17 अगस्त, 2009

कवित्त - अमृतलाल नागर (हास्य-व्यंग्य)

जैहौं ग्राम गोकुले गोविन्द पद बन्दन को
मोहिं जलपान को सामान करवाय दे
सुकवि शिवराम सौंफ कासनी पछोरि फोरि
घोरिकै अफीम तीन तामैं मिलाय दे।
काली मिर्च कालकूट सिंघिया धतूर तोरि
संखिया सुफैद रंग डैल से डराय दे।
लाय दे करोर बोर केसर सो सरोबोरि
एती थोरी भांग मेरी झोरी भराय दे।

देख रहे हो भोलानाथ एक भगत ने तो सौ मन भंग का गोला छनाकर ही संतोष कर लिया था पर दूसरे को तो करोड़ बोरे भंग भी थोड़ी ही मालूम पड़ रही है, जिसमें संखिया, धतूरा, कालकूट और अफीम भी मिलाई गई है ऐसी गहरी पंचरत्नी को भी मात्र तुम्हारे जलपान का ही साधन बतलाया गया है। हद हो गई योगेश्वर, हद हो गई—भला एक बात तो बताओ, इतनी भांग पीकर तुम्हें हाई या लो ब्लडप्रेशर तो नहीं होता ? अजब हाल कर रखा है तुम्हारे भक्तों ने, एक ओर तो तुम्हें इतनी नशे की गर्मी देते हैं और दूसरी ओर लोटों पर लोटे और कलसों पर कलसे गंगाजल चढ़ाते हैं। इस मार्च के महीने यदि और किसी को इतना नहलाया जाए तो उसे डबल निमोनिया ही हो जाए। मगर आप तो भूतनाथ हैं, सर्दी-गर्मी सब एक समान ही अपने अंदर लय कर लेते हैं। आपके इसी विकट महादेवपन के कारण ही तो बड़े-बड़े कवियों ने आपके साथ बड़े-बड़े मजाक किए हैं। अरे संत शिरोमणि, गोस्वामी तुलसीदास जी तक आपकी ब्याह-बारात का रंगीला वर्णन करने से नहीं चूके। राष्ट्रीय आंदोलन के ज़माने में भी आपके भक्तों ने आपकी नशेबाजी की आदत का खूब मज़ाक उड़ाया है। उस ज़माने का किसी कवि का बनाया हुआ एक कवित्त मुझे याद आ गया— सुनियेगा भगवान्, सुनिए :

गांधी की न आज्ञा गांजा भांग आदि पीने की
भूतनाथ आप अब भंग न पिया करें
छोड़ें पुरानी अपनी अडबंगी चाल
जोरू के साथ बैठ न चकल्लस किया करें
छिड़ा है भारत में स्वतंत्रता का घोर युद्ध
भारतीय नाते भाग इसमें लिया करें
आप बनें लीडर गनेश वालंटियर बनें
कह दें उमा से जाके पिकेटिंग किया करें।।

यह सब हंसी-मजाक सिद्ध करता है कि जनता आपको बेहद चाहती है। आपकी श्रद्धा से सरोबोर होकर कोसों और मीलों से चली आ रही है—बम बम भोले। बम्भोले। हर हर महादेव।
लेकिन भोलेनाथ! एक बात सच्ची बताना। क्या तुम अपने इन बड़े-बड़े मन्दिरों में सचमुच विराजमान हो ? यहां तो तुम्हारे नाम पर तुम्हारे पण्डे-पुजारी तुम्हारे भक्तों को लूट रहे हैं। ये देखो, तुम्हारे मन्दिर के अंदर क्या मारा-मारी मची हुई है। तुम्हारे पुजारी लोग तुम्हारी अपढ़ भोले भक्तों के हाथों से झपाझप प्रसाद और पूजा-सामग्री छीन-छीनकर कोने में घरते जा रहे हैं। इन पुजारियों के चेहरों पर भक्ति-भावना की एक धुंधली-सी छाया भी नहीं पड़ी है। सूरत से ही ये लोग डाकू लग रहे हैं, डाकू। तुम्हारे इस मन्दिर में चांदी के किवाड़ हैं संगमरमर की फर्श है, चांदी का विशाल सर्प और सोने का छत्र है, बांस-बल्लियों की आड़ें लगी होने पर भी भक्तों की भीड़ तुम्हारे दर्शनों के लिए टूटी पड़ रही है—पर तुम यहाँ कहाँ हो भगवान्। कहीं दिखाई नहीं पड़ रहे हो, फूल, बेल-पत्र और धतूरे के फलों का एक पहाड़ तो अवश्य दिखलाई देता है—तो क्या इसी के नीचे तुम दबे हुए हो? तुम अपने भक्तों की अंध श्रद्धा से दबे हुए देवता? नहीं, तुम यहाँ हरगिज-हरगिज़ नहीं हो सकते। शिव ! तुमने तो सदा इन लुटेरे पण्डे-पुजारियों के कर्म-काण्ड का विरोध कर भक्तिरस की अमृत धारा प्रवाहित की है। अपनी मोटी दक्षिणा की लालच से इन पोपपंथी कठमुल्लों ने राजा-प्रजा का कीमती धन और समय यज्ञ पर यज्ञ करके स्वाहा करना शुरू किया, राष्ट्र को अंधा और अपंगु बना डाला तब तुमने भक्ति की महिमा बढ़ाई। तुमने उपदेश दिया कि जो व्यक्ति अपने घर से चलकर नित्य जितनी दूर गंगा-स्नान करने जाता है, जितने कदम चलता है, वह एक-एक कदम पर सौ-सौ वाजपेय यज्ञों का पुण्यफल पाता है। वाह रे त्रिलोचन भगवान् तुमने हजारों-लाखों रुपयों का घी-यव-घान्य आग में जलाकर दक्षिणा से मोटे बननेवालों के धर्म को निकम्मा सिद्ध कर दिया।

दक्षिण भारत के मीनाक्षी मंदिर की दीवार पर तुम्हारी ‘पुट्टू लीला’ के चित्र भी मैंने देखे हैं—कैसी सुन्दर कथा है ! एक बुढ़िया थी, बिचारी के कोई नहीं था, बड़ी गरीब थी, रोज़ चावल के पुट्टी बनाकर बेचती और तुम्हारा भोग लगाती थी। एक बार तमिलनाडु में अकाल पड़ा, बारह बरस, तक पानी न बरसा तो राजा ने हुकुम लगाया कि प्रजा के सब लोग मिलकर तालाब खोदें। धनी लोग मजदूरों को पैसे दे-देकर अपनी सेंती काम कराने लगे पर बिचारी बुढ़िया कहां से पैसे पाए, और उसके शरीर में उतनी शक्ति भी नहीं थी कि फावड़ा चला सके। बेचारी बुढ़िया दुखी थी। तुम्हारी पूजा करके वह कहने लगी कि हे महादेव बाबा, मेरे तो कोई बेटा नहीं, मेरी सेंती कौन काम करेगा। उसका ये कहना था कि तुम झटपट एक जवान मजदूर का भेष धरकर वहां आ पहुंचे और कहा कि मां, मैं तुम्हारा बेटा हूं। ये प्रसाद के पुट्टू तुम मुझे खिला दो तो मैं तुम्हारे बदले तालाब खोद आऊंगा। बुढ़िया बोली कि ये पुट्टू तो शिवजी को भोग लगाऊंगा। तुम्हें नहीं दे सकती। पर तुम भी ठहरे नटखट, तुमने कहा कि नहीं मैया, मैं तो यही पुट्टू खाऊंगा तब तालाब खोदने जाऊंगा। बुढ़िया बोला ‘‘मैं चाहे आप फावड़ा चला लूंगा पर ये शिवजी का भोग है सो उन्हें ही चढ़ाऊंगी।’’ फिर जैसे ही वह तुम्हारी मूर्ति पर पुट्टू चढ़ाने लगी वैसे ही वह पुट्टू उड़कर मजदूर के मुँह में चला गया और मजदूर यानी कि तुम हंसने लगे बुढ़िया चकित हो गई। तुम्हें पहचान कर वह जैसे ही तुम्हारे चरणों में गिरने लगी कि तुमने कहा:‘‘नहीं तुम मेरी मां हो।’’ और एक ही दिन में तुमने तालाब खोदकर पानी निकाल दिया। तुम गरीबों के भगवान् हो, असहायों के सहायक हो, दीनबंधु दीनानाथ हो। अपने भक्तों की तीखी बातें सुनकर भी तुम उन्हें निहालकर देते हो।

यहां मुझे आंध्र के कवि श्रीनाथ की कथा याद आ रही है। बेचारे एक जंगल से चले जा रहे थे, प्यास के मारे उनका गला चिटक रहा था, न तालाब न बावड़ी, न नदी न नाला=बेचारे बड़े ही दुखी थे। चलते-चलते उन्हें दूर पर एक कुआं दिखाई दिया। दौड़ते-हांफते वहां पहुंचे कि अब पानी पीने को मिलेगा, पर वहां पहुंचकर देखा तो कुआं आधा था। श्रीनाथ बेचारे दुखी हो गए। प्यास के मारे झुंझलाकर उन्होंने अपने इष्टदेव से, यानी कि तुमसे कहा कि हे शंकर जी, तुम एक बीवी गंगा जी को अपने सिर पर चढ़ाकर और दूसरी पार्वती जी को वामांग में बिठाकर भंग के नशे में बैठे-बैठे चकल्लस कर रहे हो और यहां तुम्हारे एक भक्त की प्यास के मारे जान निकली जा रही है। तुमको लज्जा नहीं आती ? भक्त की फटकार सुनकर तुमने तुरन्त ही गंगा जी को उस अंधेकुएं में उतार दिया और प्यासे कवि श्रीनाथ की जान बचाई। यानी कथा का अर्थ ये है कि सच्चा भाव होता है वहां कर्म भी होता है और जहां भाव है, कर्म है, वहां ज्ञानगंगा भी आप ही आप प्रवाहित होने लगती है।
हे त्रिनेत्र, तुम ज्ञान देते हो, भक्ति देते हो, शक्ति देते हो। तुम्हारा यही रूप मंगलकारी है, मैं तुम्हारे इसी रुप को भजता हूं। जय भोले।
भोले बम्भोले।
भोलेनाथ, क्या मरज़ी है तुम्हारी ? होली के दिन नगिचियाए हैं आजकल तो डबल गहरी छनती होगी मेरे गुरु, गुरुओं के गुरु। मगर एक बात कहें ? कहोगे कि गुरु से छेड़खानी करता है, भारतीय संस्कृति के खिलाफ काम करता है। नहीं-नहीं, विश्वंभर, सो बात नहीं। अपने यहां के भक्ति दर्शन की यही तो महिमा है

पितु मातु सहायक स्वामि सखा
तुम ही इक नाथ हमारे हो

-सो तुम गुरु भी हो, यार भी हो। इस बखत हमारा तुमसे यारी बरतने का मूड है, सो यारी बरतेंगे और इस बहाने तुम्हारे हित में कुछ खरी-खरी सुनावेंगे। हम पूछते हैं भोले, महंगाई कितनी बढ़ गई है कुछ इसकी भी खबर रखते हो कि सदा अलमस्त ही बने रहते हो। भगवती से पूछे भला कि तुम समान अलमस्त का खर्चा कैसे चलाती होंगी। ये तो कहो कि कार्तिकेय और गणेश अपने-अपने काम-धन्धे से लगे हैं। नहीं तो गुरु, ये तुम्हारा सारा नाच-हुड़दंग कब का खत्म हो जाता। हम पूछते हैं गुरु जी, इतना बढ़िया नाचते हो कि ‘नटराज’, आदि नट, कहलाते हो, एक बढ़िया-सी कम्पनी खोल के दुनिया-भर में अपना डांस ट्रुप क्यों नहीं घुमाते ? तुम्हारी नकलें उतार-उतार कर नर्तक लोग लखपती बन गए और तुम भिखारी के भिखारी ही रहे। भोलानाथ, तनिक कल्पना तो करो कि ठाठ से सूट-बूट पहने हो, गले में सर्प डोल रहा है, हाथ में सिगरेट का टिन है, चेहरे पर लापरवाही और खोएपन की अदा है, कपाल पर तीसरा नेत्र और सिर के जटाजूट में गंगा जी मानिन्द फव्वारे के मद्धिम-मद्धिम पिक्टोरियल एफेक्ट मार रही हैं। भूतनाथ, इस छवि को देखते ही सारी दुनियों तुम्हारे पीछे भूत बनी डोलेगी। जहां जाओगे फोटोग्राफरों का हुजूम पीछे जाएगा। आटोग्राफ देते-देते तुम्हारा हाथ मशीन हो जाएगा। बड़े-बड़े राजमहलों में दावतें उड़ाना, मज़ें से भारतीय संस्कृति पर लेक्चर देना और फिर ठाठ से एक महल बनवाकर रहना बैल छोड़ मोटर, हवाई जहाज़ पर सावारी करना चेला होने के नाते मै भी तुम्हारी कम्पनी का मैनेजर हो जाऊंगा मेरे भी ठाठ हो जाएंगे।
क्या कहा ? आइडिया पसन्द नहीं आया। कहते हो यों ही गुज़री है, यों ही गुजरेगी, हां, एक तरह से तो ठीक ही कहते हो नटराज ! जब तुम्हारे भक्त तक इतने अल्पसन्तोषी हैं कि पुकार-पुकारकर कहते हैं :

चना चबेना गंगजल जो पुरवै करतार।
काशी कबहूं न छोड़िए विश्वनाथ दरबार।।

जब भक्त ही कहीं नहीं जाना चाहते तो तुम अपने भक्तों को छोड़कर भला कहां जाओगे ?
मगर भोले, आज के समय में ये अल्पसन्तोष की फिलासफी ठीक नहीं।

किम दातेन धनेन वाजि करिभिः
प्राप्तेन राज्येन किम।
किंवा पुत्र कलत्र मित्र पशुभिर्देहेन गेहेन किम
ज्ञात्वेतत्क्षणभंगुर सपदिरे त्याज्यम् मनोदूरतः
स्वात्मार्थम् गुरु वाक्यसो भज-भज श्री पार्वती बल्लभम्।।

अच्छा गुरु नाथ, हमारी एक शंका का समाधान करो। ये तो तुम जानते ही हो कि आज हम साफ-साफ कहने –सुनने के मूड में ही बैठे हैं।—हम पूछते हैं भोले—यह मान लिया कि शरीर क्षणभंगुर है—माटी में से आया बन्दे माटी में मिल जाना है—बिलकुल ठीक है। फिर ये माया-मोह कि राजसुख पा लूं और मान-सम्मान पा लूं, दिग्विजय कर लूं, मामले-मुकदमें लड़ लूं, ये मेरा है, ये तेरा है—ये सब व्यर्थ है—आदमी को नित् ब्रह्म मुहूर्त में उठकर माला हाथ में लेकर ओम् नमो शिवाय ही जपते रहना चाहिए। वाह, क्या बात है, अगर ऐसा ही जीवन होता तो फिर कहना ही क्या था। मगर उसमें दो भारी अड़चनें हैं—एक तो पेट और दूसरे विवाह की समस्या। तुम कहोगे, क्या भौतिक बातें कहता हूं, अध्यात्म में क्यों नहीं मन रमता। पर तुम्हारे भगत लोग कह गए हैं गुरु कि :

भूखे भजन न होहिं गुपाला,
यहि लेओ कण्ठी यहि लेओ माला।।

यह पेट का कुत्ता नहीं मानता। इसको भरने के लिए माला को खूंटी पर टांगना ही पड़ेगा। अच्छा टांग दी, अब क्या करें ? चोरी करें, झूठे धर्म और तुम्हारी झूठी महिमा को बखान-बखानकर भोली-भाली श्रद्धामयी जनता को ठगें या मेहनत-मज़ूरी करें, सच्चा काम करें।
क्या कहा ? काम करना चाहिए। सच्ची मेहनत की रोटी खानी चाहिए। ठीक है, तो अपने कथावाचकों और पोप गुरुओं की बेतुकी जबानों पर ताला लगा दो प्रभु, जो दिन रात इस मूलभूत पेट से संचालित दुनिया को मिथ्या बताते हैं। तुम्हारे भक्त थे कलाकार, शिल्पी, इंजीनियर और मज़दूर, जिन्होंने एलोरा में ऊंचे पहाड़ को मोम की तरह काट-मोड़कर तुम्हारा अद्भुत कैलास गुफा मन्दिर बनाया है। भोलेनाथ, तुम्हारे हिमाच्छादित श्वेत कैलास पर्वत की शोभा अनन्त है, दिव्य है, यह माना, पर तुम्हारे भक्तों का—मनुष्यों का बनाया हुआ एलोरा का कैलास मन्दिर भी अपूर्व है, इंच-भर पत्थर का टुकड़ा भी बाहर से लाकर नहीं जोड़ा—एक ही पहाड़ में से अर्ध चन्द्राकार में दो मंजिला इमारत बनाई, उनमें मण्डप बनाए, आले खंभे और उनमें मूर्तियां उकेरीं, बीचो-बीच मुख्य मन्दिर बनाया—कमाल किया है। हमारे पुरखे, तुम्हारे भगत, ऐसे गहरे छनन्ता थे कि पहाड़ को ही नशीली लहर भरी परम स्वादिष्ट ठंडाई बनाकर पी गए और सदियों के लिए प्रेरणा का नशा छोड़ गए। और उसमें चकल्लस भी है। वह अद्भुत मंदिर बनानेवाले अपनी श्रद्धा विनय की छाप भी छोड़ गए हैं।

रावण को लेकर तुम्हारी वह कथा जो प्रसिद्ध है न कि एक बार रावण को अपनी शक्ति पर इतना गर्व हुआ कि उसने अपने गुरु अर्थात् तुम्हारा कैलास पर्वत उखाड़ कर अपने हाथों पर उठा लिया। तुम उस समय पार्वती जी के साथ बैठे चौपड़ खेल रहे थे। कैलास पर्वत हिला तो डरकर पार्वती जी तुमसे लिपट गईं। तुमने ध्यान लगाकर कारण समझ लिया और अपना एक हल्का–सा अंगूठे का भार पर्वत पर डाल दिया। पर्वत फिर अपनी जगह बैठ गया। अहंकारी रावण के हाथ दब गए। अलोरा के कैलास मंदिर में इस कथा की भावमूर्ति दो-तीन जगह बनाई गई है मानो बनाने वाले तुमसे कहते हैं कि हमने कला की शक्ति दिखलाई है। हमने भी बीसियों नहीं बल्कि हज़ारों हाथों से नया कैलास उठाया है, पर वे परमगुरु, हम रावण की तरह अहंकार नहीं प्रदर्शित करते। क्या कहूं, गुरु, तुम्हारे अलोरा वाले मंदिर के उदात्त दर्शन ने मुझे मोह लिया है और तुम्हारे पोप कहते हैं कि माया–मोह छोड़ो। तुम्हारी श्रद्धा में कितना दिव्य शिल्प विकसित हुआ है इस देश में, अमरनाथ कश्मीर से लेकर धुर दक्षिण भारत तक, सोमनाथ, गुजरात से लेकर कटक-उड़ीसा-आसाम तक, नेपाल तक, शिव के रूप में कला की ही महिमा विराजमान है—भोले, पूरा ‘इमोशनल इण्टीग्रेशन’ अर्थात् भावनात्मक एकता का जाल फैला रखा है तुमने, तुम्हारे नाम पर कितना कर्म हुआ है महादेव ! यह कर्म क्या मिथ्या है ? अलोरा, एलिफेन्टा, चिदम्बरम्, तंजौर, रामेश्वरम्, खजुराहो, आदि में मनुष्य की कितनी मेहनत, सूझबूझ, सामर्थ्य और ज्ञान-भक्ति-साधना रमी है और सबसे बढ़कर कितनी दृढ़ संकल्प है— शिव–संकल्प, यह भी तो देखो भोले!

आज हमें उसी शिव-संकल्प की फिर से आवश्यकता है। हमारा वैदिक पुरखा जब अपनी महान् संस्कृति को नया ही नया ढाल रहा था तब उसने शिव-संकल्प का महत्त्व समझा था। सबसे अच्छा धर्म है अपने मन को ऊंचा उठाओ, अपने मन को कल्याणकारी इच्छाओं से भरो। ओम कतो स्मर कृते स्मर, आदि-आदि। अर्थात् संकल्प को याद करो, फिर कर्म को याद करो। कितना सोचा था कि कितना पाया यह याद करो। वाह-वाह, कैसा अनूठा सत्य हमारे पुरखे दे गए। अब गुरु तुम्हारे पोप कठमुल्ले इसी शिव-संकल्प को यों समझते हैं कि जजमान कितना दान देने का संकल्प बोला था, कित्ता दिया ? कितने ब्राह्मण जिमाने थे....कितने जिमाए, दक्षिणा कितनी सोची थी, यज्ञ कितने सोचे थे कितने किए ? धत्तेरे की, यानी तुम्हारे भोले। ये महा झूठा, महा निकम्मा, धर्म है। वेदव्यास महाराज ने धर्म की जो व्याख्या की है, वही सच्ची है :

नमो धर्माय महते धर्मों घारयति प्रजाः।
यत् स्यात् धारणसंयुक्तम् सधर्म इत्युदाहृतः।।

यानी उस महान धर्म को प्रणाम है जो सब मनुष्यों को धारण करता है। सबको धारण करने वाले जो नियम हैं, वे धर्म हैं। अब बोलो भोले, ये ऊंच-नीच, जात-पात कहां गई ? ये बन्धन तो सबको एक में नहीं बांध पाते ? क्यों इसे मानना धर्म है। नहीं, हरगिज़ नहीं, कदापि नहीं। तब फिर बोले, शिव-संकल्प भी ऐसा ही होना चाहिए जो मानव-मात्र के लिए कल्याण कारी हो, यानी पेट भरने के लिए काम करना है और काम करने के लिए करना है शिव-संकल्प। शिव-संकल्प वही है जो मानव-मात्र के लिए कल्याणकारी हो। यानी अपना पेट इस प्रकार भरो कि दूसरे के पेट पर तुम्हारी लात न पड़े। तुम कहोगे कि मेरे पंडो-पुजारियों की निंदा करके मैं स्वयं ही अपने पेट पर लातें मार रहा हूं। अच्छा गुरू, अगर इनको बख्शू तो चोर, डाकू, काले बाज़ारिए आदि सभी गुण्डों को बख्शना पड़ेगा। क्या वह उचित होगी ? नहीं।

यही स्वार्थी लोग ही तो झूठे धर्म-प्रचारक हैं। अपना पेट भरने के लिए ध्वंशसात्मक कार्य करते हैं। वह सब कुछ अब अवश्य ही मायाजाल है, मिथ्या है, परन्तु पेट तो फिर भी सत्य है। पेट है तो नाना प्रकार के रचनात्मक काम भी हैं। और इधर जब औरत-मर्द दुनिया में हैं तो उनका ब्याह भी होगा, बच्चे भी होंगे—पुत्र, कलत्र, मित्र, देह, गेह, सभी कुछ होगा। इसमें कुछ भी मिथ्या नहीं है —तो क्या गुरू वाक्य झूठा है— पेट और बच्चे-बच्चों में ही फंसे रहे ? नहीं, जो गृहस्थ अपना और सबका भला साध कर चलता है और अपने हर काम में तुमको भजता है तुम उसकी आत्मा हो, उसकी मति तुम्हारी गिरिजा है, उसके प्राण तुम्हारे सहचर हैं और उसका शरीर ही तुम्हारा घर है। वह जो कुछ कामकाज की बातें बोलता रहता है वे तुम्हारी ही स्तुति हैं। जितना चलता है तुम्हारी प्रदक्षिणा करता है, यानी दिन-रात जो कुछ भी करता है वह तुम्हारी आराधना है। हां भोले, झूठी माला फेरने से सबको मंगल चाहनेवाली मेहनत-मशक्कत भरी आराधना ही सच्ची है अब तुम कोरी आस्मानी कल्पना मात्र नहीं हो योगेश्वर भूतभावन ! तुम साक्षात् इस भौतिक जगत में हो, मनुष्यमात्र, जीवमात्र शिव है ॐ नमो शिवाय। जय भोले। जय बम्भोले।
कहो गुरू, होली कैसी रही ? जगदम्बा ने तुम्हारे श्रीमुख पर होली के हुड़दंग में जूते की लाल-काली पालिशें तो नहीं मली थीं—क्योंकि आजकल मियां-बीवी में होली खेलने का यही लेटेस्ट फैशन हो गया है। मियां-बीवी रंगो से नहीं, बल्कि जूते की पालिखों से होली खेलते हैं। और गुरू ये बतलाओ, तुम्हारे भगत ने तुम्हें तुम्हारी मर्ज़ी के खिलाफ रंग कर फिर मार-पीट तो नहीं की ?
आजकल ये सब भी होने लगा है गुरूजी। अभी परसों ही एक नवयुवक सवेरे-सवेरे किसी से मिलने जा रहा था। शायद अपनी चाकरी के सम्बन्ध में ही जा रहा होगा। होली के हुड़दंगिए उसके बगुले के परों-से सफेद कपड़े रंगने के लिए झपटे, बेचारे ने प्रार्थना की—कहा कि अभी न रंगो, एक तो कपड़े नये हैं दूसरे, काम से जा रहे हैं। लौटने पर जी चाहे तो रंग डाल लेना। मगर हुड़दंगिए कहां मानते हैं। उनका समझ से क्या सरोकार ! बेचारे को रंग डाला। इस पर वह युवक नाराज़ हो गया, शायद गाली-वाली भी दी। बस, फिर तो हुड़दंगियों ने उसे रिक्शे से उतार बुरी तर पिचकारी-पिचकारियों ही पीटा। इस पर भी उन्हें सन्तोष न हुआ तो तैश में आकर युवक के पेट में छूरा भोंक दिया; बेचारे के साथ खून की होली खेल डाली। और ये सब हुड़दगिए गुरू, तुम्हारे भक्त हैं, ब्रह्मा, विष्णु, महेश पूजते हैं, हर एक को नास्तिक कहते फिरते हैं—और तिसपर भी ये हाल है उनका। इसीलिए तो हमको तुम्हारी चिन्ता हुई भोलानाथ। क्या मज़े की बात ही भगवान् कि तुम्हारे पास तो तीन-तीन आंखे हैं और तुम्हारे भक्तों के पास एक कानी आंख भी नहीं बची। ये शिवभक्त भारत देश इस समय उचित-अनुचित कुछ भी नहीं देख पा रहा है। बस अपने-अपने गुमान में फूले चले जाते हैं हमारे लोग।
आज चारों ओर अहंकार का बड़ा जोर है। जिसे देखो वही शान से ललकार रहा है कि हटो, बचो, हम चौड़े है और बाजार सकरा है, इसलिए पहले हमको आगे निकलने दो। हर तरफ शोर है—पहले हम, पहले हम, पहले हम— अच्छा देवेश्वर, लखनवी तकल्लुफ की ‘पहले आप’ ‘पहले आप’ वाली मज़ाक तो आपने अवश्य सुना होगा। तो बोलिए कि क्या कहूं— पहले हम, कि ‘पहले आप’ ?—चुप्पी साध गए प्रभु ? जवाब न दिया ? अच्छा, हमारी ओर कनपटी निहारकर अब ये मर्म मुस्कान का तीर साध रहे हो भोले ? जान गाए कि मैं तुम्हारे साथ ठग विद्या कर रहा हूं। हः-हः—गुरु, तुमसे पार नहीं पा सकता, तुम नीर-क्षीर विवेक करके सत्य को परख लेते हो। और हम?—अब छिपा तो सकते नहीं तुमसे, इसलिए अपने अहंकार को कहलाने के लिए सच ही बोले देते हैं। पर सीधे-सीधे नहीं कहेंगे देव, तुम्हें एक कविता सुनाएंगे, उसके बहाने जो चाहो तो समझ लेना। श्री विश्वनाथ प्रसाद की एक पुरानी कविता है भोलानाथ, मेरी बड़ी पुरानी नोटबुक में लिखी थी आज वही तुम्हें सुनाए देता हूं। सुनो महादेव :

रचना में महा मधु घोल कहीं, तृण से लघु को भी सराहते हैं
रच नाटक भावुकता का कहीं, हम प्रीति की रीति निबाहते हैं
जिसमें कुछ भी न गंभीरता है, उसको गुण से अवगाहते हैं
जग को ठग के अब भोला ! सुनो, तुमको ठगना चाहते हैं।

यानी अकड़न्चू में जिसको चाहा, मनमाना तंग किया और जब उसने आपत्ति की तो नाराज होकर छुरा मार दिया। फिर जब पकड़े गए तो दनादन तुम्हारी खुशामद में लगे कि हे शिव जी, तुम्हें प्रसाद चढ़ाएंगे, कानून के पंजे से हमें मुक्ति दिला दो। हे भगवान, हमें फांसी के फंदे से बचा लो। हे भगवान्, इस समय मेरे प्राण संकट में ही। तुम्हारे घिनौने घिनौने तिनके समान तुच्छ किसी भगत-पुजारी के कहो कतो सौ बार पैर छू लूंगा, जहां कहो नाक रगड़ आऊंगा—और जब छूट जाऊंगा तो फिर उसी तरह अकन्चू दिखाऊंगा—अपनी अकड़ में मैं तुम्हारे ऊपर यह अहसान भी कर दूंगा कि तुम्हारा एक नया शिवाला बनवा दूंगा—न अपने पैसे के बल पर, बल्कि चंदे के बल पर ही सही—कहो गुरू, तुम्हें ठग लिया कि नहीं? हःहःहः ! ये भी मेरे अहंकार का ही एक रूप था—यानी कवि के शब्दों में—‘रच नाटक भावुकता का कहीं हम प्रीति की रीति निबाहते हैं।’ ये अपने झूठे मंदिर तोड़ डालो बोला। हमारी इस ठग विद्या का अंत करो डालो। ये अहंकार तो ठीक नहीं। लेकिन भोले, यहीं पर हमारी शंका भी निवारण कर दो। सारे धर्मशास्त्र चिल्ला-चिल्लाकर कहते हैं कि अहंकार बुरा है, बुरा है। पर अहंकार तो सब प्राणियों में है। और अहंकार भलाई-बुराई दोनों की जड़ है। यानी एक तरफ तो इतना बड़ा है कि ‘शिवोऽहं’ ‘शिवोऽहं’ की रट लगाई जाती है और दूसरी ओर भी इतना बड़ा है कि हम—बस हमी-हम की गुहार मचाई जाती है। इसमें सच क्या है ? क्या कहा ? आत्मबोध का वह श्लोक पढ़ने को कहते हो जिसमें तुमने कहा है कि—ब्रह्मादि कीट पर्यन्ताः प्राणिनो मयि कल्पिताः। यानी कि मामूली कीट-पतंगों से लेकर ब्रह्मा तक सारे जीवधारी तुम्हारे परम अहं के अदंर कल्पित हैं लेकिन ये तुम्हारा अहम् नहीं है—जैसे समुद्र के ऊपर लहरें और बुदबुदे शान से फूलते इठलाते हैं फपर उनसे समुद्र का गंभीर रूप प्रकट नहीं होता इसी तरह मनुष्य के क्षुद्र अहंभाव में उसके अहम् का गंभीर रूप भी परिलक्षित नहीं होता उसे देखने के लिए तो समुद्र की गहराई में पैठना पड़ता है। ठीक है प्रभु—तुम्हारी बात मानता हूं। आजकल करीब-करीब हर जिले में एकाध ऐसे अवतार अवश्य प्रकट हो गए हैं जो डंके की चोट पर शिवोऽहं, शिवोऽहं कहते हैं। सौ-पचास चेले-चांटियों की गुण्डा पार्टी तैयार कर ली, भगवा रंग लिया। भंग छानने लगी, गांजे-सुल्फे के दम लगने लगे और भगतों को उपदेश यह दिया कि ये आजकल की नई विचारधारा के नास्तिक भंगी, चमारों-शूद्रो को सिर पर चढ़ा रहे हैं। उनको मारो, ये पापी हैं, अधर्मी हैं। अभी-अभी तुमको इष्टदेव के रूप में पूजनेवाली एक ब्राह्मण जाति का एक जातीय अखबार पढ़ रहा था। उसमें एक ने लिखा है कि छुआछूत, ऊंच-नीच, जांत-पांत को अब नहीं मानना चाहिए— दूसने ने इस पर लिखा है कि छुआछूत, जांत-पांत ऊंच-नीच को मानना चाहिए क्योंकि यही धर्म है। ये जितने जातीय अखबार हैं, सब अपनी-अपनी जातियों को पुराने तंग दायरों में बन्द करना चाहते हैं। नये ज़माने का स्वर हर छोटी-बड़ी जाति में फूट पड़ा है, उसे दबाते तो नहीं बनता पर दबाने की कोशिशें खूब की जाती हैं। नमूने देखोगे गुरु ! देखो !! तुम्हारे विश्वनाथ मंदिर में हरिजनों को जब तुम्हारे कठमुल्लों के विरोध के बावजूद दर्शन करने का अधिकार मिल गया तब एक संन्यासी ने तुम्हारे सेठ भक्तों के चंदे से एक नया विश्वनाथ मंदिर बनाया और कहा कि वो विश्वनाथ तो अब गंदी जगह का पत्थर हो गए, इन नये विश्वनाथ को पूजो,। ये तुम्हारे ‘शिवोऽहम मार्का’ भक्त हैं। देखी इनकी लीला, जब इनका गरब-गुमान तुमने खंडित कर दिया तो इन्होंने तुमको ही नष् तने कता प्रयत्न किया। और जब शिवोऽहं जपते हैं तो विश्वभर में जितने ‘हम-हम’ बोलने वाले प्राणी हैं सभी में शिव-शिव-शिव ही दिखलाई पड़ता है। विश्वनाथ यदि सचमुच ही परमेश्वर हो तो ब्राह्मण-हरिजन दोनों ही काटे-तोल एक समान हैं— सभी को शिवोऽहं करने का अधिकार है। जब शिव सबमें हैं तो कैसी ऊंच-नीच, कैसी जात-पांत। अब जात-पांत का मज़ा भी देखो प्रभू ! शायद तुमने अखबारों में पढ़ा भी हो कि हाल में चुनाव में एक ब्राह्मण देवता एक हरिजन उम्मीदवार को अपने किसी स्वार्थवश वोट देने को मजबूर हुए। वोट डालने गए तो गंगाजल साथ लेते गए। हरिजन को वोट डालकर उन्होंने अपने ऊपर गंगाजल छिड़का। ये ‘बांभन’ का धरम देखा गुरू ! इस बंभने के ऊपर तुम गंगाजी से कहके मान-हानि मुकदमा चलवाओं बोले। इसने गंगाजी का बड़ा अपमान किया है। हे देव, तुम्हारे उल्टे पैरों वाले भूतों से मुझे तनिक भी डर नहीं लगता, पर तुम्हारे इन उल्टी मति वाले भूत-पिशाचों से बड़ी घृणा होती है। इनको अबकी कुम्भ में भरके, ऊपर से कपड़ा बांधकर गंगा जी में तैरा दो प्रभु। संन्यासी पंडित पोंगापंथी महामिथ्या अहंकारी सब रावण के वंश वाले हैं। ये तमाम जातीय संगठन राक्षसों के सक्रेटेरियट हैं। इन सबको अपने गांजे-सुल्फे की लपक में भस्म कर डालो प्रभु। ये पाप के घड़े हैं— इनमें घट-घट व्यापी राम नहीं समाता। ये शिवोऽहं कहने के अधिकारी नहीं। शिवोऽहं—जय बम्भोले।

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