फिर भी कइयों के मतानुसार हम कई चीज़ों में गले तक फंसे हुए हैं। मसलन, मेरे एक संन्यासी हो जाने वाले काका, जिन्होंने एक मोक्षस्वरूपिणी चेली को फांस रक्खा है, और जो, अपनी अंतरात्मा में अटकी हुई योग की फांस निकालने के लिए दिन-रात अलख के बजाय गांजे की चिल में जगाने के लिए अपने चिमटे से धूनी की आग कुरेदा करते हैं, कहां करते हैं कि खानदान में एक मैं ही कपूत हूं जो घर-गिरस्ती के माया-मोह में फंसा हुआ हूं। अपने महाजनों की धारणानुसार मैं कर्ज में फंसा हुआ हूं, डाक्टरों का कहना है कि खांसी की फांसी ने मुझे फांस रक्खा है और मेरी पत्नी समझती है कि मेरी नजरें कहीं और फंसी हुई हैं।
परन्तु मैं आपको विश्वास दिलाता हूं कि इनमें से एक भी चक्कर में मैं नहीं फंसा। घर-गिरस्ती में तो आज तक नहीं फंसा, बल्कि असलियत यह है कि घर-गिरस्ती ही मुझसे फंसकर अपना करम फोड़ चुकी है। बीवी और बाल-बच्चे नित्य नियम से आधा फाका कर मेरे नाम को रोते हैं, और मैं औरों की महफिलों में अपने हलुवे मांडे से तर रहता हूं। कर्ज में इसलिए नहीं फंसा कि तय कर चुका हूं कर्ज़ कभी अदा नहीं करूंगा। जो महाजन भी हमसे फंसा, उम्र-भर अदालत की गलियों में चक्कर काटता रह गया......कभी एक अधेला भी वसूल न कर सका। खांसी एक ऐसा आसान रोग है जो महज गले का खटका दबाते ही पैदा हो जाता है, इसलिए मैं अभी भी लोगों को अपने से दूर रखना चाहता हूं, खांस-खांस कर थायसिस का मरीज़ बन जाता हूं। और पत्नी की धारणा तो गंगा उठाके के कह सकता हूं कि एक निर्मूल है। मैं पहले ही अर्ज़ कर चुका हूं कि बदफेली और राजनीति की गुटबंदियों, ये दो ऐसे फंदे हैं जिनमें मैं दूसरों को फांसता हूं, खुद कभी नहीं फंसता। आप इसी से अनुमान लगा लीजिए कि दफा चार सो बीस का जुर्म करने वाले मुनाफाखोरों के युग में मैं या मेरे ऐसे आदमी समाज के लिए कितने उपयोगी होते हैं। ऐसा समाजोपयोगी जीव सदा एक प्रकार का दार्शनिक होता है.........निर्मम, निर्लिप्त, निरर्भिमानी। मैं भी ऐसा ही हूं, जल में कमल की तरह रहता हूं, कभी किसी दलदल में नहीं फंसा। मगर मसल मशहीर है कि ईश्वर किसी का गुमान नहीं रखता, सयाना कौआ भी कभी न कभी चिडीमार के फंदे में फंस ही जाता है। मैं भी फंस गया, और फंसा भी तो एक बरात में फंसा।
किस्सा यों है कि हमारे मुहल्ले के वयोवृद्ध सेठ छिदम्मीमल को अभी हाल ही में, होली से पांच-सात रोज़ पहले, अपने इक्यासी वर्ष के जीवन में पांचवीं बार विधुर होना पड़ा। सवा साल के अरसे में पंद्रह बरस की सेठानी जी साठ से लेकर बीस बरस तक की उम्र वाले आठ बच्चों की मां बनीं, दादी, परदादी, नानी, परनानी बनीं और भरे-पूरे कुनबे को छोड़कर भरा पूरा सुहाग लेकर संखियों के सहारे जग की वैतरिणी को पार कर गई। सेठ जी उसी समय सबके आगे अपना दुखड़ा रोकर कहने लगे कि हाय, किससे होली खेलूंगा, कैसे मेरा मन लगेगा।
सुनते है कि घर वाले उसी दिन में छिदम्मी सेठ को खुशामदियों और दलाल किस्म के आदमियों से बचाने लगे। इसका एक कारण है। जब तीसरी मरी तो छिदम्मी सेठ पिछत्तर पार कर चुके थे, उसके मरने के बाद ही माया-मोह से मन हटाकर अपने ठाकुरद्वार में कीर्तन भी करने लगे थे........कि.........तभी मेरे ही जैसे किसी समाजोपयोगी दार्शनिक ने उनकी नौजवान के मोहनजोदरों को उनके काल-जर्जर हृदय की स्मृतियों से उभारकर एक बार फिर विगत वैभव के उत्साह से भर दिया। नतीजा यह हुआ कि तब से पूरे-पूरे दो बरस भी न बीतने पाए कि यह दूसरी मरी। लूटने वाले हज़ारों रुपया इसी बहाने से लूट ले गए।
और अब तो छिदम्मी सेठ को चस्का पड़ गया है, उनके कृष्णरूप मन को होली खेलने के लिए...........न हो तो साथ बैठकर गुड़िया खेलने के लिए ही एक राधा चाहिए। अधेड़ पतोहुओं और पोतों की जवान-जवान बहुओं को पंद्रह बरस वाली सांसों और ददिया सांसों सो सख्त नफरत होती थी। अंत:पुर की राजनीति में पतंगे दैसी पुखरिन को लेकर आए दिन महाभारत होते थे। अविवाहित लड़के-लड़कियों के क्षेत्र में भी जलन, कुढ़न और मानसिक विकृतियों की नई-नई लीलाएं नित ही हुआ करती थीं। इसीलिए इस बार जब आठों के मेले दिन छिदम्मी सेठ अपनी सूतक में घुटी हुई खोपड़ी के ताज़े उगते हुए बालों पर खिजाब लगाकर, छकलिया, दुपलिया और चूड़ीदार पाजामे से लैस हो, झुकी कमर को जवानों की तरह तानते हुए पतली छडी़ लेकर बाहर जाने लगे तो पोते ने राह रोककर कहा, ‘‘बाबा, अब छकलिये-दुपलिये पर कोई नहीं रीझेगी, बुशर्ट और पतलून पहनकर बंदरियां बाग में घूमा करो। माशाअल्ला गबरू जवान हो.....सड़क पर रीझने वालियों की लाशें बिछ जाएंगी।’’
बाबा ने बुरा माना। उन घरवालों को कोसने लगे जो उनका सुख नहीं देख सकते थे। इस पर बहुओं के घूंघट से गोले बरसे। जवाबी हमले के तौर पर बाबा ने गंदी से गंदी गालियां बकना शुरू किया। यह धमकी भी दी कि अपनी जायदाद सिरी ठाकुर जी के नाम कर जाएंगे, घरवालों को रुलाकर छोड़ेगे।
पहली और दूसरी के बेटे तो अस्सी बरस में फटने वाले बाप की नई जवानी पर शर्म से गर्दन झुकाकर ही रह गए, मगर तीसरी के तीनों लाल को अपने भतीजों के साथ क्रांति के युग में पैदा हुए और पले हैं, हाकी की स्टिकें लेकर दरवाजे पर खड़े हो गए। गर्मा-गर्मी में उन्होंने छिदम्मी की छलकिया-दुपलिया के लत्ते-पलत्ते उड़ा दिए, दो-तीन क्रान्तिकारी तमाचे भी जड़ दिए, टांग तोड़ने की धमकी देने लगे। बड़े बेटे ने आकर बाप को बचाया।
ऐसे सुसंवाद मुहल्ले के मनोरंजन की सामग्री बनने से नहीं बचा करते। उसी रात को लाला इंदरमल कीर्तन में, बाबू राधेश्याम के चबूतरे पर, जग्गू बैद की बैठक में......जहां देखो, इसी की चर्चा चल निकली। एक मनचने ने गीत भी जोड़ लिया कि ‘‘बूढ़े बैल छिदम्मी लाल, कबर में ब्याह रचाने वाले।’’
खबर मेरे कानों तक भी पहुंची। मजाक सूझा, फिर लोभवृत्ति जागी। सोचा, फटे में पांव डालकर ज़रा हम भी अपने जी की निकाल लें। एक बार हिचक हुई; मैंने अपने समाजोपयोगी जीवन-दर्शन और कला का उपयोग अपने मुहल्ले में नहीं किया था। अब तक इसे सिद्धांत की तरह मानता आया हूं, मुहल्ले वाले निश्चिन्त भी हैं। मगर छिदम्मी सेठ की छदामों में मोहिनी थी। मेरा सिद्धान्त टूट गया।
दूसरे दिन छिदम्मी सेठ की हवेली पर पहुंचने से पता लगा कि मोर्चा तगड़ा है। तीसरी की तीनों बाहरवालों को तो क्या घर के नौकर-चाकरों तक को दे-देकर और उकसाती थीं। मिलने की मना सुनी तो और भी जी में ठान ली। अपने उर्वर मस्तिष्क का लखलखा सुंघाकर किसी तरह हम छिदम्मीमल के पास पहुंच ही गए।
सेठ छिदम्मी को दुखड़ा सुनाने के लिए एक आदमी मिला, अपनी फोश गालियों के कोश से चुन-चुनकर घरवालों के लिए रत्न लुटाने लगे। तीसरी के लाल फिर मारने को धाए। हमने बीच-बचाव किया, समझाया कि ‘‘भई, अपनी भुजा के बल पर पढ़े हैं; इतनी माया बटोरी है; जिन्दगी हकूमत और रोब-दाब से बिताई है। घर के बड़े हैं। इस उम्र में ऐसा व्यवहार कर इन्हें ओछा मत बनाओ।’’
‘‘ओछा तो यह आप ही बन रहा है खूसट। अपनी हविस के लिए दो लड़कियों की ज़िन्दगी मिटा चुका है, अब फिर तमाशा दिखाने चला है। हम इसकी हड्डी-पसली तोड़ डालेंगे........’’ एक लड़का बोला, दूसरा बोला, तीसरे ने जबान खोली.......सभी कुछ न कुछ कह चले। किसी ने गर्मी से बात की, किसी ने सिद्धान्त की चर्चा चलाई, कोई घरेलू दृष्टि से ऊंच-नीच की चर्चा समझने लगा, सेठ छिदम्मी अपनी अकड़ पर बार-बार सान चढ़ाने लगे। उन्हें सबसे ज्यादा इस बात पर क्रोध था कि जिन्हें पैदा किया, उन्होंने ही उसे घर में बंद रक्खा है। घर में कौवा-रोर मच रही थी। इंजानिब ने भी नारद की तरह सबके मीठे बनकर आग में घी डाला, छिदम्मी लाला का हौसला बढ़ाया। बड़े लड़के को समझाया कि इन्हें सबसे ज्यादा ताव इसी बात का है कि यह कैद किए गए हैं। जरा बाहर हो आएंगे, ठंडे हो जाएंगे, फिर ऊँच-नीच समझाकर बहला लीजिए। मैं भी इनके मन का बोझ हल्का करूंगा।
मुहल्ले की मुरव्वत में लड़के हमसे कुछ कह तो न सके, हालांकि मेरा बीच में पड़ना उन्हें खतरे से खाली नहीं लगता था........यह मैं उनके चेहरों पर पढ़ रहा था। मगर यह कि हम भी तो हम ही हैं, बड़े-बड़े इलेक्शन लड़ाकर कइयों के छक्के छुड़वाते हैं, हमने जीवन-भर राज-रजवाड़ों की रियासतें फुंकवाई हैं। बड़े-बड़े महाजनों को सोलह दूने आठ का पहाड़ा पढ़ाया है। अजी अपने लिए हमने अपने घरवालों तक को उजाड़ा है, फिर भला छिदम्मी के लड़के किस खेत की मूली थे। लाला को अपने साथ-साथ घर से निकाल लाया।
सेठ छिदम्मी को हमारे घर आए आध घंटा भी नहीं बीता था कि हवेली से बुलावे आने लगे। छिदम्मी भला क्यों जाते ? वे पहले ही से करेला हो रहे थे, और अब तो मेरी नीम भी चढ़ चुकी थी। सारा घर हार गया, छिदम्मी टस से मस न हुए। कहने लगे, अब तो तभी आऊंगा घर में, जब घरवाली साथ होगी। हम भी तन-मन-धन से सेठ छिदम्मी की मनोकामना पूरी करने में लग गए। तन-मन की सेवा में कुछ लगता नहीं था, धन की सेवा में जो लगता था, सेठ उसके प्रोनोट लिख देते थे।
मोहल्ले में प्रोनोटों की चर्चा फैलने लगी। हमारे खिलाफ मोर्चा शुरू हुआ। जब मैं बाहर निकलता, लोग बोलियां-ठोलियां मारते थे। मैं हंसकर निकल जाता था। आप तो जानते ही हैं, मैं दार्शनिक आदमी, अपने काम से काम रखता हूं मान-अपमान की परवाह नहीं करता। लड़की की तलाश जारी रही। मैं बाहर ही बाहर रहा था, शहर में तूफान होने का अंदेशा था।
एक लड़की मिल गई। छिदम्मी के एक सजातीय अनेक पुत्रियों के पिता जो अपनी गरीबी की आड़ लेकर दहेज देने के बजाय दहेज लेने में पटु थे, छिदम्मी की आयु का हिसाब लगाकर ब्लैकमार्केट का भाव मांगने लगे। मैंने भी समझ लिया कि यह बेटी का बाप मेरी परम्परा को एक समाजोपयोगी दार्शनिक है। दस में सौदा तय किया। छिदम्मी से पन्द्रह की दस्तावेज़ लिखाई।
ब्याह का दिन तय हुआ। चार बाराती- एक नाई, एक पुरोहित, एक पाधा और चौधा मैं घर में गौर-गनेश पूजकर दूल्हें के साथ रात के समय बाहर निकले तो देखा, छिदम्मी के आठों लड़के, पोते और मुहल्ले के चार-पांच धनी-धोरी दरवाजें पर खड़े हैं। उन्हें देखते ही मुझे सांप सूंघ गया।
सोचने लगा, इतनी गुप्त सूचना केवल मेरे ही किसी साहबजादे की मार्फत बिक सकती है। जो भी हो इस वक्त मैं ठगा-सा खड़ा रह गया। उधर छिदम्मी के बड़े मुन्नू ने बाप के कदमों पर टोपी रख दी, दूसरे भी हाथ जोड़कर खड़े गए। कहने लगे, ‘‘शादी करना ही है तो अपने घर से कीजिए, इस तरह हमारा मुंह काला न कीजिए। आप जो भी हुक्म करेंगे, हमारे सिर-माथे पर होगा।’’
आपुसदारों ने समझाया, सेठ छिदम्मी भी राजी हो गए। मुझे भी तब सच्चे दार्शनिक की भांति मुहल्लेवालों की बात का समर्थन करना पड़ा। तय हुआ कि बरात दूसरे दिन जाएगी, धूमधाम से जाएगी।
बड़े मुन्नू ने सबके सामने ही मुझे ब्याह का अगुआ बनाया और बाप छिदम्मी भी राजी न थे। उन्हें डर था कि कहीं घर जाकर यह सारे दिखावे के सब्जबाग समेट न लिए जाएं। मुहल्ले के एक दूसरे रईस लाला उन्हें यह कहकर ले गए कि मुहल्ले के नाते दूल्हें पर हमारा भी हक है।
दूसरे दिन बरात चली। बाजे-गाजे और धमधाम को देखकर सेठ छिदम्मी भी शरमा गए। घरों के छज्जे और दरवाजे औरतों से, गली-बाजार देखनेवालों से पटे हुए थे। सेठ छिदम्मी हमसे कहने लगे, ‘‘बड़े मुन्नू ने जो यह सब धूमधाम की है वह हमारी उमर को शोभा नहीं देती।’’
हमने कहा, ‘‘वाह, सेठ जी। अभी आपकी उमर ही क्या है?’’
सेठ फिर बहक में चढ़ गए। हंसकर बोले- लड़के भी यही कहते हैं।
छिदम्मी के लड़कों ने हर बात में मुझे ही अगुआ बनाना शुरू किया। बराती, नौकर-चाकर, नाई-बाम्हन, बाजे-गाजेवाले सब मेरे ताबे में कर दिए। बरात जब मोटरों पर बैठी तो नौशा को लेकर बड़े मुन्नू तो आगे निकल गए, बाजेवालों की विदाई मुझे ही देनी पड़ी। स्टेशन पर ड्राइवरों का इनाम-इकराम भी मुझे ही देना पड़ा। छिदम्मी के मुन्नू हर बार सामने से नदारत हो जाते थे। मैं परेशान, इस वक्त मेरे साथ जो चाल खेली जा रही है उसका मैं जवाब भी नहीं दे सकता। दूसरा कोई मौका होता तो ऐसे-ऐसे मुन्नुओं को हम उल्लू बना देते, मगर मैंने भी सोचा, शादी से छिदम्मी तो मेरे हाथ रहेगा ही, वसूल कर लूंगा। इसी विश्वास के साथ मैंने मुन्नू के आगे बढ़ने से पहले ही बरातियों के टिकट भी खरीद लिए। तब मुन्नी ने आगे बढ़कर कहा- क्या करूं, मैं तो खर्च दे देता, पर बाबू ने हमसे कहा है कि हिसाब-किताब सब आप ही के जिम्मे रहेगा, बाद में वह आप से समझ लेंगे।
मुझे नये सिरे से यकीन हो गया कि बुड्ढा अभी मेरे ही कब्जे में है। और छिदम्मी के लड़कों-पोतों के साथ पढ़ने वाले युनिवर्सिटी-कालेजों के लड़के इन्टर क्लास में बरात जा रहे थे। जिसे देखो वह मेरा ही मुंह देख रहा था। मैंने सामान चढ़वाया, सबके बैठने का इंतजाम किया, कुली-ठेले के पैसे चुकाए, जब ट्रेन चली तो नमो लच्छमीनारायण किया........मगर ट्रेन के चलते ही हमने देखा कि हमारा बड़प्पन बगैर किसी इत्तिला और नोटिस के बड़े मुन्नू के कब्जे में आ गया। उनके नौकर-चाकर पान सिगरेट-शरबत-सोडा का न टूटनेवाला क्रम साधने लगे। बरातियों ने मुन्नू को सलाह-सूत देना शुरू किया। मैंने देखा कि मुझे अब कोई बैठने तक को नहीं पूछता। लड़कों की टोली बात-बात में हमें कर्ताधर्ता जी के नाम से कभी पैर दबाने के लिए, कभी पीकदान उठाने के लिए, कभी मेरी हथेली को ऐशट्रे बनाने के लिए पुकारने लगी। पान तकसीम हुए, हम मुंह में रखने ही जा रहे थे कि लड़के ने झटककर छीन लिए। कहने लगा कि आप तो कर्ता-धर्ता हैं, क्या कीजिएगा खाकर ! इसी तरह शरबत का ग्लास छिना, सिगरेटें छिनीं। कहते शर्म आती है, मगर यह सच है कि मेरी सारी चतुराई फना हो गई, कोई हमारे हथकंडे बयान करने लगा, कोई हमारी राजनीति पोलें खोजने लगा, बाराती-घराती-सभी उस हंसी-मजाक का आनन्द लेने लगे। मैं करता भी तो क्या, उनकी हंसी को इस तरह सिर-माथे पर चढ़ाने लगा, गोया अपने ऊपर आप हंस लेने की आदत है। इतने में लड़कों ने एक नई नकल शुरू की। एक लड़का मेरा पार्ट करता हुआ अलग शान से बैठ गया, दूसरा लड़का सौ बरस की बुढ़िया बना। वह बुढ़िया कमर झुकाकर मेरे प्रतिरूप आकर बोली- सुना है, तुम बूढ़ों का ब्याह कराते हो। मेरा भी ब्याह करा दो। न हो तो अपने ही साथ कर लो। मेरे पास दो लाख रुपया है।
मेरी नकल करनेवाले ने ऐसा अभिनय किया, जैसे मेरी लार ही टपकने लगी हो। नकल देखकर सारे कम्पार्टमेंट का हंसते-हंसते बुरा हाल हो गया। बुढ़िया के चंचल कटाक्षपात, झुकी कमर के साथ उसका नाचना, पोपले मुंह से प्रेम के गीत गाना, और फिर जब मेरा और बुढ़िया के डुएड गाया गया तब तो लोगों ने आसमान ही सर पर उठा लिया। मैं पत्थर बनकर सब देखता रहा। इस वक्त हर तरह से बेबस था। मगर नकल के अन्त में जब यह दिखाया गया कि जिस दो लाख की लालच में हमने बुढ़िया से शादी की थी वह रुपये भी न मिले और न मेरे घर में सौतों का झगड़ा होने लगा, मेरी कानखिंचाई होने लगी.........तब मैं किसी तरह भी बर्दाश्त न कर पाया। गर्म हो उठा। सब लोग समझने लगे कि आप भी बड़े होकर बच्चों का बुरा मानते हैं। अजी, यह तो बरात है बरात।
खैर, यहां तक भी बर्दाश्त किया। मगर हद हो गई कि जब खाना आया तो यार लोग पत्तल उड़ा ले गए। दूसरी आई, वह भी छीन ले गए। मैंने एक स्टेशन पर उतरकर कर्म्पाटमेंट से बाहर जाना चाहा तो सब लोग दावेदार पर खड़े हो गए, मेरे पैर छूने लगे, मेरा तमाशा बनाने लगे।
पूरा दिन बीत गया। न पान न सिगरेट, न एक बूंद पानी, न अन्न का एक दाना......तमाम उम्र में इतना गहरा चकमा कभी न खाया था। बेशर्म जिंदगी में शर्म ने घूंघट उटाकर कभी हमको हमारे ही दिल में इस तरह पहले न देखा था।
स्टेशन आया, हमने देखा- मेरा बक्स और बिस्तर ही गायब। दिन-भर का भूखा, हर तरह से जलील किया गया.......इस वक्त मैं अपना आपा ही खो बैठा। मारपीट करने लगा, चीख-चीखकर गालियां देने लगा......लड़के और घेर-घेरकर मुझे हुश्काने लगे। बरात के दूसरे सम्भ्रांत लोग छिदम्मी सेठ को लेकर आगे बढ़ गए थे। प्लेटफार्म पर भीड़ लग गई। रेलवे पुलिस आ गई, पूछने लगी, क्या हुआ। एक लड़का चट से बोला, इसे भूत चढ़ गया है : सामाजिक न्याय तत्काल की शह दे उठा। लोग मिर्चों की घूनी देने की सोचने लगे।
किसी तरह हाथ-पैर जोड़कर जान छुड़ाई। अपनी दुर्दशा के अंत में मैं यह भी बतला दूं कि विवाह सेठ छिदम्मी का नहीं, वरन तीसरी के तीसरे बेटे का हुआ। मुझसे वैर चुकाने के साथ ही साथ मेरी दुर्दशा दिखाकर सेठ छिदम्मी को आतंकित करना उनके प्रोग्राम का एक सुनिश्चित कार्यक्रम था।
परन्तु मैं आपको विश्वास दिलाता हूं कि इनमें से एक भी चक्कर में मैं नहीं फंसा। घर-गिरस्ती में तो आज तक नहीं फंसा, बल्कि असलियत यह है कि घर-गिरस्ती ही मुझसे फंसकर अपना करम फोड़ चुकी है। बीवी और बाल-बच्चे नित्य नियम से आधा फाका कर मेरे नाम को रोते हैं, और मैं औरों की महफिलों में अपने हलुवे मांडे से तर रहता हूं। कर्ज में इसलिए नहीं फंसा कि तय कर चुका हूं कर्ज़ कभी अदा नहीं करूंगा। जो महाजन भी हमसे फंसा, उम्र-भर अदालत की गलियों में चक्कर काटता रह गया......कभी एक अधेला भी वसूल न कर सका। खांसी एक ऐसा आसान रोग है जो महज गले का खटका दबाते ही पैदा हो जाता है, इसलिए मैं अभी भी लोगों को अपने से दूर रखना चाहता हूं, खांस-खांस कर थायसिस का मरीज़ बन जाता हूं। और पत्नी की धारणा तो गंगा उठाके के कह सकता हूं कि एक निर्मूल है। मैं पहले ही अर्ज़ कर चुका हूं कि बदफेली और राजनीति की गुटबंदियों, ये दो ऐसे फंदे हैं जिनमें मैं दूसरों को फांसता हूं, खुद कभी नहीं फंसता। आप इसी से अनुमान लगा लीजिए कि दफा चार सो बीस का जुर्म करने वाले मुनाफाखोरों के युग में मैं या मेरे ऐसे आदमी समाज के लिए कितने उपयोगी होते हैं। ऐसा समाजोपयोगी जीव सदा एक प्रकार का दार्शनिक होता है.........निर्मम, निर्लिप्त, निरर्भिमानी। मैं भी ऐसा ही हूं, जल में कमल की तरह रहता हूं, कभी किसी दलदल में नहीं फंसा। मगर मसल मशहीर है कि ईश्वर किसी का गुमान नहीं रखता, सयाना कौआ भी कभी न कभी चिडीमार के फंदे में फंस ही जाता है। मैं भी फंस गया, और फंसा भी तो एक बरात में फंसा।
किस्सा यों है कि हमारे मुहल्ले के वयोवृद्ध सेठ छिदम्मीमल को अभी हाल ही में, होली से पांच-सात रोज़ पहले, अपने इक्यासी वर्ष के जीवन में पांचवीं बार विधुर होना पड़ा। सवा साल के अरसे में पंद्रह बरस की सेठानी जी साठ से लेकर बीस बरस तक की उम्र वाले आठ बच्चों की मां बनीं, दादी, परदादी, नानी, परनानी बनीं और भरे-पूरे कुनबे को छोड़कर भरा पूरा सुहाग लेकर संखियों के सहारे जग की वैतरिणी को पार कर गई। सेठ जी उसी समय सबके आगे अपना दुखड़ा रोकर कहने लगे कि हाय, किससे होली खेलूंगा, कैसे मेरा मन लगेगा।
सुनते है कि घर वाले उसी दिन में छिदम्मी सेठ को खुशामदियों और दलाल किस्म के आदमियों से बचाने लगे। इसका एक कारण है। जब तीसरी मरी तो छिदम्मी सेठ पिछत्तर पार कर चुके थे, उसके मरने के बाद ही माया-मोह से मन हटाकर अपने ठाकुरद्वार में कीर्तन भी करने लगे थे........कि.........तभी मेरे ही जैसे किसी समाजोपयोगी दार्शनिक ने उनकी नौजवान के मोहनजोदरों को उनके काल-जर्जर हृदय की स्मृतियों से उभारकर एक बार फिर विगत वैभव के उत्साह से भर दिया। नतीजा यह हुआ कि तब से पूरे-पूरे दो बरस भी न बीतने पाए कि यह दूसरी मरी। लूटने वाले हज़ारों रुपया इसी बहाने से लूट ले गए।
और अब तो छिदम्मी सेठ को चस्का पड़ गया है, उनके कृष्णरूप मन को होली खेलने के लिए...........न हो तो साथ बैठकर गुड़िया खेलने के लिए ही एक राधा चाहिए। अधेड़ पतोहुओं और पोतों की जवान-जवान बहुओं को पंद्रह बरस वाली सांसों और ददिया सांसों सो सख्त नफरत होती थी। अंत:पुर की राजनीति में पतंगे दैसी पुखरिन को लेकर आए दिन महाभारत होते थे। अविवाहित लड़के-लड़कियों के क्षेत्र में भी जलन, कुढ़न और मानसिक विकृतियों की नई-नई लीलाएं नित ही हुआ करती थीं। इसीलिए इस बार जब आठों के मेले दिन छिदम्मी सेठ अपनी सूतक में घुटी हुई खोपड़ी के ताज़े उगते हुए बालों पर खिजाब लगाकर, छकलिया, दुपलिया और चूड़ीदार पाजामे से लैस हो, झुकी कमर को जवानों की तरह तानते हुए पतली छडी़ लेकर बाहर जाने लगे तो पोते ने राह रोककर कहा, ‘‘बाबा, अब छकलिये-दुपलिये पर कोई नहीं रीझेगी, बुशर्ट और पतलून पहनकर बंदरियां बाग में घूमा करो। माशाअल्ला गबरू जवान हो.....सड़क पर रीझने वालियों की लाशें बिछ जाएंगी।’’
बाबा ने बुरा माना। उन घरवालों को कोसने लगे जो उनका सुख नहीं देख सकते थे। इस पर बहुओं के घूंघट से गोले बरसे। जवाबी हमले के तौर पर बाबा ने गंदी से गंदी गालियां बकना शुरू किया। यह धमकी भी दी कि अपनी जायदाद सिरी ठाकुर जी के नाम कर जाएंगे, घरवालों को रुलाकर छोड़ेगे।
पहली और दूसरी के बेटे तो अस्सी बरस में फटने वाले बाप की नई जवानी पर शर्म से गर्दन झुकाकर ही रह गए, मगर तीसरी के तीनों लाल को अपने भतीजों के साथ क्रांति के युग में पैदा हुए और पले हैं, हाकी की स्टिकें लेकर दरवाजे पर खड़े हो गए। गर्मा-गर्मी में उन्होंने छिदम्मी की छलकिया-दुपलिया के लत्ते-पलत्ते उड़ा दिए, दो-तीन क्रान्तिकारी तमाचे भी जड़ दिए, टांग तोड़ने की धमकी देने लगे। बड़े बेटे ने आकर बाप को बचाया।
ऐसे सुसंवाद मुहल्ले के मनोरंजन की सामग्री बनने से नहीं बचा करते। उसी रात को लाला इंदरमल कीर्तन में, बाबू राधेश्याम के चबूतरे पर, जग्गू बैद की बैठक में......जहां देखो, इसी की चर्चा चल निकली। एक मनचने ने गीत भी जोड़ लिया कि ‘‘बूढ़े बैल छिदम्मी लाल, कबर में ब्याह रचाने वाले।’’
खबर मेरे कानों तक भी पहुंची। मजाक सूझा, फिर लोभवृत्ति जागी। सोचा, फटे में पांव डालकर ज़रा हम भी अपने जी की निकाल लें। एक बार हिचक हुई; मैंने अपने समाजोपयोगी जीवन-दर्शन और कला का उपयोग अपने मुहल्ले में नहीं किया था। अब तक इसे सिद्धांत की तरह मानता आया हूं, मुहल्ले वाले निश्चिन्त भी हैं। मगर छिदम्मी सेठ की छदामों में मोहिनी थी। मेरा सिद्धान्त टूट गया।
दूसरे दिन छिदम्मी सेठ की हवेली पर पहुंचने से पता लगा कि मोर्चा तगड़ा है। तीसरी की तीनों बाहरवालों को तो क्या घर के नौकर-चाकरों तक को दे-देकर और उकसाती थीं। मिलने की मना सुनी तो और भी जी में ठान ली। अपने उर्वर मस्तिष्क का लखलखा सुंघाकर किसी तरह हम छिदम्मीमल के पास पहुंच ही गए।
सेठ छिदम्मी को दुखड़ा सुनाने के लिए एक आदमी मिला, अपनी फोश गालियों के कोश से चुन-चुनकर घरवालों के लिए रत्न लुटाने लगे। तीसरी के लाल फिर मारने को धाए। हमने बीच-बचाव किया, समझाया कि ‘‘भई, अपनी भुजा के बल पर पढ़े हैं; इतनी माया बटोरी है; जिन्दगी हकूमत और रोब-दाब से बिताई है। घर के बड़े हैं। इस उम्र में ऐसा व्यवहार कर इन्हें ओछा मत बनाओ।’’
‘‘ओछा तो यह आप ही बन रहा है खूसट। अपनी हविस के लिए दो लड़कियों की ज़िन्दगी मिटा चुका है, अब फिर तमाशा दिखाने चला है। हम इसकी हड्डी-पसली तोड़ डालेंगे........’’ एक लड़का बोला, दूसरा बोला, तीसरे ने जबान खोली.......सभी कुछ न कुछ कह चले। किसी ने गर्मी से बात की, किसी ने सिद्धान्त की चर्चा चलाई, कोई घरेलू दृष्टि से ऊंच-नीच की चर्चा समझने लगा, सेठ छिदम्मी अपनी अकड़ पर बार-बार सान चढ़ाने लगे। उन्हें सबसे ज्यादा इस बात पर क्रोध था कि जिन्हें पैदा किया, उन्होंने ही उसे घर में बंद रक्खा है। घर में कौवा-रोर मच रही थी। इंजानिब ने भी नारद की तरह सबके मीठे बनकर आग में घी डाला, छिदम्मी लाला का हौसला बढ़ाया। बड़े लड़के को समझाया कि इन्हें सबसे ज्यादा ताव इसी बात का है कि यह कैद किए गए हैं। जरा बाहर हो आएंगे, ठंडे हो जाएंगे, फिर ऊँच-नीच समझाकर बहला लीजिए। मैं भी इनके मन का बोझ हल्का करूंगा।
मुहल्ले की मुरव्वत में लड़के हमसे कुछ कह तो न सके, हालांकि मेरा बीच में पड़ना उन्हें खतरे से खाली नहीं लगता था........यह मैं उनके चेहरों पर पढ़ रहा था। मगर यह कि हम भी तो हम ही हैं, बड़े-बड़े इलेक्शन लड़ाकर कइयों के छक्के छुड़वाते हैं, हमने जीवन-भर राज-रजवाड़ों की रियासतें फुंकवाई हैं। बड़े-बड़े महाजनों को सोलह दूने आठ का पहाड़ा पढ़ाया है। अजी अपने लिए हमने अपने घरवालों तक को उजाड़ा है, फिर भला छिदम्मी के लड़के किस खेत की मूली थे। लाला को अपने साथ-साथ घर से निकाल लाया।
सेठ छिदम्मी को हमारे घर आए आध घंटा भी नहीं बीता था कि हवेली से बुलावे आने लगे। छिदम्मी भला क्यों जाते ? वे पहले ही से करेला हो रहे थे, और अब तो मेरी नीम भी चढ़ चुकी थी। सारा घर हार गया, छिदम्मी टस से मस न हुए। कहने लगे, अब तो तभी आऊंगा घर में, जब घरवाली साथ होगी। हम भी तन-मन-धन से सेठ छिदम्मी की मनोकामना पूरी करने में लग गए। तन-मन की सेवा में कुछ लगता नहीं था, धन की सेवा में जो लगता था, सेठ उसके प्रोनोट लिख देते थे।
मोहल्ले में प्रोनोटों की चर्चा फैलने लगी। हमारे खिलाफ मोर्चा शुरू हुआ। जब मैं बाहर निकलता, लोग बोलियां-ठोलियां मारते थे। मैं हंसकर निकल जाता था। आप तो जानते ही हैं, मैं दार्शनिक आदमी, अपने काम से काम रखता हूं मान-अपमान की परवाह नहीं करता। लड़की की तलाश जारी रही। मैं बाहर ही बाहर रहा था, शहर में तूफान होने का अंदेशा था।
एक लड़की मिल गई। छिदम्मी के एक सजातीय अनेक पुत्रियों के पिता जो अपनी गरीबी की आड़ लेकर दहेज देने के बजाय दहेज लेने में पटु थे, छिदम्मी की आयु का हिसाब लगाकर ब्लैकमार्केट का भाव मांगने लगे। मैंने भी समझ लिया कि यह बेटी का बाप मेरी परम्परा को एक समाजोपयोगी दार्शनिक है। दस में सौदा तय किया। छिदम्मी से पन्द्रह की दस्तावेज़ लिखाई।
ब्याह का दिन तय हुआ। चार बाराती- एक नाई, एक पुरोहित, एक पाधा और चौधा मैं घर में गौर-गनेश पूजकर दूल्हें के साथ रात के समय बाहर निकले तो देखा, छिदम्मी के आठों लड़के, पोते और मुहल्ले के चार-पांच धनी-धोरी दरवाजें पर खड़े हैं। उन्हें देखते ही मुझे सांप सूंघ गया।
सोचने लगा, इतनी गुप्त सूचना केवल मेरे ही किसी साहबजादे की मार्फत बिक सकती है। जो भी हो इस वक्त मैं ठगा-सा खड़ा रह गया। उधर छिदम्मी के बड़े मुन्नू ने बाप के कदमों पर टोपी रख दी, दूसरे भी हाथ जोड़कर खड़े गए। कहने लगे, ‘‘शादी करना ही है तो अपने घर से कीजिए, इस तरह हमारा मुंह काला न कीजिए। आप जो भी हुक्म करेंगे, हमारे सिर-माथे पर होगा।’’
आपुसदारों ने समझाया, सेठ छिदम्मी भी राजी हो गए। मुझे भी तब सच्चे दार्शनिक की भांति मुहल्लेवालों की बात का समर्थन करना पड़ा। तय हुआ कि बरात दूसरे दिन जाएगी, धूमधाम से जाएगी।
बड़े मुन्नू ने सबके सामने ही मुझे ब्याह का अगुआ बनाया और बाप छिदम्मी भी राजी न थे। उन्हें डर था कि कहीं घर जाकर यह सारे दिखावे के सब्जबाग समेट न लिए जाएं। मुहल्ले के एक दूसरे रईस लाला उन्हें यह कहकर ले गए कि मुहल्ले के नाते दूल्हें पर हमारा भी हक है।
दूसरे दिन बरात चली। बाजे-गाजे और धमधाम को देखकर सेठ छिदम्मी भी शरमा गए। घरों के छज्जे और दरवाजे औरतों से, गली-बाजार देखनेवालों से पटे हुए थे। सेठ छिदम्मी हमसे कहने लगे, ‘‘बड़े मुन्नू ने जो यह सब धूमधाम की है वह हमारी उमर को शोभा नहीं देती।’’
हमने कहा, ‘‘वाह, सेठ जी। अभी आपकी उमर ही क्या है?’’
सेठ फिर बहक में चढ़ गए। हंसकर बोले- लड़के भी यही कहते हैं।
छिदम्मी के लड़कों ने हर बात में मुझे ही अगुआ बनाना शुरू किया। बराती, नौकर-चाकर, नाई-बाम्हन, बाजे-गाजेवाले सब मेरे ताबे में कर दिए। बरात जब मोटरों पर बैठी तो नौशा को लेकर बड़े मुन्नू तो आगे निकल गए, बाजेवालों की विदाई मुझे ही देनी पड़ी। स्टेशन पर ड्राइवरों का इनाम-इकराम भी मुझे ही देना पड़ा। छिदम्मी के मुन्नू हर बार सामने से नदारत हो जाते थे। मैं परेशान, इस वक्त मेरे साथ जो चाल खेली जा रही है उसका मैं जवाब भी नहीं दे सकता। दूसरा कोई मौका होता तो ऐसे-ऐसे मुन्नुओं को हम उल्लू बना देते, मगर मैंने भी सोचा, शादी से छिदम्मी तो मेरे हाथ रहेगा ही, वसूल कर लूंगा। इसी विश्वास के साथ मैंने मुन्नू के आगे बढ़ने से पहले ही बरातियों के टिकट भी खरीद लिए। तब मुन्नी ने आगे बढ़कर कहा- क्या करूं, मैं तो खर्च दे देता, पर बाबू ने हमसे कहा है कि हिसाब-किताब सब आप ही के जिम्मे रहेगा, बाद में वह आप से समझ लेंगे।
मुझे नये सिरे से यकीन हो गया कि बुड्ढा अभी मेरे ही कब्जे में है। और छिदम्मी के लड़कों-पोतों के साथ पढ़ने वाले युनिवर्सिटी-कालेजों के लड़के इन्टर क्लास में बरात जा रहे थे। जिसे देखो वह मेरा ही मुंह देख रहा था। मैंने सामान चढ़वाया, सबके बैठने का इंतजाम किया, कुली-ठेले के पैसे चुकाए, जब ट्रेन चली तो नमो लच्छमीनारायण किया........मगर ट्रेन के चलते ही हमने देखा कि हमारा बड़प्पन बगैर किसी इत्तिला और नोटिस के बड़े मुन्नू के कब्जे में आ गया। उनके नौकर-चाकर पान सिगरेट-शरबत-सोडा का न टूटनेवाला क्रम साधने लगे। बरातियों ने मुन्नू को सलाह-सूत देना शुरू किया। मैंने देखा कि मुझे अब कोई बैठने तक को नहीं पूछता। लड़कों की टोली बात-बात में हमें कर्ताधर्ता जी के नाम से कभी पैर दबाने के लिए, कभी पीकदान उठाने के लिए, कभी मेरी हथेली को ऐशट्रे बनाने के लिए पुकारने लगी। पान तकसीम हुए, हम मुंह में रखने ही जा रहे थे कि लड़के ने झटककर छीन लिए। कहने लगा कि आप तो कर्ता-धर्ता हैं, क्या कीजिएगा खाकर ! इसी तरह शरबत का ग्लास छिना, सिगरेटें छिनीं। कहते शर्म आती है, मगर यह सच है कि मेरी सारी चतुराई फना हो गई, कोई हमारे हथकंडे बयान करने लगा, कोई हमारी राजनीति पोलें खोजने लगा, बाराती-घराती-सभी उस हंसी-मजाक का आनन्द लेने लगे। मैं करता भी तो क्या, उनकी हंसी को इस तरह सिर-माथे पर चढ़ाने लगा, गोया अपने ऊपर आप हंस लेने की आदत है। इतने में लड़कों ने एक नई नकल शुरू की। एक लड़का मेरा पार्ट करता हुआ अलग शान से बैठ गया, दूसरा लड़का सौ बरस की बुढ़िया बना। वह बुढ़िया कमर झुकाकर मेरे प्रतिरूप आकर बोली- सुना है, तुम बूढ़ों का ब्याह कराते हो। मेरा भी ब्याह करा दो। न हो तो अपने ही साथ कर लो। मेरे पास दो लाख रुपया है।
मेरी नकल करनेवाले ने ऐसा अभिनय किया, जैसे मेरी लार ही टपकने लगी हो। नकल देखकर सारे कम्पार्टमेंट का हंसते-हंसते बुरा हाल हो गया। बुढ़िया के चंचल कटाक्षपात, झुकी कमर के साथ उसका नाचना, पोपले मुंह से प्रेम के गीत गाना, और फिर जब मेरा और बुढ़िया के डुएड गाया गया तब तो लोगों ने आसमान ही सर पर उठा लिया। मैं पत्थर बनकर सब देखता रहा। इस वक्त हर तरह से बेबस था। मगर नकल के अन्त में जब यह दिखाया गया कि जिस दो लाख की लालच में हमने बुढ़िया से शादी की थी वह रुपये भी न मिले और न मेरे घर में सौतों का झगड़ा होने लगा, मेरी कानखिंचाई होने लगी.........तब मैं किसी तरह भी बर्दाश्त न कर पाया। गर्म हो उठा। सब लोग समझने लगे कि आप भी बड़े होकर बच्चों का बुरा मानते हैं। अजी, यह तो बरात है बरात।
खैर, यहां तक भी बर्दाश्त किया। मगर हद हो गई कि जब खाना आया तो यार लोग पत्तल उड़ा ले गए। दूसरी आई, वह भी छीन ले गए। मैंने एक स्टेशन पर उतरकर कर्म्पाटमेंट से बाहर जाना चाहा तो सब लोग दावेदार पर खड़े हो गए, मेरे पैर छूने लगे, मेरा तमाशा बनाने लगे।
पूरा दिन बीत गया। न पान न सिगरेट, न एक बूंद पानी, न अन्न का एक दाना......तमाम उम्र में इतना गहरा चकमा कभी न खाया था। बेशर्म जिंदगी में शर्म ने घूंघट उटाकर कभी हमको हमारे ही दिल में इस तरह पहले न देखा था।
स्टेशन आया, हमने देखा- मेरा बक्स और बिस्तर ही गायब। दिन-भर का भूखा, हर तरह से जलील किया गया.......इस वक्त मैं अपना आपा ही खो बैठा। मारपीट करने लगा, चीख-चीखकर गालियां देने लगा......लड़के और घेर-घेरकर मुझे हुश्काने लगे। बरात के दूसरे सम्भ्रांत लोग छिदम्मी सेठ को लेकर आगे बढ़ गए थे। प्लेटफार्म पर भीड़ लग गई। रेलवे पुलिस आ गई, पूछने लगी, क्या हुआ। एक लड़का चट से बोला, इसे भूत चढ़ गया है : सामाजिक न्याय तत्काल की शह दे उठा। लोग मिर्चों की घूनी देने की सोचने लगे।
किसी तरह हाथ-पैर जोड़कर जान छुड़ाई। अपनी दुर्दशा के अंत में मैं यह भी बतला दूं कि विवाह सेठ छिदम्मी का नहीं, वरन तीसरी के तीसरे बेटे का हुआ। मुझसे वैर चुकाने के साथ ही साथ मेरी दुर्दशा दिखाकर सेठ छिदम्मी को आतंकित करना उनके प्रोग्राम का एक सुनिश्चित कार्यक्रम था।
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