अंग्रेजी के सर्टिफिकेट बटोरना और फिर चर्चा कर शेखी बधारना अंग्रेजी पढ़े लिखे वर्ग अर्थात् बाबू वर्ग की चलती-फिरती विशेषता बन गई। अंग्रेज हाकिम को नौकरी के लिए अर्जी देते समय हिन्दुस्तानी अदबो-आदाब के बड़े-बड़े अजीबों-गरीब उल्थे किए जाते थे।
अति आदरणीय हुज़ूर,
बडे़ विश्वस्त सूत्र से यह जानकर कि आपके बडें काइंड कंट्रोल में एक क्लर्क की जगह खाली हुई है, मैं बड़ी आज़िजी के साथ, दस्तवस्ता, हुजूर की खिदमत में यह अर्जी लगाता हूं।
मेरी योग्यता के बारे में मोस्ट हम्बली निवेदन है कि मैं बहुत ही रिस्पेक्टेबिल फेमिली का हूं तथा मेरे पुरखे भी सदा से इंग्लैण्ड की क्वीन मलका विक्टोरिया तथा अंग्रेज के लायल रहे हैं।
मैं भी हुजूर को यह आश्वासन दिलाता हूं कि हुजूर को हर मौके पर अपनी लायल्टी से संतुष्ट रखूंगा।
मैं दर्जा....(4-5 क्लाइमेक्स मिडिल तक) अंग्रेजी पढ़ा हूं तथा देव नागरी और फारसी (दोनों या किसी एक) का अच्छा अभ्यास है।
मेरे आदरणीय हुज़ूर, यदि इस मोस्ट हम्बुल एंड लायल सर्वेन्ट को अपने संरक्षण में लेंगे तो मैं हुज़ूर को पूर्ण संतोष प्रदान करने के हेतु कोई पत्थर बगैर उल्टाए न रहूंगा (शैल लीव नो स्टोन अनटर्न्ड)। हुजूर की दीर्घ आयु और उन्नति के लिए हुज़ूर की मेम साहब और बाबा लोगों की उन्नति के लिए जब तक जिऊंगा, गाड़ आलमाइटी से नित्य दुआ मांगा करूंगा और मेरे बाद मेरे बच्चे भी यही दुआ करते रहेंगे और हुज़ूर का यश जब तक सूरज और चांद रहेंगे- (यावत चन्द्र दिवाकरौ) सारी दुनिया में कायम रहेगा।
मेरी योग्यता के बारे में मोस्ट हम्बली निवेदन है कि मैं बहुत ही रिस्पेक्टेबिल फेमिली का हूं तथा मेरे पुरखे भी सदा से इंग्लैण्ड की क्वीन मलका विक्टोरिया तथा अंग्रेज के लायल रहे हैं।
मैं भी हुजूर को यह आश्वासन दिलाता हूं कि हुजूर को हर मौके पर अपनी लायल्टी से संतुष्ट रखूंगा।
मैं दर्जा....(4-5 क्लाइमेक्स मिडिल तक) अंग्रेजी पढ़ा हूं तथा देव नागरी और फारसी (दोनों या किसी एक) का अच्छा अभ्यास है।
मेरे आदरणीय हुज़ूर, यदि इस मोस्ट हम्बुल एंड लायल सर्वेन्ट को अपने संरक्षण में लेंगे तो मैं हुज़ूर को पूर्ण संतोष प्रदान करने के हेतु कोई पत्थर बगैर उल्टाए न रहूंगा (शैल लीव नो स्टोन अनटर्न्ड)। हुजूर की दीर्घ आयु और उन्नति के लिए हुज़ूर की मेम साहब और बाबा लोगों की उन्नति के लिए जब तक जिऊंगा, गाड़ आलमाइटी से नित्य दुआ मांगा करूंगा और मेरे बाद मेरे बच्चे भी यही दुआ करते रहेंगे और हुज़ूर का यश जब तक सूरज और चांद रहेंगे- (यावत चन्द्र दिवाकरौ) सारी दुनिया में कायम रहेगा।
मैं हूं हुज़ूर का मोस्ट
हम्बुल सर्वेन्ट
(दासानुदास का अंग्रेजी अनुवाद)
हम्बुल सर्वेन्ट
(दासानुदास का अंग्रेजी अनुवाद)
अंग्रेजी भाषाविद्, हुज़ूर के इस दासानुदास ने पगड़ी उतारकर फेल्ट टोपी पहनी और लम्बा कालरदार कोट वास्कट और नेकटाई-पतलून डाटकर उसे अपने-आपको अंग्रेजों से भी अधिक विलायती मानना आरम्भ कर दिया।
एक ऐसी लहर चली कि जिसमें अंग्रेजी पढ़े-लिखे बाबू को हर हिन्दुस्तानी चीज़ से नफरत हो गई थी। अपने अंग्रेज हाकिमों तथा पादरियों के समान ही ये पढ़े-लिखे बाबू भी वेदों को जंगलियों की गीतों की किताब कहने लगे थे। उन्हें हिन्दुस्तानी भोजन से अरुचि होने लगी थी; डबल रोटी और मांस-मदिरा तथा धूम्र-पान उस समय बाबुओं के लिए एक बड़ी क्रान्तिकारी एवं आवश्यक वस्तु हो गई थी। गांधी जी की आत्मकथा में उनके मांसाहार वाले प्रसंग में उनके मित्र का जो तर्क है वह उस समय का प्राय: सार्वभौमिक तर्क माना जा सकता है। मांस खाने वाले जवान अमांसाहारियों से प्राय: यही कहते कि मांसाहार से मनुष्य बलवान होता है, अंग्रेज़ों की बल-बुद्धि का एकमात्र कारण मांस और मदिरा ही है। यह होते हुए भी जहां तक मुझे पुराने बाबू साहबों से पूछताछकर मालूम हुआ है वहां तक मैं निश्चित रूप से यह कह सकता हूं कि हिन्दुओं ने बाबू बनकर भी, विद्रोही बनकर भी अंग्रेजों की समानता पाने के लिए कभी गोमांस ग्रहण नहीं किया। अपवाद रूप में दस-पांच अति विद्रोही बाबू शायद हुए हों तो हुए हों।
जी हुज़ूर बाबू अंग्रेज़ी पढ़कर अंग्रेजों की तरह हिन्दुस्तानी बोलना भी सीख गए।
आटा-जाटा, वैडमास, डर्टी निगर, काला आदमी कहने में उन्हें मज़ा आता था। अंग्रेज साहबों के सामने दुम हिलाना और स्वदेशवासियों के सामने गुर्राना एक आम फैशन की बात हो गई थी।
एक सबसे खराबी की बात बाबू दृष्टि से यहां पर यह थी कि उन्हें अंग्रेजों के समान स्वच्छन्दतापूर्वक अपनी मेमों को लेकर बाहर घूमने का मौका नहीं मिलता था। आम तौर पर ये बाबू अपनी पत्नियों और घर की स्त्रियों से घृणा करने लगे थे। स्त्रियां बबुआइनें नहीं हो पाई थीं। जिस प्रकार के खान-पान और आचरण में बाबू का रस उमग चुका था, उसमें भारतीय नारी के लिए अधर्म और अनाचार के सिवा और कुछ भी न था। बाबू ने अपने मनोरंजन के लिए एक समझौता किया, वह वेश्यागामी हो गया। वेश्यागामिता इसके पहले केवल रईसों और सामन्तों के बीच ही अति प्रचलित थी। औसत आमदनी के लोग इस लम्बे खर्च वाले मनोरंजन को बर्दाश्त ही नहीं कर सकते थे। लेकिन बाबू के लिए यही समझौता श्रेयस्कर था। आदाब अल्काब, शीरी गुफ्तगू और मैनोशी के लिए तवायफ का कोठा उम्दा जगह थी। वहां जाकर बाबू की हिन्दुस्तानी ज़बान सुधर जाती थी। नये बढ़ते हुए बाबू वर्ग में वेश्यागामिता प्राय: एक आन्दोलन के रूप में आई। वे दिन भारतीय पत्नियों के लिए बहुत ही बुरे थे। हमारी स्त्रियों द्वारा गाए जाने वाले ढोलक के गीतों में वेश्याओं के विरुद्ध बहुत कुछ कहा गया है :
एक ऐसी लहर चली कि जिसमें अंग्रेजी पढ़े-लिखे बाबू को हर हिन्दुस्तानी चीज़ से नफरत हो गई थी। अपने अंग्रेज हाकिमों तथा पादरियों के समान ही ये पढ़े-लिखे बाबू भी वेदों को जंगलियों की गीतों की किताब कहने लगे थे। उन्हें हिन्दुस्तानी भोजन से अरुचि होने लगी थी; डबल रोटी और मांस-मदिरा तथा धूम्र-पान उस समय बाबुओं के लिए एक बड़ी क्रान्तिकारी एवं आवश्यक वस्तु हो गई थी। गांधी जी की आत्मकथा में उनके मांसाहार वाले प्रसंग में उनके मित्र का जो तर्क है वह उस समय का प्राय: सार्वभौमिक तर्क माना जा सकता है। मांस खाने वाले जवान अमांसाहारियों से प्राय: यही कहते कि मांसाहार से मनुष्य बलवान होता है, अंग्रेज़ों की बल-बुद्धि का एकमात्र कारण मांस और मदिरा ही है। यह होते हुए भी जहां तक मुझे पुराने बाबू साहबों से पूछताछकर मालूम हुआ है वहां तक मैं निश्चित रूप से यह कह सकता हूं कि हिन्दुओं ने बाबू बनकर भी, विद्रोही बनकर भी अंग्रेजों की समानता पाने के लिए कभी गोमांस ग्रहण नहीं किया। अपवाद रूप में दस-पांच अति विद्रोही बाबू शायद हुए हों तो हुए हों।
जी हुज़ूर बाबू अंग्रेज़ी पढ़कर अंग्रेजों की तरह हिन्दुस्तानी बोलना भी सीख गए।
आटा-जाटा, वैडमास, डर्टी निगर, काला आदमी कहने में उन्हें मज़ा आता था। अंग्रेज साहबों के सामने दुम हिलाना और स्वदेशवासियों के सामने गुर्राना एक आम फैशन की बात हो गई थी।
एक सबसे खराबी की बात बाबू दृष्टि से यहां पर यह थी कि उन्हें अंग्रेजों के समान स्वच्छन्दतापूर्वक अपनी मेमों को लेकर बाहर घूमने का मौका नहीं मिलता था। आम तौर पर ये बाबू अपनी पत्नियों और घर की स्त्रियों से घृणा करने लगे थे। स्त्रियां बबुआइनें नहीं हो पाई थीं। जिस प्रकार के खान-पान और आचरण में बाबू का रस उमग चुका था, उसमें भारतीय नारी के लिए अधर्म और अनाचार के सिवा और कुछ भी न था। बाबू ने अपने मनोरंजन के लिए एक समझौता किया, वह वेश्यागामी हो गया। वेश्यागामिता इसके पहले केवल रईसों और सामन्तों के बीच ही अति प्रचलित थी। औसत आमदनी के लोग इस लम्बे खर्च वाले मनोरंजन को बर्दाश्त ही नहीं कर सकते थे। लेकिन बाबू के लिए यही समझौता श्रेयस्कर था। आदाब अल्काब, शीरी गुफ्तगू और मैनोशी के लिए तवायफ का कोठा उम्दा जगह थी। वहां जाकर बाबू की हिन्दुस्तानी ज़बान सुधर जाती थी। नये बढ़ते हुए बाबू वर्ग में वेश्यागामिता प्राय: एक आन्दोलन के रूप में आई। वे दिन भारतीय पत्नियों के लिए बहुत ही बुरे थे। हमारी स्त्रियों द्वारा गाए जाने वाले ढोलक के गीतों में वेश्याओं के विरुद्ध बहुत कुछ कहा गया है :
रंडी घर जाना छोड़ो सनम..........।। रंडी घर.।।
सोने की थलिया में भोजन परोसा
सौतन संग खाना छोड़ो सनम......रंडी घर.।।
सोने की शीशी मीने का प्याला
रंडी संग पीना छोड़ो सनम.....।। रंडी घर.।।
सोने की थलिया में भोजन परोसा
सौतन संग खाना छोड़ो सनम......रंडी घर.।।
सोने की शीशी मीने का प्याला
रंडी संग पीना छोड़ो सनम.....।। रंडी घर.।।
एक गीत में कहा गया है :
जब से चला है रंडी का रखना
कदर बीबी की- कदर प्यारी की गई मेरी जान
कदर बीबी की- कदर प्यारी की गई मेरी जान
इस प्रकार के कई गीत उस ज़माने में रचे गए थे।
इसी जी-हुजूर क्रान्ति में बाबुओं ने अपने नामों के साथ अपने जाति नाम भी जोड़ने शुरू कर दिए थे। शर्मा, वर्मा, राजवंशी, यदुवंशी, सक्सेना, श्रीवास्तव, कपूर, मित्र, बाजपेई, नागर- इन सबकी की जुड़ाई इसी वक्त में हुई। नाम रखने में भी सतर्कताबरती जाने लगी- मांगीलाल, घूरेलाल, सद्दीलाल, मटरूलाल, झब्बनलाल, दूधनाथ आदि किस्मों के नाम भला अंग्रेजी पढ़े-लिखे लोगों को क्योंकर पसन्द आ सकते थे। सद्दीमल, एस. माल हो गए, देवीप्रसाद कपूर डी.पी. कैम्फर हो गए, बाबू राजकिशोर अंग्रेजी कोट-पतलून में बहुत अकडे तो शराब के झोंक मे अपने नाम की अंग्रेजी स्पेलिंग को उल्टाकर जे. इरोक्सा हो गए। हां, स्त्रियों के नामों में विशेष परिवर्तन नहीं हुआ। उन्नीसवीं शताब्दी के अन्तिम तीन दर्शकों में जन्म देने वाली हमारी दादियां मटका, डिब्बा, चुहिया, कुल्हड़, मीरो, झुन्नो, मुन्नो आदि ही बनी रहीं।
हमारी पितामह पीढ़ी में सब अधर्मी और कुकर्मी ही बने हों सो बात नहीं, बहुतों में अंग्रेजी पढ़ने के बाद राष्ट्रीय भावना और स्वाभिमान भी जागा।
अंग्रेज जाति के प्रति आदर-भाव रखते हुए उन्होंने अपने देश और धर्म को हीन मानने से दृढ़तापूर्वक इंकार किया। गदर के बाद बाबू का व्यापक प्रसार होने के साथ ही साथ हम भी देखते हैं कि इस देश में सामाजिक सुधार आन्दोलनों का जन्म हुआ। वेद, उपनिषद् और गीता ने इस बाबू वर्ग की आध्यात्मिक ही नहीं राष्ट्रीय भावना कों भी बड़ा बल दिया। और इसी बल के साथ उन्होंने मूर्ति-पूजा और रूढ़ियों के खिलाफ जेहाद भी ठाना। बंगाल के ब्रह्म समाज, बम्बई के प्रार्थना समाज और उत्तर भारत के आर्यसमाज के रूप में यह सुधारवादी आन्दोलन बवंडर की तरह उठा और देशव्यापी हुआ।
सनातन धर्मावलम्बियों के लिए यह ब्रह्मचारी आर्य बाबू भी उतने ही बुरे थे जितने कि अंग्रेजी चाल ढाल वाले साहब बाबू।
ये ब्रह्मवादी आर्य बाबू सभा-सोसाइटियां बनाते, पुरानी जातीय पंचायतों के विरुद्ध नये जातीय क्लब बनाते, जातीय ‘समाज’ स्थापित करते, जातीय समस्याओं के सुधारवादी हल लेकर अखबार प्रकाशित करते, बाल-विवाह के विरुद्ध और विधवा-विवाह के पक्ष में लेक्चर देते और लेख लिखते पंडों-पुरोहितों की भी भरपेट खिल्ली उड़ाते तथा विलायत गमन के सिद्धान्त का जोरदार समर्थन करते थे।
बात यदि कहीं तक सीमित रहती तो रूढ़ियों के प्रति निष्ठावान सनातनधर्मी वर्ग इन लोगों को भी धर्मभ्रष्ट म्लेच्छ क्रिस्तान मानकर उपेक्षापूर्वक मुंह फेर लेता, परन्तु ये आर्य बाबूगण साहब बाबुओं के समान चरित्रहीन और पतित नहीं थे- वरन ये लोग वेद मंत्रोच्चार और यज्ञ-होमादि भी करते थे। ब्रह्मसमाजियों, आर्यसमाजियों से उन दिनों सनातनधर्मी लोग सौतों की तरह झोटमझोट जूझे हैं। सनातनधर्मी पण्डितों के लिए सबसे बुरी बात तो यह हुई थी कि जिन वेद-शास्त्रों की धमकी देकर वे अपने समाज पर स्वेच्छानुसार अंकुश रखते थे वे वेद आर्यसमाजियों ने जन-साधारण के लिए सुलभ कर दिए। जाति-भेद का धयान आया जिसे सनातनधर्मी रोक न पाते थे। आर्यसमाजी अपने धर्म की बुराइयों के अलावा चूंकि मुसलमान मुल्लाओं और ईसाई पादरियों से भी लोहा लेते थे, इसलिए वे हिन्दू समाज को बहुत भाते थे। सनातनधर्मी पण्डितों को अपने इन शत्रुओं से करारा झटका लग रहा था।
कानपुर की घटना है, एक बार सनातनी ब्राह्मणों के उकसाने से कुछ सनातनी सेठ भी धर्ममूर्ति धर्मावतार का पद पाने के हेतु चन्दा देकर आर्यसमाजियों के खिलाफ सनातन धर्म की सभा करने के लिए कटिबद्ध हुए। तय हुआ कि जिस तरह आर्यसमाजी बात-बात में वेद का हवाला देकर वेद-मंत्रों का अनर्थ करते हैं, उसी प्रकार सनातनी पण्डित भी बात बात में मंत्रों का हवाला दें और उसके सही अर्थ बतलाएं। कानपुर-भर के पण्डितों के यहां ढुंढैया मची, किसी के घर वेद ही न मिला।
आर्यसमाजी विद्वानों में ऐसे अनेक विचित्र लोग भी थे जो हर पश्चिमी वैज्ञानिक आविष्कार को वेद से खोज निकालते थे। गैस, बिजली, रेल, तार, भाप सब कुछ वेदों से निकल आता था। पश्चिमी भौतिक विज्ञान के नित्य नये-नये आविष्कारों को आर्यसमाजियों के वेदों ने हीन भावना में फंसने प्रभावित से काफी हद तक बचाया। मैंने अपने देश के बुड्ढों से बड़ी-बड़ी आश्चर्यजनक बातें सुनी है।
सुना है कि हमारे ऋषि-मुनी तांबे की पटरियों पर रेल चलाते थे, सोने और जवाहरात का प्रयोग कर ऐसी तरकीब से दीपक बनाते थे जो गैस (बाद में बिजली भी) की रोशनी से सौ गुना ज्यादा प्रकाशवान होते थे। मेरी अपनी धारणा तो यह है कि यदि आर्यसमाज का आन्दोलन न चला होता और उनके वकील अनेक विचित्र विद्वानों ने यदि वेदों का विज्ञान की खान न सिद्ध किया होता तो बाबू देवकीनन्दन खत्री अपने अमर तिलस्मी उपन्यास ‘चन्द्रकान्ता’ की कल्पना न कर पाते।
इसी जी-हुजूर क्रान्ति में बाबुओं ने अपने नामों के साथ अपने जाति नाम भी जोड़ने शुरू कर दिए थे। शर्मा, वर्मा, राजवंशी, यदुवंशी, सक्सेना, श्रीवास्तव, कपूर, मित्र, बाजपेई, नागर- इन सबकी की जुड़ाई इसी वक्त में हुई। नाम रखने में भी सतर्कताबरती जाने लगी- मांगीलाल, घूरेलाल, सद्दीलाल, मटरूलाल, झब्बनलाल, दूधनाथ आदि किस्मों के नाम भला अंग्रेजी पढ़े-लिखे लोगों को क्योंकर पसन्द आ सकते थे। सद्दीमल, एस. माल हो गए, देवीप्रसाद कपूर डी.पी. कैम्फर हो गए, बाबू राजकिशोर अंग्रेजी कोट-पतलून में बहुत अकडे तो शराब के झोंक मे अपने नाम की अंग्रेजी स्पेलिंग को उल्टाकर जे. इरोक्सा हो गए। हां, स्त्रियों के नामों में विशेष परिवर्तन नहीं हुआ। उन्नीसवीं शताब्दी के अन्तिम तीन दर्शकों में जन्म देने वाली हमारी दादियां मटका, डिब्बा, चुहिया, कुल्हड़, मीरो, झुन्नो, मुन्नो आदि ही बनी रहीं।
हमारी पितामह पीढ़ी में सब अधर्मी और कुकर्मी ही बने हों सो बात नहीं, बहुतों में अंग्रेजी पढ़ने के बाद राष्ट्रीय भावना और स्वाभिमान भी जागा।
अंग्रेज जाति के प्रति आदर-भाव रखते हुए उन्होंने अपने देश और धर्म को हीन मानने से दृढ़तापूर्वक इंकार किया। गदर के बाद बाबू का व्यापक प्रसार होने के साथ ही साथ हम भी देखते हैं कि इस देश में सामाजिक सुधार आन्दोलनों का जन्म हुआ। वेद, उपनिषद् और गीता ने इस बाबू वर्ग की आध्यात्मिक ही नहीं राष्ट्रीय भावना कों भी बड़ा बल दिया। और इसी बल के साथ उन्होंने मूर्ति-पूजा और रूढ़ियों के खिलाफ जेहाद भी ठाना। बंगाल के ब्रह्म समाज, बम्बई के प्रार्थना समाज और उत्तर भारत के आर्यसमाज के रूप में यह सुधारवादी आन्दोलन बवंडर की तरह उठा और देशव्यापी हुआ।
सनातन धर्मावलम्बियों के लिए यह ब्रह्मचारी आर्य बाबू भी उतने ही बुरे थे जितने कि अंग्रेजी चाल ढाल वाले साहब बाबू।
ये ब्रह्मवादी आर्य बाबू सभा-सोसाइटियां बनाते, पुरानी जातीय पंचायतों के विरुद्ध नये जातीय क्लब बनाते, जातीय ‘समाज’ स्थापित करते, जातीय समस्याओं के सुधारवादी हल लेकर अखबार प्रकाशित करते, बाल-विवाह के विरुद्ध और विधवा-विवाह के पक्ष में लेक्चर देते और लेख लिखते पंडों-पुरोहितों की भी भरपेट खिल्ली उड़ाते तथा विलायत गमन के सिद्धान्त का जोरदार समर्थन करते थे।
बात यदि कहीं तक सीमित रहती तो रूढ़ियों के प्रति निष्ठावान सनातनधर्मी वर्ग इन लोगों को भी धर्मभ्रष्ट म्लेच्छ क्रिस्तान मानकर उपेक्षापूर्वक मुंह फेर लेता, परन्तु ये आर्य बाबूगण साहब बाबुओं के समान चरित्रहीन और पतित नहीं थे- वरन ये लोग वेद मंत्रोच्चार और यज्ञ-होमादि भी करते थे। ब्रह्मसमाजियों, आर्यसमाजियों से उन दिनों सनातनधर्मी लोग सौतों की तरह झोटमझोट जूझे हैं। सनातनधर्मी पण्डितों के लिए सबसे बुरी बात तो यह हुई थी कि जिन वेद-शास्त्रों की धमकी देकर वे अपने समाज पर स्वेच्छानुसार अंकुश रखते थे वे वेद आर्यसमाजियों ने जन-साधारण के लिए सुलभ कर दिए। जाति-भेद का धयान आया जिसे सनातनधर्मी रोक न पाते थे। आर्यसमाजी अपने धर्म की बुराइयों के अलावा चूंकि मुसलमान मुल्लाओं और ईसाई पादरियों से भी लोहा लेते थे, इसलिए वे हिन्दू समाज को बहुत भाते थे। सनातनधर्मी पण्डितों को अपने इन शत्रुओं से करारा झटका लग रहा था।
कानपुर की घटना है, एक बार सनातनी ब्राह्मणों के उकसाने से कुछ सनातनी सेठ भी धर्ममूर्ति धर्मावतार का पद पाने के हेतु चन्दा देकर आर्यसमाजियों के खिलाफ सनातन धर्म की सभा करने के लिए कटिबद्ध हुए। तय हुआ कि जिस तरह आर्यसमाजी बात-बात में वेद का हवाला देकर वेद-मंत्रों का अनर्थ करते हैं, उसी प्रकार सनातनी पण्डित भी बात बात में मंत्रों का हवाला दें और उसके सही अर्थ बतलाएं। कानपुर-भर के पण्डितों के यहां ढुंढैया मची, किसी के घर वेद ही न मिला।
आर्यसमाजी विद्वानों में ऐसे अनेक विचित्र लोग भी थे जो हर पश्चिमी वैज्ञानिक आविष्कार को वेद से खोज निकालते थे। गैस, बिजली, रेल, तार, भाप सब कुछ वेदों से निकल आता था। पश्चिमी भौतिक विज्ञान के नित्य नये-नये आविष्कारों को आर्यसमाजियों के वेदों ने हीन भावना में फंसने प्रभावित से काफी हद तक बचाया। मैंने अपने देश के बुड्ढों से बड़ी-बड़ी आश्चर्यजनक बातें सुनी है।
सुना है कि हमारे ऋषि-मुनी तांबे की पटरियों पर रेल चलाते थे, सोने और जवाहरात का प्रयोग कर ऐसी तरकीब से दीपक बनाते थे जो गैस (बाद में बिजली भी) की रोशनी से सौ गुना ज्यादा प्रकाशवान होते थे। मेरी अपनी धारणा तो यह है कि यदि आर्यसमाज का आन्दोलन न चला होता और उनके वकील अनेक विचित्र विद्वानों ने यदि वेदों का विज्ञान की खान न सिद्ध किया होता तो बाबू देवकीनन्दन खत्री अपने अमर तिलस्मी उपन्यास ‘चन्द्रकान्ता’ की कल्पना न कर पाते।
अखबार क्रान्ति
प्रेस और अखबारों ने समाज-सुधार आन्दोलन, नागरी प्रचार आन्दोलन एवं राजनैतिक आन्दोलन को बढ़ाने में बहुत बड़ा हाथ बटाया। छापे के अक्षर पढ़े-लिखे समाज के लिए विधाता के लेख की भांति अटल और विश्वसनीय हो गए। पुराने बुजुर्ग, जो हर नई चीज का विरोध करते थे, अखबार का भी विरोध करते थे। परन्तु इस विरोध के साथ एक आश्चर्यजनक बात मैंने एक नहीं अनेक बुर्जुर्गों से सुनी है- कई बड़े-बूढ़ों का यह ख्याल है कि जब से अखबार चले तब से महंगाई बढ़ गई।
मिट्टी का तेल और नल क्रान्ति
आर्यसमाज और अखबारों की छत्र-छाया में बाल-विवाह भले ही न रुके हों अथवा विधवा-विवाह भले ही न हुए हों, परन्तु छोटी-मोटी क्रान्तियाँ अवश्य हुई। उनमें अंग्रेजी दवाओं, मिट्टी के तेल और पानी के नल का उपयोग बहुत ही मार्के की हैं। बंगाली डॉक्टर आने लगे। बाबू घरों में स्वाभाविक रूप से रोग केवल अंग्रेजी दवाइयों से ही अच्छे हो सकते थे, वैद्य-हकीम उनकी दृष्टि में दहकनी-दकियानूसी हो गए थे।
हिन्दू बाबू घरों में अंग्रेजी दवा का उपयोग बड़ी ही मुश्किलों से आरम्भ हो पाया क्योंकि यह धारणा फैली हुई थी कि कोई भी अंग्रेजी दवा बगैर ब्रांडी और बकरे-मुर्गों के सत के बन ही नहीं सकती। शुरू-शुरू में लोग इस धारणा के खिलाफ यह प्रचार करते थे कि यह बात गलत है, अंग्रेजी दवाइयां पाउडरों से तैयार होती हैं और पानी में गोली जाती हैं। लखनऊ के एक दवाफरोश ने, जिनकी दूकान शहर में सबसे पहले खुली, यहां तक प्रचार किया था कि उनकी दवाइयां नल के पानी में भी नहीं बनती हैं, बल्कि रोज़ उनके यहां ठेले पर लदकर कई कल से गोमती नदी का पानी आता था और कलसों-भरा ठोला विज्ञापन के रूप में सदा उनकी दूकान के सामने खड़ा रहता था। लोग-बाग ठाकुर जी को भोग लगाकर अंग्रेजी दवा ग्रहण करते थे।
न जाने किस तर्क के आधार पर मिट्टी का तेल जूठन की वस्तुओं में शामिल कर लिया गया था। लोग-बाग पहले उसे अपने घर की ड्योढ़ी में ही जलाते थे, मगर जर्मनी की डीजल लालटेनें मिट्टी के तेल को घरों के अंदर ले ही गईं। इसी तरह नल के पानी के संबंध में भी अनेक भ्रान्त धारणाएं फैली थीं। कहां जाता था कि अंग्रेज जिस पानी से नहाते और कुल्ला करते हैं उसी को नलों द्वारा घरों में प्रवाहित कर देते हैं; नल भारतीयों को धर्मच्युत करने की एक चाल है, उसमें चमड़े का वाशसल लगता है। हमारे नगर में पहले प्लम्बर एक बंगाली बाबू घर जाकर नल लगवाने के लिए अपील करते थे। उनके अनेक तर्कों में यह भी था कि जिन परम पावन नदियों में स्नान करने हिन्दू अपना परम धर्म समझते हैं, उन्हीं का उन्हें आठों याम सुलभ होगा। फिर भी आरम्भ में अनेक वर्षों तक नलों पानी केवल धोने-धाने के काम ही लाया गया। पीने और नहाने के लिए उसका व्यवहार न हो सका।
हिन्दू बाबू घरों में अंग्रेजी दवा का उपयोग बड़ी ही मुश्किलों से आरम्भ हो पाया क्योंकि यह धारणा फैली हुई थी कि कोई भी अंग्रेजी दवा बगैर ब्रांडी और बकरे-मुर्गों के सत के बन ही नहीं सकती। शुरू-शुरू में लोग इस धारणा के खिलाफ यह प्रचार करते थे कि यह बात गलत है, अंग्रेजी दवाइयां पाउडरों से तैयार होती हैं और पानी में गोली जाती हैं। लखनऊ के एक दवाफरोश ने, जिनकी दूकान शहर में सबसे पहले खुली, यहां तक प्रचार किया था कि उनकी दवाइयां नल के पानी में भी नहीं बनती हैं, बल्कि रोज़ उनके यहां ठेले पर लदकर कई कल से गोमती नदी का पानी आता था और कलसों-भरा ठोला विज्ञापन के रूप में सदा उनकी दूकान के सामने खड़ा रहता था। लोग-बाग ठाकुर जी को भोग लगाकर अंग्रेजी दवा ग्रहण करते थे।
न जाने किस तर्क के आधार पर मिट्टी का तेल जूठन की वस्तुओं में शामिल कर लिया गया था। लोग-बाग पहले उसे अपने घर की ड्योढ़ी में ही जलाते थे, मगर जर्मनी की डीजल लालटेनें मिट्टी के तेल को घरों के अंदर ले ही गईं। इसी तरह नल के पानी के संबंध में भी अनेक भ्रान्त धारणाएं फैली थीं। कहां जाता था कि अंग्रेज जिस पानी से नहाते और कुल्ला करते हैं उसी को नलों द्वारा घरों में प्रवाहित कर देते हैं; नल भारतीयों को धर्मच्युत करने की एक चाल है, उसमें चमड़े का वाशसल लगता है। हमारे नगर में पहले प्लम्बर एक बंगाली बाबू घर जाकर नल लगवाने के लिए अपील करते थे। उनके अनेक तर्कों में यह भी था कि जिन परम पावन नदियों में स्नान करने हिन्दू अपना परम धर्म समझते हैं, उन्हीं का उन्हें आठों याम सुलभ होगा। फिर भी आरम्भ में अनेक वर्षों तक नलों पानी केवल धोने-धाने के काम ही लाया गया। पीने और नहाने के लिए उसका व्यवहार न हो सका।
विलायत-गमन क्रान्ति
भक्तो ! विलायत-गमन क्रान्ति का वर्णन कर पुराणकार आगे भी बाबू की बहुत-सी लीलाएं बखानेगा। परन्तु भक्तो ! आज की पुराणवाती यहीं पर समाप्त होती है क्योंकि बाबू वक्ता, बाबू श्रोता ठाले की वाहवाह को छोड़कर और पुजापा न चढ़ेगा। सो कलिकाल के पुराणकार जब पेट-पूजा निस्तरेंगे तब आगे की कथा कहेंगे।
तीतर, बटेर और बुलबुल लड़ाना
यह मुमकिन है कि शान्ति के कबूतर उड़ाते-उड़ाते हम एटम हाइड्रोडन मिज़ाइल किस्म के भयानक हथियारों और आस्मानी और दर आस्मानी करिश्मों के औजारों की लड़ाई बन्द कराने में सफल हो जाएं, मगर यह कि लड़ाई का चलन ही दुनिया से उठ जाएगा, हम न मानेंगे जनाब ! अर्जी, लड़ाई का मज़ा चार जवान नज़रों से पूछिए, नवोढ़ा प्रौढ़ा सुहागिनों के मानभरे मुंहफुलावन से पूछिए, सितार और मिज़राब से पूछिए, घुंघरुओं और इन्सान के पैरों से पूछिए, इल्मोहुनर की लागडांट करने वालों से पूछिए, एलेक्श्न लड़ाने वालों से, वकीलों-बैरिस्टरों की जबीनों से, पार्टी की तूतू-मैंमैं से पूछ देखिए- कोई भी न चाहेगा कि लड़ाई का चलन उठा दिया जाए। सच पूछिए तो लड़ाई का दूसरा नाम ही जीवन का विकास है; ग्रह-उपग्रहों के सांस्कृतिक आदान-प्रदान के बावजूद इन्सान लड़ने से बाज न आएगा। जब तक दाल-तरकारी में नमक की ज़रूरत रहेगी तब तक सभ्यता का हाज़्मा दुरुस्त रखने के लिए हम गालियों का इस्तेमाल भी करते रहेंगे, जब विटामिन की टिकियों से पेट भरने लगेगा तब भी ताने देने की बात तो मेरे ख्याल से न छूटेगी। मतलब यह है कि विश्वशान्ति, ब्रह्माण्ड शान्ति आदि ऊँ शान्ति: शान्ति: शान्ति: का साम्राज्य दसों दिशाओं में फैल जाए, फिर भी ज्ञान-विज्ञान की ऊंची-ऊंची चोटियों पर चढ़ने के लिए मनुष्य निरन्तर लड़ता ही रहेगा।
प्रकृति के बच्चों में सिर्फ आदमी ही लड़ता हो सो बात नहीं, छोटे-बड़े चेरिन्दे-परिन्दे भी कटाजुज्झ करते ही रहते हैं। इनकी लड़ाइयों में मानवी सभ्यता न सदियों तक लुत्फ हासिल किया है। पुराने ज़माने में ही नागर सभ्यता ने जानवरों की लड़ाइयों को कला और शास्त्रविद्या तक पहुंचा दिया था। वात्यस्यान के कामसूत्र में लिखा है कि जानवरों की लड़ाई देखना रसिया रईसों के लिए टॉनिक का काम करता है। इसलिए पुराने दिनों के सम्राट बादशाह जानवरों की लड़ाईयां बड़े शौक से देखा करते थे। हमारे नगर, लखनऊ, में भी नवाबी बादशाही जमाने से इसके संस्कार चले आते हैं। नसीरुद्दीन हैदर को पशु-पक्षी के युद्धों का बड़ा ताव था। चांदगंज में पशुशाला थी, हाथी, ऊंट, गैंडे, सांड, भैंसों से लेकर तीतर, बटेर, मुर्ग, बुलबुल आदि तक की लड़ाइयां उसका मनोरंजन करती थीं। एक जमाना था जब यहां बटेरों और तवायफों की बादशाही थी।
खैर, इस समय तो बुलबुल, बटेरों और तीतरों का तज़किरा छिड़ा है। इनकी लड़ाइयां भी खूब-खूब होती हैं, चोंचें चलती हैं, ये परिन्दे आपस में एक-दूसरे पर झपट-झपटकर वार करते हैं, चारों तरफ इंसान तमाशाइयों की भीड़ खड़ी होकर इनका हौसला बढ़ाती है, ‘‘और ले बेटे ! काट ले और काट ले ! हुमक के ! जियो बेटे, वाह वाह !’’ का समां बंध जाता है। इनकी हारजीत पर सैकड़ों हजारों का सट्टा हो जाता है। गरज यह कि इन पंछियों की लड़ाइयों का भाव रुपये, आने, पाई से अब तक बंधा है। इसीलिए लड़ाकू परिन्दों की खूराक और देख-सम्भाल में उनके पालने वाले दिल खोलकर खर्च करते हैं। इनके उस्ताद और खलीफा होते हैं, दंगल उस्तादों के नाम से होते हैं; इनकी हारी-बीमारी, चोट-चपेट के लिए दवाएं हैं, शक्तिदाता जड़ी-बूटियां हैं, पालने और लड़ाने के नियम है, पोथियां हैं- यानी कि वह सब टीमटाम है जो मनुष्य के शौक और सट्टे के सिद्धान्तों का समन्वय करती है।
वैसे हमें न तो सट्टे का शौक है और न जानवर पालने का। सच पूछिए तो हमारी हैसियत ही नहीं। हम आमतौर पर उन्हीं जानवरों की लड़ाइयां देख पाते हैं जो हमारे-आपके घरों में बरबस बस जाते हैं, मसलन चींटी, चूहे, मक्खी, मच्छर, खटमल वगैरह। दाना ले जाती हुई एक चींटी से दूसरी चींटी की रस्साकशी, चूहों की चूं-चूं और उछल-कूद-मार, मच्छरों का भन्ना-भन्नाकर एक-दूसरे पर वार करना अपना एक अन्दाज़ तो रखता ही है; मगर इनकी चर्चा बेकार है क्योंकि इनकी लड़ाइयों पर सट्टा नहीं होता।
भगवान भला करे हमारे पुराने प्रालितेरियन पड़ोसी कादिर भाई का, जिनकी बदौलत तीतर, बटेर और बुलबुलों के दंगल हमें देखने को अक्सर मिल जाते हैं। उनकी दुकान के सामने फुटपाथ पर कोई मौसम नहीं जाता जबकि एक न एक दंगल न होता हो। खयालगोई के दंगल, तीतर बटेर, बुलबुल, मुर्ग और अगिन चिड़िया के दंगल, बारहमासियों के दंगल- कुछ न कुछ होता ही रहता है।चलती सड़क से जन-जनार्दन सिमटकर जब भी ‘वाह-वाह’ और ‘लपक के बेटे’ का आकाशफोड़ शोर मचाते हैं तो हम सारे ‘इज़्मों’ से पगहिया तुड़ाकर अपने छज्जे पर खड़े हो इनका तमाशा देखने से चूक नहीं सकते। अहिंसा के सिद्धान्त को मानते हुए भी इन लड़ाइयों के मजे से हम इनकार नहीं कर सकते।
तो आइए, पहले बटेरों पर ही बातचीत हो जाए। यह मैं निवेदन कर चुका हूं कि नवाबी लखनऊ में बटेरों की बादशाहत थी। पण्डित रतननाथ दर ‘सरशार’ अपनी ‘आज़ाद कथा’ में सफशिकन के बहाने लखनऊ के बटेर को अमर कर गए हैं।
वैसे इन पंछियों की लड़ाई का मौसम कातिक गंगानहान से लेकर फागुन तक होता है, मगर बटेर गर्मी और सर्दी दोनों ही ऋतुओं में लड़ते हैं। दोनों ऋतुओं में बटेरों की जातियां भी अलग-अलग होती हैं। गर्मी में ‘चिनख’ बटेर लड़ता है और जाड़ों में ‘घाघर’। चिनख घाघर से छोटा होता है और वज़न में छटांक-डेढ़ छटांक का होता है। चिनख की चार किस्में होती हैं; चिनख पोटिया, घाघट पोटिया, असल चिनख और चारों किस्म के बटेर गर्मी के मौसम में ही मस्ताते हैं।
सर्दी में घाघर लड़ाया जाता है। यह चिनख से बड़ा और तोल में आध पाव-ढाई छटांक का होता है। इसकी दो किस्में होती हैं, असल घाघर और चिनख घाघर की संकर जाति घाघर पोटिया।
लड़ाकू बटेरों की परवरिश में बड़ी लागत लगाई जाती है काकुन तो ये चुगते ही हैं, लड़ाने की तैयारी में इन्हें मेवे, केसर, मुश्क, और जड़ी-बूटियां भी खिलाई जाती है।
इनकी काबुकों में चूल्हें की राख या छनी हुई बारीक मिट्टी बिछा दी जाती है, जिसमें लोट-लोटकर ये अपनी मस्ती बढ़ाते हैं। इन्हें नहलाया जाता है, आवश्यकतानुसार धूप-छांह भी दी जाती है। चैत में इनके बच्चे पैदा होते हैं; वे चैतुवे कहलाते हैं। साल दो साल पुराने पोढ़े बटेर करीज कहलाते हैं, जो बाकी चालू फसल में लिए जाते हैं वे ‘नये’ कहलाते हैं। ये तीनों आपस में लड़ाए जाते हैं। घर में लड़-लड़कर पोढ़े होते है; जो बहादुर निकलते हैं वे दंगलों में भेजे जाते हैं। लड़वैये बटेरों की चोचें उस्तरे से बारीक बनाई जाती हैं ताकि उम्दा मार कर सकें।
बटेरों की लड़ाई देखने में बड़ी सनसनीखेज़ होती है। ये नन्हा बूटेदार कत्थई या काले रंग का पहाड़ी जानवर अपने प्रतिद्वन्द्वी को देख पर फुलाते और बड़ी शान से पैंतरे बदलते हुए अचानक उछलकर वार करता है, कभी खींच मारता है, कभी मुर्री लगाता है, कभी फाड़ता है तो कभी दुश्मन की आंखों में चोच मारता है या उसकी चोंच तोड़ता है। लड़ते-लड़ते बटेर लहूलुहान हो जाते हैं, जितना लड़ते हैं उतना गरमाते हैं। हरैला बटेर जीतने वाले से अपनी जान छुड़ाकर सीधे नोकदम पाली बाहर भागता है, वरना जीतने वाला उसकी जान न छोड़े।
अब तीतरों की बात सुनिए। टीले मैदानों में तीतर चुगते, खाली पिंजरा लिए ‘लियो बेटे हुई-हुई’ की हांक मारते तीतर-प्रेमीजन गली-मुहल्लों और गांव-खेड़ों में आपने अक्सर देखे होंगे। तीतर बड़ा मस्त और ताकतवर जानवर होता है। वह चैत में पैदा होता और सर्दी में मस्त होकर लड़ता है। लड़वैए तीतरों की खुराक भी बटेरों की तरह कीमती होती है। वैसे इसे मिट्टी, आटा और दीमक भी चुगाया जाता है। पालने वाले अपने घरों में इनके लिए एक नलचीसी बनाकर उसमें बारीक मिट्टी भर देते हैं ताकि ये खूब लोटें-पोटें। गर्मी में पानी से तर बालू भर देते हैं। इनकी चार जातियां होती है और चार किस्में। ये देसी, गंगापारी, दक्खिनी और दोगली जातियों के होते हैं। रंग-भेद के अनुसार ये भूरिया, मेहंदिया, करौंदिया और काले कहलाते हैं। इनकी लड़ाई के दांव-पेंच भी देखने के काबिल होते हैं। ये अपने दुश्मन की आंख काटते हैं, चोच में चोंच डालकर ज़बान काटते हैं, जिसे ‘कुफल मारना’ कहा जाता है, दुश्मन की खोपड़ी में चोंच मारने को ‘डंक मारना’ कहते हैं, एक ही स्थल पर बराबर किए जाने का टेक्निकल नाम ‘एक ठौर मारना’ और चंचल गति से दुश्मन के शरीर के हर भाग पर आघात करने को ‘फड़कमार’ कहते हैं।
अब दास्ताने बुलबुल सुनिए। सर्दी में पीतल के अड्डों पर बुलबुल लिए इनके शौकीन भी आपको अक्सर देखने को मिल जाएंगे। इनकी चार किस्में होती हैं, सफेद, काला, काला-सफेद, और तौखी। अमरूदों के बाग में अक्सर ये पाये जाते हैं। इनका भोजन अधिक कीमती नहीं होता। भुने हुए चने का बेसन इन्हें खिलाया जाता है। जब लड़ना होता है तो दस-बारह घंटे पहले से इन्हें भूखा रक्खा जाता है। प्रतिद्वन्द्वी को देखते ही ये भूखे बुलबुल एक-दूसरे पर झपट पड़ते हैं, एक पंजो से चोंच और दूसरे से पंजा पकड़कर ये गुंथ जाते हैं। जो ताकतवर होता है वह कमजोर को दबाकर पड़ जाता है और कमजोर उसके पंजे से छूटने के लिए जी-जान से प्रयत्न करता है।
इनकी परिचर्या भी बड़ी सावधानी से होती है। अड्डे पर लिये-लिये इन्हें बराबर घर-बाहर घुमाया और उड़ाया जाता है। इन्हें दंगलों में लड़ाने के लिए यह आवश्यक होता है कि एक ही जगह रखकर लड़ाने की प्रैक्टिस न की जाए, वरना ये दूसरी जगह न लड़ेंगे। हारा हुआ बुलबुल मुंह घुमाकर बैठ जाता है, विजयी से नज़रे नहीं मिलाता।
इस तरह तरह-तरह के शौक हैं, शौकों के पीछे आदमी तबाह है और तबाही में लड़ाई की बात तो आ ही जाती है।
प्रकृति के बच्चों में सिर्फ आदमी ही लड़ता हो सो बात नहीं, छोटे-बड़े चेरिन्दे-परिन्दे भी कटाजुज्झ करते ही रहते हैं। इनकी लड़ाइयों में मानवी सभ्यता न सदियों तक लुत्फ हासिल किया है। पुराने ज़माने में ही नागर सभ्यता ने जानवरों की लड़ाइयों को कला और शास्त्रविद्या तक पहुंचा दिया था। वात्यस्यान के कामसूत्र में लिखा है कि जानवरों की लड़ाई देखना रसिया रईसों के लिए टॉनिक का काम करता है। इसलिए पुराने दिनों के सम्राट बादशाह जानवरों की लड़ाईयां बड़े शौक से देखा करते थे। हमारे नगर, लखनऊ, में भी नवाबी बादशाही जमाने से इसके संस्कार चले आते हैं। नसीरुद्दीन हैदर को पशु-पक्षी के युद्धों का बड़ा ताव था। चांदगंज में पशुशाला थी, हाथी, ऊंट, गैंडे, सांड, भैंसों से लेकर तीतर, बटेर, मुर्ग, बुलबुल आदि तक की लड़ाइयां उसका मनोरंजन करती थीं। एक जमाना था जब यहां बटेरों और तवायफों की बादशाही थी।
खैर, इस समय तो बुलबुल, बटेरों और तीतरों का तज़किरा छिड़ा है। इनकी लड़ाइयां भी खूब-खूब होती हैं, चोंचें चलती हैं, ये परिन्दे आपस में एक-दूसरे पर झपट-झपटकर वार करते हैं, चारों तरफ इंसान तमाशाइयों की भीड़ खड़ी होकर इनका हौसला बढ़ाती है, ‘‘और ले बेटे ! काट ले और काट ले ! हुमक के ! जियो बेटे, वाह वाह !’’ का समां बंध जाता है। इनकी हारजीत पर सैकड़ों हजारों का सट्टा हो जाता है। गरज यह कि इन पंछियों की लड़ाइयों का भाव रुपये, आने, पाई से अब तक बंधा है। इसीलिए लड़ाकू परिन्दों की खूराक और देख-सम्भाल में उनके पालने वाले दिल खोलकर खर्च करते हैं। इनके उस्ताद और खलीफा होते हैं, दंगल उस्तादों के नाम से होते हैं; इनकी हारी-बीमारी, चोट-चपेट के लिए दवाएं हैं, शक्तिदाता जड़ी-बूटियां हैं, पालने और लड़ाने के नियम है, पोथियां हैं- यानी कि वह सब टीमटाम है जो मनुष्य के शौक और सट्टे के सिद्धान्तों का समन्वय करती है।
वैसे हमें न तो सट्टे का शौक है और न जानवर पालने का। सच पूछिए तो हमारी हैसियत ही नहीं। हम आमतौर पर उन्हीं जानवरों की लड़ाइयां देख पाते हैं जो हमारे-आपके घरों में बरबस बस जाते हैं, मसलन चींटी, चूहे, मक्खी, मच्छर, खटमल वगैरह। दाना ले जाती हुई एक चींटी से दूसरी चींटी की रस्साकशी, चूहों की चूं-चूं और उछल-कूद-मार, मच्छरों का भन्ना-भन्नाकर एक-दूसरे पर वार करना अपना एक अन्दाज़ तो रखता ही है; मगर इनकी चर्चा बेकार है क्योंकि इनकी लड़ाइयों पर सट्टा नहीं होता।
भगवान भला करे हमारे पुराने प्रालितेरियन पड़ोसी कादिर भाई का, जिनकी बदौलत तीतर, बटेर और बुलबुलों के दंगल हमें देखने को अक्सर मिल जाते हैं। उनकी दुकान के सामने फुटपाथ पर कोई मौसम नहीं जाता जबकि एक न एक दंगल न होता हो। खयालगोई के दंगल, तीतर बटेर, बुलबुल, मुर्ग और अगिन चिड़िया के दंगल, बारहमासियों के दंगल- कुछ न कुछ होता ही रहता है।चलती सड़क से जन-जनार्दन सिमटकर जब भी ‘वाह-वाह’ और ‘लपक के बेटे’ का आकाशफोड़ शोर मचाते हैं तो हम सारे ‘इज़्मों’ से पगहिया तुड़ाकर अपने छज्जे पर खड़े हो इनका तमाशा देखने से चूक नहीं सकते। अहिंसा के सिद्धान्त को मानते हुए भी इन लड़ाइयों के मजे से हम इनकार नहीं कर सकते।
तो आइए, पहले बटेरों पर ही बातचीत हो जाए। यह मैं निवेदन कर चुका हूं कि नवाबी लखनऊ में बटेरों की बादशाहत थी। पण्डित रतननाथ दर ‘सरशार’ अपनी ‘आज़ाद कथा’ में सफशिकन के बहाने लखनऊ के बटेर को अमर कर गए हैं।
वैसे इन पंछियों की लड़ाई का मौसम कातिक गंगानहान से लेकर फागुन तक होता है, मगर बटेर गर्मी और सर्दी दोनों ही ऋतुओं में लड़ते हैं। दोनों ऋतुओं में बटेरों की जातियां भी अलग-अलग होती हैं। गर्मी में ‘चिनख’ बटेर लड़ता है और जाड़ों में ‘घाघर’। चिनख घाघर से छोटा होता है और वज़न में छटांक-डेढ़ छटांक का होता है। चिनख की चार किस्में होती हैं; चिनख पोटिया, घाघट पोटिया, असल चिनख और चारों किस्म के बटेर गर्मी के मौसम में ही मस्ताते हैं।
सर्दी में घाघर लड़ाया जाता है। यह चिनख से बड़ा और तोल में आध पाव-ढाई छटांक का होता है। इसकी दो किस्में होती हैं, असल घाघर और चिनख घाघर की संकर जाति घाघर पोटिया।
लड़ाकू बटेरों की परवरिश में बड़ी लागत लगाई जाती है काकुन तो ये चुगते ही हैं, लड़ाने की तैयारी में इन्हें मेवे, केसर, मुश्क, और जड़ी-बूटियां भी खिलाई जाती है।
इनकी काबुकों में चूल्हें की राख या छनी हुई बारीक मिट्टी बिछा दी जाती है, जिसमें लोट-लोटकर ये अपनी मस्ती बढ़ाते हैं। इन्हें नहलाया जाता है, आवश्यकतानुसार धूप-छांह भी दी जाती है। चैत में इनके बच्चे पैदा होते हैं; वे चैतुवे कहलाते हैं। साल दो साल पुराने पोढ़े बटेर करीज कहलाते हैं, जो बाकी चालू फसल में लिए जाते हैं वे ‘नये’ कहलाते हैं। ये तीनों आपस में लड़ाए जाते हैं। घर में लड़-लड़कर पोढ़े होते है; जो बहादुर निकलते हैं वे दंगलों में भेजे जाते हैं। लड़वैये बटेरों की चोचें उस्तरे से बारीक बनाई जाती हैं ताकि उम्दा मार कर सकें।
बटेरों की लड़ाई देखने में बड़ी सनसनीखेज़ होती है। ये नन्हा बूटेदार कत्थई या काले रंग का पहाड़ी जानवर अपने प्रतिद्वन्द्वी को देख पर फुलाते और बड़ी शान से पैंतरे बदलते हुए अचानक उछलकर वार करता है, कभी खींच मारता है, कभी मुर्री लगाता है, कभी फाड़ता है तो कभी दुश्मन की आंखों में चोच मारता है या उसकी चोंच तोड़ता है। लड़ते-लड़ते बटेर लहूलुहान हो जाते हैं, जितना लड़ते हैं उतना गरमाते हैं। हरैला बटेर जीतने वाले से अपनी जान छुड़ाकर सीधे नोकदम पाली बाहर भागता है, वरना जीतने वाला उसकी जान न छोड़े।
अब तीतरों की बात सुनिए। टीले मैदानों में तीतर चुगते, खाली पिंजरा लिए ‘लियो बेटे हुई-हुई’ की हांक मारते तीतर-प्रेमीजन गली-मुहल्लों और गांव-खेड़ों में आपने अक्सर देखे होंगे। तीतर बड़ा मस्त और ताकतवर जानवर होता है। वह चैत में पैदा होता और सर्दी में मस्त होकर लड़ता है। लड़वैए तीतरों की खुराक भी बटेरों की तरह कीमती होती है। वैसे इसे मिट्टी, आटा और दीमक भी चुगाया जाता है। पालने वाले अपने घरों में इनके लिए एक नलचीसी बनाकर उसमें बारीक मिट्टी भर देते हैं ताकि ये खूब लोटें-पोटें। गर्मी में पानी से तर बालू भर देते हैं। इनकी चार जातियां होती है और चार किस्में। ये देसी, गंगापारी, दक्खिनी और दोगली जातियों के होते हैं। रंग-भेद के अनुसार ये भूरिया, मेहंदिया, करौंदिया और काले कहलाते हैं। इनकी लड़ाई के दांव-पेंच भी देखने के काबिल होते हैं। ये अपने दुश्मन की आंख काटते हैं, चोच में चोंच डालकर ज़बान काटते हैं, जिसे ‘कुफल मारना’ कहा जाता है, दुश्मन की खोपड़ी में चोंच मारने को ‘डंक मारना’ कहते हैं, एक ही स्थल पर बराबर किए जाने का टेक्निकल नाम ‘एक ठौर मारना’ और चंचल गति से दुश्मन के शरीर के हर भाग पर आघात करने को ‘फड़कमार’ कहते हैं।
अब दास्ताने बुलबुल सुनिए। सर्दी में पीतल के अड्डों पर बुलबुल लिए इनके शौकीन भी आपको अक्सर देखने को मिल जाएंगे। इनकी चार किस्में होती हैं, सफेद, काला, काला-सफेद, और तौखी। अमरूदों के बाग में अक्सर ये पाये जाते हैं। इनका भोजन अधिक कीमती नहीं होता। भुने हुए चने का बेसन इन्हें खिलाया जाता है। जब लड़ना होता है तो दस-बारह घंटे पहले से इन्हें भूखा रक्खा जाता है। प्रतिद्वन्द्वी को देखते ही ये भूखे बुलबुल एक-दूसरे पर झपट पड़ते हैं, एक पंजो से चोंच और दूसरे से पंजा पकड़कर ये गुंथ जाते हैं। जो ताकतवर होता है वह कमजोर को दबाकर पड़ जाता है और कमजोर उसके पंजे से छूटने के लिए जी-जान से प्रयत्न करता है।
इनकी परिचर्या भी बड़ी सावधानी से होती है। अड्डे पर लिये-लिये इन्हें बराबर घर-बाहर घुमाया और उड़ाया जाता है। इन्हें दंगलों में लड़ाने के लिए यह आवश्यक होता है कि एक ही जगह रखकर लड़ाने की प्रैक्टिस न की जाए, वरना ये दूसरी जगह न लड़ेंगे। हारा हुआ बुलबुल मुंह घुमाकर बैठ जाता है, विजयी से नज़रे नहीं मिलाता।
इस तरह तरह-तरह के शौक हैं, शौकों के पीछे आदमी तबाह है और तबाही में लड़ाई की बात तो आ ही जाती है।
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