१. तोड़ों नहीं, जोड़ो
अंगुलिमाल नाम का एक बहुत बड़ा डाकू था। वह लोगों को मारकर उनकी उंगलियां काट लेता था और उनकी माला पहनता था। इसी से उसका यह नाम पड़ा था। आदमियों को लूट लेना, उनकी जान ले लेना, उसके बाएं हाथ का खेल था। लोग उससे डरते थे। उसका नाम सुनते ही उनके प्राण सूख जाते थे।
संयोग से एक बार भगवान बुद्ध उपदेश देते हुए उधर आ निकले। लोगों ने उनसे प्रार्थना की कि वह वहां से चले जायं। अंगुलिमाल ऐसा डाकू है, जो किसी के आगे नहीं झुकता।
बुद्ध ने लोगों की बात सुनी,
पर उन्होंने अपना इरादा नहीं बदला। वह बेधड़क वहां घूमने लगे।
जब अंगुलिमाल को इसका पता चला तो वह झुंझलाकर बुद्ध के पास आया। वह उन्हें मार डालना चाहता था, लेकिन जब उसने बुद्ध को मुस्कराकर प्यार से उसका स्वागत करते देखा तो उसका पत्थर का दिल कुछ मुलायम हो गया।
बुद्ध ने उससे कहा, "क्यों भाई, सामने के पेड़ से चार पत्ते तोड़ लाओगे?"
अंगुलिमाल के लिएयह काम क्या मुश्किल था! वह दौड़ कर गया और जरा-सी देर में पत्ते तोड़कर ले आया।
"बुद्ध ने कहा, अब एक काम करो। जहां से इन पत्तों को तोड़कर लाये हो, वहीं इन्हें लगा आओ।"
अंगुलिमाल बोला, "यह कैसे हो सकता?"
बुद्ध ने कहा, "भैया! जब जानते हो कि टूटा जुड़ता नहीं तो फिर तोड़ने का काम क्यों करते हो?"
इतना सुनते ही अंगुलिमाल को बोध हो गया और वह उस दिन से अपना धन्धा छोड़कर बुद्ध की शरण में आ गया।
२. हम सब चोर हैं
पुराने जमाने की बात है। एक आदमी को अपराध में पकड़ा गया। उसे राजा के सामने पेश किया गया। उन दिनों चोरो को फांसी की सजा दी जाती थी। अपराध सिद्ध हो जाने पर इस आदमी को भी फांसी की सजा मिली। राजा ने कहा, "फांसी पर चढ़ने से पहले तुम्हारी कोई इच्छा हो तो बताओ।"
आदमी ने कहा, "राजन्! मैं मोती तैयार करना जानता हूं। मेरी इच्छा है कि मरने से पहले कुछ मोती तैयार कर जाऊं।"
राजा ने उसकी बात मान ली और उसे कुछ दिन के लिए छोड़ दिया।
आदमी ने महल के पास एक खेत की जमीन को अच्छी तरह खोदा और समतल किया। राजा और उसके अधिकारी वहां मौजूद थे।
खेत ठीक होने पर उसने राजा से कहा, "महाराज, मोती बोने के लिए जमीन तैयार है, लेकिन इसमें बीज वही डाल सकेगा, जिसने तन से या मन से कभी चोरी न क हो। मैं तो चोर हूं, इसलिए बीज डाल नहीं सकता।"
राजा ने अपने अधिकारियों की ओर देखा। कोई भी उठकर नहीं आया।
तब राजा ने कहा, "मैं तुम्हारी सजा माफ करता हूं। हम सब चोर हैं। चोर चोर को क्या दण्ड देगा!"
३. भगवान के दरबार में सब बराबर
यूनान की बात है। वहॉँ एक बार बड़ी प्रदर्शनी लगी थी। उस प्रदर्शनी में अपोलो की बहुत ही सुन्दर मूर्ति थी। अपोलो को यूनानी अपना भगवान मानते हैं। वहॉँ राजा और रानी प्रदर्शनी देखने आये। उन्हें वह मूर्त्ति बड़ी अच्छी लगी। राजा ने पूछा, "यह किसने बनाई है?"
सब चुप। किसी को यह पता नहीं था कि उसका बनाने वाला कौन है। थोड़ी देर में ही सिपाही एक लड़की को पकड़ लाये। उन्होंने राजा से कहा, "इसे पता है कि यह मूर्त्ति किसने बनाई है, पर यह बताती नहीं।"
राजा ने उससे बार-बार पूछा, लेकिन उसने बताया नहीं। तब राजाने गुस्त में भरकर कहा, "इसे जेल में डाल दो।"
यह सुनते ही एक नौजवान सामने आया। राजा के पैरों में गिरकर बोला, "आप मेरी बहन को छोड़ दीजिए। कसूर इसका नहीं मेरा है। मुझे दण्ड दीजिए। यह मूर्त्ति मैंने बनाई है।"
राजा ने पूछा, "तुम कौन हो?"
उसने कहा, "मैं गुलाम हूं।"
उसके इतना कहते ही लोग उत्तेजित हो उठे। एक गुलाम की इतनी हिमाकत कि भगवान की मूर्त्ति बनावे! वे उसे मारने दौड़े।
राजा बड़ा कलाप्रेमी था। उसने लोगों को रोका और बोला, "तुम लोग शान्त हो जाओ। देखते नहीं, मूर्त्ति क्या कह रही है? वह कहती है कि भगवान के दरबार में सब बराबर हैं।"
राजा ने बड़े आदर से कलाकार को इनाम देकर विदा किया।
४. धीरज का फल
आस्ट्रेलिया की घटना हैं उसके पश्चिमी किनारे छ: मील की दूरी पर एक जहाज चट्टान से टकरा गया। जहाज के सारे कर्मचारी बड़े तत्परता से सुरक्षा का काम करने लगे। जहाज में साढ़े चार सौ मुसाफिर थे। वे सब शान्ति से अपनी-अपनी जगह पर रहे।
इतने में जहाज से अधिकारी न हुक्म दिया, "डोंगियों पर चढ़ो!"
सारे मुसाफिरों ने सुरक्षा की पेटियां पहन लीं। उनमें एक आदमी नेत्रहीन था। वह अपने नौकर का हाथ थामे डेक पर आया। एक आदमी बीमार था। वह भी किसी का सहारा लेकर आया। सब लोगों ने एक ओर हटकर उनके लिए रास्ता कर दिया। अपनी-अपनी बारी से वे सब नावों में उतर गये। जहाज खाली हो गया। फिर उनके देखते-देखते वह समुद्र के पेट में समा गया।
डोंगी पर बैठी एक स्त्री गाने लगी:
प्यारे नाविक, बढ़ो किनारा पास है;
कर्म करो जबतक इस तन में सांस है
यह जीवन साहस का दूजा नाम है-
प्यारे नाविक, बढ़ो किनारा पास है।
मल्लाहों का हौसला बढ़ गया और सारे यात्री सकुशल किनारे पहुंच गये। यदि मुसाफिर घबरा गये होते और उन्होंने धीरज न रक्खा होता तो उनमें से बहुतों की जानें चली गई होतीं।
५. आखिरी दरवाजा
एक फकीर था। वह भीख मांगकर अपनी गुजर-बसर किया करता था। भीख मांगते-मांगते वह बूढ़ा हो गया। उसे आंखों से कम दीखने लगा।
एक दिन भीख मांगते हुए वह एक जगह पहुंचा और आवाज लगाई। किसी ने कहा, "आगे बढ़ो! यह ऐसे आदमी का घर नहीं है, जो तुम्हें कुछ दे सके।"
फकीर ने पूछा, "भैया! आखिर इस घर का मालिक कौन है, जो किसी को कुछ नहीं देता?"
उस आदमी ने कहा, "अरे पागल! तू इतना भी नहीं जानता कि यह मस्जिद है? इस घर का मालिक खुद अल्लाह है।"
फकीर के भीतर से तभी कोई बोल उठा-यह लो, आखिरी दरवाजा आ गया। इससे आगे अब और कोई दरवाजा कहां है?
इतना सुनकर फकीर ने कहा, "अब मैं यहां से खाली हाथ नहीं लौटूंगा। जो यहां से खाली हाथ लौट गये, उनके भरे हाथों की भी क्या कीमत है!"
फकीर वहीं रुक गया और फिर कभी कहीं नहीं गया। कुछ समय बाद जब उस बूढ़े फकीर का अन्तिम क्षण आया तो लोगों ने देखा, वह उस समय भी मस्ती से नाच रहा था।
६. नशे का तमाशा
एक आदमी बड़ा शराबी था। शाम होते ही वह शराबघर में पहुंच जाता और खूब शराब पीता। एक दिन उसने इतनी चढ़ाई कि चलते समय उसे पूरा होश न रहा। वह साथ में लालटेन लाया था। उठाकर घर की ओर चल दिया। रास्ते में गहरा अंधेरा था। उसने लालटेन को इधर घुमाया, उधर घुमाया और जब उससे रोशनी न मिलती तो उसने जी भरकर उसे गालियां दीं।
घर आकर उसने लालटेन को बाहर पटक दिया और घर के अन्दर जाकर सो गया।
सवेरे जैसे ही उठा तो देखता क्या है कि शराबघर का आदमी उसकी लालटेन लिये चला आ रहा है। उसे बड़ा अचरज हुआ कि वह लालटेन उसके हाथ में कैसे है!
पास आकर वह बोला, "महाशयजी, रात को आपने अच्छा तमाश किया! अपनी लालटेन छोड़ आये और हमारा पिंजड़ा उठा लाये। लीजिये, अपनी यह लालटेन और हमारा पिंजड़ा हमें दीजिये।"
यह सुनकर उस आदमी को अपनी भूल मालूम हुई। नशे में रात को सचमुच वह लालटेन नहीं, पिंजड़ा उठा लाया था।
७. दान का आनन्द
एक राजा थे। वह बड़े ही उदार थे। दानी तो इतने कि खाने-पीने की जो भी चीज होती, अक्सर भूखों को बांट देते और स्वयं पानी पीकर रह जाते।
एक बार ऐसा संयोग हुआ कि उन्हें कई दिनों तक भोजन न मिला। उसके बाद मिला तो थाल भरकर मिला। उसमें से भूखों को बांटकर जो बचा, उसे खाने बैठे कि एक ब्राह्मण आ गया। वह बोला, "महाराज! मुझे कुछ दीजिये।"
राजा ने थाल में से थोड़ी-थोड़ी चीजें उठाकर उसे दे दीं। फिर जैसे ही खाने को हुए कि एक शूद्र आ गया। राजा ने खुशी-खुशी उसे भी कुछ दे दिया। उसके जाते ही एक चाण्डाल आ गया। राजा ने बचा-बचाया सब उसे दे दिया। मन-ही-मन सोचा, कितना अच्छा हुआ, जो इतनों का काम चला! मेरा क्या है, पानी पीकर मजे में अपनी गुजर कर लूंगा।
इतना कहकर वह जैसे ही पानी पीने लगे कि हांफता हुआ एक कुत्ता वहॉँ आ गया। गर्मी से वह बेहाल हो रहा था। राजा ने झट पानी का बर्तन उठाकर उसके सामने रख दिया। कुत्ता सारा पानी पी गया।
राजा को न खाना मिला, न पानी, पर उसे जो मिला उसका मूल्य कौन आंक सकता है!
सदस्यता लें
टिप्पणियाँ भेजें (Atom)
कोई टिप्पणी नहीं:
एक टिप्पणी भेजें