17 अगस्त, 2009

पडो़सिन की चिट्ठियां - अमृतलाल नागर (हास्य-व्यंग्य)

सावित्री सीने की मशीन खरीदने गई थी। लेकिन बड़ी देर हो गई। मैं उतावला होकर सोचने लगा कि अब तो उसे आ जाना चाहिए। तीन बजे हैं। पिछले बीस दिनों से, जब से सावित्री यहां आई है, हम पहली बार इतनी देर के लिए अलग हुए थे। नई पत्नी वैसे ही आकर्षण की चीज होती है-उसके सामने दुनिया में कुछ नहीं दिखलाई देता।
इन बीस दिनों में हमने दुई को इकाई के रूप में देखा है। हमने इतना प्यार एक-दूसरे पर निछावर किया है कि हमें स्वयं ही अपनी अमूल्य प्रेम निधि की थाह नहीं मिलती, और फिर सावित्री कवयित्री।
‘‘पोस्टमैन!’’-दरवाज़े की खटखट के साथ आवाज आई और दरवाज़े की नीचे की झिरी से कुछ चिट्ठियां और पत्रिकाएं कमरे के फर्श पर आ फिसलीं। जब से सावित्री आई मेरे घर पोस्टमैन रोज़ आने लगा है, वरना मेरी चिट्ठियां तो होली-दीवाली में आया करती थीं।
मैं दरवाज़े के आगे फर्श पर बिखरी हुई डाक को देखता रहा। उठने में ऐसा आलस लग रहा था। सावित्री के अब तक न आने के कारण मन में अनख भी थी।

इस सावित्री को अपनी जीवन संगिनी बनाने से पहले मैंने इन्कार कर दिया था। श्रीमती जी मेरी भाभी की सगी फुफेरी बहन हैं। भाभी स्वाभाविक रूप से इन्हीं के कर-कमलों द्वारा मेरे गले में वरमाला डलवाने का निश्चय कर चुकी थीं।
भाभी नाराज हो गई, मगर मेरी ‘ना’ ‘हां’ में न बदली। इसे पांच-छ: महीने बाद अपनी पत्नी का अपेंडिसाइटिस का आपरेशन कराने के लिए सावित्री के भाई साहब झांसी से लखनऊ पधारे सावित्री भी उनके साथ ही आई थी। मेरे बड़े भैया ने पत्र लिखकर यह आदेश दिया था कि मैं उनके काम आऊं, लिहाजा काम आने लगा। सरकारी फोटोग्राफर हूं। मेरे काम से मेरे अफसर बेहद खुश हैं। उन्हें आस्पताल में काटेज वार्ड भी मिल गया, आपरेशन और देखभाल भी भली प्रकार हुई। सावित्री के भाई साहब छुट्टी बीतने पर मेरे ऊपर ही पूरी जिम्मेदारी छोड़कर लौट गए।...और फिर, जैसा कि जग जाहिर है कि जब एक सावित्री ने यमराज का पीछा न छोड़ा, तो दूसरी भला मुझे क्यों छोड़ सकती थी। उसकी सुन्दरता, कार्य-तत्परता और कार्य-कुशलता तो मन को मोहने वाली लगी ही, बीमार के तीमारदार होने के नाते जब आपस का संकोच मिटा तो उसने बात-बात में अपने मीठे तानों से मेरे पुराने गुनाह के टांके तोड़ दिए। उनकी भाभी भी बढ़ावा देने लगीं।

यह सुनकर मेरे लिए कवयित्री का पति बनने के अलावा कोई चारा न रहा। सच बात यह है कि मैं वचन-मन-कर्म से सावित्री का गुलाम हो चुका था।
यह गुलामी कुछ बुरी नहीं रही। इन बीस दिनों के सहवास से ही सावित्री का यह गुलाम अपने-आपको त्रिभुवन का स्वामी अनुभव करने लगा। सावित्री कवयित्री होने के बावजूद निहायत सीधे स्वभाव की और कुशल गृहिणी है।
और वह अभी तक नहीं आई। कोठी के दूसरे हिस्से में रहनेवाली मिसेज़ राज़दान के साथ गई थी, बड़ी देर कर दी।

मैं आरामकुर्सी से उठ खड़ा हुआ, डाक उठाई, दो पत्रिकाएं, दो पोस्टकार्ड, एक लिफाफा। पत्रिकाओं के रैपर फाड़े। दोनों में सावित्री शर्मा की कविताएँ छपी थीं, एक उसका चित्र भी था। यह चित्र मैंने ही उतारा था। मैंने सोचा, लिफाफा उसकी भाभी या किसी सहेली का होगा। उसे भी पढ़ने की इच्छा हुई.....यह क्या ? पत्र की पहली लाइन, पहले सम्बोधन पढ़ते ही मैं सन्न रह गया, मेरी आंखों के सामने अंधेरा छा गया। सावधान होकर एक बार फिर लिफाफे पर नजर डाली। शायद किसी और का पत्र हमारी डाक के साथ-साथ धोखे में आ गया हो, मगर सावित्री का नाम और पता बिल्कुल ठीक लिखा हुआ था। बस यही था कि यह पत्र मेरे ‘केयर आफ’ होकर नहीं आया था। दिल धुआं धुआं हो गया था। खैर, सावित्री नाम के इस-भेद-भरे पत्र का पूरा पढ़ जाने की इच्छा ने मन को तनिक सम्भाला। चिट्ठी लखनऊ से ही आई थी। लिखा था:

‘‘मेरी प्राणवल्लभा,

‘‘तुम शायद इस तरह मेरे द्वारा पुकारे जाने से नाराज होगी, पर मैं अपने-आपसे मजबूर हूं। तुम अब मेरी रूहेरवां हो, मैं हरदम तुम्हारे ही नाम का जाप किया करता हूं।
‘‘रानी, मैं बहुत पापी हूं, तुम्हारे योग्य नहीं। तुम जैसी देवी को पाकर भी अभागा ही रहा। मैं तुम्हारी कद्र नहीं कर सका। पर मैं तुमसे ईश्वर की सौगन्ध खाकर कहता हूं कि यह दोष मेरा नहीं, शराब और उस बुरी संगत का था, जिसने मेरी बुद्धि पर परदा डाल रक्खा था। तुमने मुझे छोड़ दिया, अच्छा किया। जिसके कारण तुमने छोड़ा, या सच कहूं जिस कांच के लिए मैंने तुम्हारे जैसे हीरे को अपने घर से बाहर निकाला, वह भी आज छ: महीने हुए मुझे छोड़कर चली गई है। सुना है, बम्बई में सिनेमा-स्टार होने गई है। उस पापिष्ठा ने- अब उसका नाम लेने से भी नफरत होती है- मेरे जीवन का सारा सत्व खींच लिया। मैं इसी काबिल था।

‘‘सावित्री, पिछले तीन वर्षों से हर पल आठों पहर मैंने तुम्हें ही याद किया है। कई बार आत्महत्या का विचार भी आया, पर अशोक का ही ध्यान कर रुक गया। उस गरीब की मां मैंने छीन ली। अब खुद भी न रहूं तो वह बेसहारा आखिर कहां जाएगा। उसका क्या होगा ?
‘‘तुम्हारा पता लगाते हुए यहां आया हूं। अशोक भी मेरे साथ ही है। कल मैंने तुम्हारे नये पति के साथ तुम्हें हज़रतगंज में देखा था। तुम मुझे सुखी नज़र आई। तुम्हारा वह पति देखने में तो शरीफ ही लगता है। मैं तुमसे किस तरह बतलाऊं कि अपनी सावित्री को दूसरे के साथ देखकर मेरा दिल रोया है। तुम्हारा नाम लेकर पुकारने के लिए दिल बावला होकर बार-बार उछला। बड़ी मुश्किल से मैं अपने ऊपर काबू पा सका। खैर, तुम खुश रहो प्रिय !
‘‘........क्या एक बार मिल सकोगी? एक बार आ जाओ, मैं तुम्हारे चरण छूकर क्षमा मांगना चाहता हूं। बस, इतना ही चाहता हूं। आओगी ? मेरे लिए न सही, अपने अशोक के लिए ही एक बार, बस एक बार। मैं होटल में आठों पहर तुम्हारी ही प्रतीक्षा करता रहूंगा।

केवल तुम्हारा,
अभागा राम

एक सांस में पत्र पढ़ गया, इतनी जरा-सी देर में ही मेरी दुनिया मेरी न रही। थोड़ी देर के लिए मेरी चेतना हत हो गई।
सावित्री का कोई और भी दावेदार है ? सावित्री किसी के बेटे की मां है ? सावित्री, जिसे मैं अपनी, केवल अपनी समझता था।..पर इसने मुझे ठगा क्यों ? मेरी भाभी ने मुझे क्यों इस तरह बे-आसरा कर दिया ? ओह, मैं कहीं का न रहा।

विश्वास का उठना ही प्रलय है। दीन-दुनिया और ईश्वर से, अपने से मेरा विश्वास उठ गया। खोखलापन बढ़ता ही जा रहा था। मैं सोचने लगा कि सावित्री के सामने आने पर मैं उससे नज़रे कैसे मिलाऊंगा ?
घड़ी ने चार घण्टे बजाए। मेरा ध्यान उधर गया। सावित्री अभी तक नहीं आई। शायद उसका पहला पति उसे रास्ते में कही मिला हो, शायद वह अपने बेटे को देखने चली गई हो, विचारों ने मुझे बेहद बेचैन कर दिया। सहसा विचार आया कि इस पत्र को यहीं पलंग पर खुला छोड़कर चला जाऊं, सावित्री आएगी, पत्र पढ़कर जो उसका जी चाहेगा, करेगी। उसे अपने पहले पति के पास लौट जाना हो तो लौट जाए। तीर की तरह विचार आया, मैंने बेखुदी के आलम में कपड़े पहने, जल्दी-जल्दी उसी पत्र पर एक लिखी कि तुम स्वाधीन हो। आघात, आंसू और अंधेरा यही उस समय मेरे रहनुमा थे। जिधर बढ़ा ले चले, मैं बढ़ चला।

घंटों वीराने में बैठकर तरह-तरह की बातें सोचकर बिता दिए। सावित्री अगर अपने पहले पति के पास जाना चाहे, मान लो, चली जाए, तब मैं दुनिया को मुंह किस तरह दिखाऊंगा। दोस्त-अहबाब खिल्ली उड़ाएंगे। मैंने सोचा कि ऐसी दशा में मैं यह घर, नगर, नौकरी सब छोड़कर सन्यासी हो जाऊंगा.....लेकिन। अगर वह मेरे पास ही रहना पसन्द करे ?

बाहर का अंधेरा मेरे मन के अंधेरे से मिलकर चारों ओर घटाटोप छा गया। कहीं कुछ नहीं सूझ रहा था। कदम अपने-आप मुझे घर की ओर बढ़ा ले चले, शायद उनके लिए भी दूसरा कोई चारा न था।
खिड़की के जंगले की परछाई बगीचे की सड़क और चारदीवारी के किनारे मेहंदी की बाड़ पर लम्बी होकर पड़ रही थी, और उस परछाई के बीचोबीच एक इंसान की छाया अंकित थी। वह इंसान सावित्री के अलावा और कौन हो सकता था? मेरे पैर वहीं के वहीं ठिठक गए, एक बार यह इच्छा भी हुई कि लौट चलूं।
‘‘कौन है !’’ कोठी का चौकीदार दूसरी ओर से गश्त लगाता हुआ मेरी तरफ आया। मुझे जवाब देने पर मजबूर होना पड़ा।
जंगले की परछाई से इंसानी परछाई झट से अलग हो गई, मेरे घर के दरवाज़े खुल गए। सावित्री दरवाजे पर खड़ी थी।
मैं सावित्री से नज़रे न मिला सका, सीधा जाकर आरामकुर्सी पर गिर पड़ा, और आंखें मूंद लीं। मन ही तहों में दबी हुई मेरी आशा के अनुसार सावित्री का स्वर न सुनाई दिया। मेरी खीझ और बढ़ गई। पल, मिनट बनकर बढ़े और मिनट भी बीत गए। सहसा मुंदी आंखों पर तेज चमक पड़ी, कैमरा क्लिक होने की आवाज़ कान में आई। आंखें खुल गईं, देखा मेरी पत्नी कैमरा लिए खड़ी मुस्करा रही है। मुझे देखते देखकर उसने कहा- ‘‘तुम्हारा यह मूड़ तो अब दुबारा देखने को मिलेगा नहीं, फोटों खींच ली ताकि याद रहे।’’

इतनी देर की असाध्य वेदना के कारण बात बड़े ही उलझे और अटपटे ढंग से मेरे कानों में प्रवेश कर सकी। सावित्री हाथ पकड़कर खींचते हुए बोली- ‘‘उठिए, उठिए, आपको तो बीवी की बेवफाई सता रही है, और मेरी आंते भूख के मारे सुलग-सुलगकर कंडा हो रही हैं। कहती हूं चलो भी, उठो, हाथ-मुंह धो लो। अभी मेरा लड़का और भूतपूर्व पति आनेवाला है मुझे लेने के लिए।’’
सावत्री मुझे अपने अनुशासन में बांधती गई। जैसे-जैसे मन सम्भलता गया, उस पत्र को लेकर मेरा कौतूहल भी बढ़ता गया। पर सावित्री को तो मुझे अभी और सताना था। अपनी खरीदी हुई मशीन दिखालाई, स्टोव, बिजली की इस्तरी दिखलाई, मेरी कमीज़ों के लिए कपड़ा दिखलाया, सबके दाम बतलाए, कितनी दूकानें घूमकर किफायतशारी से सौदा किया, इसका ब्यौरा सुनाने लगी।

मैंने कहा- ‘‘सावित्री, मैं बात सुनने के लिए मर रहा हूं !’’
‘‘मैं क्या जानूं ? सावित्री शर्मा नाम की कोई और स्त्री नहीं हो सकती क्या ?’’
‘‘पर यहां का पता-’’
‘‘इस कोठी के अकेले किरायेदार क्या तुम्हीं एक शर्मा जी हो ?’’
‘‘तो क्या, शर्मा जी, वकील साहब की.....’’
‘‘शी! धीरे बोलो। हां, उनका भी वही नाम है। मिसेज़ राजदान मुझे बतलाती थीं, कि पहले ये शर्मा जी की बडी़ लड़की सरोज को पढ़ाने आया करती थीं, फिर इन्होंने सिविल मैरेज कर ली।’’
अपनी स्थिति को सुरक्षित पाकर मेरे मन में श्रीमती सावित्री शर्मा के प्रति सहानुभूति उमड़ने लगी। ध्यान गया, वे बड़ी सरल और शान्त हैं, और उनके चेहरे पर सदा उदासी की काली छाया भी पड़ी रहती है। शर्मा जी भी बड़े सज्जन और गंभीर पुरुष हैं। उन्हीं की कृपा से मुझे यह घर मिला है। क्या उन्हें अपनी पत्नी के पिछले रिश्ते का पता होगा ?

रात बड़ी देर तक हम एक-दूसरे की बाहों में सुरक्षित पड़ोस के घर की बातें करते रहे।
हम लोग सुरक्षित होकर भी परायों के लिए उदास रहे। पड़ोसिन की चिट्ठी उसे दे दी जाए, अथवा नहीं, इस पर भी विचार किया।
अंत में हमने चिट्ठी न देने का निश्चय किया। दो रोज बाद फिर पत्र आया। पत्र लम्बा था और क्षमा-याचना से भरा हुआ, बड़ा ही करुण था। तीसरे-चौथे रोज़ फिर पत्र आने लगे। डाकिया उन्हें मेरी सावित्री के समझकर मेरे घर छोड़ जाता था और हम लोग भी परायी कहानी जानने के लिए उन्हें चुराकर पढ़ते रहे। इस बीच मेरी सावित्री ने वकील साहब की सावित्री के साथ अधिक उठना-बैठना शुरू कर दिया। सावित्री पड़ोसिन सावित्री की प्रशंसा करते नहीं आघाती थी। वकील साहब की पहली पत्नी के दोनों बच्चों को उसने ऐसी ममता दी है कि उन्हें अपनी मां की याद भी नहीं आती। वकील साहब का जीवन भी शांति और संतोष से भरा है।

एक दिन पत्र आया। यह पत्र सबसे छोटा था। लिखा था, ‘‘मुझे इसकी शिकायत नहीं कि तुमने मुझे माफ न किया, सिर्फ मौत ही मेरे गुनाहों को माफ कर सकती है, अशोक को बुखार आ गया है, डाक्टर टाइफायड बतलाता है, पर अब मुझमें किसी की तीमारदारी करने का कुछ भी उत्साह नहीं रहा। आज शाम से कल सुबह तक किसी भी समय, खास तौर पर ऐसे समय जब अंधेरा मेरी मनहूस सूरत को तुम्हारी दृष्टि से बता सके, अशोक तुम्हारी कोठी के फाटक पर पड़ा होगा। अपने बच्चे पर दया आए तो उठा लेना।’’

पत्र पड़कर हम दोनों घबरा गए। पड़ोसिन से उसकी चिट्ठियां छिपाकर हमने बड़ी नादानी, बड़ा अपराध किया। इससे एक व्यक्ति की जान चली जाएगी। चोरी करना आसान है, पर चोरी उगलना बड़ा ही कठिन। फिर भी हमने यही करने का निश्चय किया। सावित्री बोली,- ‘‘तुम होटल जाकर इस राम को बुला लाओ। मैं सावित्री से किसी तरह सारी बात समझाकर कह दूंगी।’’
होटल के कमरे में पड़ोसिन के भूतपूर्व पति और उसे बीमार बच्चो को देखकर बड़ी ही दया उपजी। राम का शरीर कांटे की तरह सूखा हुआ, चेहरे पर मुर्दनी, केवल फटी-फटी आंखें ही जाने किस आशा की ज्योति से जगमगा रही थीं। पड़ोसिन का बेटा, जिसकी आयु लगभग चार वर्ष की होगी, बुखार में बेहोश पड़ा था। मैंने राम को अपना परिचय दिया और उससे फौरन अपने घर जाने का आग्रह किया। बीमार अशोक को ले जाना या अकेला छोड़ जाना असंभव था। मैंने राम के लौट आने तक वहीं बैठे रहने का निश्चय किया।
लेकिन राम फिर लौटकर न आया, चार-पांच घंटे बाद वकील साहब और उनकी सावित्री ने कमरे में प्रवेश किया।
सावित्री गहरी, उदास, कठोर मुखमुद्रा और आंसूविहीन पथराई दृष्टि से देखने वाली नारी अपने बेटे को देखकर कटे पेड़-सी गिर पड़ी, बेहोश हो गई।
घर जाने पर मेरी पत्नी ने बतलाया कि बड़ी देर तक राम के बैठे रहने पर भी, अपनी पत्नी को एक झलक देखने के लिए गिड़गिड़ाहट भरी प्रार्थना करने पर भी, मेरी सावित्री के बार-बार कहने पर भी, पड़ोसिन ने मिलने से इंकार कर दिया था।
सहानुभूति ने दोनों सावित्रियों में सौहार्द उत्पन्न कर दिया। एक दिन मेरी सावित्री ने अंतरंग क्षण में पड़ोसिन से पूंछा:‘‘बहन, तुमने अपने पुत्र को तो बचा लिया, परन्तु उसके पिता को सदा के लिए मिटा दिया, तुम केवल पाप को ही देखती हो, प्रायश्चित को नहीं?’’

पड़ोसिन सावित्री ने कुछ देर मौन रहकर एक दीर्घ श्वास छोड़ते हुए कहा:‘‘परिस्थितियों ने जीवन में दो पति तो दिए; पर दो मन कहां से लाऊं बहन ? अब तो एक जो था वह भी पत्थर हो गया- केवल कर्त्तव्य हो गया।’’
पड़ोसिन सावित्री का पीला और सूखा चेहरा उसके पत्थर मन का प्रतीक बन गया था।

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