16 दिसंबर, 2010

दाग़ अच्छे हैं ! - डॉ. पुष्पेंद्र दुबे

दूरदर्शन पर कपड़े धोने के साबुन का एक विज्ञापन अक्सर आता है। कीचड़ में लथपथ बच्चे को देख माँ उसे डाँटती-फटकारती नहीं है। उसकी बढ़ाई करते हुए कहती है ‘दाग़ अच्छे हैं’। विज्ञापन से लेकर लोकतंत्र के मंदिर तक दाग़ों को अच्छा बताया जा रहा है। यह लोकतंत्र के लिए शुभ लक्षण है। जब भी इस विज्ञापन को देखता हूँ मेरे सामने अपने देश के पूजनीय लोकतंत्र के मंदिर में बैठने वाले ‘सज्जनों’ की तस्वीर घूम जाती है। उसी समय भजन की पँक्तियाँ भी गुनगुनाने लगता हूँ ‘लागा चुनरी में दाग़ छिपाऊँ कैसे’।

कैसा जमाना आया है। अब दाग़ को छिपाने की जरूरत नहीं है। लोकतंत्र के मंदिर में प्रवेश करते समय दाग़ों को ज़ाहिर करना पड़ता है। ये दाग़ लोकतंत्र के मंदिर के पुजारियों ने बड़ी मेहनत से कमाए हैं। पूरे जीवन को इन्होंने दाँव पर लगा दिया। इन दाग़ों पर इन्हें शर्म नहीं आती, बल्कि गर्व का अनुभव होता है। इनके संपर्क में जो आता है, स्वयं को धन्य अनुभव करता है। उसे ऐसा लगता है जैसे परमपद का स्पर्श कर लिया हो। ये दाग़ स्थानीय न होकर अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर उजागर होते हैं। इसलिए इनकी ख्याति अखिल विश्व में फैल जाती है और इन्हें अपनी छाती चौड़ी करने का मौक़ा मिल जाता है। आख़िर जनता के प्रतिनिधि हैं तो उनकी ख़ातिर कुछ दाग़ अगर लग ही गए तो क्या हुआ। इन्हीं दाग़ों के बलबूते पर तो वोट कबाड़े जाते हैं। लोगों को डराया, धमकाया जाता है।

राजनीतिक दलों को अपनी जीत की राह ऐसे दगीलों से आसान दिखाई देती है। आज हर राजनीतिक दल यह कहने में गर्व का अनुभव करता है कि तुम्हारे ऊपर लगे हुए दाग़ अच्छे हैं। हत्या, हत्या के प्रयास, बलात्कार, बलात्कार के प्रयास, डकैती, चोरी, छिना-झपटी, घोटाले, व्यभिचार, भ्रष्टाचार, अपहरण, भूमाफ़िया, दंगे भड़काने जैसे दाग़ों को अब दाग़ नहीं माना जाता। ये तो उनके आगे बढ़ने के लिए किए गए संघर्ष की निशानियाँ हैं। दंगे भड़काने का दाग़ सबसे अधिक पूजनीय माना जाता है। यदि ये निशानियाँ नहीं होंगी तो जनता उन्हें पहचानेगी कैसे ? जनता ने भी अब मान लिया है कि लोकतंत्र के मंदिरों में अब ऐसे पुजारियों को ही प्रवेश मिल सकता है। अब दाग़ लगे लोगों के सामने यह धर्मसंकट नहीं रहता कि ‘घर जाऊँ कैसे’। जब ऐसे ही दगिले को एक राजनीतिक दल ने चुनाव में टिकट दे दिया तो हमने टिकट देने वाले से पूछ ही लिया कि आप तो शुचिता, पवित्रता और भारतीय संस्कृति का बड़ा दम भरते हैं। आपके यहाँ ऐसे दगिलों को टिकट क्यों दिया गया। वे बोले अब हमने तो दे दिया जनता चाहे तो उन्हें पटकनी दे। मुझे भी पता था कि जनता कभी ऐसा करेगी नहीं। दगिले ने बड़ी मुश्किलों से ‘बाहुबली’ की उपाधि हासिल की थी।

आख़िर लोकतंत्र के मंदिर में बाहुबलियों की ज़रूरत कब पड़ जाए, कोई नहीं जानता। ये नारा भी लगाते हैं गर्व से कहो हम दाग़ी हैं। ये अपने दाग़ तो दिखाते ही हैं, साथ में यह भी कहते हैं कि मेरे दाग़ दूसरों के मुक़ाबले में कम हैं। कुछ डरपोक क़िस्म के भी होते हैं। वे अपने दाग़ों को विरोधियों की साज़िश बताते हैं। राजनीतिक दलों के प्रमुख उनके दाग़ों पर यह कहकर बचते रहते हैं कि अभी न्याय के मंदिर ने लोकतंत्र के मंदिर के पुजारी को किसी भी दाग़ में दोषी क़रार नहीं दिया है। तब तक तो वह पुजारी रह ही सकता है। उस पर लगे हुए ‘दाग़’ तो अच्छे ही माने जाएँगे।

भारतीय होने का ज़ज़्बा - डॉ. पुष्पेंद्र दुबे

ब लोगों के पास कुछ काम नहीं रह जाता तब उनमें अचानक देशभक्ति का ज़ज़्बा पैदा हो जाता है। अधिकतर यह ज़ज़्बा सेवानिवृत्ति की उम्र के बाद ही जाग्रत होता है। आदमियों की गिनती शुरू होते ही भारतीय होने का ज़ज़्बा पैदा हो गया। ख़ुद में तो जागा ही दूसरों में जगाने के लिए भी बुझी मशाल लेकर निकल पड़े।

लोगों को अपने भाषणों से यह याद दिलाने की तुम भारतीय पहले हो, भले ही तुम्हारी जाति कोई भी क्यों न हो। आदमियों की गिनती में जाति लिखाना गुनाह है। यह अभारतीय होने के बराबर। ऐसी बात कहने वालों ने इस देश के लोगों से क्या-क्या नहीं छीना। रोटी छीनी, कपड़ा छीना, झोपड़ा छीना, धरती छीनी, आसमान छीना, उद्योग छीने। अब वे उनकी पहचान भी छीन लेना चाहते हैं।

आज़ादी के बाद से उसने भारतीय बनने की बहुत कोशिश की, परंतु पार्टीवालों ने उसे बनने ही नहीं दिया। वह दलों के दलदल में धँसा कभी इसे अपना तारणहार समझता रहा, कभी उसे। सभी अपने फ़ायदे के लिए उसकी उँगलियों के निशान लेते रहे। अब उसी से कह रहे हैं तुम भारतीय हो। समाजशास्त्री बरसों से कहते आ रहे हैं भारत जातियों का अजायबघर है। जब अजायबघर में सभी की गिनती अलग-अलग हो सकती है तो जातियों की गिनती अलग-अलग क्यों नहीं हो सकती।

एक बार तो यह पता चल ही जाना चाहिए कि आख़िर इस देश के अजायबघर में कितनी जातियाँ हैं। वैसे यह ठेका तो अभी तक इस देश के सभी राजनीतिक दलों के पास है, जो बच्चे के पैदा होते ही उसमें अपने वोटबैंक की संभावनाएँ तलाश करने लगते हैं। वे ढूँढ-ढूँढ कर जाति वाले उम्मीदवार को टिकट देने के लिए स्वतंत्र हैं। जातिवाले के जीतने की संभावना भरपूर रहती है। तब पता नहीं भारतीयता का झंडा कहाँ गुम हो जाता है। यदि जाति के आधार से गिनती कर लेंगे तो देश खण्डित हो जाएगा और ख़ुद जाति के आधार से चुनाव लड़ेगे और लड़वाएँगे तो देश का लोकतंत्र परिपक्व कहलाएगा। वाह रे भारतीयता! इनकी भारतीयता तो इतनी कच्ची है कि चुनाव के एक झटके में यह तार-तार हो जाती है। पार्टी के आदेश से बंधे हुए गुलाम ही ज़ोर-ज़ोर से भारतीय होने की पुकार मचा रहे हैं। जिनके सामने जब भी निर्णय करने का प्रश्न आता है, वे पार्टी मुख्यालय की ओर टकटकी लगाए बैठ जाते हैं। उनके हरेक निर्णय में पार्टी पहले है, देश बाद में है। पार्टी का भला होगा, तो देश का हो ही जाएगा। जिन्हें हिंदुत्व संकट में लगता है, वही जाति की गिनती होने से डर रहे हैं। जाति के आधार से आरक्षण तो स्वीकार है, परंतु गिनती नहीं। गुड़ खाएँ और गुलगुले से परहेज़ करें। कोई भूखे पेट रहकर अपने में राष्ट्र के प्रति स्वाभिमान कैसे जाग्रत कर सकता है ? कोई मंच बनाने से स्वाभिमान जाग्रत हो जाता तो इस देश से भ्रष्टाचार, आतंकवाद, नक्सलवाद कब का समाप्त हो चुका होता।

कहा तो जाता है कि ‘जात न पूछे साधु की पूछ लीजिए ज्ञान’, लेकिन पिछले बासठ साल से इस देश की हवा में यही प्रश्न तैर रहा है कौन जात हो ? इसका उत्तर तो अजायबघर में जातियों की गिनती से ही मिल सकता है। आखिर हम कोई ऐसा काम भी तो करें, जो अँगरेज़ों ने इस देश में रहकर नहीं किया हो।


10 दिसंबर, 2010

असली ख़ुशी - ललिता भाटिया

गौरव अपने दोस्त सोमू के घर गया "यार सोमू तुम्हारे घर में डीवी डी नहीं हे ओर तो ओर टी वी भी नहीं हे । तुम शाम को बोर नहीं होते । हम तो अपने घर में ख़ूब फिल्मे देखते हैं ।

"नहीं शाम को जब पापा घर आते हेतो हम कुछ देर पार्क में फ़ुटबाल खेलते हे फिर घर आकर खाना खा कर होमवर्क करते हे सोते समय कहानी सुनते हैं । सोमू ने सहज अंदाज़ में कहा।गौरव को अपना घर याद आ रहा था । पापा शराब पी देर रात को घर आते ओर मम्मी पर ज़ोर ज़ोर से चिल्लाते । कभी-कभी तो हाथ भी उठा देते थे । गौरव इन सब से अनजान बना टी.वी. के चैनल बदलता रहता । अपने आंसुओं को आँखों में समेटे कभी-कभी वह भूखा ही सो जाता ।

आज उसे असली ख़ुशी के मायने समझ आ गए थे ।

भविष्यवाणी - नन्दलाल भारती

पडोस की दो महिलायें आपस में बात कर रही थीं । एक भगवान से एक और पोता मांग रही थी । दूसरी महिला बहू की पहली डिलवरी है पोती मांग रही थी । एक और पोते की लालसा में बूढी हो रही महिला ने माथा ठोकते हुए कहा, आओ मंदिर चले।

देापहर में मंदिर क्यों?

अरे ! महात्मा आये हुए हैं, जो कहते है वही होता है। दोनों साथ हो लीं ।

महिलाओं की बात सुनकर महात्माजी बोले, एवमस्तु । दोनों घरों मे किलकारियां गूंजी पर उल्टी । पोती पैदा हुई है यह ख़बर सुनकर दूसरे पोते की लालसा में बूढी हो रही महिला बोली, कैसी भविष्यवाणी किया ढोंगी बाबा जिसकी चाह न थी वो आ गयी ?
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