03 अप्रैल, 2010

विजेता

कभी-कभी वो पोस्ट ऑफिस के साथ वाली गली से निकलकर, अचानक मेरे सामने आ जाता है। नाक पर टिका हुआ इतने मोटे लैंस का चश्मा कि लैंस के पीछे छुपी हुई उसकी आंखें बिल्कुल भी दिखलाई नहीं देतीं। सिर पर घने घुंघराले बाल। कुछ लम्बाई लेता हुआ तीखे नाक-नक्श वाला चेहरा। दरमियाना कद और दुबली काठी पर झूलते हुए ढीले-ढाले कपडे। कमोबेश उसका हुलिया आज भी वैसा ही है जैसा वर्षो पहले विद्यालय में पढने के समय हुआ करता था। तीस-पैंतीस साल बाद भी उसमें ऐसा कोई परिवर्तन नहीं आया है कि उसे पहचाना न जा सके। अलबत्ता बढती हुई आयु के साथ अब वो उतना दुबला नहीं दिखता जितना कि छात्र जीवन में दिखा करता था।

विद्यालय में वो दंगल का दिन था। ब्वॉयस हॉस्टल के खुले मैदान के एक कोने में खोदकर बना लिए गए अखाडे में कुछ तगडे और कुछ बेहद तगडे पहलवाननुमा लडके ताल ठोंक रहे थे। उनके शरीर का गठन देखकर ही लगता था कि वे कायदे के पहलवान हैं। चारों ओर दंगल देखने को जुट आए छात्रों की भीड जमा थी। दंगल शुरू हुआ। एक के बाद एक पहलवान पटके जाने लगे। जो जीतता वो हुंकारता हुआ अखाडे का चक्कर काटता और शाबाशी लेकर कपडे पहन लेता। दंगल के अंतिम चरण में एक लम्बे-चौडे गठे हुए शरीर वाला पहलवान लगातार जीत रहा था। उसने दो तीन पहलवानों को बुरी तरह पटककर चित कर दिया था और अब हुंकारता, ताल ठोंकता और ललकारता हुआ अखाडे में किसी शेर की तरह घूम रहा था। भीड में बहुत से छात्र उसके पक्ष में आवाज भी उठा रहे थे। वह काफी देर तक ताल ठोंकता हुआ अखाडे में घूमता रहा पर कोई भी पहलवान उससे कुश्ती लडने के लिए तैयार नहीं हुआ। दरअसल उससे लड चुके पहलवानों का हश्र सभी ने देख लिया था और अब कोई भी उससे भिडने का हौंसला नहीं जुटा पा रहा था।

उछल-उछलकर ताल ठोंकते और अखाडे में चारो तरफ घूमते हुए अचानक वो पहलवान चिल्लाने लगा कोई मर्द नहीं रहा? जिसने मां का दूध पिया हो, आ जाए।

वो बार-बार उछल-उछलकर ललकार रहा था। उसका स्वर इतना तीखा और अशिष्ट हो चुका था कि भीड में सन्नाटा पसर गया। उसके पक्ष में बोलने वाले छात्र भी चुप हो गए। निश्चय ही उसकी विजय ने उस पर नशा जैसा कर दिया था और वो अपनी विजय के दर्प में अखाडे की मर्यादा भी भूल गया था। सारी भीड सकते में खडी थी, शायद भीतर ही भीतर उसकी ललकार पर कुढ भी रही थी- पर कुछ भी बोलने की हिम्मत किसी में नहीं थी।

पहलवान ने फिर ललकार भरी और अखाडे का चक्कर लगाया। तभी हमने देखा कि भीड में खडा हुआ एक बेहद दुबला-पतला लडका आगे बढकर चीखते हुए कह रहा है-ठहर जा। मैं लडूंगा। पहलवान ने उस लडके को गौर से देखा और ठहाका लगाकर हंसा। जैसा कि भीड का मनोविज्ञान होता है, भीड भी पहलवान की हंसी के समर्थन में हंसने लगी। पर इन बातों को उस लडके पर कोई प्रभाव नहीं हुआ। उसने हाथ से घडी उतारकर अपने साथी को पकडाई और कमीज के बटन खोलने लगा। जिस समय उसने बनियान उतारी तो भीड एक बार फिर हंसी। वो इतना दुबला था कि उसकी एक-एक पसली दिखलाई दे रही थी।

साधारण से झूलते हुए कच्छे में अपना दुबला-पतला शरीर लेकर वो अखाडे में घुसा और किसी पहलवान ही की तरह माटी को माथे से लगाया और ताल ठोंकी। सूखी हुई पतली-पतली टांगों पर उसके हथेली मारते ही भीड की फिर हंसी छूट गई। कोई क्या करता वो दृश्य ही ऐसा था। किसी को ध्यान आया कि उस लडके ने चश्मा नहीं उतारा है। उसे पुकार कर चश्मा उतारने के लिए कहा गया। पर उसने सुना-अनसुना कर दिया। तभी पलक झपकते ही अब तक के विजेत पहलवान ने उसे उठाकर अखाडे में पटक दिया। उसके जमीन पर गिरते ही चश्मा छिटककर दूर जा गिरा। वो फुर्ती से उठ बैठा पर शायद चश्में के बिना उसे कुछ भी स्पष्ट दिखाई नहीं दे रहा था। वो मिट्टी में हाथ मार-मार कर चश्मा ढूंढने लगा। भीड फिर हंसने लगी। उसके दोस्त ने चश्मा उठाकर उसे पहनाया तो वो फिर खडा होकर पहलवान की तरफ लपका।

कुछ ही क्षणों मे उसे आठ-दस पटकनी लग चुकी थीं। पहलवान के सामने उसकी स्थिति शेर और मेमने वाली थी।

मर जाएगा। अखाडा छोड दे। इस बेजोड कुश्ती से शायद पहलवान भी खिसिया गया था। मरूंगा तो मैं, तू क्यों परेशान होता है। उसने हांफते हुए जवाब दिया। पहलवान ने उसे उठाकर कुछ और पटकियां दीं। इस बार भी उसने बेहद लडखडाते हुए कदमों से उठने की कोशिश की पर गिर गया फिर किसी तरह उठ खडा हुआ। उस लडके की हालत अब तक, काफी बिगड चुकी थी पर वो पीछे हटने को तैयार नहीं था।

पता नहीं क्यों पहलवान उसे चित करके कुश्ती खत्म नहीं कर रहा था। शायद पटक-पटककर उसे उसकी धृष्टता का मजा चखाना चाहता था या फिर सोचता था कि इतनी पटकनियों के बाद वो खुद ही भाग जाएगा। क्योंकि उस जैसे दुबले-पतले कमजोर लडके को चित करके पहलवान को न तो वाह-वाही मिलने वाली थी और न ही आत्म-संतोष।

लडके की बिगडती हुई हालत देख कर अब तक आनंद ले रही भीड चिंतित होने लगी, पहले भीड में से उसके बचाव में आवाजें उभरने लगीं और फिर एका-एक काफी लोग अपने जूतों सहित अखाडे में उतर आए। कुश्ती रोक दी गई। कुछ ने जबरन उस लडके को किनारे किया और कुछ लडके समझाकर पहलवान को दूसरी तरफ ले गए। पर ज्यादा भीड उस कमजोर लडके को घेर कर खडी हुई थी। वो लडका धीरे-धीरे बदन से मिट्टी झाडते हुए घडी, कपडे, मोजे पहन रहा था और बुरी तरह हांफ रहा था।

तुझे क्या हो गया था भाई! पहाड से सिर टकराने लगा। किसी ने हंसते हुए कहा। लडने ने जवाब देने की कोशिश की पर उसकी सांस इतनी उखडी हुई थी कि बोल नहीं सका। यद्यपि उसके हाव-भाव से लग रहा था कि वो अभी भी पीछे हटने को तैयार नहीं है।

उस दिन तो शायद मैं भी उस कमजोर लडके को लगती हुई पटकनियों पर हंसा था। पर जैसे-जैसे आयु बढती गई मेरे मन से उस लडके के लिए सम्मान बढता गया। मां के दूध और मर्दानगी को ललकारने वाली उस पहलवान की अशिष्ट और अमर्यादित चुनौती के सामने खडा होने वाला उस भीड में कोई एक तो था।

आज न तो वो मुझे जानता है, न मैं उसे जानता हूं। मैं उसे पहचानता हूं, वो तो शायद मुझे पहचानता भी नहीं। पर जब कभी भी वो मुझे सडक पर मिल जाता है तो मैं हाथ हिलाकर गर्दन की हल्की सी जुम्बिश के साथ उसका अभिवादन करता हुआ आगे बढ जाता हूं। मैंने कई बार अनुभव किया है कि वो अपने मोटे चश्में के पीछे से मुझे पहचानने की चेष्टा कर रहा है। वास्तव में तो यहां मेरी पहचान का कोई अर्थ है भी नहीं। शायद मैं कभी उसे बता भी न पाऊं कि एक दिन भीड के साथ मैं भी उस पर हंसा था। पर मेरे भीतर उसकी पहचान और सम्मान एक वास्तविक विजेता की सी है जो हकीकत में भले ही कहीं भी दर्ज न हो पर मेरे भीतर ता-उम्र दर्ज रहेगी।

[जितेन ठाकुर]

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