग भोजन करने बैठें। बेगार के मजदूर और पल्लेदार जो बाजार से दावत और सजावट के सामान लाये थे, रोते या दिल में गालियां देते चले गये थे; पर एक बुढ़िया अभी तक द्वार पर बैठी हुई थी। और अन्य मजदूरों की तरह वह भूनभुना कर काम न करती थी। हुक्म पाते ही खुश-दिल मजदूर की तरह हुक्म बजा लाती थी। यह मधवी थी, जो इस समय मजूरनी का वेष धारण करके अपना घतक संकल्प पूरा करने आयी। थी।
मेहमान चले गये। महफिल उठ गयी। दावत का समान समेट दिया गया। चारों ओर सन्नाटा छा गया; लेकिन माधवी अभी तक वहीं बैठी थी।
सहसा मिस्टर बागची ने पूछा—बुड्ढी तू यहां क्यों बैठी है? तुझे कुछ खाने को मिल गया?
माधवी—हां हुजूर, मिल गया। बागची—तो जाती क्यों नहीं?
माधवी—कहां जाऊं सरकार , मेरा कोई घर-द्वार थोड़े ही है। हुकुम हो तो यहीं पडी रहूं। पाव-भर आटे की परवस्ती हो जाय हुजुर।
बगची –नौकरी करेगी? ?

वी—क्यो न करूंगी सरकार, यही तो चाहती हूं।
बागची—लड़का खिला सकती है?
माधवी—हां हजूर, वह मेरे मन का काम है।
बगची—अच्छी बात है। तु आज ही से रह। जा घर में देख, जो काम बतायें, वही कर।

3

एक महीना गुजर गया। माधवी इतना तन-मन से काम करती है कि सारा घर उससे खुश है। बहू जी का मीजाज बहुम ही चिड़चिड़ा है। वह दिन-भर खाट पर पड़ी रहती है और बात-बात पर नौकरों पर झल्लाया करती है। लेकिन माधवी उनकी घुड़कियों को भी सहर्ष सह लेती है। अब तक मुश्किल से कोई दाई एक सप्ताह से अधिक ठहरी थी। माधवी का कलेजा है कि जली-कटी सुनकर भी मुख पर मैल नहीं आने देती।
मिस्टर बागची के कई लड़के हो चुके थे, पर यही सबसे छोटा बच्चा बच रहा था। बच्चे पैदा तो हृष्ट-पृष्ट होते, किन्तु जन्म लेते ही उन्हे एक –न एक रोग लग जाता था और कोई दो-चार महीनें, कोई साल भर जी कर चल देता था। मां-बाप दोनों इस शिशु पर प्राण देते थे। उसे जरा जुकाम भी हो तो दोनो विकल हो जाते। स्त्री-पुरूष दोनो शिक्षित थे, पर बच्चे की रक्षा के लिए टोना-टोटका , दुआता-बीच, जन्तर-मंतर एक से भी उन्हें इनकार न था।
माधवी से यह बालक इतना हिल गया कि एक क्षण के लिए भी उसकी गोद से न उतरता। वह कहीं एक क्षण के लिए चली जाती तो रो-रो कर दुनिया सिर पर उठा लेता। वह सुलाती तो सोता, वह दूध पिलाती तो पिता, वह खिलाती तो खेलता, उसी को वह अपनी माता समझता। माधवी के सिवा उसके लिए संसार में कोई अपना न था। बाप को तो वह दिन-भर में केवल दो-नार बार देखता और समझता यह कोई परदेशी आदमी है। मां आलस्य और कमजारी के मारे गोद में लेकर टहल न सकती थी। उसे वह अपनी रक्षा का भार संभालने के योग्य न समझता था, और नौकर-चाकर उसे गोद में ले लेते तो इतनी वेदर्दी से कि उसके कोमल अंगो मे पीड़ा होने लगती थी। कोई उसे ऊपर उछाल देता था, यहां तक कि अबोध शिशु का कलेजा मुंह को आ जाता था। उन सबों से वह डरता था। केवल माधवी थी जो उसके स्वभाव को समझती थी। वह जानती थी कि कब क्या करने से बालक प्रसन्न होगा। इसलिए बालक को भी उससे प्रेम था।
माधवी ने समझाया था, यहां कंचन बरसता होगा; लेकिन उसे देखकर कितना विस्मय हुआ कि बडी मुश्किल से महीने का खर्च पूरा पडता है। नौकरों से एक-एक पैसे का हिसाब लिया जाता था और बहुधा आवश्यक वस्तुएं भी टाल दी जाती थीं। एक दिन माधवी ने कहा—बच्चे के लिए कोई तेज गाड़ी क्यों नहीं मंगवा देतीं। गोद में उसकी बाढ़ मारी जाती है।
मिसेज बागजी ने कुठिंत होकर कहा—कहां से मगवां दूं? कम से कम ५०-६० रुपयं में आयेगी। इतने रुपये कहां है?
माधवी—मलकिन, आप भी ऐसा कहती है!
मिसेज बगची—झूठ नहीं कहती। बाबू जी की पहली स्त्री से पांच लड़कियां और है। सब इस समय इलाहाबाद के एक स्कूल में पढ रही हैं। बड़ी की उम्र १५-१६ वर्ष से कम न होगी। आधा वेतन तो उधार ही चला जाता है। फिर उनकी शादी की भी तो फिक्र है। पांचो के विवाह में कम-से-कम २५ हजार लगेंगे। इतने रूपये कहां से आयेगें। मै चिंता के मारे मरी जाती हूं। मुझे कोई दूसरी बीमारी नहीं है केवल चिंता का रोग है।
माधवी—घूस भी तो मिलती है।
मिसेज बागची—बूढ़ी, ऐसी कमाई में बरकत नहीं होती। यही क्यों सच पूछो तो इसी घूस ने हमारी यह दुर्गती कर रखी है। क्या जाने औरों को कैसे हजम होती है। यहां तो जब ऐसे रूपये आते है तो कोई-न-कोई नुकसान भी अवश्य हो जाता है। एक आता है तो दो लेकर जाता है। बार-बार मना करती हूं, हराम की कौड़ी घर मे न लाया करो, लेकिन मेरी कौन सुनता है।
बात यह थी कि माधवी को बालक से स्नेह होता जाता था। उसके अमंगल की कल्पना भी वह न कर सकती थी। वह अब उसी की नींद सोती और उसी की नींद जागती थी। अपने सर्वनाश की बात याद करके एक क्षण के लिए बागची पर क्रोध तो हो आता था और घाव फिर हरा हो जाता था; पर मन पर कुत्सित भावों का आधिपत्य न था। घाव भर रहा था, केवल ठेस लगने से दर्द हो जाता था। उसमें स्वंय टीस या जलन न थी। इस परिवार पर अब उसे दया आती थी। सोचती, बेचारे यह छीन-झपट न करें तो कैसे गुजर हो। लड़कियों का विवाह कहां से करेगें! स्त्री को जब देखो बीमार ही रहती है। उन पर बाबू जी को एक बोतल शराब भी रोज चाहिए। यह लोग स्वयं अभागे है। जिसके घर में ५-५क्वारी कन्याएं हों, बालक हो-हो कर मर जाते हों, घरनी दा बीमार रहती हो, स्वामी शराब का तली हो, उस पर तो यों ही ईश्वर का कोप है। इनसे तो मैं अभागिन ही अच्छी!

4

दुर्बल बलकों के लिए बरसात बुरी बला है। कभी खांसी है, कभी ज्वर, कभी दस्त। जब हवा में ही शीत भरी हो तो कोई कहां तक बचाये। माधवी एक दिन आपने घर चली गयी थी। बच्चा रोने लगा तो मां ने एक नौकर को दिया, इसे बाहर बहला ला। नौकर ने बाहर ले जाकर हरी-हरी घास पर बैठा दिया,। पानी बरस कर निकल गया था। भूमि गीली हो रही थी। कहीं-कहीं पानी भी जमा हो गया था। बालक को पानी में छपके लगाने से ज्यादा प्यारा और कौन खेल हो सकता है। खूब प्रेम से उमंग-उमंग कर पानी में लोटने लगां नौकर बैठा और आदमियों के साथ गप-शप करता घंटो गुजर गये। बच्चे ने खूब सर्दी खायी। घर आया तो उसकी नाक बह रही थीं रात को माधवी ने आकर देखा तो बच्चा खांस रहा था। आधी रात के करीब उसके गले से खुरखुर की आवाज निकलने लगी। माधवी का कलेजा सन से हो गया। स्वामिनी को जगाकर बोली—देखो तो बच्चे को क्या हो गया है। क्या सर्दी-वर्दी तो नहीं लग गयी। हां, सर्दी ही मालूम होती है।
स्वामिनी हकबका कर उठ बैठी और बालक की खुरखराहट सुनी तो पांव तलेजमीन निकल गयीं यह भंयकर आवाज उसने कई बार सुनी थी और उसे खूब पहचानती थी। व्यग्र होकर बोली—जरा आग जलाओ। थोड़ा-सा तंग आ गयी। आज कहार जरा देर के लिए बाहर ले गया था, उसी ने सर्दी में छोड़ दिया होगा।
सारी रात दोंनो बालक को सेंकती रहीं। किसी तरह सवेरा हुआ। मिस्टर बागची को खबर मिली तो सीधे डाक्टर के यहां दौड़े। खैरियत इतनी थी कि जल्द एहतियात की गयी। तीन दिन में अच्छा हो गया; लेकिन इतना दुर्बल हो गया था कि उसे देखकर डर लगता था। सच पूछों तो माधवी की तपस्या ने बालक को बचायां। माता-पिता सो जाता, किंतु माधवी की आंखों में नींद न थी। खना-पीना तक भूल गयी। देवताओं की मनौतियां करती थी, बच्चे की बलाएं लेती थी, बिल्कुल पागल हो गयी थी, यह वही माधवी है जो अपने सर्वनाश का बदला लेने आयी थी। अपकार की जगह उपकार कर रही थी।विष पिलाने आयी थी, सुधा पिला रही थी। मनुष्य में देवता कितना प्रबल है!
प्रात:काल का समय था। मिस्टर बागची शिशु के झूले के पास बैठे हुए थे। स्त्री के सिर में पीड़ा हो रही थी। वहीं चारपाई पर लेटी हुई थी और माधवी समीप बैठी बच्चे के लिए दुध गरम कर रही थी। सहसा बागची ने कहा—बूढ़ी, हम जब तक जियेंगे तुम्हारा यश गयेंगे। तुमने बच्चे को जिला लियां
स्त्री—यह देवी बनकर हमारा कष्ट निवारण करने के लिए आ गयी। यह न होती तो न जाने क्या होता। बूढ़ी, तुमसे मेरी एक विनती है। यों तो मरना जीना प्रारब्ध के हाथ है, लेकिन अपना-अपना पौरा भी बड़ी चीज है। मैं अभागिनी हूं। अबकी तुम्हारे ही पुण्य-प्रताप से बच्चा संभल गया। मुझे डर लग रहा है कि ईश्वर इसे हमारे हाथ से छीन ने ले। सच कहतीं हूं बूढ़ी, मुझे इसका गोद में लेते डर लगता हैं। इसे तुम आज से अपना बच्चा समझो। तुम्हारा होकर शायद बच जाय। हम अभागे हैं, हमारा होकर इस पर नित्य कोई-न-कोई संकट आता रहेगा। आज से तुम इसकी माता हो जाआ। तुम इसे अपने घर ले जाओ। जहां चाहे ले जाओ, तुम्हारी गोंद मे देर मुझे फिर कोई चिंता न रहेगी। वास्तव में तुम्हीं इसकी माता हो, मै तो राक्षसी हूं।
माधवी—बहू जी, भगवान् सब कुशल करेगें, क्यों जी इतना छोटा करती हो?
मिस्टर बागची—नहीं-नहीं बूढ़ी माता, इसमें कोई हरज नहीं है। मै मस्तिष्क से तो इन बांतो को ढकोसला ही समझता हूं; लेकिन हृदय से इन्हें दूर नहीं कर सकता। मुझे स्वयं मेरी माता जीने एक धाबिन के हाथ बेच दिया था। मेरे तीन भाई मर चुके थे। मै जो बच गया तो मां-बाप ने समझा बेचने से ही इसकी जान बच गयी। तुम इस शिशु को पालो-पासो। इसे अपना पुत्र समझो। खर्च हम बराबर देते रहेंगें। इसकी कोई चिंता मत करना। कभी –कभी जब हमारा जी चाहेगा, आकर देख लिया करेगें। हमें विश्वास है कि तुम इसकी रक्षा हम लोंगों से कहीं अच्छी तरह कर सकती हो। मैं कुकर्मी हूं। जिस पेशे में हूं, उसमें कुकर्म किये बगैर काम नहीं चल सकता। झूठी शहादतें बनानी ही पड़ती है, निरपराधों को फंसाना ही पड़ता है। आत्मा इतनी दुर्बल हो गयी है कि प्रलोभन में पड़ ही जाता हूं। जानता ही हूं कि बुराई का फल बुरा ही होता है; पर परिस्थिति से मजबूर हूं। अगर न करूं तो आज नालायक बनाकर निकाल दिया जाऊं। अग्रेज हजारों भूलें करें, कोई नहीं पूछता। हिनदूस्तानी एक भूल भी कर बैठे तो सारे अफसर उसके सिर हो जाते है। हिंदुस्तानियत को दोष मिटाने केलिए कितनी ही ऐसी बातें करनी पड़ती है जिनका अग्रेंज के दिल में कभी ख्याल ही नहीं पैदा हो सकता। तो बोलो, स्वीकार करती हो?
माधवी गद्गद् होकर बोली—बाबू जी, आपकी इच्छा है तो मुझसे भी जो कुछ बन पडेगा, आपकी सेवा कर दूंगीं भगवान् बालक को अमर करें, मेरी तो उनसे यही विनती है।
माधवी को ऐसा मालूम हो रहा था कि स्वर्ग के द्वार सामने खुले हैं और स्वर्ग की देवियां अंचल फैला-फैला कर आशीर्वाद दे रही हैं, मानो उसके अंतस्तल में प्रकाश की लहरें-सी उठ रहीं है। स्नेहमय सेवा में कि कितनी शांति थी।
बालक अभी तक चादर ओढ़े सो रहा था। माधवी ने दूध गरम हो जाने पर उसे झूले पर से उठाया, तो चिल्ला पड़ी। बालक की देह ठंडी हो गयी थी और मुंह पर वह पीलापन आ गया था जिसे देखकर कलेजा हिल जाता है, कंठ से आह निकल आती है और आंखों से आसूं बहने लगते हैं। जिसने इसे एक बारा देखा है फिर कभी नहीं भूल सकता। माधवी ने शिशु को गोंद से चिपटा लिया, हालाकिं नीचे उतार दोना चाहिए था।
कुहराम मच गया। मां बच्चे को गले से लगाये रोती थी; पर उसे जमीन पर न सुलाती थी। क्या बातें हो रही रही थीं और क्या हो गया। मौत को धोखा दोने में आन्नद आता है। वह उस वक्त कभी नहीं आती जब लोग उसकी राह देखते होते हैं। रोगी जब संभल जाता है, जब वह पथ्य लेने लगता है, उठने-बैठने लगता है, घर-भर खुशियां मनाने लगता है, सबकों विश्वास हो जाता है कि संकट टल गया, उस वक्त घात में बैठी हुई मौत सिर पर आ जाती है। यही उसकी निठुर लीला है।
आशाओं के बाग लगाने में हम कितने कुशल हैं। यहां हम रक्त के बीज बोकर सुधा के फल खाते हैं। अग्नि से पौधों को सींचकर शीतल छांह में बैठते हैं। हां, मंद बुद्धि।
दिन भर मातम होता रहा; बाप रोता था, मां तड़पती थी और माधवी बारी-बारी से दोनो को समझाती थी।यदि अपने प्राण देकर वह बालक को जिला सकती तो इस समया अपना धन्य भाग समझती। वह अहित का संकल्प करके यहां आयी थी और आज जब उसकी मनोकामना पूरी हो गयी और उसे खुशी से फूला न समाना चाहिए था, उस उससे कहीं घोर पीड़ा हो रही थी जो अपने पुत्र की जेल यात्रा में हुई थी। रूलाने आयी थी और खुद रोती जा रहीं थी। माता का हृदय दया का आगार है। उसे जलाओ तो उसमें दया की ही सुगंध निकलती है, पीसो तो दया का ही रस निकलता है। वह देवी है। विपत्ति की क्रूर लीलाएं भी उस स्वच्छ निर्मल स्रोत को मलिन नहीं कर सकतीं।

दो बैलों की कथा - कहानी (प्रेमचंद) भाग 1

जानवरों में गधा सबसे ज्यादा बुध्दिहीन समझा जाता है। हम जब किसी आदमी को पल्ले दर्जे का बेवकूफ कहना चाहते हैं, तो उसे गधा कहते हैं। गधा सचमुच बेवकूफ है, या उसके सीधेपन, उसकी निरापद सहिष्णुता ने उसे यह पदवी दे दी है, इसका निश्चय नहीं किया जा सकता।

गायें सींग मारती हैं, ब्यायी हुई गाय तो अनायास ही सिंहनी का रूप धारण कर लेती है। कुत्ता भी बहुत गरीब जानवर है, लेकिन कभी-कभी उसे भी क्रोध आ ही जाता है। किन्तु गधे को कभी क्रोध करते नहीं सुना, न देखा। जितना चाहे गरीब को मारो, चाहे जैसी खराब, सडी हुई घास सामने डाल दो, उसके चेहरे पर कभी असंतोष की छाया भी न दिखाई देगी। वैशाख में चाहे एकाध बार कुलेल कर लेता हो, पर हमने तो उसे कभी खुश होते नहीं देखा।

उसके चेहरे पर एक स्थायी विषाद स्थायी रूप से छाया रहता है। सुख-दु:ख, हानि-लाभ, किसी भी दशा में उसे बदलते नहीं देखा। ॠषियों-मुनियों के जितने गुण हैं, वे सभी उसमें पराकाष्ठा को पहुँच गए हैं, पर आदमी उसे बेवकूफ कहता है। सद्गुणों का इतना अनादर कहीं न देखा। कादचित सीधापन संसार के लिए उपयुक्त नहीं है।

देखिए न, भारतवासियों की अफ्रीका में क्यों दुर्दशा हो रही है? क्यों अमेरिका में उन्हें घुसने नहीं दिया जाता? बेचारे शराब नहीं पीते, चार पैसे कुसमय के लिए बचाकर रखते हैं, जी तोडकर काम करते हैं, किसी से लडाई-झगडा नहीं करते, चार बातें सुनकर गम खा जाते हैं, फिर भी बदनाम हैं। कहा जाता है, वे जीवन के आदर्श को नीचा करते हैं। अगर वे भी ईंट का जवाब पत्थर से देना सीख जाते, तो शायद सभ्य कहलाने लगते। जापान की मिसाल समाने है। एक ही विजय ने उसे संसार की सभ्य जातियों में गण्य बना दिया। लेकिन गधे का एक छोटा भाई और भी है, जो उससे कम ही गधा है, और वह है 'बैल। जिस अर्थ में हम गधा का प्रयोग करते हैं, कुछ उसी से मिलते-जुलते अर्थ में 'बछिया के ताऊ का भी प्रयोग करते हैं। कुछ लोग बैल को शायद बेवकूफों में सर्वश्रेष्ठ कहेंगे, मगर हमारा विचार ऐसा नहीं है। बैल कभी-कभी मारता भी है, कभी-कभी अडियल बैल भी देखने में आता है। और भी कई रीतियों से अपना असंतोष प्रकट कर देता है, अतएव उसका स्थान गधे से नीचा है।

झूरी काछी के दोनों बैलों के नाम थे हीरा और मोती। दोनों पछाई जाति के थे- देखने में सुन्दर, काम में चौकस, डील में ऊँचे। बहुत दिनों से साथ रहते-रहते दोनों में भाईचारा हो गया था। दोनों आमने-सामने या आसपास बैठे हुए एक-दूसरे से मूक भाषा में विचार-विनिमय करते थे। एक दूसरे के मन की बात कैसे समझ जाता था, हम नहीं कह सकते। अवश्य ही उनमें कोई ऐसी गुप्त शक्ति थी, जिससे जीवों में श्रेष्ठता का दावा करने वाला मनुष्य वंचित है।

दोनों एक-दूसरे को चाटकर और सूँघकर अपना प्रेम प्रकट करते, कभी-कभी दोनों सींग भी मिला लिया करते थे- विग्रह के नाते से नहीं, केवल विनोद के भाव से, आत्मीयता के भाव से, जैसे दोस्तों में घनिष्ठता होते ही धौल-धप्पा होने लगता है। इसके बिना दोस्ती कुछ फुसफुसी, कुछ हल्की-सी रहती है, जिस पर ज्यादा विश्वास नहीं किया जा सकता।

जिस वक्त ये दोनों बैल हल या गाडी में जोत दिए जाते और गर्दन हिला-हिलाकर चलते उस वक्त हर एक की यही चेष्टा होती थी कि ज्याद-से-ज्यादा बोझ मेरी ही गर्दन पर रहे। दिनभर के बाद दोपहर या संध्या को दोनों खुलते, तो एक-दूसरे को चाट-चूटकर अपनी थकान मिटा लेते। नाँद में खली-भूसा पड जाने के बाद दोनों साथ उठते, साथ नाँद में मुँह डालते और साथ ही बैठते थे। एक मुँह हटा लेता तो दूसरा भी हटा लेता था।

संयोग की बात है, झूरी ने एक बार गोईं को ससुराल भेज दिया। बैलों को क्या मालूम वे क्यों भेजे जा रहे हैं। समझे, मालिक ने हमे बेच दिया। अपना यों बेचा जाना उन्हें अच्छा लगा या बुरा, कौन जाने पर झूरी के साले गया को घर तक गोईं ले जाने में दाँतों पसीना आ गया। पीछे से हाँकता तो दोनों दाएँ-बाएँ भागते, पगहिया पकडकर आगे से खींचता तो दोनों पीछे को जोर लगाते। मारता तो दोनों सींग नीचे करके हुँकरते।

अगर ईश्वर ने उन्हें वाणी दी होती, तो झूरी से पूछते- तुम हम गरीबों को क्यों निकाल रहे हो? हमने तो तुम्हारी सेवा करने में कोई कसर नहीं उठा रखी। अगर इतनी मेहनत से काम न चलता था, और काम ले लेते, हमें तो तुम्हारी चाकरी में मर जाना कबूल था। हमने कभी दाने-चारे की शिकायत नहीं की। तुमने जो कुछ खिलाया वह सिर झुकाकर खा लिया, फिर तुमने हमें इस जालिम के हाथों क्यों बेच दिया?

संध्या समय दोनों बैल अपने नए स्थान पर पहुँचे। दिनभर के भूखे थे, लेकिन जब नाँद में लगाए गए, तो एक ने भी उसमें मुँह न डाला। दिल भारी हो रहा था। जिसे उन्होंने अपना घर समझ रखा था, वह आज उनसे छूट गया था। यह नया घर, नया गाँव, नए आदमी, उन्हें बेगानों से लगते थे।

दोनों ने अपनी मूक भाषा में सलाह की, एक-दूसरे को कनखियों से देखा और लेट गए। जब गाँव में सोता पड गया, तो दोनों ने जोर मारकर पगहे तुडा डाले और घर की तरफ चले। पगहे बहुत मजबूत थे। अनुमान न हो सकता था कि कोई बैल उन्हें तोड सकेगा: पर इन दोनों में इस समय दूनी शक्ति आ गई थी। एक-एक झटके में रस्सियाँ टूट गईं।

झूरी प्रात: सोकर उठा, तो देखा कि दोनों बैल चरनी पर खडे हैं। दोनों ही गर्दनों में आधा-आधा गराँव लटक रहा है। घुटने तक पाँव कीचड से भरे हैं और दोनों की ऑंखों में विद्रोहमय स्नेह झलक रहा है।

झूरी बैलों को देखकर स्नेह से गद्गद् हो गया। दौडकर उन्हें गले लगा लिया। प्रेमालिंगन और चुम्बन का वह दृश्य बडा ही मनोहर था।

घर और गाँव के लडके जमा हो गए और तालियाँ बजा-बजाकर उनका स्वागत करने लगे। गाँव के इतिहास में यह घटना अभूतपूर्व न होने पर भी महत्वपूर्ण थी। बाल-सभा ने निश्चय किया, दोनों पशु-वीरों को अभिनंदन-पत्र देना चाहिए। कोई अपने घर से रोटियाँ लाया, कोई गुड, कोई चोकर, कोई भूसी।

एक बालक ने कहा- ऐसे बैल किसी के पास न होंगे।

दूसरे ने समर्थन किया- इतनी दूर से दोनों अकेले चले आए।

तीसरा बोला- बैल नहीं हैं वे, उस जनम के आदमी हैं।

इसका प्रतिवाद करने का किसी को साहस न हुआ।

झूरी की स्त्री ने बैलों को द्वार पर देखा, तो जल उठी। बोली- कैसे नमक-हराम बैल हैं कि एक दिन वहाँकाम न किया, भाग खडे हुए।

झूरी अपने बैलों पर यह आक्षेप न सुन सका- नमकहराम क्यों हैं? चारा-दाना न दिया होगा, तो क्या करते?

स्त्री ने रोब के साथ कहा- बस, तुम्हीं तो बैलों को खिलाना जानते हो, और तो सभी पानी पिला-पिलाकर रखते हैं।

झूरी ने चिढाया- चारा मिलता तो क्यों भागते?

स्त्री चिढी- भागे इसलिए कि वे लोग तुम जैसे बुध्दुओं की तरह बैलों को सहलाते नहीं। खिलाते हैं, तो रगडकर जोतते भी हैं। ये दोनों ठहरे कामचोर, भाग निकले। अब देखूँ? कहाँ से खली और चोकर मिलता है, सूखे भूसे के सिवा कुछ न दूँगी, खाएँ चाहे मरें।

वही हुआ। मजूर को बडी ताकीद कर दी गई कि बैलों को खाली सूखा भूसा दिया जाए।

बैलों ने नाँद में मुँह डाला तो फीका-फीका। न कोई चिकनाहट, न कोई रस। क्याखाएँ? आशा भरी ऑंखों से द्वार की ओर ताकने लगे।

झूरी ने मजूर से कहा- थोडी-सी खली क्यों नहीं डाल देता बे?

'मालिकन मुझे मार ही डालेंगी।

'चुराकर डाल आ।

'ना दादा, पीछे से तुम भी उन्हीं की-सी कहोगे।

दूसरे दिन झूरी का साला फिर आया और बैलों को ले चला। अबकी उसने दोनों को गाडी में जोता।

दो-चार बार मोती ने गाडी को सडक की खाई में गिराना चाहा, पर हीरा ने संभाल लिया। वह ज्यादा सहनशील था।

संध्या समय घर पहुँचकर उसने दोनों को मोटी रस्सियों से बाँधा और कल की शरारत का मजा चखाया। फिर वही सूखा भूसा डाल दिया। अपने दोनों बैलों को खली, चूनी सब कुछ दी।

दोनों बैलों का ऐसा अपमान कभी न हुआ था। झूरी इन्हें फूल की छडी से भी न छूता था। उसकी टिटकार पर दोनों उडने लगते थे। यहाँ मार पडी। आहत-सम्मान की व्यथा तो थी ही, उस पर मिला सूखा भूसा!

नाँद की तरफ ऑंखें तक न उठाईं।

दूसरे दिन गया ने बैलों को हल में जोता, पर इन दोनों ने जैसे पाँव न उठाने की कसम खा ली थी। वह मारते-मारते थक गया, पर दोनों ने पाँव न उठाया। एक बार जब उस निर्दयी ने हीरा की नाक पर खूब डण्डे जमाए, तो मोती का गुस्सा काबू के बाहर हो गया। हल लेकर भागा। हल, रस्सी, जुआ, जोत, सब टूट-टाट कर बराबर हो गया। गले में बडी-बडी रस्सियाँ न होती तो दोनों पकडाई में न आते।

हीरा ने मूक भाषा में कहा- भागना व्यर्थ है।

मोती ने उत्तर दिया- तुम्हारी तो इसने जान ही ले ली थी।

'अबकी बडी मार पडेगी।

'पडने दो, बैल का जन्म लिया है तो मार से कहाँ तक बचेंगे।

'गया दो आदमियों के साथ दौडा आ रहा है। दोनों के हाथों में लाठियाँ हैं।

मोती बोला- कहो तो दिखा दूँ कुछ मजा मैं भी। लाठी लेकर आ रहा है।

हीरा ने समझाया- नहीं भाई! खडे हो जाओ।

'मुझे मारेगा, तो मैं भी एक-दो को गिरा दूँगा।

'नहीं। हमारी जाति का यह धर्म नहीं है।

मोती दिल में ऐंठकर रह गया। गया आ पहुँचा और दोनों को पकडकर ले चला। कुशल हुई कि उसने इस वक्त मारपीट न की, नहीं तो मोती भी पलट पडता। उसके तेवर देखकर गया और उसके सहायक समझ गए कि इस वक्त टाल जाना ही मसलहत है।

आज दोनों के सामने फिर वही सूखा भूसा लाया गया। दोनों चुपचाप खडे रहे। घर के लोग भोजन करने लगे। उस वक्त छोटी-सी लडकी दो रोटियाँ लिए निकली, और दोनों के मुँह में देकर चली गई।

उस एक रोटी से इनकी भूख तो क्या शांत होती, पर दोनों के हृदय को मानो भोजन मिल गया। यहाँ भी किसी सज्जन का बास है। लडकी भैरो की थी। उसकी माँ मर चुकी थी। सौतेली माँ मारती रहती थी, इसलिए इन बैलों से उसे एक प्रकार की आत्मीयता हो गई थी।

दोनों दिनभर जोते जाते, डण्डे खाते, अडते। शाम को थान पर बाँध दिए जाते और रात को वही बालिका उन्हें दो रोटियाँ खिला जाती। प्रेम के इस प्रसाद की यह बरकत थी कि दो-दो गाल सूखा भूसा खाकर भी दोनों दुर्बल न होते थे, मगर दोनों की ऑंखों में, रोम-रोम में विद्रोह भरा हुआ था।

एक दिन मोती ने मूक भाषा में कहा- अब तो नहीं सहा जाता हीरा!

'क्या करना चाहते हो?

'एकाध को सीगों पर उठाकर फेंक दूँगा।

'लेकिन जानते हो, वह प्यारी लडकी, जो हमें रोटियाँ खिलाती है, उसी की लडकी है, जो इस घर का मालिक है। यह बेचारी अनाथ न हो जाएगी?

'तो मालकिन को न फेंक दूँ। वही तो उस लडकी को मारती है।

'लेकिन औरत जात पर सींग चलाना मना है, यह भूले जाते हो।

'तुम तो किसी तरह निकलने ही नहीं देते। बताओ, तुडाकर भाग चलें।

'हाँ, यह मैं स्वीकार करता, लेकिन इतनी मोटी रस्सी टूटेगी कैसे?

'इसका उपाय है। पहले रस्सी को थोडा-सा चबा लो। फिर एक झटके में जाती है।

रात को जब बालिका रोटियाँ खिलाकर चली गई, दोनों रस्सियाँ चबाने लगे, पर मोटी रस्सी मुँह में न आती थी। बेचारे बार-बार जोर लगाकर रह जाते थे।

सहसा घर का द्वार खुला और वही बालिका निकली। दोनों सिर झुकाकर उसका हाथ चाटने लगे। दोनों की पूँछें खडी हो गईं।

उसने उनके माथे सहलाए और बोली- खोले देती हूँ। चुपके से भाग जाओ, नहीं तो यहाँ लोग मार डालेंगे। आज घर में सलाह हो रही है कि इनकी नाकों में नाथ डाल दी जाएँ।

उसने गराँव खोल दिया, पर दोनों चुपचाप खडे रहे।

मोती ने अपनी भाषा में पूछा- अब चलते क्यों नहीं?

हीरा ने कहा- चलें तो लेकिन कल इस अनाथ पर आफत आएगी। सब इसी पर संदेह करेंगे।

सहसा बालिका चिल्लाई- दोनों फूफा वाले बैल भागे जा रहे हैं। ओ दादा! दोनों बैल भागे जा रहे हैं, जल्दी दौडो।

गया हडबडाकर भीतर से निकला और बैलों को पकडने चला। वे दोनों भागे। गया ने पीछा किया। और भी तेज हुए। गया ने शोर मचाया। फिर गाँव के कुछ आदमियों को भी साथ लेने के लिए लौटा। दोनों मित्रों को भागने का मौका मिल गया। सीधे दौडते चले गए। यहाँ तक कि मार्ग का ज्ञान न रहा। जिस परिचित मार्ग से आए थे, उसका यहाँ पता न था। नए-नए गाँव मिलने लगे। तब दोनों एक खेत के किनारे खडे होकर सोचने लगे, अब क्या करना चाहिए?

हीरा ने कहा- मालूम होता है, राह भूल गए।

'तुम भी बेतहाशा भागे। वहीं उसे मार गिराना था।

'उसे मार गिराते, तो दुनिया क्या कहती? वह अपना धर्म छोड दे, लेकिन हम अपना धर्म क्यों छोडें?

दो बैलों की कथा - कहानी (प्रेमचंद) भाग 2

दोनों भूख से व्याकुल हो रहे थे। खेत में मटर खडी थी। चरने लगे। रह-रहकर आहट ले लेते थे, कोई आता तो नहीं है।

जब पेट भर गया, दोनों ने आजादी का अनुभव किया, तो मस्त होकर उछलने-कूदने लगे। पहले दोनों ने डकार ली। फिर सींग मिलाए और एक-दूसरे को ठेलने लगे। मोती ने हीरा को कई कदम हटा दिया, यहाँ तक कि वह खाई में गिर गया। तब उसे भी क्रोध अया। सँभलकर उठा और फिर मोती से भिड गया।मोती ने देखा- खेल में झगडा हुआ चाहता है, तो किनारे हट गया।

अरे! यह क्या? कोई साँड डौकता चला आ रहा है। हाँ, साँड ही है। वह सामने आ पहुँचा। दोनों मित्र बगलें झाँक रहे हैं। साँड पूरा हाथी है। उससे भिडना जान से हाथ धोना है, लेकिन न भिडने पर भी जान बचती नहीं नजर आती। इन्हीं की तरफ आ भी रहा है। कितनी भयंकर सूरत है।

मोती ने मूक भाषा में कहा- बुरे फँसे। जान बचेगी? कोई उपाय सोचो।

हीरा ने चिन्तित स्वर में कहा- अपने घमण्ड से फूला हुआ है। आरजू-विनती न सुनेगा।

'भाग क्यों न चलें?

'भागना कायरता है।

'तो फिर यहीं मरो। बंदा तो नौ-दो- ग्यारह होता है।

'और जो दौडाए?

'तो फिर कोई उपाय सोचो, जल्द!

'उपाय यही है कि उस पर दोनों जनें एक साथ चोट करें? मैं आगे से रगेदता हूँ, तुम पीछे से रगेदो, दोहरी मार पडेगी, तो भाग खडा होगा। मेरी ओर झपटे, तुम बगल से उसके पेट में सींग घुसेड देना। जान जोखिम है, पर दूसरा उपाय नहीं है।

दोनों मित्र जान हथेलियों पर लेकर लपके। साँड को भी संगठित शत्रुओं से लडने का तजरबा न था। वह तो एक शत्रु से मल्लयुध्द करने का आदी था। ज्यों ही हीरा पर झपटा, मोती ने पीछे से दौडाया। साँड उसकी तरफ मुडा, तो हीरा ने रगेदा। साँड चाहता था कि एक-एक करके दोनों को गिरा ले, पर ये दोनों भी उस्ताद थे। उसे वह अवसर न देते थे।

एक बार साँड झल्लाकर हीरा का अन्त कर देने के लिए चला कि मोती ने बगल से आकर पेट में सींग भोंक दी। साँड क्रोध में आकर पीछे फिरा तो हीरा ने दूसरे पहलू में सींग भोंक दिया। आखिर बेचारा जख्मी होकर भागा और दोनों मित्रों ने दूर तक उसका पीछा किया। यहाँ तक कि साँड बेदम होकर गिर पडा। तब दोनों ने उसे छोड दिया। दोनों मित्र विजय के नशे में झूमते चले जाते थे।

मोती ने अपनी सांकेतिक भाषा में कहा- मेरा तो जी चाहता था कि बच्चा को मार ही डालूँ।

हीरा ने तिरस्कार किया- गिरे हुए बैरी पर सींग न चलाना चाहिए।

'यह सब ढोंग है। बैरी को ऐसा मारना चाहिए कि फिर न उठे।

'अब घर कैसे पहुँचेंगे, वह सोचो।

'पहले कुछ खा लें, तो सोचें।

सामने मटर का खेत था ही। मोती उसमें घुस गया। हीरा मान करता रहा, पर उसने एक न सुनी। अभी दो चार ग्रास खाए थे कि दो आदमी लाठियाँ लिए दौड पडे और दोनों मित्रों को घेर लिया। हीरा तो मेड पर था, निकल गया। मोती सींचे हुए खेत में था। उसके खुर कीचड में धँसने लगे। न भाग सका। पकड लिया। हीरा ने देखा, संगी संकट में है, तो लौट पडा। फँसेंगे तो दोनों फँसेगे। रखवालों ने उसे भी पकड लिया। प्रात:काल दोनों मित्र काँजीहौस में बन्द कर दिए गए।

दोनों मित्रों को जीवन में पहली बार ऐसा साबिका पडा की सारा दिन बीत गया और खाने को एक तिनका भी न मिला। समझ ही में न आता था, यह कैसा स्वामी है? इससे तो गया फिर भी अच्छा था। यहाँ कई भैसे थीं, कई बकरियाँ, कई घोडे, कई गधे, पर किसी के सामने चारा न था, सब जमीन पर मुर्दों की तरह पडे थे।
कई तो इतने कमजोर हो गए थे कि खडे भी नहीं हो सकते थे। सारा दिन दोनों मित्र फाटक की ओर टकटकी लगाए ताकते रहे, पर कोई चारा लेकर आता न दिखाई दिया। तब दोनों ने दीवार की नमकीन मिट्टी चाटनी शुरू की, पर इससे क्या तृप्ति होती?
रात को भी जब कुछ भोजन न मिला, तो हीरा के दिल में विद्रोह की ज्वाला दहक उठी।
मोती से बोला- अब तो नहीं रहा जाता मोती!
मोती ने सिर लटकाए हुए जवाब दिया- मुझे तो मालूम होता है प्राण निकल रहे हैं।
'इतनी जल्द हिम्मत न हारो भाई! यहाँ से भागने का कोई उपाय निकालना चाहिए।
'आओ दीवार तोड डालें।
'मुझसे तो अब कुछ नहीं होगा।
'बस इसी बूते पर अकडते थे?
'सारी अकड निकल गई।
बाडे की दीवार कच्ची थी। हीरा मजबूत तो था ही, अपने नुकीले सींग दीवार में गडा दिए और जोर मारा, तो मिट्टी का एक चिप्पड निकल आया। फिर तो उसका साहस बढा। इसने दौड-दौडकर दीवार पर चोटें की और हर चोट में थोडी-थोडी मिट्टी गिराने लगा।
उसी समय काँजीहौंस का चौकीदार लालटेन लेकर जानवरों की हाजिरी लेने निकला। हीरा का उजापन देखकर उसने उसे कई डण्डे रसीद किए और मोटी-सी रस्सी से बाँध दिया।
मोती ने पडे-पडे कहा- आखिर मार खाई, क्या मिला?
'अपने बूते-भर जोर तो मार दिया।
'ऐसा जोर मारना किस काम का कि और बन्धन में पड गए।
'जोर तो मारता ही जाऊँगा, चाहे कितने ही बन्धन पडते जाएँ।
'जान से हाथ धोना पडेगा।
'कुछ परवाह नहीं। यों भी मरना ही है। सोचो, दीवार खुद जाती तो कितनी जानें बच जातीं। इतने भाई यहाँ बन्द हैं। किसी के देह में जान नहीं है। दो-चार दिन और यही हाल रहा, तो सब मर जाएँगे।
'हाँ, यह बात तो है। अच्छा, तो ला, फिर मैं भी जोर लगाता हूँ।
मोती ने भी दीवार में उसी जगह सींग मारा। थोडी-सी मिट्टी गिरी तो हिम्मत और बढी। फिर तो वह दीवार में सींग लगाकर इस तरह जोर करने लगा, मानो किसी प्रतिद्वन्द्वी से लड रहा है। आखिर कोई दो घण्टे की जोर-आजमाई के बाद दीवार ऊपर से लगभग एक हाथ गिर गई। उसने दूनी शक्ति से दूसरा धक्का मारा, तो आधी दीवार गिर पडी।
दीवार का गिरना था कि अधमरे-से पडे हुए सभी जानवर चेत उठे। तीनों घोडियाँ सरपट भाग निकलीं। फिर बकरियाँ निकलीं। इसके बाद भैसें भी खिसक गईं, पर गधे अभी तक ज्यों-के-त्यों खडे थे।
हीरा ने पूछा- तुम दोनों क्यों नहीं भाग जाते?
एक गधे ने कहा- जो कहीं फिर पकड लिए जाएँ?
'तो क्या हरज है। अभी तो भागने का अवसर है।
'हमें तो डर लगता है। हम यहीं पडे रहेंगे।
आधी रात से ऊपर जा चुकी थी। दोनों गधे अभी तक खडे सोच रहे थे कि भागें या न भागें। मोती अपने मित्र की रस्सी तोडने में लगा हुआ था। जब वह हार गया, तो हीरा ने कहा- तुम जाओ, मुझे यहीं पडा रहने दो। शायद कहीं भेंट हो जाए।
मोती ने ऑंखों में ऑंसू लाकर कहा- तुम मुझे इतना स्वार्थी समझते हो, हीरा? हम और तुम इतने दिनों एक साथ रहे हैं। आज तुम विपत्ति में पड गए, तो मैं तुम्हें छोडकर अलग हो जाऊँ।
हीरा ने कहा- बहुत मार पडेगी। लोग समझ जाएँगे, यह तुम्हारी शरारत है।
मोती गर्व से बोला- जिस अपराध के लिए तुम्हारे गले में बंधन पडा, उसके लिए अगर मुझ पर मार पडे, तो क्या चिन्ता! इतना तो हो ही गया कि नौ-दस प्राणियों की जान बच गई। वे सब तो आर्शीवाद देंगे ।
यह कहते हुए मोती ने दोनों गधों को सीगों से मार-मारकर बाडे के बाहर निकाला और तब अपने बन्धु के पास आकर सो रहा।
भोर होते ही मुंशी और चौकीदार तथा अन्य कर्मचारियों में कैसी खलबली मची, इसके लिखने की जरूरत नहीं। बस, इतना ही काफी है कि मोती की खूब मरम्मत हुई और उसे भी मोटी रस्सी से बाँध दिया।

एक सप्ताह तक दोनों मित्र बँधे पडे रहे। किसी ने चारे का एक तृण भी न डाला। हाँ, एक बार पानी दिखा दिया जाता था। यही उनका आधार था। दोनों इतने दुर्बल हो गए थे कि उठा तक न जाता, ठठरियाँ निकल आई थीं।

एक दिन बाडे के सामने डुग्गी बजने लगी और दोपहर होते-होते वहाँ पचास-साठ आदमी जमा हो गए। तब दोनों मित्र निकाले गए और उनकी देख-भाल होने लगी। लोग आ-आकर उनकी सूरत देखते और मन फीका करके चले जाते। ऐसे मृतक बैलों का कौन खरीददार होता?

सहसा एक दढियल आदमी, जिसकी ऑंखें लाल थीं और मुद्रा अत्यन्त कठोर, आया और दोनों मित्रों के कूल्हों में उँगली गोदकर मुंशीजी से बातें करने लगा। उसका चेहरा देखकर अन्तज्र्ञान से दोनों मित्रों के दिल काँप उठे। वह कौन है और उन्हें क्यों टटोल रहा है, इस विषय में उन्हें कोई संदेह न हुआ। दोनों ने एक दूसरे को भीत नेत्रों से देखा और सिर झुका लिया।

हीरा ने कहा- गया के घर से नाहक भागे। अब जान न बचेगी। मोती ने अश्रध्दा के भाव से उत्तर दिया-कहते हैं, भगवान सबके ऊपर दया करते हैं। उन्हें हमारे ऊपर क्यों दया नहीं आती?

भगवान के लिए हमारा मरना-जीना दोनों बराबर है। चलो, अच्छा ही है, कुछ दिन उसके पास तो रहेंगे। एक बार भगवान ने उस लडकी के रूप में हमें बचाया था। क्या अब न बचाएँगे?

'यह आदमी छुरी चलाएगा। देख लेना।

'तो क्या चिन्ता है? माँस, खाल, सींग, हड्डी सब किसी-न-किसी काम आ जाएगी।

नीलाम हो जाने के बाद दोनों मित्र उस दढियल के साथ चले। दोनों की बोटी-बोटी काँप रही थी। बेचारे पाँव तक न उठा सकते थे, पर भय के मारे गिरते-पडते भागे जाते थे, क्योंकि वह जरा भी चाल धीमी हो जाने पर जोर से डण्डा जमा देता था।

राह में गाय-बैलों का रेवड हरे-हरे हार में चरता नजर आया। सभी जानवर प्रसन्न थे, चिकने, चपल, कोई उछलता था, कोई आनन्द से बैठा पागुर करता था। कितना सुखी जीवन था इनका, पर कितने स्वार्थी हैं सब। किसी को चिन्ता नहीं कि उनके दो भाई बधिक के हाथ पडे कैसे दु:खी हैं।

सहसा दोनों को ऐसा मालूम हुआ कि यह परिचित राह है। हाँ, इसी रास्ते से गया उन्हें ले गया था। वही खेत, वही बाग, वही गाँव मिलने लगे। प्रतिक्षण उनकी चाल तेज होने लगी। सारी थकान, सारी दुर्बलता गायब हो गई। आह! यह लो! अपना ही हार आ गया। इसी कुएँ पर हम पुर चलाने आया करते थे, यही कुऑं है।

मोती ने कहा-हमारा घर नगीच आ गया।

हीरा बोला- भगवान की दया है।

'मैं तो अब घर भागता हूँ।

'यह जाने देगा?

'इसे मार गिरता हूँ।

'नहीं-नहीं, दौडकर थान पर चलो। वहाँ से हम आगे न जाएँगे।

दोनों उन्मत होकर बछडों की भाँति कुलेलें करते हुए घर की ओर दौडे। वह हमारा थान है। दोनों दौडकर अपने थान पर आए और खडे हो गए। दढियल भी पीछे-पीछे दौडा चला आता था।

झूरी द्वार पर बैठा धूप खा रहा था। बैलों को देखते ही दौडा और उन्हें बारी-बारी से गले लगाने लगा। मित्रों की ऑंखों में आनन्द के ऑंसू बहने लगे। एक झूरी का हाथ चाट रहा था।

दढियल ने जाकर बैलों की रस्सियाँ पकड लीं।

झूरी ने कहा- मेरे बैल हैं।

'तुम्हारे बैल कैसे? मैं मवेशीखाने से नीलाम लिए आता हूँ।

'मैं तो समझता हूँ चुराए लिए आते हो! चुपके से चले जाओ। मेरे बैल हैं। मैं बेचूँगा, तो बिकेंगे। किसी को मेरे बैल नीलाम करने का क्या अख्तियार है?

'जाकर थाने में रपट कर दूँगा।

'मेरे बैल हैं। इसका सबूत यह है कि मेरे द्वार पर खडे है।

दढियल झल्लाकर बैलों को जबरदस्ती पकड ले जाने के लिए बढा। उसी वक्त मोती ने सींग चलाया। दढियल पीछे हटा। मोती ने पीछा किया। दढियल भागा।

मोती पीछे दौडा। गाँव के बाहर निकल जाने पर वह रुका, पर खडा दढियल का रास्ता देख रहा था। दढियल दूर खडा धमकियाँ दे रहा था, गालियाँ निकाल रहा था, पत्थर फेंक रहा था। और मोती विजयी शूर की भाँति उसका रास्ता रोके खडा था। गाँव के लोग यह तमाशा देखते थे और हँसते थे। जब दढियल हारकर चला गया, तो मोती अकडता हुआ लौटा।

हीरा ने कहा- मैं डर रहा था कि कहीं तुम गुस्से में आकर मार न बैठो।

'अगर वह मुझे पकडता, तो मैं बे-मारे न छोडता।

'अब न आएगा।

'आएगा तो दूर ही से खबर लूँगा। देखूँ, कैसे ले जाता है।

'जो गोली मरवा दे?

'मर जाऊँगा, पर उसके काम तो न आऊँगा।

'हमारी जान को कोई जान नहीं समझता।

'इसलिए कि हम इतने सीधे हैं।

जरा देर में नाँदों में खली, भूसा, चोकर और दाना भर दिया गया और दोनों मित्र खाने लगे। झूरी खडा दोनों को सहला रहा था और बीसों लडके तमाशा देख रहे थे। सारे गाँव में उछाह-सा मालूम होता था।

उसी समय मालकिन ने आकर दोनों के माथे चूम लिए।

नमक का दरोगा - कहानी (प्रेमचंद)

जब नमक का नया विभाग बना और ईश्वरप्रदत्त वस्तु के व्यवहार करने का निषेध हो गया तो लोग चोरी-छिपे इसका व्यापार करने लगे। अनेक प्रकार के छल-प्रपंचों का सूत्रपात हुआ, कोई घूस से काम निकालता था, कोई चालाकी से। अधिकारियों के पौ-बारह थे। पटवारीगिरी का सर्वसम्मानित पद छोड-छोडकर लोग इस विभाग की बरकंदाजी करते थे। इसके दारोगा पद के लिए तो वकीलों का भी जी ललचाता था।

यह वह समय था जब ऍंगरेजी शिक्षा और ईसाई मत को लोग एक ही वस्तु समझते थे। फारसी का प्राबल्य था। प्रेम की कथाएँ और शृंगार रस के काव्य पढकर फारसीदाँ लोग सर्वोच्च पदों पर नियुक्त हो जाया करते थे।

मुंशी वंशीधर भी जुलेखा की विरह-कथा समाप्त करके सीरी और फरहाद के प्रेम-वृत्तांत को नल और नील की लडाई और अमेरिका के आविष्कार से अधिक महत्व की बातें समझते हुए रोजगार की खोज में निकले।

उनके पिता एक अनुभवी पुरुष थे। समझाने लगे, 'बेटा! घर की दुर्दशा देख रहे हो। ॠण के बोझ से दबे हुए हैं। लडकियाँ हैं, वे घास-फूस की तरह बढती चली जाती हैं। मैं कगारे पर का वृक्ष हो रहा हूँ, न मालूम कब गिर पडूँ! अब तुम्हीं घर के मालिक-मुख्तार हो।

'नौकरी में ओहदे की ओर ध्यान मत देना, यह तो पीर का मजार है। निगाह चढावे और चादर पर रखनी चाहिए। ऐसा काम ढूँढना जहाँ कुछ ऊपरी आय हो। मासिक वेतन तो पूर्णमासी का चाँद है, जो एक दिन दिखाई देता है और घटते-घटते लुप्त हो जाता है। ऊपरी आय बहता हुआ स्रोत है जिससे सदैव प्यास बुझती है। वेतन मनुष्य देता है, इसी से उसमें वृध्दि नहीं होती। ऊपरी आमदनी ईश्वर देता है, इसी से उसकी बरकत होती हैं, तुम स्वयं विद्वान हो, तुम्हें क्या समझाऊँ।

'इस विषय में विवेक की बडी आवश्यकता है। मनुष्य को देखो, उसकी आवश्यकता को देखो और अवसर को देखो, उसके उपरांत जो उचित समझो, करो। गरजवाले आदमी के साथ कठोरता करने में लाभ ही लाभ है। लेकिन बेगरज को दाँव पर पाना जरा कठिन है। इन बातों को निगाह में बाँध लो यह मेरी जन्म भर की कमाई है।

इस उपदेश के बाद पिताजी ने आशीर्वाद दिया। वंशीधर आज्ञाकारी पुत्र थे। ये बातें ध्यान से सुनीं और तब घर से चल खडे हुए। इस विस्तृत संसार में उनके लिए धैर्य अपना मित्र, बुध्दि अपनी पथप्रदर्शक और आत्मावलम्बन ही अपना सहायक था। लेकिन अच्छे शकुन से चले थे, जाते ही जाते नमक विभाग के दारोगा पद पर प्रतिष्ठित हो गए। वेतन अच्छा और ऊपरी आय का तो ठिकाना ही न था। वृध्द मुंशीजी को सुख-संवाद मिला तो फूले न समाए। महाजन कुछ नरम पडे, कलवार की आशालता लहलहाई। पडोसियों के हृदय में शूल उठने लगे।

जाडे के दिन थे और रात का समय। नमक के सिपाही, चौकीदार नशे में मस्त थे। मुंशी वंशीधर को यहाँ आए अभी छह महीनों से अधिक न हुए थे, लेकिन इस थोडे समय में ही उन्होंने अपनी कार्यकुशलता और उत्तम आचार से अफसरों को मोहित कर लिया था। अफसर लोग उन पर बहुत विश्वास करने लगे।

नमक के दफ्तर से एक मील पूर्व की ओर जमुना बहती थी, उस पर नावों का एक पुल बना हुआ था। दारोगाजी किवाड बंद किए मीठी नींद सो रहे थे। अचानक ऑंख खुली तो नदी के प्रवाह की जगह गाडियों की गडगडाहट तथा मल्लाहों का कोलाहल सुनाई दिया। उठ बैठे।

इतनी रात गए गाडियाँ क्यों नदी के पार जाती हैं? अवश्य कुछ न कुछ गोलमाल है। तर्क ने भ्रम को पुष्ट किया। वरदी पहनी, तमंचा जेब में रखा और बात की बात में घोडा बढाए हुए पुल पर आ पहुँचे। गाडियों की एक लम्बी कतार पुल के पार जाती देखी। डाँटकर पूछा, 'किसकी गाडियाँ हैं।

थोडी देर तक सन्नाटा रहा। आदमियों में कुछ कानाफूसी हुई तब आगे वाले ने कहा-'पंडित अलोपीदीन की।

'कौन पंडित अलोपीदीन?

'दातागंज के।

मुंशी वंशीधर चौंके। पंडित अलोपीदीन इस इलाके के सबसे प्रतिष्ठित जमींदार थे। लाखों रुपए का लेन-देन करते थे, इधर छोटे से बडे कौन ऐसे थे जो उनके ॠणी न हों। व्यापार भी बडा लम्बा-चौडा था। बडे चलते-पुरजे आदमी थे। ऍंगरेज अफसर उनके इलाके में शिकार खेलने आते और उनके मेहमान होते। बारहों मास सदाव्रत चलता था।

मुंशी ने पूछा, 'गाडियाँ कहाँ जाएँगी? उत्तर मिला, 'कानपुर । लेकिन इस प्रश्न पर कि इनमें क्या है, सन्नाटा छा गया। दारोगा साहब का संदेह और भी बढा। कुछ देर तक उत्तर की बाट देखकर वह जोर से बोले, 'क्या तुम सब गूँगे हो गए हो? हम पूछते हैं इनमें क्या लदा है?

जब इस बार भी कोई उत्तर न मिला तो उन्होंने घोडे को एक गाडी से मिलाकर बोरे को टटोला। भ्रम दूर हो गया। यह नमक के डेले थे।

पंडित अलोपीदीन अपने सजीले रथ पर सवार, कुछ सोते, कुछ जागते चले आते थे। अचानक कई गाडीवानों ने घबराए हुए आकर जगाया और बोले-'महाराज! दारोगा ने गाडियाँ रोक दी हैं और घाट पर खडे आपको बुलाते हैं।

पंडित अलोपीदीन का लक्ष्मीजी पर अखंड विश्वास था। वह कहा करते थे कि संसार का तो कहना ही क्या, स्वर्ग में भी लक्ष्मी का ही राज्य है। उनका यह कहना यथार्थ ही था। न्याय और नीति सब लक्ष्मी के ही खिलौने हैं, इन्हें वह जैसे चाहती हैं नचाती हैं। लेटे ही लेटे गर्व से बोले, चलो हम आते हैं। यह कहकर पंडितजी ने बडी निश्ंचितता से पान के बीडे लगाकर खाए। फिर लिहाफ ओढे हुए दारोगा के पास आकर बोले, 'बाबूजी आशीर्वाद! कहिए, हमसे ऐसा कौन सा अपराध हुआ कि गाडियाँ रोक दी गईं। हम ब्राह्मणों पर तो आपकी कृपा-दृष्टि रहनी चाहिए।

वंशीधर रुखाई से बोले, 'सरकारी हुक्म।

पं. अलोपीदीन ने हँसकर कहा, 'हम सरकारी हुक्म को नहीं जानते और न सरकार को। हमारे सरकार तो आप ही हैं। हमारा और आपका तो घर का मामला है, हम कभी आपसे बाहर हो सकते हैं? आपने व्यर्थ का कष्ट उठाया। यह हो नहीं सकता कि इधर से जाएँ और इस घाट के देवता को भेंट न चढावें। मैं तो आपकी सेवा में स्वयं ही आ रहा था। वंशीधर पर ऐश्वर्य की मोहिनी वंशी का कुछ प्रभाव न पडा। ईमानदारी की नई उमंग थी। कडककर बोले, 'हम उन नमकहरामों में नहीं है जो कौडियों पर अपना ईमान बेचते फिरते हैं। आप इस समय हिरासत में हैं। आपको कायदे के अनुसार चालान होगा। बस, मुझे अधिक बातों की फुर्सत नहीं है। जमादार बदलूसिंह! तुम इन्हें हिरासत में ले चलो, मैं हुक्म देता हूँ।

पं. अलोपीदीन स्तम्भित हो गए। गाडीवानों में हलचल मच गई। पंडितजी के जीवन में कदाचित यह पहला ही अवसर था कि पंडितजी को ऐसी कठोर बातें सुननी पडीं। बदलूसिंह आगे बढा, किन्तु रोब के मारे यह साहस न हुआ कि उनका हाथ पकड सके। पंडितजी ने धर्म को धन का ऐसा निरादर करते कभी न देखा था। विचार किया कि यह अभी उद्दंड लडका है। माया-मोह के जाल में अभी नहीं पडा। अल्हड है, झिझकता है। बहुत दीनभाव से बोले, 'बाबू साहब, ऐसा न कीजिए, हम मिट जाएँगे। इज्जत धूल में मिल जाएगी। हमारा अपमान करने से आपके हाथ क्या आएगा। हम किसी तरह आपसे बाहर थोडे ही हैं।

वंशीधर ने कठोर स्वर में कहा, 'हम ऐसी बातें नहीं सुनना चाहते।

अलोपीदीन ने जिस सहारे को चट्टान समझ रखा था, वह पैरों के नीचे खिसकता हुआ मालूम हुआ। स्वाभिमान और धन-ऐश्वर्य की कडी चोट लगी। किन्तु अभी तक धन की सांख्यिक शक्ति का पूरा भरोसा था। अपने मुख्तार से बोले, 'लालाजी, एक हजार के नोट बाबू साहब की भेंट करो, आप इस समय भूखे सिंह हो रहे हैं।

वंशीधर ने गरम होकर कहा, 'एक हजार नहीं, एक लाख भी मुझे सच्चे मार्ग से नहीं हटा सकते।

धर्म की इस बुध्दिहीन दृढता और देव-दुर्लभ त्याग पर मन बहुत झुँझलाया। अब दोनों शक्तियों में संग्राम होने लगा। धन ने उछल-उछलकर आक्रमण करने शुरू किए। एक से पाँच, पाँच से दस, दस से पंद्रह और पंद्रह से बीस हजार तक नौबत पहुँची, किन्तु धर्म अलौकिक वीरता के साथ बहुसंख्यक सेना के सम्मुख अकेला पर्वत की भाँति अटल, अविचलित खडा था।

अलोपीदीन निराश होकर बोले, 'अब इससे अधिक मेरा साहस नहीं। आगे आपको अधिकार है।

वंशीधर ने अपने जमादार को ललकारा। बदलूसिंह मन में दारोगाजी को गालियाँ देता हुआ पंडित अलोपीदीन की ओर बढा। पंडितजी घबडाकर दो-तीन कदम पीछे हट गए। अत्यंत दीनता से बोले, 'बाबू साहब, ईश्वर के लिए मुझ पर दया कीजिए, मैं पच्चीस हजार पर निपटारा करने का तैयार हूँ।

'असम्भव बात है।

'तीस हजार पर?

'किसी तरह भी सम्भव नहीं।

'क्या चालीस हजार पर भी नहीं।

'चालीस हजार नहीं, चालीस लाख पर भी असम्भव है।

'बदलूसिंह, इस आदमी को हिरासत में ले लो। अब मैं एक शब्द भी नहीं सुनना चाहता।

धर्म ने धन को पैरों तले कुचल डाला। अलोपीदीन ने एक हृष्ट-पुष्ट मनुष्य को हथकडियाँ लिए हुए अपनी तरफ आते देखा। चारों ओर निराश और कातर दृष्टि से देखने लगे। इसके बाद मूर्छित होकर गिर पडे।

दुनिया सोती थी पर दुनिया की जीभ जागती थी। सवेरे देखिए तो बालक-वृध्द सबके मुहँ से यही बात सुनाई देती थी। जिसे देखिए वही पंडितजी के इस व्यवहार पर टीका-टिप्पणी कर रहा था, निंदा की बौछारें हो रही थीं, मानो संसार से अब पापी का पाप कट गया।

पानी को दूध के नाम से बेचने वाला ग्वाला, कल्पित रोजनामचे भरने वाले अधिकारी वर्ग, रेल में बिना टिकट सफर करने वाले बाबू लोग, जाली दस्तावेज बनाने वाले सेठ और साकार यह सब के सब देवताओं की भाँति गर्दनें चला रहे थे।

जब दूसरे दिन पंडित अलोपीदीन अभियुक्त होकर कांस्टेबलों के साथ, हाथों में हथकडियाँ, हृदय में ग्लानि और क्षोभ भरे, लज्जा से गर्दन झुकाए अदालत की तरफ चले तो सारे शहर में हलचल मच गई। मेलों में कदाचित ऑंखें इतनी व्यग्र न होती होंगी। भीड के मारे छत और दीवार में कोई भेद न रहा।

किंतु अदालत में पहुँचने की देर थी। पं. अलोपीदीन इस अगाध वन के सिंह थे। अधिकारी वर्ग उनके भक्त, अमले उनके सेवक, वकील-मुख्तार उनके आज्ञा पालक और अरदली, चपरासी तथा चौकीदार तो उनके बिना मोल के गुलाम थे।

उन्हें देखते ही लोग चारों तरफ से दौडे। सभी लोग विस्मित हो रहे थे। इसलिए नहीं कि अलोपीदीन ने यह कर्म किया, बल्कि इसलिए कि वह कानून के पंजे में कैसे आए? ऐसा मनुष्य जिसके पास असाध्य साधन करने वाला धन और अनन्य वाचालता हो, वह क्यों कानून के पंजे में आए? प्रत्येक मनुष्य उनसे सहानुभूति प्रकट करता था।

बडी तत्परता से इस आक्रमण को रोकने के निमित्त वकीलों की एक सेना तैयार की गई। न्याय के मैदान में धर्म और धन में यध्द ठन गया। वंशीधर चुपचाप खडे थे। उनके पास सत्य के सिवा न कोई बल था, न स्पष्ट भाषण के अतिरिक्त कोई शस्त्र। गवाह थे, किंतु लोभ से डाँवाडोल।

यहाँ तक कि मुंशीजी को न्याय भी अपनी ओर कुछ खिंचा हुआ दीख पडता था। वह न्याय का दरबार था, परंतु उसके कर्मचारियों पर पक्षपात का नशा छाया हुआ था। किंतु पक्षपात और न्याय का क्या मेल? जहाँ पक्षपात हो, वहाँ न्याय की कल्पना नहीं की जा सकती। मुकदमा शीघ्र ही समाप्त हो गया।

डिप्टी मजिस्ट्रेट ने अपनी तजवीज में लिखा, पं. अलोपीदीन के विरुध्द दिए गए प्रमाण निर्मूल और भ्रमात्मक हैं। वह एक बडे भारी आदमी हैं। यह बात कल्पना के बाहर है कि उन्होंने थोडे लाभ के लिए ऐसा दुस्साहस किया हो। यद्यपि नमक के दरोगा मुंशी वंशीधर का अधिक दोष नहीं है, लेकिन यह बडे खेद की बात है कि उसकी उद्दंडता और विचारहीनता के कारण एक भलेमानुस को कष्ट झेलना पडा। हम प्रसन्न हैं कि वह अपने काम में सजग और सचेत रहता है, किंतु नमक के मुकदमे की बढी हुई नमक से हलाली ने उसके विवेक और बुध्दि को भ्रष्ट कर दिया। भविष्य में उसे होशियार रहना चाहिए।

वकीलों ने यह फैसला सुना और उछल पडे। पं. अलोपीदीन मुस्कुराते हुए बाहर निकले। स्वजन बाँधवों ने रुपए की लूट की। उदारता का सागर उमड पडा। उसकी लहरों ने अदालत की नींव तक हिला दी।

जब वंशीधर बाहर निकले तो चारों ओर उनके ऊपर व्यंग्यबाणों की वर्षा होने लगी। चपरासियों ने झुक-झुककर सलाम किए। किंतु इस समय एक कटु वाक्य, एक-एक संकेत उनकी गर्वाग्नि को प्रज्ज्वलित कर रहा था।

कदाचित इस मुकदमे में सफल होकर वह इस तरह अकडते हुए न चलते। आज उन्हें संसार का एक खेदजनक विचित्र अनुभव हुआ। न्याय और विद्वत्ता, लंबी-चौडी उपाधियाँ, बडी-बडी दाढियाँ, ढीले चोगे एक भी सच्चे आदर का पात्र नहीं है।

वंशीधर ने धन से बैर मोल लिया था, उसका मूल्य चुकाना अनिवार्य था। कठिनता से एक सप्ताह बीता होगा कि मुअत्तली का परवाना आ पहुँचा। कार्य-परायणता का दंड मिला। बेचारे भग्न हृदय, शोक और खेद से व्यथित घर को चले। बूढे मुंशीजी तो पहले ही से कुडबुडा रहे थे कि चलते-चलते इस लडके को समझाया था, लेकिन इसने एक न सुनी। सब मनमानी करता है। हम तो कलवार और कसाई के तगादे सहें, बुढापे में भगत बनकर बैठें और वहाँ बस वही सूखी तनख्वाह! हमने भी तो नौकरी की है और कोई ओहदेदार नहीं थे। लेकिन काम किया, दिल खोलकर किया और आप ईमानदार बनने चले हैं। घर में चाहे ऍंधेरा हो, मस्जिद में अवश्य दिया जलाएँगे। खेद ऐसी समझ पर! पढना-लिखना सब अकारथ गया।

इसके थोडे ही दिनों बाद, जब मुंशी वंशीधर इस दुरावस्था में घर पहुँचे और बूढे पिताजी ने समाचार सुना तो सिर पीट लिया। बोले- 'जी चाहता है कि तुम्हारा और अपना सिर फोड लूँ। बहुत देर तक पछता-पछताकर हाथ मलते रहे। क्रोध में कुछ कठोर बातें भी कहीं और यदि वंशीधर वहाँ से टल न जाता तो अवश्य ही यह क्रोध विकट रूप धारण करता। वृध्द माता को भी दु:ख हुआ। जगन्नाथ और रामेश्वर यात्रा की कामनाएँ मिट्टी में मिल गईं। पत्नी ने कई दिनों तक सीधे मुँह बात तक नहीं की।

इसी प्रकार एक सप्ताह बीत गया। सांध्य का समय था। बूढे मुंशीजी बैठे-बैठे राम नाम की माला जप रहे थे। इसी समय उनके द्वार पर सजा हुआ रथ आकर रुका। हरे और गुलाबी परदे, पछहिए बैलों की जोडी, उनकी गर्दन में नीले धागे, सींग पीतल से जडे हुए। कई नौकर लाठियाँ कंधों पर रखे साथ थे।

मुंशीजी अगवानी को दौडे देखा तो पंडित अलोपीदीन हैं। झुककर दंडवत् की और लल्लो-चप्पो की बातें करने लगे- 'हमारा भाग्य उदय हुआ, जो आपके चरण इस द्वार पर आए। आप हमारे पूज्य देवता हैं, आपको कौन सा मुँह दिखावें, मुँह में तो कालिख लगी हुई है। किंतु क्या करें, लडका अभागा कपूत है, नहीं तो आपसे क्या मुँह छिपाना पडता? ईश्वर निस्संतान चाहे रक्खे पर ऐसी संतान न दे।

अलोपीदीन ने कहा- 'नहीं भाई साहब, ऐसा न कहिए।

मुंशीजी ने चकित होकर कहा- 'ऐसी संतान को और क्या कँ?

अलोपीदीन ने वात्सल्यपूर्ण स्वर में कहा- 'कुलतिलक और पुरुखों की कीर्ति उज्ज्वल करने वाले संसार में ऐसे कितने धर्मपरायण मनुष्य हैं जो धर्म पर अपना सब कुछ अर्पण कर सकें!

पं. अलोपीदीन ने वंशीधर से कहा- 'दरोगाजी, इसे खुशामद न समझिए, खुशामद करने के लिए मुझे इतना कष्ट उठाने की जरूरत न थी। उस रात को आपने अपने अधिकार-बल से अपनी हिरासत में लिया था, किंतु आज मैं स्वेच्छा से आपकी हिरासत में आया हूँ। मैंने हजारों रईस और अमीर देखे, हजारों उच्च पदाधिकारियों से काम पडा किंतु परास्त किया तो आपने। मैंने सबको अपना और अपने धन का गुलाम बनाकर छोड दिया। मुझे आज्ञा दीजिए कि आपसे कुछ विनय करूँ।

वंशीधर ने अलोपीदीन को आते देखा तो उठकर सत्कार किया, किंतु स्वाभिमान सहित। समझ गए कि यह महाशय मुझे लज्जित करने और जलाने आए हैं। क्षमा-प्रार्थना की चेष्टा नहीं की, वरन् उन्हें अपने पिता की यह ठकुरसुहाती की बात असह्य सी प्रतीत हुई। पर पंडितजी की बातें सुनी तो मन की मैल मिट गई।

पंडितजी की ओर उडती हुई दृष्टि से देखा। सद्भाव झलक रहा था। गर्व ने अब लज्जा के सामने सिर झुका दिया। शर्माते हुए बोले- 'यह आपकी उदारता है जो ऐसा कहते हैं। मुझसे जो कुछ अविनय हुई है, उसे क्षमा कीजिए। मैं धर्म की बेडी में जकडा हुआ था, नहीं तो वैसे मैं आपका दास हूँ। जो आज्ञा होगी वह मेरे सिर-माथे पर।

अलोपीदीन ने विनीत भाव से कहा- 'नदी तट पर आपने मेरी प्रार्थना नहीं स्वीकार की थी, किंतु आज स्वीकार करनी पडेगी।

वंशीधर बोले- 'मैं किस योग्य हूँ, किंतु जो कुछ सेवा मुझसे हो सकती है, उसमें त्रुटि न होगी।

अलोपीदीन ने एक स्टाम्प लगा हुआ पत्र निकाला और उसे वंशीधर के सामने रखकर बोले- 'इस पद को स्वीकार कीजिए और अपने हस्ताक्षर कर दीजिए। मैं ब्राह्मण हूँ, जब तक यह सवाल पूरा न कीजिएगा, द्वार से न हटूँगा।

मुंशी वंशीधर ने उस कागज को पढा तो कृतज्ञता से ऑंखों में ऑंसू भर आए। पं. अलोपीदीन ने उनको अपनी सारी जायदाद का स्थायी मैनेजर नियत किया था। छह हजार वाषक वेतन के अतिरिक्त रोजाना खर्च अलग, सवारी के लिए घोडा, रहने को बँगला, नौकर-चाकर मुफ्त। कम्पित स्वर में बोले- 'पंडितजी मुझमें इतनी सामर्थ्य नहीं है कि आपकी उदारता की प्रशंसा कर सकूँ! किंतु ऐसे उच्च पद के योग्य नहीं हूँ।

अलोपीदीन हँसकर बोले- 'मुझे इस समय एक अयोग्य मनुष्य की ही जरूरत है।

वंशीधर ने गंभीर भाव से कहा- 'यों मैं आपका दास हूँ। आप जैसे कीर्तिवान, सज्जन पुरुष की सेवा करना मेरे लिए सौभाग्य की बात है। किंतु मुझमें न विद्या है, न बुध्दि, न वह स्वभाव जो इन त्रुटियों की पूर्ति कर देता है। ऐसे महान कार्य के लिए एक बडे मर्मज्ञ अनुभवी मनुष्य की जरूरत है।

अलोपीदीन ने कलमदान से कलम निकाली और उसे वंशीधर के हाथ में देकर बोले- 'न मुझे विद्वत्ता की चाह है, न अनुभव की, न मर्मज्ञता की, न कार्यकुशलता की। इन गुणों के महत्व को खूब पा चुका हूँ। अब सौभाग्य और सुअवसर ने मुझे वह मोती दे दिया जिसके सामने योग्यता और विद्वत्ता की चमक फीकी पड जाती है। यह कलम लीजिए, अधिक सोच-विचार न कीजिए, दस्तखत कर दीजिए। परमात्मा से यही प्रार्थना है कि वह आपको सदैव वही नदी के किनारे वाला, बेमुरौवत, उद्दंड, कठोर परंतु धर्मनिष्ठ दारोगा बनाए रखे।

वंशीधर की ऑंखें डबडबा आईं। हृदय के संकुचित पात्र में इतना एहसान न समा सका। एक बार फिर पंडितजी की ओर भक्ति और श्रध्दा की दृष्टि से देखा और काँपते हुए हाथ से मैनेजरी के कागज पर हस्ताक्षर कर दिए।

अलोपीदीन ने प्रफुल्लित होकर उन्हें गले लगा लिया।

करवा का व्रत - कहानी (यशपाल)

कन्हैयालाल अपने दफ्तर के हमजोलियों और मित्रों से दो तीन बरस बड़ा ही था, परन्तु ब्याह उसका उन लोगों के बाद हुआ। उसके बहुत अनुरोध करने पर भी साहब ने उसे ब्याह के लिए सप्ताह-भर से अधिक छुट्टी न दी थी। लौटा तो उसके अन्तरंग मित्रों ने भी उससे वही प्रश्न पूछे जो प्रायः ऐसे अवसर पर दूसरों से पूछे जाते हैं और फिर वही परामर्श उसे दिये गये जो अनुभवी लोग नवविवाहितों को दिया करते हैं।

हेमराज को कन्हैयालाल समझदार मानता था। हेमराज ने समझाया-बहू को प्यार तो करना ही चाहिए, पर प्यार से उसे बिगाड़ देना या सिर चढ़ा लेना भी ठीक नहीं। औरत सरकश हो जाती है, तो आदमी को उम्रभर जोरू का गुलाम ही बना रहना पड़ता है। उसकी जरूरतें पूरी करो, पर रखो अपने काबू में। मार-पीट बुरी बात है, पर यह भी नहीं कि औरत को मर्द का डर ही न रहे। डर उसे ज़रूर रहना चाहिए... मारे नहीं तो कम-से-कम गुर्रा तो ज़रूर दे। तीन बात उसकी मानो तो एक में ना भी कर दो। यह न समझ ले कि जो चाहे कर या करा सकती है। उसे तुम्हारी खुशी-नाराजगी की परवाह रहे। हमारे साहब जैसा हाल न हो जाये। ...मैं तो देखकर हैरान हो गया। एम्पोरियम से कुछ चीजें लेने के लिये जा रहे थे तो घरवाली को पुकारकर पैसे लिये। बीवी ने कह दिया-' कालीन इस महीने रहने दो। अगले महीने सही', तो भीगी बिल्ली की तरह बोले ' अच्छा!' मर्द को रुपया-पैसा तो अपने पास में रखना चाहिये। मालिक तो मर्द है।

कन्हैया के विवाह के समय नक्षत्रों का योग ऐसा था कि ससुराल वाले लड़की की विदाई कराने के लिये किसी तरह तैयार नहीं हुये। अधिक छुट्टी नहीं थी इसलिये गौने की बात ' फिर' पर ही टल गई थी। एक तरह से अच्छा ही हुआ। हेमराज ने कन्हैया को लिखा-पढ़ा दिया कि पहले तुम ऐसा मत करना कि वह समझे कि तुम उसके बिना रह नहीं सकते, या बहुत खुशामद करने लगो।...अपनी मर्जी रखना, समझे। औरत और बिल्ली की जात एक। पहले दिन के व्यवहार का असर उस पर सदा रहता है। तभी तो कहते हैं कि ' गुर्बारा वररोजे अव्वल कुश्तन'- बिल्ली के आते ही पहले दिन हाथ लगा दे तो फिर रास्ता नहीं पकड़ती। ...तुम कहते हो, पढ़ी-लिखी है, तो तुम्हें और भी चौकस रहना चाहिये। पढ़ी-लिखी यों भी मिजाज दिखाती है।

निःश्वार्थ-भाव से हेमराज की दी हुई सीख कन्हैया ने पल्ले बाँध ली थी। सोचा- मुझे बाजार-होटल में खाना पड़े या खुद चौका-बर्तन करना पड़े, तो शादी का लाभ क्या? इसलिए वह लाजो को दिल्ली ले आया था। दिल्ली में सबसे बड़ी दिक्कत मकान की होती है। रेलवे में काम करने वाले, कन्हैया के जिले के बाबू ने उसे अपने क्वार्टर का एक कमरा और रसोई की जगह सस्ते किराये पर दे दी थी। सो सवा साल से मजे में चल रहा था।

लाजवन्ती अलीगढ़ में आठवीं जमात तक पढी थी। बहुत-सी चीजों के शौक थे। कई ऐसी चीजों के भी जिन्हें दूसरे घरों की लड़कियों को या नयी ब्याही बहुओं को करते देख मन मारकर रह जाना पड़ता था। उसके पिता और बड़े भाई पुराने ख्याल के थे। सोचती थी, ब्याह के बाद सही। उन चीजों के लिये कन्हैया से कहती। लाजो के कहने का ढंग कुछ ऐसा था कि कन्हैया का दिल इनकार करने को न करता, पर इस ख्याल से कि वह बहुत सरकश न हो जाये, दो बात मानकर तीसरी पर इनकार भी कर देता। लाजो मुँह फुला लेती। लाजो मुँह फुलाती तो सोचती कि मनायेंगे तो मान जाऊँगी, आखिर तो मनायेंगे ही। पर कन्हैया मनाने की अपेक्षा डाँट ही देता। एक-आध बार उसने थप्पड़ भी चला दिया। मनौती की प्रतीक्षा में जब थप्पड़ पड़ जाता तो दिल कटकर रह जाता और लाजो अकेले में फूट-फूटकर रोती। फिर उसने सोच लिया- ' चलो, किस्मत में यही है तो क्या हो सकता है?' वह हार मानकर खुद ही बोल पड़ती।

कन्हैया का हाथ पहली दो बार तो क्रोध की बेबसी में ही चला था, जब चल गया तो उसे अपने अधिकार और शक्ति का अनुभव होने लगा। अपनी शक्ति अनुभव करने के नशे से बड़ा नशा दूसरा कौन होगा ? इस नशे में राजा देश-पर-देश समेटते जाते थे, जमींदार गाँव-पर-गाँव और सेठ मिल और बैंक खरीदते चले जाते हैं। इस नशे की सीमा नहीं। यह चस्का पड़ा तो कन्हैया के हाथ उतना क्रोध आने की प्रतीक्षा किये बिना भी चल जाते।

मार से लाजो को शारीरिक पीड़ा तो होती ही थी, पर उससे अधिक होती थी अपमान की पीड़ा। ऐसा होने पर वह कई दिनों के लिये उदास हो जाती। घर का सब काम करती। बुलाने पर उत्तर भी दे देती। इच्छा न होने पर भी कन्हैया की इच्छा का विरोध न करती, पर मन-ही-मन सोचती रहती, इससे तो अच्छा है मर जाऊँ। और फिर समय पीड़ा को कम कर देता। जीवन था तो हँसने और खुश होने की इच्छा भी फूट ही पड़ती और लाजो हँसने लगती। सोच यह लिया था, ' मेरा पति है, जैसा भी है मेरे लिये तो यही सब कुछ है। जैसे यह चाहता है, वैसे ही मैं चलूँ।' लाजो के सब तरह अधीन हो जाने पर भी कन्हैया की तेजी बढ़ती ही जा रही थी। वह जितनी अधिक बेपरवाही और स्वच्छन्दता लाजो के प्रति दिखा सकता, अपने मन में उसे उतना ही अधिक अपनी समझने और प्यार का संतोष पाता।

क्वार के अन्त में पड़ोस की स्त्रियाँ करवा चौथ के व्रत की बात करने लगीं। एक-दूसरे को बता रही थीं कि उनके मायके से करवे में क्या आया। पहले बरस लाजो का भाई आकर करवा दे गया था। इस बरस भी वह प्रतीक्षा में थी। जिनके मायके शहर से दूर थे, उनके यहाँ मायके से रुपये आ गए थे। कन्हैया अपनी चिठ्ठी-पत्री दफ्तर के पते से ही मँगाता था। दफ्तर से आकर उसने बताया, ' तुम्हारे भाई ने करवे के दो रुपये भेजे हैं।'

करवे के रुपये आ जाने से ही लाजो को संतोष हो गया। सोचा, भैया इतनी दूर कैसे आते? कन्हैया दफ्तर जा रहा था तो उसने अभिमान से गर्दन कन्धे पर टेढ़ी कर और लाड़ के स्वर में याद दिलाया- ' हमारे लिए सरघी में क्या-क्या लाओगे...?'

और लाजो ने ऐसे अवसर पर लाई जाने वाली चीजें याद दिला दीं। लाजो पड़ोस में कह आई कि उसने भी सरघी का सामान मँगाया है। करवा चौथ का व्रत भला कौन हिन्दू स्त्री नहीं करती? जनम-जनम यही पति मिले, इसलिए दूसरे व्रतों की परवाह न करने वाली पढ़ी-लिखी स्त्रियां भी इस व्रत की उपेक्षा नहीं कर सकतीं।

अवसर की बात, उस दिन कन्हैया लंच की छुट्टी में साथियों के साथ कुछ ऐसे काबू में आ गया कि सवा तीन रुपये खर्च हो गये। वह लाजो का बताया सरघी का सामान घर नहीं ला सका। कन्हैया खाली हाथ घर लौटा तो लाजो का मन बुझ गया। उसने गम खाना सीखकर रूठना छोड़ दिया था, परन्तु उस साँझ मुँह लटक ही गया। आँसू पोंछ लिए और बिना बोले चौके-बर्तन के काम में लग गयी। रात के भोजन के समय कन्हैया ने देखा कि लाजो मुँह सुजाये है, बोल नहीं रही है, तो अपनी भूल कबूल कर उसे मनाने या कोई और प्रबंध करने का आश्वासन देने के बजाय उसने उसे डाँट दिया।

लाजो का मन और भी बिंध गया। कुछ ऐसा खयाल आने लगा-इन्ही के लिए तो व्रत कर रही हूँ और यही ऐसी रुखाई दिखा रहे हैं। ... मैं व्रत कर रही हूँ कि अगले जनम में भी 'इन' से ही ब्याह हो और मैं सुहा ही नहीं रही हूँ...। अपनी उपेक्षा और निरादर से भी रोना आ गया। कुछ खाते न बना। ऐसे ही सो गयी।

तड़के पड़ोस में रोज की अपेक्षा जल्दी ही बर्तन भांडे खटकने की आवाज आने लगी। लाजो को याद आने लगा-शान्ति बता रही थी कि उसके बाबू सरघी के लिये फेनियाँ लाये हैं, तार वाले बाबू की घरवाली ने बताया था कि खोए की मिठाई लाये हैं। लाजो ने सोचा, उन मर्दों को खयाल है न कि हमारी बहू हमारे लिये व्रत कर रही है; इन्हें जरा भी खयाल नहीं।

लाजो का मन इतना खिन्न हो गया कि सरघी में उसने कुछ भी न खाया। न खाने पर भी पति के नाम का व्रत कैसे न रखती। सुबह-सुबह पड़ोस की स्त्रियों के साथ उसने भी करवे का व्रत करने वाली रानी और करवे का व्रत करने वाली राजा की प्रेयसी दासी की कथा सुनने और व्रत के दूसरे उपचार निबाहे। खाना बनाकर कन्हैयालाल को दफ्तर जाने के समय खिला दिया। कन्हैया ने दफ्तर जाते समय देखा कि लाजो मुँह सुजाए है। उसने फिर डांटा- ' मालूम होता है कि दो-चार खाये बिना तुम सीधी नहीं होगी।'

लाजो को और भी रुलाई आ गयी। कन्हैया दफ्तर चला गया तो वह अकेली बैठी कुछ देर रोती रही। क्या जुल्म है। इन्ही के लिये व्रत कर रही हूँ और इन्हें गुस्सा ही आ रहा है। ...जनम-जनम ये ही मिलें इसीलिये मैं भूखी मर रही हूँ। ...बड़ा सुख मिल रहा है न!...अगले जनम में और बड़ा सुख देंगे!...ये ही जनम निबाहना मुश्किल हे रहा है। ...इस जनम में तो इस मुसीबत से मर जाना अच्छा लगता है, दूसरे जनम के लिये वही मुसीबत पक्की कर रही हूँ...।

लाजो पिछली रात भूखी थी, बल्कि पिछली दोपहर के पहले का ही खाया हुआ था। भूख के मारे कुड़मुड़ा रही थी और उसपर पति का निर्दयी व्यवहार। जनम-जनम, कितने जनम तक उसे ऐसा ही व्यवहार सहना पड़ेगा! सोचकर लाजो का मन डूबने लगा। सिर में दर्द होने लगा तो वह धोती के आँचल सिर बाँधकर खाट पर लेटने लगी तो झिझक गई-करवे के दिन बान पर नहीं लेटा या बैठा जाता। वह दीवार के साथ फर्श पर ही लेट रही।

लाजो को पड़ोसिनों की पुकार सुनाई दी। वे उसे बुलाने आई थीं। करवा-चौथ का व्रत होने के कारण सभी स्त्रियाँ उपवास करके भी प्रसन्न थीं। आज करवे के कारण नित्य की तरह दोपहर के समय सीने-पिरोने, काढ़ने-बुनने का काम किया नहीं जा सकता था; करवे के दिन सुई, सलाई, और चरखा छुआ नहीं जाता। काज से छुट्टी थी और विनोद के लिए ताश या जुए की बैठक जमाने का उपक्रम हो रहा था। वे लाजो को भी उसी के लिये बुलाने आयी थीं। सिर-दर्द और मन के दुःख के करण लाजो जा नहीं सकी। सिर-दर्द और बदन टूटने की बात कहकर वह टाल गयी और फिर सोचने लगी-ये सब तो सुबह सरघी खाये हुये हैं। जान तो मेरी ही निकव रही है।...फिर अपने दुःखी जीवन के कारण मर जाने का खयाल आयाऔर कल्पना करने लगी कि करवा-चौथ के दिन उपवास किये-किये मर जाये, तो इस पुण्य से जरूर ही यही पति अगले जन्म में मिले...।

लाजो की कल्पना बावली हो उठी। वह सोचने लगी-मैं मर जाऊँ तो इनका क्या है, और ब्याह कर लेंगे। जो आएगी वह भी करवाचौथ का व्रत करेगी। अगले जनम में दोनों का इन्हीं से ब्याह होगा, हम सौतें बनेंगी। सौत का खयाल उसे और भी बुरा लगा। फिर अपने-आप समाधान हो गया-नहीं, पहले मुझसे ब्याह होगा, मैं मर जाऊँगी तो दूसरी से होगा। अपने उपवास के इतने भयंकर परिणाम की चिंता से मन अधीर हो उठा। भूख अलग व्याकुल किये थी। उसने सोचा-क्यों मैं अपना अगला जनम भी बरबाद करूँ? भूख के कारण शरीर निढाल होने पर भी खाने को मन नहीं हो रहा था, परन्तु उपवास के परिणाम की कल्पना से मन मन क्रोध से जल उठा; वह उठ खड़ी हुई।

कन्हैयालाल के लिये उसने सुबह जो खाना बनाया था उसमें से बची दो रोटियाँ कटोरदान में पड़ी थीं। लाजो उठी और उपवास के फल से बचने के लिये उसने मन को वश में कर एक रोटी रूखी ही खा ली और एक गिलास पानी पीकर फिर लेट गई। मन बहुत खिन्न था। कभी सोचती-ठीक ही तो किया, अपना अगला जनम क्यों बरबाद करूँ? ऐसे पड़े-पड़े झपकी आ गई।

कमरे के किवाड़ पर धम-धम सुनकर लाजो ने देखा, रोशनदान से प्रकाश की जगह अन्धकार भीतर आ रहा था। समझ गई, दफ्तर से लौटे हैं। उसने किवाड़ खोले और चुपचाप एक ओर हट गई।

कन्हैयालाल ने क्रोध से उसकी तरफ देखा-' अभी तक पारा नहीं उतरा! मालूम होता है झाड़े बिना नहीं उतरेगा !'

लाजो के दुखे हुये दिल पर और चोट पड़ी और पीड़ा क्रोध में बदल गई। कुछ उत्तर न दे वह घूमकर फिर दीवार के सहारे फर्श पर बैठ गई।

कन्हैयालाल का गुस्सा भी उबल पड़ा- ' यह अकड़ है! ...आज तुझे ठीक कर ही दूँ।' उसने कहा और लाजो को बाँह से पकड़, खींचकर गिराते हुये दो थप्पड़ पूरे हाथ के जोर से ताबड़तोड़ जड़ दिये और हाँफते हुये लात उटाकर कहा, ' और मिजाज दिखा?... खड़ी हो सीधी।'

लाजो का क्रोध भी सीमा पार कर चुका था। खींची जाने पर भी फर्श से उठी नहीं। और मार खाने के लिये तैयार हो उसने चिल्लाकर कहा,' मार ले, मार ले! जान से मार डाल! पीछा छूटे! आज ही तो मारेगा! मैने कौन व्रत रखा है तेरे लिये जो जनम-जनम मार खाऊंगी। मार, मार डाल...!'

कन्हैयालाल का लात मारने के लिये उठा पाँव अधर में ही रुक गया। लाजो का हाथ उसके हाथ से छूट गया। वह स्तब्ध रह गया। मुँह में आई गाली भी मुँह में ही रह गई। ऐसे जान पड़ा कि अँधेरे में कुत्ते के धोखे जिस जानवर को मार बैठा था उसकी गुर्राहट से जाना कि वह शेर था; या लाजो को डाँट और मार सकने का अधिकार एक भ्रम ही था। कुछ क्षण वह हाँफता हुआ खड़ा सोचता रहा और फिर खाट पर बैठकर चिन्ता में डूब गया। लाजो फर्श पर पड़ी रो रही थी। उस ओर देखने का साहस कन्हैयालाल को न हो रहा था। वह उठा और बाहर चला गया।

लाजो पर्श पर पड़ी फूट-फूटकर रोती रही। जब घंटे-भर रो चुकी तो उठी। चूल्हा जलाकर कम-से-कम कन्हैया के लिए खाना तो बनाना ही था। बड़े बेमन उसने खाना बनाया। बना चुकी तब भी कन्हैयालाल लौटा नहीं था। लाजो ने खाना ढँक दिया और कमरे के किवाड़ उड़काकर फिर फर्श पर लेट गई। यही सोच रही थी, क्या मुसीबत है जिन्दगी। यही झेलना था तो पैदा ही क्यों हुई थी?...मैने क्या किया था जो मारने लगे।

किवाड़ों के खुलने का शब्द सुनाई दिया। वह उठने के लिये आँसुओं से भीगे चेहरे को आँचल से पोंछने लगी। कन्हैयालाल ने आते ही एक नजर उसकी ओर डाली। उसे पुकारे बिना ही वह दीवार के साथ बिछी चटाई पर चुपचाप बैट गया।

कन्हैयालाल का ऐसे चुप बैठ जाना नई बात थी, पर लाजो गुस्से में कुछ न बोल रसोई में चली गई। आसन डाल थाली-कटोरी रख खाना परोस दिया और लोटे में पानी लेकर हाथ धुलाने के लिए खड़ी थी। जब पाँच मिनट हो गये और कन्हैयालाल नहीं आया तो उसे पुकारना ही पड़ा, ' खाना परस दिया है।'

कन्हैयालाल आया तो हाथ नल से धोकर झाड़ते हुये भीतर आया। अबतक हाथ धुलाने के लिए लाजो ही उठकर पानी देती थी। कन्हैयालाल दो ही रोटी खाकर उठ गया। लाजो और देने लगी तो उसने कह दिया ' और नहीं चाहिये।' कन्हैयालाल खाकर उठा तो रोज की तरह हाथ धुलाने के लिये न कहकर नल की ओर चला गया।

लाजो मन मारकर स्वयं खाने बैठी तो देखा कि कद्दू की तरकारी बिलकुल कड़वी हो रही थी। मन की अवस्था ठीक न होने से हल्दी-नमक दो बार पड़ गया था। बड़ी लज्जा अनुभव हुई, ' हाय, इन्होंने कुछ कहा भी नहीं। यह तो जरा कम-ज्यादा हो जाने पर डाँट देते थे।'

लाजो से दुःख में खाया नहीं गया। यों ही कुल्ला कर, हाथ धोकर इधर आई कि बिस्तर ठीक कर दे, चौका फिर समेट देगी। देखा तो कन्हैयालाल स्वयं ही बिस्तर झाड़कर बिछा रहा था। लाजो जिस दिन से इस घर में आई थी ऐसा कभी नहीं हुआ था।

लाजो ने शरमाकर कहा, ' मैं आ गई, रहने दो। किये देती हूँ।' और पति के हाथ से दरी चादर पकड़ ली। लाजो बिस्तर ठीक करने लगी तो कन्हैयालाल दूसरी ओर से मदद करता रहा। फिर लाजो को सम्बोधित किया, ' तुमने कुछ खाया नहीं। कद्दू में नमक ज्यादा हो गया है। सुबह और पिछली रात भी तुमने कुछ नहीं खाया था। ठहरो, मैं तुम्हारे लिये दूध ले आता हूँ।'

लाजो के प्रति इतनी चिन्ता कन्हैयालाल ने कभी नहीं दिखाई थी। जरूरत भी नहीं समझी थी। लाजो को उसने 'चीज' समझा था। आज वह ऐसे बात कर रहा था जैसे लाजो भी इन्सान हो; उसका भी खयाल किया जाना चाहिये। लाजो को शर्म तो आ ही रही थी पर अच्छा भी लग रहा था। उसी रात से कन्हैयालाल के व्यवहार में एक नरमी-सी आ गई। कड़े बोल की तो बात क्या, बल्कि एक झिझक-सी हर बात में; जैसे लाजो के किसी बात के बुरा मान जाने की या नाराज हो जाने की आशंका हो। कोई काम अधूरा देखता तो स्वयं करने लगता। लाजो को मलेरिया बुखार आ गया तो उसने उसे चौके के समीप नहीं जाने दिया। बर्तन भी खुद साफ कर लिये। कई दिन तो लाजो को बड़ी उलझन और शर्म महसूस हुई, पर फिर पति पर और अधिक प्यार आने लगा। जहाँ तक बन पड़ता घर का काम उसे नहीं करने देती, 'यह काम करते मर्द अच्छे नहीं लगते...।'

उन लोगों का जीवन कुछ दूसरी ही तरह का हो गया। लाजो खाने के लिये पुकारती तो कन्हैया जिद करता, ' तुम सब बना लो, फिर एक साथ बैठकर खायेंगे।' कन्हैया पहले कोई पत्रिका या पुष्तक लाता था तो अकेला मन-ही-मन पढ़ा करता था। अब लाजो को सुनाकर पढ़ता या खुद सुन लेता। यह भी पूछ लेता, ' तुम्हे नींद तो नहीं आ रही ? '

साल बीतते मालूम न हुआ। फिर करवाचौथ का व्रत आ गया। जाने क्यों लाजो के भाई का मनीआर्डर करवे के लिये न पहुँचा था। करवाचौथ के पहले दिन कन्हैयालाल दफ्तर जा रहा था। लाजो ने खिन्नता और लज्जा से कहा, ' भैया करवा भेजना शायद भूल गये।'

कन्हैयालाल ने सांत्वना के स्वर में कहा,' तो क्या हुआ? उन्होंने जरूर भेजा होगा। डाकखाने वालों का हाल आजकल बुरा है। शायद आज आ जाये या और दो दिन बाद आये। डाकखाने वाले आजकल मनीआर्डर के पन्द्रह-पन्द्रह दिन लगा देते हैं। तुम व्रत-उपवास के झगड़े में मत पड़ना। तबियत खराब हो जाती है। यों कुछ मंगाना ही है तो बता दो, लेते आयेंगे, पर व्रत-उपवास से होता क्या है ? ' सब ढकोसले हैं।'

'वाह, यह कैसे हो सकता है! हम तो जरूर रखेंगे व्रत। भैया ने करवा नहीं भेजा न सही। बात तो व्रत की है, करवे की थोड़े ही।' लाजो ने बेपरवाही से कहा।

सन्ध्या-समय कन्हैयालाल आया तो रूमाल में बँधी छोटी गाँठ लाजो को थमाकर बोला, ' लो, फेनी तो मैं ले आया हूँ, पर ब्रत-व्रत के झगड़े में नहीं पड़ना।' लाजो ने मुस्कुराकर रूमाल लेकर आलमारी में रख दिया।

अगले दिन लाजो ने समय पर खाना तैयार कर कन्हैया को रसोई से पुकारा, ' आओ, खाना परस दिया है।' कन्हैया ने जाकर देखा, खाना एक ही आदमी के लिये परोसा था- ' और तुम?' उसने लाजो की ओर देखा।

' वाह, मेरा तो व्रत है! सुबह सरघी भी खा ली। तुम अभी सो ही रहे थे।' लाजो ने मुस्कराकर प्यार से बताया।

' यह बात...! तो हमारा भी ब्रत रहा।' आसन से उठते हुये कन्हैयालाल ने कहा।

लाजो ने पति का हाथ पकड़कर रोकते हुये समझाया, ' क्या पागल हो, कहीं मर्द भी करवाचौथ का व्रत रखते हैं!...तुमने सरघी कहाँ खाई?'

'नहीं, नहीं, यह कैसे हो सकता है ।' कन्हैया नहीं माना,' तुम्हें अगले जनम में मेरी जरूरत है तो क्या मुझे तुम्हारी नहीं है? या तुम भी व्रत न रखो आज!'

लाजो पति की ओर कातर आँखों से देखती हार मान गई। पति के उपासे दफ्तर जाने पर उसका हृदय गर्व से फूला नहीं समा रहा था।

सयानी बुआ - कहानी (मन्नू भंडारी)

सब पर मानो बुआजी का व्यक्तित्व हावी है। सारा काम वहाँ इतनी व्यवस्था से होता जैसे सब मशीनें हों, जो कायदे में बंँधीं, बिना रुकावट अपना काम किए चली जा रही हैं। ठीक पाँच बजे सब लोग उठ जाते, फिर एक घंटा बाहर मैदान में टहलना होता, उसके बाद चाय-दूध होता।उसके बाद अन्नू को पढने के लिए बैठना होता। भाई साहब भी तब अखबार और ऑफिस की फाइलें आदि देखा करते। नौ बजते ही नहाना शुरू होता। जो कपडे बुआजी निकाल दें, वही पहनने होते। फिर कायदे से आकर मेज पर बैठ जाओ और खाकर काम पर जाओ।

सयानी बुआ का नाम वास्तव में ही सयानी था या उनके सयानेपन को देखकर लोग उन्हें सयानी कहने लगे थे, सो तो मैं आज भी नहीं जानती, पर इतना अवश्य कँगी कि जिसने भी उनका यह नाम रखा, वह नामकरण विद्या का अवश्य पारखी रहा होगा।

बचपन में ही वे समय की जितनी पाबंद थीं, अपना सामान संभालकर रखने में जितनी पटु थीं, और व्यवस्था की जितना कायल थीं, उसे देखकर चकित हो जाना पडता था। कहते हैं, जो पेंसिल वे एक बार खरीदती थीं, वह जब तक इतनी छोटी न हो जाती कि उनकी पकड में भी न आए तब तक उससे काम लेती थीं। क्या मजाल कि वह कभी खो जाए या बार-बार नाेंक टूटकर समय से पहले ही समाप्त हो जाए। जो रबर उन्होंने चौथी कक्षा में खरीदी थी, उसे नौवीं कक्षा में आकर समाप्त किया।

उम्र के साथ-साथ उनकी आवश्यकता से अधिक चतुराई भी प्रौढता धारण करती गई और फिर बुआजी के जीवन में इतनी अधिक घुल-मिल गई कि उसे अलग करके बुआजी की कल्पना ही नहीं की जा सकती थी। उनकी एक-एक बात पिताजी हम लोगों के सामने उदाहरण के रूप में रखते थे जिसे सुनकर हम सभी खैर मनाया करते थे कि भगवान करे, वे ससुराल में ही रहा करें, वर्ना हम जैसे अस्त-व्यस्त और अव्यवस्थित-जनों का तो जीना ही हराम हो जाएगा।

ऐसी ही सयानी बुआ के पास जाकर पढने का प्रस्ताव जब मेरे सामने रखा गया तो कल्पना कीजिए, मुझ पर क्या बीती होगी? मैंने साफ इंकार कर दिया कि मुझे आगे पढना ही नहीं। पर पिताजी मेरी पढाई के विषय में इतने सतर्क थे कि उन्होंने समझाकर, डाँटकर और प्यार-दुलार से मुझे राजी कर लिया। सच में, राजी तो क्या कर लिया, समझिए अपनी इच्छा पूरी करने के लिए बाध्य कर दिया। और भगवान का नाम गुहारते-गुहारते मैंने घर से विदा ली और उनके यहाँ पहुँची।

इसमें संदेह नहीं कि बुआजी ने बडा स्वागत किया। पर बचपन से उनकी ख्याति सुनते-सुनते उनका जो रौद्र रूप मन पर छाया हुआ था, उसमें उनका वह प्यार कहाँ तिरोहित हो गया, मैं जान ही न पाई। हाँ, बुआजी के पति, जिन्हें हम भाई साहब कहते थे, बहुत ही अच्छे स्वभाव के व्यक्ति थे। और सबसे अच्छा कोई घर में लगा तो उनकी पाँच वर्ष की पुत्री अन्नू।

घर के इस नीरस और यंत्रचालित कार्यक्रम में अपने को फिट करने में मुझे कितना कष्ट उठाना पडा और कितना अपने को काटना-छाँटना पडा, यह मेरा अंतर्यामी ही जानता है। सबसे अधिक तरस आता था अन्नू पर। वह इस नन्ही-सी उमर में ही प्रौढ हो गई थी। न बच्चों का-सा उल्लास, न कोई चहचहाहट। एक अज्ञात भय से वह घिरी रहती थी। घर के उस वातावरण में कुछ ही दिनों में मेरी भी सारी हँसी-खुशी मारी गई।

यों बुआजी की गृहस्थी जमे पंद्रह वर्ष बीच चुके थे, पर उनके घर का सारा सामान देखकर लगता था, मानाें सब कुछ अभी कल ही खरीदा हो। गृहस्थी जमाते समय जो काँच और चीनी के बर्तन उन्होंने खरीदे थे, आज भी ज्यों-के-त्यों थे, जबकि रोज उनका उपयोग होता था। वेसारे बर्तन स्वयं खडी होकर साफ करवाती थीं। क्या मजाल, कोई एक चीज भी तोड दे। एक बार नौकर ने सुराही तोड दी थी। उस छोटे-से छोकरे को उन्होंने इस कसूर पर बहुत पीटा था। तोड-फोड से तो उन्हें सख्त नफरत थी, यह बात उनकी बर्दाश्त के बाहर थी। उन्हेंबडा गर्व था अपनी इस सुव्यवस्था का। वे अक्सर भाई साहब से कहा करती थीं कि यदि वे इस घर में न आतीं तो न जाने बेचारे भाई साहब का क्या हाल होता। मैं मन-ही-मन कहा करती थी कि और चाहे जो भी हाल होता, हम सब मिट्टी के पुतले न होकर कम-से-कम इंसान तो अवश्य हुए होते।

बुआजी की अत्यधिक सतर्कता और खाने-पीने के इतने कंट्रोल के बावजूद अन्नू को बुखार आने लगा, सब प्रकार के उपचार करने-कराने में पूरा महीना बीत गया, पर उसका बुखार न उतरा। बुआजी की परेशानी का पार नहीं, अन्नू एकदम पीली पड गई। उसे देखकर मुझे लगता मानो उसके शरीर में ज्वर के कीटाणु नहीं, बुआजी के भय के कीटाणु दौड रहे हैं, जो उसे ग्रसते जा रहे हैं। वह उनसे पीडित होकर भी भय के मारे कुछ कह तो सकती नहीं थी, बस सूखती जा रही है।

आखिर डॉक्टरों ने कई प्रकार की परीक्षाओं के बाद राय दी कि बच्ची को पहाड पर ले जाया जाए, और जितना अधिक उसे प्रसन्न रखा जा सके, रखा जाए। सब कुछ उसके मन के अनुसार हो, यही उसका सही इलाज है। पर सच पूछो तो बेचारी का मन बचा ही कहाँ था? भाई साहब के सामने एक विकट समस्या थी। बुआजी के रहते यह संभव नहीं था, क्योंकि अनजाने ही उनकी इच्छा के सामने किसी और की इच्छा चल ही नहीं सकती थी। भाई साहब ने शायद सारी बात डॉक्टर के सामने रख दी, तभी डॉक्टर ने कहा कि माँ का साथ रहना ठीक नहीं होगा। बुआजी ने सुना तो बहुत आनाकानी की, पर डॉक्टर की राय के विरुध्द जाने का साहस वे कर नहीं सकीं सो मन मारकर वहीं रहीं।

जोर-शोर से अन्नू के पहाड जाने की तैयारी शुरू हुई। पहले दोनों के कपडों की लिस्ट बनी, फिर जूतों की, मोजों की, गरम कपडों की, ओढने-बिछाने के सामान की, बर्तनों की। हर चीज रखते समय वे भाई साहब को सख्त हिदायत कर देती थीं कि एक भी चीज खोनी नहीं चाहिए- 'देखो, यह फ्रॉक मत खो देना, सात रुपए मैंने इसकी सिलाई दी है। यह प्याले मत तोड देना, वरना पचास रुपए का सेट बिगड जाएगा। और हाँ, गिलास को तुम तुच्छ समझते हो, उसकी परवाह ही नहीं करोगे, पर देखो, यह पंद्रह बरस से मेरे पास है और कहीं खरोंच तक नहीं है, तोड दिया तो ठीक न होगा।

प्रत्येक वस्तु की हिदायत के बाद वे अन्नू पर आईं। वह किस दिन, किस समय क्या खाएगी, उसका मीनू बना दिया। कब कितना घूमेगी, क्या पहनेगी, सब कुछ निश्चित कर दिया। मैं सोच रही थी कि यहाँ बैठे-बैठे ही बुआजी ने इन्हें ऐसा बाँध दिया कि बेचारे अपनी इच्छा के अनुसार क्या खाक करेंगे! सब कह चुकीं तो जरा आर्द्र स्वर में बोलीं, 'कुछ अपना भी खयाल रखना, दूध-फल बराबर खाते रहना। हिदायतों की इतनी लंबी सूची के बाद भी उन्हें यही कहना पडा, 'जाने तुम लोग मेरे बिना कैसे रहोगे, मेरा तो मन ही नहीं मानता। हाँ, बिना भूले रोज एक चिट्ठी डाल देना।

आखिर वह क्षण भी आ पहुँचा, जब भाई साहब एक नौकर और अन्नू को लेकर चले गए। बुआजी ने अन्नू को खूब प्यार किया, रोई भी। उनका रोना मेरे लिए नई बात थी। उसी दिन पहली बार लगा कि उनकी भयंकर कठोरता में कहीं कोमलता भी छिपी है। जब तक ताँगा दिखाई देता रहा, वे उसे देखती रहीं, उसके बाद कुछ क्षण निर्र्जीव-सी होकर पडी रहीं। पर दूसरे ही दिन से घर फिर वैसे ही चलने लगा।

भाई साहब का पत्र रोज आता था, जिसमें अन्नू की तबीयत के समाचार रहते थे। बुआजी भी रोज एक पत्र लिखती थीं, जिसमें अपनी उन मौखिक हिदायतों को लिखित रूप से दोहरा दिया करती थीं। पत्रों की तारीख में अंतर रहता था। बात शायद सबमें वही रहती थी। मेरे तो मन में आता कि कह दूँ, बुआजी रोज पत्र लिखने का कष्ट क्यों करती हैं? भाई साहब को लिख दीजिए कि एक पत्र गत्ते पर चिपकाकर पलंग के सामने लटका लें और रोज सबेरे उठकर पढ लिया करें। पर इतना साहस था नहीं कि यह बात कह सकूँ।

करीब एक महीने के बाद एक दिन भाई साहब का पत्र नहीं आया। दूसरे दिन भी नहीं आया। बुआजी बडी चिंतित हो उठीं। उस दिन उनका मन किसी भी काम में नहीं लगा। घर की कसी-कसाई व्यवस्था कुछ शिथिल-सी मालूम होने लगी। तीसरा दिन भी निकल गया।

अब तो बुआजी की चिंता का पार नहीं रहा। रात को वे मेरे कमरे में आकर सोईं, पर सारी रात दु:स्वप्न देखती रहीं और रोती रहीं। मानो उनका वर्षों से जमा हुआ नारीत्व पिघल पडा था और अपने पूरे वेग के साथ बह रहा था। वे बार-बार कहतीं कि उन्होंने स्वप्न में देखाहै कि भाई साहब अकेले चले आ रहे हैं, अन्नाू साथ नहीं है और उनकी ऑंखें भी लाल हैं और वे फूट-फूटकर रो पडतीं। मैं तरह-तरह से उन्हें आश्वासन देती, पर बस वे तो कुछ सुन नहीं रही थीं। मेरा मन भी कुछ अन्नू के ख्याल से, कुछ बुआजी की यह दशा देखकर बडा दु:खी हो रहा था।

तभी नौकर ने भाई साहब का पत्र लाकर दिया। बडी व्यग्रता से काँपते हाथों से उन्होंने उसे खोला और पढने लगीं। मैं भी साँस रोककर बुआजी के मुँह की ओर देख रही थी कि एकाएक पत्र फेंककर सिर पीटती बुआजी चीखकर रो पडीं। मैं धक् रह गई। आगे कुछ सोचने का साहस ही नहीं होता था। ऑंखों के आगे अन्नू की भोली-सी, नन्ही-सी तस्वीर घूम गई। तो क्या अब अन्नू सचमुच ही संसार में नहीं है? यह सब कैसे हो गया? मैंने साहस करके भाई साहब का पत्र उठाया। लिखा था-

प्रिय सयानी,

समझ में नहीं आता, किस प्रकार तुम्हें यह पत्र लिखूँ। किस मुँह से तुम्हें यह दु:खद समाचार सुनाऊँ । फिर भी रानी, तुम इस चोट को धैर्यपूर्वक सह लेना। जीवन में दु:ख की घडियाँ भी आती हैं, और उन्हें साहसपूर्वक सहने में ही जीवन की महानता है। यह संसार नश्वर है। जो बना है वह एक-न-एक दिन मिटेगा ही, शायद इस तथ्य को सामने रखकर हमारे यहाँ कहा है कि संसार की माया से मोह रखना दु:ख का मूल है। तुम्हारी इतनी हिदायतों के और अपनी सारी सतर्कता के बावजूद मैं उसे नहीं बचा सका, इसे अपने दुर्भाग्य के अतिरिक्त और क्या कँ।यह सब कुछ मेरे ही हाथों होना था ...ऑंसू-भारी ऑंखों के कारण शब्दों का रूप अस्पष्ट से अस्पष्टतर होता जा रहा था और मेरे हाथ काँप रहे थे। अपने जीवन में यह पहला अवसर था, जब मैं इस प्रकार किसी की मृत्यु का समाचार पढ रही थी। मेरी ऑंखें शब्दों को पार करती हुई जल्दी-जल्दी पत्र के अंतिम हिस्से पर जा पडी- 'धैर्य रखना मेरी रानी, जो कुछ हुआ उसे सहने की और भूलने की कोशिश करना। कल चार बजे तुम्हारे पचास रुपए वाले सेट के दोनों प्याले मेरे हाथ से गिरकर टूट गए। अन्नू अच्छी है। शीघ्र ही हम लोग रवाना होने वाले हैं।

एक मिनट तक मैं हतबुध्दि-सी खडी रही, समझ ही नहीं पाई यह क्या-से-क्या हो गया। यह दूसरा सदमा था। ज्यों ही कुछ समझी, मैं जोर से हँस पडी। किस प्रकार मैंने बुआजी को सत्य से अवगत कराया, वह सब मैं कोशिश करके भी नहीं लिख सकूँगी। पर वास्तविकता जानकारी बुआजी भी रोते-रोते हँस पडीं। पाँच आने की सुराही तोड देने पर नौकर को बुरी तरह पीटने वाली बुआजी पचास रुपए वाले सेट के प्याले टूट जाने पर भी हँस रही थीं, दिल खोलकर हँस रही थीं, मानो उन्हें स्वर्ग की निधि मिल गई हो।

सन्नाटा - कहानी ( मालती जोशी )

दर्पण के सामने देर तक बैठने के बाद भी उसका मन नहीं भरा। मेक-अप की हल्की सी पर्त एक जादू सा कर गई थी, और वह अपने ही प्रतिबिम्ब पर मुग्ध हुई जा रही थी। कौन कहेगा कि वह पचास को छू रही है। सका कुछ भी तो नहीं बदला है। उम्र के साथ चेहरा थोडा भर गया है-बालों में इक्का-दुक्का रुपहले तार झलमला रहे हैं-बस, पर इन बातों ने तो उसके सौंदर्य को गरिमा ही प्रदान की है।

अब तो सारा दिन ही जैसे भागम-भाग में बीतता है। बिंदी लगाने भर को वह आईने में झाँक पाती है। नहीं तो एक समय वह भी था जब वह घंटों आईने के सामने बैठकर निहारा करती थी। उन दिनों कॉलेज भर में उसके रूप के चर्चे थे। इसी रूप जाल ने तो गिरीश को बाँधा था इसी के बल पर तो वह बिना किसी दान-दहेज के इतने बडे घर में आ गई थी।

बडा घर! याद आते ही उसका मन ऐसा कसैला हो उठा जैसे दाँतों नीचे कोई कडवी चीज आ गई हो। बीते दिनों की स्मृतियों ने कोई मधुर रागिनी नहीं छेडी, बल्कि मन में एक टीस-सी उठी। वह एक झटके के साथ उठी और कपडों की अल्मारी के सामने जाकर खडी हो गई। बेकार की बातों से वह इस समय अपना अच्छा-भला मूड बिगाडना नहीं चाहती थी।

साडी का चुनाव वाकई एक समस्या थी। अपनी रोजमर्रा की साडियों की ओर तो उसने झाँका भी नहीं। साल-दर-साल उन्हें ही पहनते वह ऊब चुकी थी। कुछ साडियाँ जो समारोहों के लिए खरीदीं गई थीं। पर हर कपडा हर मौके पर खिलता थोडे ही है। साडी ऐसी हो जो अवसर विशेष के अनुकूल हो-और उसकी सौम्य, सोबर इमेज भी बनाए रखे।

कपडों को उलट-पलट करते हुए उत्तरा को निशि बेतरह याद हो आई। वह होती तो क्या उसे इतना सोचना पडता। वह तो पता नहीं कब से मुनासिब-सी साडी, मैचिंग चूडियाँ, पर्स, चप्पलें-सबकुछ निकाल कर रख चुकी होती। उसके रहते मजाल थी कि मम्मी उल्टा-सीधा पहनकर या बेतरतीबी से बाल लपेटकर बाहर चली जाएँ।

कपडे ही नहीं, उसका तो घर की हर समस्या पर अधिकार था। कोई भी काम उस पर छोडकर निश्चिंत हुआ जा सकता था। उसके रहते घर कैसा भरा-भरा-सा लगता था। इस तरह द्वीपों में बँटा हुआ नहीं था।

उत्तरा को पी.एच.डी. मिली थी तब निशि मुश्किल से सोलह की रही होगी। स्टॉफ मेम्बर्स पार्टी के लिए इसरार कर रहे थे। उत्तरा ने सोचा था- वहीं कैंटीन में कुछ खिला-पिला देगी। पर निशि अड गई :

'कॉलेज में क्यों मम्मी, क्या तुम्हारा घर नहीं है? और पार्टी का सारा प्रबंध उसने अकेले ही किया। खाना तो खैर बनवाया गया था, पर प्लेंटें, चम्मच, नैपकिंस, बर्फ यहाँ तक कि पान-सुपारी और जर्दे की व्यवस्था भी उसने इतनी सुघडता से की थी कि सब चकित रह गए। लोग अब फिर पार्टी माँग रहे हैं, पर अब उत्तरा की हिम्मत टूट गई है।

यों कहने को तो घर में आशु भी है पर..
'आशु! उसने आवाज दी। पर जैसा कि वह जानती थी कोई जवाब नहीं आया। आजकल तो वह बस अपने पापा के आसपास ही मँडराया करती है। निशि भी थी तो आशु उसके साथ लगी रहती थी। उसकी शादी क्या हुई -दोनों ही लडकियाँ हाथ से निकल गईं।

'आशु! इस बार आवाज थोडी ऊँची थी और तल्ख भी।

'क्या है मम्मी? मूर्तिमान बेजारी बनकर आशु सामने आकर खडी हो गई।

उसके लहजे से उत्तरा का पारा चढ गया। वह भूल-सी गई कि क्यों बुलाया था। रूखे स्वर में पूछा, 'तुम अभी तक तैयार नहीं हुई। चलना नहीं है क्या?

'कहाँ?..ओह! आज आपका फंक्शन है न।..सॉरी मम्मी, मेरा जाना नहीं हो सकेगा।

'क्यों?

'पापा को बुखार है।

'कोई नयी बात है?

'नयी न सही, पर ऐसी स्थिति में उन्हें अकेला तो नहीं छोडा जा सकता न।

'दो घंटे महादेव उनके पास बैठ सकता है।

'सो तो है, पर मम्मी, वहाँ सारी साहित्यिक बातें होंगी। मेरी समझ में तो कुछ आएगा नहीं, वैसे ही बोर हो जाऊँगी।

'ठीक है। उत्तरा ने विषय समाप्त करते हुए कहा।
आशु जैसे प्रतीक्षा ही कर रही थी। तुरंत पलटकर चल दी। उत्तरा देर तक उसे देखती रही। इन दिनों वह एकदम अपनी माँ की प्रतिकृति सी बनती जा रही है। पर मन से कितनी दूर फिंक गई है। इसके विपरीत निशि एकदम अपने पापा पर गई है। पर बचपन से ही वह मम्मी की बेटी रही है। पिछले दिनों से तो वह बेटी से भी ज्यादा सखी बन गई थी। कोई भी बात उससे निस्संकोच कहकर वह हल्का हो लेती थी। निशि बडी बहन की तरह से सांत्वना देती, धीरज बँधाती। कभी-कभी तो उसका पक्ष लेकर पापा से भिड भी जाती थी।

शादी होते ही लडकियाँ कितना बदल जाती हैं। सारी माया-ममता पता नहीं कहाँ खो जाती है। अब तो बस निखिल और मंटू-निशि की दुनिया इन दोनों में सिमट कर रह गई है।

'मम्मी! दुबारा अपनी बेजारी जताते हुए, आशु सामने खडी हो गई थी, वो लोग आ गए हैं।

'अरे, चार बज गए क्या? उसने चौंककर घडी देखी, 'आशु, उन्हें बिठाओ, पानी-वानी पिलाओ। मैं बस आ ही रही ँ।

अपने को आखिरी बार आईने में देखने के लिए वह मुडी तो उसमें निशि का खिंचा-खिंचा सा चेहरा ही परिलक्षित हुआ। उत्तरा जल-भुनकर रह गई। 'मेरे मेहमानों को एक गिलास पानी पिलाने में इसका जान जाती है। पापा के लिए हर आधा घंटा बाद चाय बनाते समय इसके हाथ नहीं थकते। वह बुदबुदाई पर सारा गुस्सा भीतर ही भीतर पी गई। इस समय वह अपना मन एकदम प्रसन्न रखना चाहती थी।
'हलो, एवरीबडी। उसने बडे खुशनुमा अंदाज में कहते हुए हाल में प्रवेश किया। पर वहाँ सतीश मेहता अकेला बैठा अखबार पढ रहा था। सामने ट्रे में पानी से भरा गिलास अनछुआ रखा था।

'चलो! उसने कहा।

'बाय आल मीन्स, मैडम। कहते हुए वह खडा हो गया, पर एकदम ठिठक गया।

'अंकल नहीं चलेंगे?

दरवाजे तक पहुँच गई थी उत्तरा, पर देखा कि सतीश अभी वहीं खडा है।

'नहीं, अंकल नहीं चलेंगे। उनकी तबीयत ठीक नहीं है। स्वर को यथासाध्य तल्ख बनाते हुए उसने कहा।

'और आशुजी? सतीश ने अस्फुट किंतु उत्सुक स्वर में पूछा।

'नहीं वह कैसे आ सकती है? उनके पास भी तो कोई चाहिए। वैसे तो मेरा जाना भी मुश्किल ही था, पर अब तुम लोगों ने इतना बडा आयोजन कर रखा है और...। यह कहते हुए वह खटाखट सीढियाँ उतरकर गाडी के पास जाकर खडी हो गयी। मेहता को मजबूरन साथ आना ही पडा। पर उसके लिए दरवाजा खोलते हुए, अपनी सीट पर बैठते हुए और गाडी स्टार्ट करते हुए उसकी ऑंखें बराबर बंद दरवाजे पर खिडकियों के परदों पर लगी रहीं। पर उन्हें निराशा ही हाथ लगी।

'बेचारा सतीश! उत्तरा को उस पर दया हो आई, बेचारा जान छिडकता है आशु पर। पर वह लडकी है कि एक मिनट पापा को ऑंखों की ओट नहीं करना चाहती। साथ नहीं आई न सही, पर गुडलक कहने दरवाजे तक तो आ ही सकती थी।...

'गुस्सा तो उसके पापा पर आता है। ऐसे नाजुक मिजाज हैं कि हर पल किसी का ऑंचल थामे रहना चाहते हैं। पाँच बहनों में अकेले भाई हैं-खूब लाड-प्यार पाया है। अम्माँजी ने तो एकदम ऑंख की पुतली की तरह सहेजा है उन्हें। तभी तो यथार्थ की धरती पर पैर रखते ही उनका दम फूल जाता है।..

जिस बीमारी का आशु इतना हौआ बना रही है उसकी नब्ज निशि ने खूब पकड ली थी, 'कुछ नहीं मम्मी, यह सब जॉब सिकनेस है। जिम्मेदारियों से भागने के बहाने हैं। इन्हें सारी झंझटों से मुक्ति दे दीजिए। फिर देखिए इन्हें कुछ नहीं होगा।

बात एकदम सही थी-चाहे बिजली का बिल भरना हो या हाउसटैक्स, बच्चों का एडमिशन करवाना हो या खेत से गेँ लदवाना हो-गिरीश को कल्पना से ही बुखार होने लगता। बुखार न आता तो पीठ अकड जाती या सिर दर्द से फटने लगता। बच्चों की हारी-बीमारी में भी कभी उनका सहारा न मिला। निशि की सगाई के समय तो वे अस्पताल में ही भरती थे।

बच्चों की दादी जब तक रहीं, बेटे की बीमारी में घर सिर पर उठा लेतीं। उनकी इस हाय-तौबा में मूल प्रश्न जाने कहाँ बिला जाता। ब को बार-बार कोसतीं, 'अकेला आदमी, बेचारा कहाँ तक बोझा ढोता फिरेगा, एक लडका ही अगर हो जाता...।

यह बात वे कुछ इस अंदाज में कहतीं मानो बेटा होता तो सीधा झूले से उतरकर बाप का हाथ बँटाने पहुँच जाता।
अम्माँजी की मृत्यु के बाद तो गिरीश एकदम जैसे निराश्रित हो गए। पहले तो उन्होंने उत्तरा का सहारा लेना चाहा। पर वैसी संवेदनशील सेवा वह कैसे करती? कब करती? आखिर बच्चे भी तो उसी को पालने थे। नौकरी भी अब उसके लिए शौकिया नहीं रही थी। वह जीवन की अनिवार्य आवश्यकता बन गई थी। बडा घर मात्र एक छलावा था। सारे सब्ज बाग दूर के ढोल निकले। वकालत की एक तख्ती जरूर टँग रही थी दरवाजे पर ताकि कोई यह न कहे कि निठल्ले हैं बीवी की कमाई खाते हैं। शेष तो बस उत्तरा ही जानती है, या उसका ईश्वर।

पत्नी से निराश होकर अब उन्होंने आशु का दामन थाम लिया है। उन्हें इस बात का अहसास नहीं है कि इस तरह वे लडकी को तबाह कर रहे हैं। पता नहीं कैसे उसके मन में यह भय बैठ गया है कि उसकी शादी होते ही पापा एकदम अकेले पड जाएँगे।

अकेलापन क्या इतना भयानक होता है? आखिर उत्तरा भी तो जी रही है। वह तो बरसों से भीड के बीच अकेलापन झेल रही है।

उसने तो कभी शिकायत नहीं की।

'मैडम!
वह जैसे हडबडाकर तन्द्रा से जागी। गाडी मछली की तरह फिसलती हुई कब कॉलेज पहुँच गई, उसे पता ही नहीं चला। पोर्च में उसके कुछ कनिष्ठ सहयोगी और विभाग के छात्र-छात्राएँ स्वागत के लिए खडे थे।

गाडी से उतरते समय उसकी मन:स्थिति बडी अजीब-सी थी। अपने ही कॉलेज में इस तरह मेहमान बनकर आना उसे अटपटा लग रहा था। वह तो बार-बार मना करती रही। पर बच्चे नहीं माने। उसका गौरव, उसका सम्मान जैसे सबका हो गया था। इसे वे कैसे व्यर्थ होने देते।

यह सब कुछ इतना अनपेक्षित था कि उत्तरा स्वयं हैरान रह गई थी। वर्षों के अध्ययन और परिश्रम के बाद उसने एक भारी-भरकम पुस्तक लिख डाली थी : 'भारतीय नारी की सामाजिक चेतना उदय और विकास।

बडी मुश्किल से तो वह प्रकाशक जुटा पाई थी। उसने उस समय बस यही आशा की थी कि शिक्षा मंत्रालय द्वारा खरीद ली गई तो पुस्तक कॉलेज के पुस्तकालयों में पहुँच जाएगी। चार लोग इसे पढेंगे तो उसका श्रम सार्थक हो जाएगा। पर आश्चर्य! पुस्तक तो अकादमी पुरस्कार जीत लाई।

उसे तो सुनकर कानों पर विश्वास ही नहीं आया था। उसके छात्र जगत में तो आनंद की लहर दौड गई थी। पुरस्कार समारोह तो राजधानी में अगले महीने होना था। पर उन लोगों ने कॉलेज में उससे पहले ही एक सम्मान समारोह आयोजित कर डाला।

उसे हमेशा अपने विद्यार्थियों से आदर और स्नेह मिलता रहा है कि छात्र अनुशासनहीनता की पुकार मचाने वाले उसके सहयोगी अक्सर उससेर् ईष्या करने लगते हैं।

फैकल्टी का वह छोटा सा हॉल बडे कलात्मक ढंग से सजाया गया था। हॉल में प्रवेश करते ही स्वयं प्राचार्य ने उठकर उसका स्वागत किया तो वह संकोच से गड ही गई।

उसे पहले तो फूल-मालाओं से लाद दिया गया। फिर भाषणों का दौर प्रारंभ हुआ। छात्र तो उसकी इस उपलब्धि पर गद्गद् थे ही, पर कुछ सहकर्मियों ने भी जब उसकी प्रशंसा के पुल बाँध दिए तो उसे सुखद आश्चर्य हुआ। प्राचार्य महोदय ने भी दो शब्द बोले। उत्तरा के कारण उनका यह कस्बाई कॉलेज देश के नक्शे पर आ गया था। प्रमुख अतिथि थे जिलाधीश महोदय। उसे सम्मान का प्रतीक वीणापाणि की मूर्ति भेंट करते हुए उन्हें भी औपचारिकतावश स्तुति में दो शब्द कहने ही पडे।

वह सुनती रही और सोचती रही। काश! आशु यहाँ होती, उसके पापा होते। वे लोग जरा देख तो लेते कि घर के बहार उसे कितनी इज्जत मिलती है, प्यार मिलता है।

पर वे यहाँ आते ही क्यों। पत्नी की गौरव-गाथा निस्पृह भाव से सुनने की सामर्थ्य उनमें कहाँ है। तभी न बुखार हो आया है।

उस दिन जब कुछ लोग यह सुसंवाद लेकर घर पहुँचे थे, तब भी तो वे सहज भाव से उसे झेल नहीं पाए थे। कैसी रोनी सी आवाज में बोले थे, 'भई, हमने तो उन्हें पूरी स्वतंत्रता दे रखी है। जितना समय मिलता है, अपने विषय को दो। घर-बार की चिंता छोड दो। उसे हम सम्हाल लेंगे। अपन कोई बडे विद्वान नहीं हैं। बस इतना योगदान दे सकते हैं।

उनके हर शब्द से झाँकते हीनताबोध ने उसे उतना नहीं कचोटा जितना उनके झूठ ने। मन हुआ, सबके सामने उन्हें बेनकाब कर दे। बता दे कि वे कितना घर-द्वार देखते हैं पर चुप बनी रही।

कभी-कभी सुखी गृहस्थी का नाटक भी कितना जरूरी हो जाता है।

इस समय भी वह प्रसंग याद आते ही उसका मन फुफकार उठा। सम्मान की सारी खुशी, सारा उत्साह ठंडा पड गया। रात-भर जागकर एक आलेख तैयार किया था। पर बोलने के लिए खडी हुई तो एक भी शब्द याद नहीं आया। पहली बार कागज की जरूरत महसूस हुई। सुनने वालों ने समझा भाव विह्वल हो जाने से सकी वाणी अवरुध्द हो गयी है। नहीं तो वह साक्षात सरस्वती है। लौटते समय आधा दर्जन लोग साथ थे। फूल-मालाएँ और भेंट सामग्री उन्हीं के हाथ में थ।

दरवाजा वैसा ही बंद था। चलते समय न तो किसी ने विदा किया था, न वहाँ अब कोई स्वागत में खडा था।
'अब चलेंगे मैडम! किसी ने कहा तो लगा मन पर हथौडे की चोट पडी है। इतने बडे हंगामे के बाद ये लोग उसे एकदम अकेला करके चले जाएँगे? कल्पना से ही वह सिहर उठी।

'ऐसे कैसे चले जाओगे? उसने कहा, 'एक-एक कप कॉफी तो पीते जाओ।

और फिर उसने दरवाजे की घंटी जोर से दबा दी। इतने जोर से कि उसकी आवाज से सन्नाटे की धज्जियाँ उड गई।

गुरु अर्जुन देव (1563-1606ई.)

गुरु रामदास के पुत्र अर्जुन देव का जन्म गोइंदवाल में हुआ। ये सिक्खों के पाँचवें गुरु हैं। इन्होंने कई महान कार्य किए, अमृतसर तथा तरनतारन के मंदिर बनवाए, गुरुओं की बानी को गुरुमुखी में लिखवाया तथा 'ग्रंथ साहब के रूप में मंदिर में उसकी स्थापना करके ग्रंथ साहब की पूजा की परंपरा स्थापित की। जहाँगीर ने इन्हें बडी यातनाएँ दीं।

इन्हें जलते कडाहे में बैठाया गया और कारागार में डाल दिया। पाँच दिन तक अर्जुन देव जले शरीर को लिए पडे रहे, किन्तु शांति भंग नहीं हुई। छठे दिन 'जपुजी का जाप करते-करते शरीर छोड दिया। इस समय इनकी आयु मात्र 43 वर्ष की थी। इन्होंने 6000 से अधिक पद रचे हैं, जिनमें 'सुखमनी सबसे सरस है। इनकी रचना में गुरु-भक्ति और ईश्वर-भक्ति का उपदेश है। भाषा हिंदी अधिक और पंजाबी कम है। इन्होंने कई प्रकार के छंदों का प्रयोग किया है।

पद:

तू मेरा सखा तू ही मेरा मीतु, तू मेरा प्रीतम तुम सँगि हीतु॥

तू मेरा पति तू है मेरा गहणा, तुझ बिनु निमखु न जाइ रहणा॥

तू मेरे लालन, तू मेरे प्रान, तू मेरे साहिब, तू मेरे खान॥

जिउ तुम राखहु तिउ ही रहना, जो तुम कहहु सोइ मोहि करना॥

जहँ पेखऊँ तहाँ तुम बसना, निरभय नाम जपउ तेरा रसना॥

तू मेरी नवनिधि, तू भंडारू, रंग रसा तू मनहिं अधारू॥

तू मेरी सोभा, तू संग रचिआ, तू मेरी ओट, तू मेरातकिया॥

मन तन अंतर तूही धिआइया, मरम तुमारा गुरु तें पाइया॥

सतगुरु ते दृढिया इकु एकै, 'नानक दास हरि हरि हरि टेरै॥

गिआन-अंजनु गुर दिआ, अगिआन-ऍंधेर बिनासु।

हरि-किरपा ते संत भेटिआ, नानक मनि परगासु॥

पहिला मरण कबूलि करि, जीवन की छडि आस।

होहु सभना की रेणुका, तउ आउ हमारे पास॥

मलूकदास (1574-1682 ई.)

मलूकदास का जन्म इलाहाबाद के कडा ग्राम में हुआ। पिता सुंदरदास जाति के क्षत्रिय थे। बचपन से ही मलूकदास को साधुसेवा का व्यसन था। पिता कंबल बेचने भेजते तो ये उन्हें दीन-दुखियों को बाँट देते, सडक पर कूडा देखते तो साफ करने लगते।

सदा ईश्वर-प्रेम में तल्लीन रहते। पुरी के जगन्नाथजी पर इन्हें बडी श्रध्दा थी। आज भी वहाँ भगवान को 'मलूकदास की रोटी का भोग लगता है। इनके विषय में कई चमत्कारी घटनाएँ भी प्रसिध्द हैं। ये फक्कड प्रकृति के साधु थे। इन्होंने 'ज्ञान बोध, 'रतनखान, 'भक्ति विवेक आदि अनेक ग्रंथ रचे। इनका काव्य 'ध्रुव चरित भी प्रसिध्द है। इसकी रचना दोहे-चौपाइयों में है, भाषा अवधी है।

पद

दीनदयाल सुनी जबतें, तब तें हिय में कुछ ऐसी बसी है।

तेरो कहाय के जाऊँ कहाँ मैं, तेरे हित की पट खैंचि कसी है॥

तेरोइ एक भरोसो 'मलूक को, तेरे समान न दूजो जसी है।

ए हो मुरारि पुकारि कहौं अब, मेरी हँसी नहीं तेरी हँसी है॥

साखी

दया धरम हिरदे बसै, बोलै अमरित बैन।

तेई ऊँचे जानिये, जिनके नीचे नैन॥

आदर मान, महत्व, सत, बालापन को नेहु।

यह चारों तबहीं गए जबहिं कहा कछु देहु॥

इस जीने का गर्व क्या, कहाँ देह की प्रीत।

बात कहत ढर जात है, बालू की सी भीत॥

अजगर करै न चाकरी, पंछी करै न काम।

दास 'मलूका कह गए, सबके दाता राम॥

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