24 फ़रवरी, 2010

चंद्रकांता संतति - भाग 15

रोशनी गायब हो गई, मगर अंदाज से टटोलते हुए ये दोनों भी उस गड्ढ़े के मुंह पर पहुंच गए जिसमें वह औरत उतर गई थी। उस पर एक पत्थर अटकाया हुआ था, लेकिन उन अनगढ़ पत्थर के अगल-बगल छोटे-छोटे ऐसे सुराख थे जिनके जरिए से गड्ढे़ के अंदर का हाल ये दोनों बखूबी देख सकते थे।
दोनों उसी जगल बैठ गए और सुराखों की राह से अंदर का हाल देखने लगे। भीतर रोशनी बखूबी थी। सामने की तरफ चट्टान पर बैठी वही औरत दिखाई पड़ी जिसने अभी तक अपने मुंह से नकाब नहीं उतारी थी और थकावट के सबब लम्बी सांस ले रही थी। उसके पास ही एक कमसिन खूबसूरत हब्शी छोकरी बड़ा-सा छुरा हाथ में लिए खड़ी थी, दूसरी तरफ एक बदसूरत हब्शी कुदाल से जमीन खोद रहा था, बीच में छत के सहारे एक उल्टी लाश लटक रही था, एक तरफ कोने में जल से भरा हुअा मिट्टी का घड़ा, एक लोटा और कुछ खाने का सामान पड़ा हुआ था।
कुछ देर बाद उस औरत ने अपने मुंह से नकाब उतारा। अहा, क्या खूबसूरत, गुलाब-सा चेहरा है, मगर गुस्से से आंखे ऐसी सुर्ख और भयानक हो रही हैं कि देखने से डर मालूम पड़ता है। वह औरत उठ खड़ी हुई और अपने पास वाली छोकरी के हाथ से छुरा ले उस लटकती हुई लाश के पास पहुंची और दो अंगुल गहरी एक लकीर उसके पीठ पर खींची।
हाय-हाय, ऐसी हसनी और इतनी संगदिली! इतनी बेदर्दी! अभी अभी एक खून किए चली आती है और यहां पहुंचकर फिर अपने राक्षसीपन का नमूना दिखला रही है! यह लाश किसकी है? कहीं यह भी कोई चुनार का खैरख्वाह तो नहीं।
पीठ पर जख्म खाते ही लाश फड़की। अब मालूम हुआ कि वह मुर्दा नहीं है, कोई जीता आदमी तकलीफ देने के लिए लटकाया गया है। जख्म खाकर लटका हुआ वह आदमी तड़पा और आह-भर बोला-
'हाय, मुझे क्यों तकलीफ देती हो, मैं कुछ नहीं जानता!'
औरत- नहीं, तुझे बताना ही होगा। तू खूब जानता है। (पीठ पर फिर गहरी छुरी चलाकर) बता बता!
उल्टा आदमी- हाय मुझे एक दफे क्यों नहीं मार डालती? मैं किसी का हाल क्या जानूं, मुझे इंद्रजीत सिंह से क्या वास्ता?
औरत- (फिर छुरी से काटकर) मैं खूब जानती हूं, तु बड़ा पाजी है, तुजे सब-कुछ मालूम है। बता, नहीं तो गोश्त काट-काटकर मैं जमीन पर गिरा दूंगी।
उल्टा आदमी- हाय, इंद्रजीत सिंह की बदौलत मेरी यह दशा!
अभी तक कुंवर आनंद सिंह और वह सिपाही छिपे सब कुछ देख रहे थे, मगर जब उस उल्टे हुए आदमी के मुंह से यह निकला कि 'हाय! इंद्रजीत सिंह की बदौलत मेरी यह दशा!' तब मारे गुस्से के उनकी आंखों में खून उतर आया। पत्थर हटा दोनों आदमी बेधड़क अंदर चले गए और उस बेदर्द छुरी चलाने वाली औरत के सामने पहुंच आनंद सिंह ने ललकारा-'खबरदार! रख दे छुरा हाथ से!'
औरत- (चौंककर) है, तुम यहां क्यों चले आए? खैर, अगर आ ही गए तो चुपचाप खड़े होकर तमाशा देखो। यह न समझो कि तुम्हारे धमकाने से मैं डर जाऊंगी (सिपाही की तरफ देखकर) तु्म्हारी आंखों में भी क्या धूल पड़ गई है? अपने हाकिम को नहीं पहचानते?
सिपाही- (खूब गौर से देखकर) हां, ठीक है, तुम्हारी सब बातें अनोखी होती हैं।
औरत- अच्छा तो आप दोनों आदमी यहां से जाइए और मेरे काम में हर्ज न डालिए।
सिपाही- (आनंद सिंह से) चलिए, इन्हें छोड़ दीजिए। जो चाहे सो करें, आपका क्या?
आनंद सिंह- (कमर से नीमचा निकालकर) वाह, क्या कहना है! मैं बिना इस आदमी को छुड़ाए कब टलने वाला हूं!
औरत- (हंसकर) मुंह धो लीजिए!
बहादुर वीरेंद्र सिंह के बहादुर लड़के आनंद सिंह को ऐसी बातों के सुनने का धैर्य कहां?
वह दो-चार आदमियों को समझते ही क्या थे? 'मुंह धो लीजिए' इतना सुनते ही जोश चढ़ आया। उछलकर एक हाथ नीमचे का लगाया जिससे वह रस्सी कट गई जो उस आमी के पैस से बंधी हुई थी और जिसके सहारे वह लटक रहा था, साथ ही फुर्ती से उस आदमी को सम्हाला और जोर से जमीन पर गिरने न दिया।
अब तो वह सिपाही भी आनंद सिंह का दुश्मन बन बैठा और ललकार कर बोला- 'यह क्या लड़कपन है!'
इस सुरंग में दो औरतें और एक हब्शी गुलाम हैं। अब वह सिपाही भी उनके साथ मिल गया और चारों ने आनंद सिंह को पकड़ लिया, मगर आनंद सिंह ने एक झटका दिया कि चारों दूर जा गिरे। इतने में बाहर से आवाज आई-'आनंद सिंह खबरदार! जो किया सो किया, अब आगे कुछ हौसला न करना, नहीं तो सजा पाओगे!'
आनंद सिंह से घबराकर बाहर की तरफ देखा तो एक योगिनी पर नजर पड़ी जो जटा बढ़ाए भस्म लगाए गेरुआ वस्त्र पहने दाहिने हाथ में त्रिशूल और बाएं हाथ में आग से भरा धधकता हुआ खप्पर जिसमें कोई खुशबूदार चीज चल रही थी और बहुत धुआं निकल रहा था, लिए हुए आ मौजूद हुई।
ताज्जुब में आकर सभी उसकी सूरत देखने लगे। थोड़ी देर में उस खप्पर से निकला हुआ धुआं सुरंग की खोटरी में भर गया और उसके असर से जितने वहां थे सभी बेहोश होकर जमीन पर गिर पड़े। बस, अकेली वह योगिनी होश में रही जिसने सभी को बेहोश देख कोने में पड़े हुए घड़े से जल निकाल खप्पर की आग बुझा दी।

23 फ़रवरी, 2010

चंद्रकांता संतति - भाग 14

आनंद सिंह- चुनार यहां से कितनी दूर और किस तरफ है?
सिपाही- चुनार यहां से बीस कोस है। चलिए, मैं आपके साथ चलता हूं, इन घोड़ों में इतनी ताकत है कि सवेरा होते-होते हम लोगों को चुनार पहुंचा दे। आप घर चलिए, इंद्रजीत सिंह के लिए कुछ फिक्र न कीजिए, उनका पता भी बहुत जल्द लग जाएगा, आपके ऐयार लोग उनकी खोज में निकले हुए हैं।
आनंद सिंह- ये घोड़े कहां से लाए?
सिपाही- कहीं से चुरा लाए, इसका कौन ठिकाना है?
आनंद सिंह- खैर यह तो बताओ तुम कौन हो और तुम्हारा नाम क्या है?
सिपाही- यह मैं नहीं बता सकता और न आपको इसके बारे में कुछ पूछना मुनासिब ही है।
आनंद सिंह- खैर अगर कहने में कुछ हर्ज है तो...
आनंद सिंह अपना पूरा मतलब कहने भी ने पाए थे कि कोई चौंकाने वाली चीज इन्हें नजर आई। स्याह कपड़ा पहने हुए किसी को अपनी तरफ आते देखा। सिपाही और आनंद सिंह दोनों एक पेड़ की आढ़ में गए और वह आदमी इनके पास ही से कुछ बड़बड़ाता हुआ निकल गया जिसे यह गुमान भी न था कि इस जगह पर कोई छिपा हुआ मुझे देख रहा है।
उसकी बड़बड़ाहट इन दोनों ने सुनी, वह कहता जाता था- 'अब मेरा कलेजा ठंडा हुआ, अब मैं घर जाकर बेशक सुख की नींद सोऊंगी और उसकी लाश को गीदड़ और कौवे कल दिन भर में खा जाएंगे जिसने मुझे औरत जानकर दबाना चाहा था और यह न समझा था कि इस और का दिल हजार मर्दों से भी बढ़कर है!'
आनंद सिंह और सिपाही दोनों उसकी तरफ टकटकी लगाए देखते रहे जिसकी बकवास से मालूम हो गया ता कि कोई और है, वह देखते-देखते नजरों से गायब हो गई।
सिपाही- बेशक इसने कोई खून किया है।
आनंद सिंह- और वह भी इसी जगह कहीं पास में। खोजने से जरूर पता लगेगा।
दोनों आदमी इधर-उधर ढूंढ़ने लगे, बहुत तकलीफ करने की नौबत न आई और दस ही कदम पर तड़पती हुई लाश पर इन दोनों की नजर पड़ी।
सिपाही ने अपने बगल से एक थैली निकाली और चकमक पत्थर से आग झाड़ मोमबत्ती जला उस तड़पती हुई लाश को देखा। मालूम हुआ कि किसी कटार या खंजर इसके कलेजे के पार कर दिया है, खून बराबर बह रहा है, जख्मी पैर पटकता और बोलने की कोशिश करता है, मगर बोला नहीं जाता।
सिपाही ने अपनी थैली से एक छोटी बोतल निकाली जिसमें किसी तरह का अर्क भरा हुआ था। इसमें से थोड़ा अर्क जख्मी के मुंह में डाला। गले के नीचे उतरते ही उसमें कुछ बोलने की ताकत आई और बहुत ही धीमी आवाज से उसने नीचे लिखे हुए कई टूटे-फूटे शब्द अपने मुंह से निकालने के साथ ही दम तोड़ दिया-
'अ...सोस, यह खूबसूरत पिशाची... तेज सिंह... की... जान मेरी तरह उसके फंदे में हाय! ... इंद्रजीत सिंह...!'
उस बेचारे मरने वाले के मुंह से निकले हुए ये दो-चार शब्द बेजोड़ क्यों न हों, मगर इन दोनों सुनने वालों के दिलों को तड़पा देने के लिए काफी थे। आनंद सिंह से ज्यादा उस सिपाही को बेचैनी हुई जो अपने में बहुत कुछ कर गुजरने की कुदरत रखता था और जानता था कि इस वक्त अगर कोई हाथ कुंअर इंद्रजीत सिंह और तेज सिंह की मदद को बढ़ सकता है तो वह सिर्फ मेरी ही हाथ है।
सिपाही- कुमार, अब आप जाइए। इन टूटी-फूटी बेजोड़, मगर मतलब से भरी बातों को जो इस मरने वाले के मुंह से अनायास निकल पड़ी है सुनकर निश्चय हो गया कि आपके बड़े भाई और ऐयारों के सिरताज तेज सिंह किसी ऐसी आफत में, जो बहुत जल्द तबाह कर देने की कुदरत रखती है, फंस गए हैं। ऐसी हालत में मैं जो बहुत-कुछ कर गुजरने का हौसला रखता हूं किसी तरह नहीं अटक सकता और मेरा मतलब तभी सिद्ध होगा जब उस औरत को खोज निकालूंगा और जो अभी यह आफत कर गई और आगे कई तरह के फसाद करने वाली है।
नंद सिंह- तुम्हारा कहना सही है, मगर क्या तुम कह सकते हो कि ऐसी खबर पाकर मैं चुपचाप घर चले जाना पसंद करूंगा और जान से ज्यादे प्यारों की मदद से जी चुराऊंगा?
सिपाही- (कुछ सोचकर) अच्छा, तो ज्यादे बात करने का मौका नहीं है, चलिए। हां, सुनिए तो आपके पास कोई हथियार तो है नहीं, काम पड़ने पर क्या कर सकेंगे? मेरे पास एक खंजर और एक नीमचा है, दोनों में जो चाहें एक आप ले लें।
आनंद सिंह- बस नीमचा मेरे हवाले कीजिए और चलिए!
आनंद सिंह ने नीमचा अपनी कमर में लगाया और सिपाही के साथ पैदल ही उस तरफ बढ़ चले जिधर वह खूनी औरत बकती हुई चली गई थी।
ये दोनों ठीक उसी पगडंडी के रास्ते को पकड़े हुए थे जिस पर वह औरत गई थी। थोड़ी-थोड़ी दूर पर सांस रोककर इधर-उधऱ की आहट लेते, जब कुछ मालूम न होता तो फिर तेजी के साथ बढ़ जाते।
कोस-भर के बाद पहाड़ी उतरने की नौबत पहुंची, वहां ये दोनों फिर रुके और चारों तरफ देखने लगे। छोटी सी घंटी बजने की आवाज आई। घंटी किसी खोह या गड्ढ़े के अंदर बजाई गई थी जो वहां से बहुत करीब थी जहां ये दोनों बहादुर खड़े हो इधर-उधर देख रहे थे।
ये दोनों उसी तरफ मुड़े जिधर से घंटी की आवाज आई थी। फिर आवाज आई, अब तो ये दोनों उस खोह के मुंह पर पहुंच गए जो पहाड़ी की कुछ ढाल उतरकर पगडंडी के रास्ते से बाईं तरफ हटकर थी और जिसके अंदर से घंटी की आवाज आई थी। बेधड़क दोनों आदमी खोह के अंदर घुस गए।
अब फिर एक बार घंटी बजने की आवाज आई और साथ ही एक रोशनी भी चमकती हुई दिखाई दी जिसकी वजह से उस खोह का रास्ता साफ मालूम होने लगा, बल्कि उन दोनों ने देखा कि कुछ दूर आगे एक औरत खड़ी है जो रोशनी होते ही बाईं तरफ हटकर किसी दूसरे गड्ढ़े में उतर गई जिसका रास्ता बहुत छोटा, बल्कि एक ही आदमी के जाने लायक था। इन दोनों को विश्वास हो गया कि यह वही औरत है जिसकी खोज में हम लोग इधर आए हैं।

22 फ़रवरी, 2010

चंद्रकांता संतति - भाग 13

आनंद सिंह- जो कहिए, दूंगा।
सिपाही- आपके पास क्या है जो मुझे देंगे?
आनंद सिंह- इस वक्त भी हजारों रुपए का माल मेरे बदन पर है।
सिपाही- मैं यह सब कुछ नहीं चाहता।
आनंद सिंह- फिर?
सिपाही- उसी कम्बख्त के बदन पर जो कुछ जेवर है मुझे दीजिए और एक हजार अशर्फी।
आनंद सिंह- यह कैसे हो सकेगा? वह तो यहां मौजूद नहीं और हजार अशर्फी भी कहां से आवें?
सिपाही- उसी से लेकर दीजिए।
आनंद सिंह- क्या वह मेरे कहने से देगी?
सिपाही- (हंसकर) वह तो आपके लिए जान देने को तैयार है, इतनी रकम की क्या बिसात है।
आनंद सिंह- तो क्या आज मुझे यहां से न छुड़ावेंगे?
सिपाही- नहीं, मगर आप कोई चिंता न करें, आपका कोई कुछ बिगाड़ नहीं सकता, कल जब वह युवती आए तो उससे कहिए कि तुमसे मुहब्बत तब करूंगा जब अपने बदन का कुल जेवर और एक हजार अशर्फी यहां रख दो, उसके दूसरे दिन तुम जो-जो कहोगी मैं मानूंगा। वह तुरंत अशर्फी मंगा देगी और कुल जेवर भी उतार देगी। नालायक बड़ी मालदार है, उसे कम न समझिए।
आनंद सिंह- खैर जो कहोगे करूंगा।
सिपाही- जब तक आप यह न करेंगे, मैं आपको इस कैद से न छुड़ाऊंगा। आप यह न सोचिए कि उसे धोखा देकर या जबर्दस्ती उस राह से चले जाएंगे जिधर से वह आती-जाती है। यह कभी नहीं हो सकेगा, उसके आने-जाने के लिए कई रास्ते हैं।
आनंद सिंह- अगर वह तीन-चार दिन न आवे तब?
सिपाही- क्या हर्ज है, मैं आपकी बराबर ही सुध लेता रहूंगा और खाने-पीने को पहुंचाया करूंगा।
आनंद सिंह- अच्छा, ऐसा ही सही।
वह सिपाही कमंद लगाकर छत पर चढ़ा और दीवार फांद मकान के बाहर हो गया। थोड़ी रात बच गई थी जो आनंद सिंह ने इसी सोच-विचार में काटी कि यह कौन है, जो ऐसे वक्त में मेरी मदद को पहुंचा। इसे लालच बहुत है, कोई ऐयार मालूम पड़ता है। ऐयारों का जितना ज्यादे खर्च होता है उतना ही लालच भी करते हैं। खैर कोई हो, अब तो जो कुछ उसने कहा है करना ही पड़ेगा।
रात बीत गई, सवेरा हुआ। वह और फिर उन्हीं चारों लड़कियों को लिये आ पहुंची। देखा कि आनंद सिंह पलंग पर पड़े हैं और खाने-पीने का सामान ज्यों-का-त्यों उसी जगह रखा है जहां वह रख गई थी।
औरत- आप क्यों जिद्द करके भूखे-प्यासे अपनी जान देते हैं?
आनंद सिंह- इसी तरह मर जाऊंगा, मगर तुमसे मुहब्बत न करूंगा। हां, अगर एक बात मेरी मानो तो तुम्हारा कहा करूं।
औरत- (खुश होकर और उनके पास बैठकर) जो कहो मैं करने को तैयार हूं, मगर मुझसे जिद्द न करो।
आनंद सिंह- अपन बदन पर से कुल जेवर उतार दो और एक हजार अशर्फी मगा दो।
औरत- (आनंद सिहं के गले में हाथ डालकर) बस, इतने ही के लिए! लो, मैं अभी देती हूं!
एक हजार अशर्फी लाने के लिए उसने दो लड़कियों को कहा और अपने बदन से कुल जेवर उतार दिए। थोड़ी ही देर में वह दोनों लड़कियां अशर्फियों का तोड़ा लिए आ गईं।
औरत- लीजिए, अब आप खुश हुए? अब तो उज्र नहीं?
आनंद सिंह- नहीं, मगर एक दिन की और मोहलत मांगता हूं? कल इसी वक्त तुम आओ बस मैं तुम्हारा हो जाऊंगा।
औरत- अब यह ढकोसला क्या निकाला? आज भी भूखे-प्यासे काटोगे तो तुम्हारी क्या दशा होगी?
आनंद सिंह- इसकी फिक्र न करो, मुझे कई दिनों तक भूखे-प्यासे रहने की आदत है।
औरत- लाचार, खैर यह भी सही, ठहरिए, मैं आती हूं।
इतना कहकर आनंद सिंह को उसी जगह छोड़ चारों लड़कियों को साथ ले वह कमरे से बाहर चली गई। घंटा-भर बीतने पर भी वह न लौटी तो आनंद सिंह उठे और कमरे के बाहर जा उसे ढूंढ़ने लगे, मगर कहीं पता न लगा। बाहर की दीवार में छोटी-मोटी दो आलमारियां लगी हुई दिखाई दीं। अंदाज कर लिया कि शायद उस खिड़की की तरह यह भी बाहर जाने का कोई रास्ता हो और इधर ही से वे लोग निकल गई हों। सोच और फिक्र में तमाम दिन बिताया, पहर रात जाते-जाते कल की तरह वही सिपाही फिर पहुंचा और मेवा-दूध आनंद सिंह को दिया।
आनंद सिंह- लीजिए, आपकी फरमाइश तैयार है।
सिपाही- तो बस, अब आप भी इस मकान के बाहर चलिए। एक रोज के कष्ट में इतनी रकम हाथ आई, क्या बुरा हुआ!
सब कुछ सामान अपने कब्जे में करने के बाद सिपाही कमरे के बाहर निकला और सहन में पहुंच कमरबंद के जरिए से आनंद सिंह को मकान के बाहर निकालने के बाद आप भी बाहर हो गया। मैदान की हवा लगने से आनंद सिंह का जी ठिकाने हुआ। समझे कि अब जान बची। बाहर से देखने पर मालूम हुआ कि यह मकान एक पहाड़ी के अंदर है, कारीगरों ने पत्थर तोड़कर इसे तैयार किया है। इस मकान ने अगल-बगल में कई सुरंगे भी दिखाई पड़ी।
आनंद सिंह को लिए हुए वह सिपाही कुछ दूर चला गया जहां कसे-कसाए दो घोड़े पेड़ से बंधे थे। बोला- 'लीजिए, एक पर आप सवार होइए, दूसरे पर मैं चढ़ता हूं। चलिए, आपको घर तक पहुंचा आऊं।'


21 फ़रवरी, 2010

चंद्रकांता संतति - भाग 12

भूखे प्यासे दिन बीत गया, अंधेरा हुआ चाहता था कि वही छोटी-सी खिड़की खुली और चारों औरतों को साथ लिए वह पिशाची आ मौजूद हुई। एक औरत थाल उठाए और चौथी पान का जड़ाऊं डिब्बा लिए साथ मौजूद थी।
आनंद सिंह पलंग से उठ खड़े हुए और हालर निकल जाने की उम्मीद में उस खिड़की के अंदर घुसे। उन औरतों ने इन्हें बिलकुल न रोका, क्योंकि वे जानती थीं कि सिर्फ इस खिड़की ही के पार चले जाने से उनका काम न चलेगा।
खिड़की के पार तो हो गए मगर आगे अंधेरा था। इस छोटी-सी कोठरी में चारों तरफ घूमे, मगर रास्ता न मिला। हां एक तरफ बंद दरवाजा मालूम हुआ जो किसी तरह खुल न सकता था, लाचार फिर उसी कमरे में लौट आए।
उस औरत ने हंसकर कहा- 'मैं पहले ही कह चुकी हूं कि आप मुझसे अलग नहीं हो सकते। खुदा ने मेरे ही लिए आपको पैदा किया है। अफसोस कि आप मेरी तरह खयाल नहीं करते और मुफ्त में अपनी जान गंवाते हैं! बैठिए, खाइए, पीजिए, आनंद कीजिए, किस सोच में पड़े हैं!'
आनंद सिंह- मैं तेरा छुआ खाऊं?
औरत- क्यों हर्ज क्या है? खुदा सबका है, उसी ने हमको भी पैदा किया, आपको भी पैदा किया। जब एक ही बाप के सब लड़के हैं तो आपस में छूत कैसी?
आनंद सिंह- (चिढ़कर) खुदा ने हाथी पैदा किया, गदहा भी पैदा किया, कुत्ता भी पैदा किया, सुअर भी पैदा किया, मुर्गा भी पैदा किया- जब एक ही बाप के सब लड़के हैं तो परहेज काहे का!
औरत- अच्छा, आप मुझसे शादी न करें, इसी तरह मुहब्बत रखें।
आनंद सिंह- कभी नहीं , चाहे हो!
औरत- (हाथ का इशारा करके) अच्छा उस औरत से शादी करेंगे जो आपके पीछे खड़ी है? वह तो हिंदुआनी है।
'मेरे पीछे दूसरी औरत कहा से आई!' ताज्जुब से पीछे फिरकर आनंद सिंह ने देखा। उस नालायक को मौका मिला, खिड़की के अंदर हो झट किवाड़ बंद कर दिया।
आनंद सिंह पूरा धोखा खा गए, हर तरह से हिम्मत टूट गई। लाचार फिर उसी पलंग पर लेट गए। भूख से आंखें निकली आती थीं, खाने-पीने का सामान मौजूद था, मगर वह जहर...

दिल ने समझ लिया कि अब जान गई। कभी उठते, कभी बैठते कभी दालान के बाहर निकलकर टहलते, आधी रात जाते-जाते भूख की कमजोरी ने उन्हें चलने-फिरने लायक न रखा, फिर पलंग पर आकर लेट गए और ईश्वर को याद करने लगे।
एकाएक बाहर से धमाके की आवाज आई, जैसे कोई कमरे की छत पर से कूदा हो। आनंद सिंह उठ बैठे और दरवाजे की तरफ देखने लगे। सामने से एक आदमी आता हुआ दिखाई पड़ा, जिसकी उम्र लगभग चालीस वर्ष की होगी। सिपाहियाना पोशाक पहने, ललाट पर त्रिपुंड लगाए, कमर में नीमचा खंजर और ऊपर से कमंद लपेटे, बगल से मुसाफिरी का झोला, हाथ में दूध से भरा लोटा लिए आनंद सिंह के सामने आ खड़ा हुआ और बोला- 'अफसोस, आप राजकुमार होकर वह काम करना चाहते हैं, जो ऐयारों, जासूसों या अदले सिपाहियों के करने लायक हो! नतीजा यह निकला कि इस चांडालिन के यहां फंसना पड़ा। इस मकान में आए आपको कितने दिन हुए! घबराइए मत, मैं आपका दोस्त हूं, दुश्मन नहीं!'
इस सिपाही को देख आनंद सिंह ताज्जुब में आ गए और सोचने लगे कि यह कौन है, जो ऐसे वक्त मेरी मदद को आ पहुंचा! खैर, जो भी हो बेशक यह हमारा खैरख्वाह है, बदख्वाह नहीं।
आनंद सिंह- जहां तक खयाल करता हूं यहां आए दूसरा दिन है।
सिपाही- कुछ अन्न-जल तो न किया होगा!
आनंद सिंह- कुछ नहीं।
सिपाही- हाय, राजा वीरेंद्र सिंह के प्यारे लड़के की यह दशा! लीजिए, मैं आपको खाने-पीने के लिए देता हूं।
आनंद सिंह- पहले मुजे मालूम होना चाहिए कि आपकी जाति उत्तम है और मुझे धोखा देकऱ अधर्मी करने की नीयत नहीं है।
सिपाही- (दांत के नीचे जबान दबाकर) राम-राम? ऐसा स्वप्न में भी खयाल न कीजिएगा कि मैं धोखा देकर आपको अजाति करूंगा। मैंने पहले ही सोचा था कि आप शक करेंगे इसलिए ऐसी चीजें लाया हूं, जिनके खाने-पीने में आप उज्र न करें। पलंग पर से उठिए, बाहर आइए।
आनंद सिंह उसके साथ बाहर गए। सिपाही ने लोटा जमीन पर रख दिया और झोले में से कुछ मेवा निकाल उनके हाथ में देकर बोला-' लीजिए इसे खाइए और (लोटे की तरफ इशारा करते हुए कहा) यह दूध है, पीजिए।'
आनंद सिंह की जान में जान आ गई, प्यास और भूख से दम निकला जाता था, ऐसे समय में थोड़े मेवे और दूध का मिल जाना क्या थोड़ी खुशी की बात है? मेवा खाया, दूध पिया, जरी ठिकाने हुआ, इसके बाद उस सिपाही को धन्यवाद देकर बोले- 'अब मुझे किसी तरह इस मकान के बाहर कीजिए।' सिपाही- मैं आपको इस मकान के बाहर ले चलूंगा, मगर इसकी मजदूरी भी तो मुझे मिलनी चाहिए।

20 फ़रवरी, 2010

चंद्रकांता संतति - भाग 11

अपने भाई इंद्रजीत सिंह की जुदाई से व्याकुल हो उसी समय आनंद सिंह उस जंगल के बाहर हुए और मैदान में खड़े हो इधर-उधर निगाल दौड़ाने लगे। पश्चिम तरफ दो औरतें घोड़ों पर सवार धीरे-धीरे जाती हुई दिखाई पड़ी। ये तेजी के साथ उस तरफ बढ़े और उन दोनों के पास पहुंचने की उम्मीद में दो कोस तक पीछा किए चले गए, मगर उम्मीद पूरी न हुई, क्योंकि पहाड़ी के नीचे पहुंच कर वे दोनों रुकी और अपने पीछे आते हुए आनंद सिंह की तरफ देख घोड़ों को एक दम तेज कर पहाड़ी के बगल से घुमाती हुई गायब हो गई।
खूब खिली हुई चांदनी रात होने के सबब से आनंद सिंह को ये दोनों औरतें दिखाई पड़ी और इन्होंने इतनी हिम्मत भी की, पर पहाड़ी के पास पहुंचते ही उन दोनों के भाग जोने से इनको बड़ा ही रंज हुआ। खड़ा होकर सोचने लगे कि अब क्या करना चाहिए। इनको हैरान और सोचते हुए छोड़कर निर्दयी चंद्रमा ने भी धीरे-धीरे अपने घर का रास्ता लिया और अपने दुश्मन को
जाते देख मौका पाकर अंधेरे ने चारों तरफ हुकूमत जमाई। आनंद सिंह और भी दुखी हुए। क्या करें? कहां जाएं? किससे पूछें कि इंद्रजीत सिंह कौन ले गया? दूर से एक रोशनी दिखाई पड़ी। गौर करने से मालूम हुआ कि किसी झोपड़ी के आगे आग डल रही है। आनंद सिंह उसी तरफ चले और थोड़ी ही देर में कुटी के पास पहुंच कर देखा कि पत्तों की बनाई हुई हरी झोपड़ी के आगे आठ-दस आदमी जमीन पर फर्श बिछाए बैठे हैं, जो कि दाढ़ी और पहिरावे से साफ मुसलमान मालूम पड़ते हैं। बीच में दो मोमी शमादान जल रहे हैं। एक आदमी फारसी के शेर पढ़कर सुना रहा है और बकी सब 'वाह-वाह' की धुन लड़ा रहे हैं। एक तरफ आग जल रही है और दो-तीन आदमी कुछ खाने की चीजें पका रहे हैं। आनंद सिंह फर्श के पास जाकर खड़े हो गए।
आनंद सिंह को देखते ही सब के सब खड़े हुए और बड़ी इज्जत से उनको फर्श पर बैठाया। उस आदमी ने जो फारसी के शेर पढ़-पढ़ कर सुना रहा था, खड़े हो अपनी रंगीली भाषा में कहा- 'खुदा का शुक्र है कि शाहजाद-ए-चुनार ने इस मजलिस में पहुंच कर हम लोगों की इज्जत को फल्के-हफ्तूम' तक पहुंचाया। इस जंगल बियावान में हम लोग क्या खातिर कर सकते हैं सिवाय इसके कि इनके कदमों को अपनी आंखों पर जगह दें और इत्र व इलायची पेश करें!'
केवल इतना ही कहकर इत्रदान और इलायची की डिब्बी उनके आगे ले गया। पढ़े-लिखे भले आदमियों की खातिर जरूरी समझकर आनंद सिंह ने इत्र सूंघा और इलायची ले लिया, इसके बाद इनसे इजाजत लेकर वह फिर फारसी कविता पढ़ने लगा। दूसरे आदमियों ने दो एक तकिए इनके अगल-बगल में रख दिए।
इत्र की विचित्र खुशबू ने इनको मस्त कर दिया, इनकी पलकें भारी हो गई और बेहोशी ने धीरे-धीरे अपना असर जमाकर इनको फर्श पर सुला दिया। दूसरे दिन दोपहर को आंख खुलने पर इन्होंने अपने को एक-दूसरे ही मकान में मसहरी पर पड़े हुए पाया। घबड़ाकर उठ-बैठे और इधऱ-उधर देखने लगे।
पांच कमसिन और खूबसूरत औरतें सामने खड़ी हुई दिखाई दीं, जिनमें से एक सरदारनी की तरह कुछ आगे बढ़ी हुई थी। उनके हुस्न और अदा को देख आनंद सिंह दंग हो गए। उसकी बड़ी-बड़ी आंखों और बांकी चितवन ने उन्हें आपे से बाहर कर दिया, उसकी जरा-सी हंसी ने इनके दिल पर बिजली गिराई और आगे बढके हाथ जोड़ इस कहने ने तो और भी सितम ढाया कि- 'क्या आप मुझसे खफा हैं?'
आनंद सिंह भाई की जुदाई, रात की बात, ऐयारों के धोखे में पड़ना, सब कुछ बिलकुल भूल गए और उसकी मुहब्बत में चूर हो बोले- 'तुम्हारी-सी परी-जमाल से और रंज!'
वह औरत पलंग पर बैठ गई और आनंद सिंह के गले में हाथ डाल के बोली- 'खुदा की कसम खाकर कहती हूं कि साल भर से आपेक इश्क ने मुझे बेकार कर दिया। सिवाय आपके ध्यान के खाने-पीने की बिलकुल सुध न रही, मगर मौका न मिलने से लाचार थी।'

आनंद सिंह- (चौंककर) हैं! क्या तुम मुसलमान हो जो खुदा की कसम खाती हो?
औरत- (हंसकर) हां, क्या मुसलमान बुरे होते हैं?
आनंद सिंह यह कहकर उठ खड़े हुए- 'अफसोस, अगर तुम मुसलमान न होती तो मैं तुम्हें जी-जान से प्यार करता, मगर एक औरत के लिए अपना मजहब नहीं बिगाड़ सकता।'
औरत- (हाथ थाम कर) क्या यह बात दिल से कहते हो?
आनंद सिंह- हां, बल्कि कसम खाकर!
औरत- तो तुम यहां से चले जाओगे?
आनंद सिंह- जूरूर!
औरत- मुमकिन नहीं।
आनंद सिंह- क्या मजाल कि तुम मुझको रोको!
औरत- ऐसा खयाल भी न करना।
'देखें, मुझे कौन रोकता है!' कहकर आनंद सिंह उस कमरे के बाहर हुए और उसी कमरे की एक खिड़की, जो दीवार में लगी हुई थई, खोल वे औरतें वहां से निकल गई।
आनंद सिंह इस उम्मीद में चारों तरफ घूररने लगे कि कहीं रास्ता मिले तो बाहर हो जाएं, मगर उनकी उम्मीद किसी तरफ पूरी न हुई।
यह मकान बहुत लम्बा-चौड़ा न था। सिवाय इस कमरे और एक सहन के और कोई जगह इसमें न थी। चारों तरफ ऊंची-ऊंची दीवारों के सिवाय बाहर जाने के लिए कहीं से भी कोई दरवाजा न था। हर तरह से लाचार और दुखी हो फिर उसी पलंग पर आ लेटे और सोचने लगे-
'अब क्या करना चाहिए! इस कम्बख्त से किस तरह जाने बचे? यह तो हो ही नहीं सकता कि मैं इसे चाहूं या प्यार करूं। राम राम, मुसलमानिन से और इश्क! यह तो सपने में भी नहीं होने का। तब फिर क्या करूं? लाचारी है, जब किसी तरह छुट्टी न देखूंगा तो इस खंजर से, जो मेरी कमर में है, अपनी जान दे दूंगा।'
कमर से खंजर निकालना चाहा, देखा तो कमर खाली है। फिर सोचने लगे-'गजब हो गया, इस हरामजादी ने तो मुझे किसी लायक न रखा। अगर कोई दुश्मन आ जाए तो मैं क्या कर सकूंगा? बेहया अगर मेरे पास आवे तो गला दबाकर मार डालूं। नहीं, नहीं वीर पुत्र होकर स्त्री पर हाथ उठाना! यह मुझसे न होगा, तब क्या भूखे-प्यासे जान दे देना पड़ेगा? मुसलमानिन के घर में अन्न-जल कैसे ग्रहण करूंगा! हां ठीक है, एक सूरत निकल सकती है। (दीवार की तरफ देखकर) इसी खिड़की से वे लोग बाहर निकल गई हैं। अबकी अगर यह खिड़की खुले और वह कमरे में आवे् तो मैं भी जबर्दस्ती इसी राह से बाहर हो जाऊंगा।'

17 फ़रवरी, 2010

चंद्रकांता संतति - भाग 10

भैरो सिंह- खैर हर्ज क्या है, अगर हम लोग साथ ही चलें? तीन आदमी किनारे खड़े हो जाएंगे, एक आदमी आगे बढ़कर सौदा ले लेगा।
बद्रीनाथ- हां, हां, यही ठीक होगा, चलो हम लोग एक साथ चलें।
चारों ऐयार एक साथ वहीं से रवाना हो गए और उस हलवाई के पास पहुंचे जिसकी अकेली दुकान शहर के किनारे पर थी। बद्रीनाथ, ज्योतिषी और भैरो सिंह कुछ इधर ही खड़े रहे और पन्नालाल सौदा खरीदने दुकान पर गए। जाने के पहले ही भैरो सिंह ने कहा- 'मिट्टी के बर्तन में पानी भी देने का इकरार हलवाई से पहले कर लेना, नहीं तो पीछे हुज्जत करेगा।'
पन्ना लाल हलवाई की दुकान पर गए और दो सेर पूरी तथा सेर भर मिठाई मांगी। हलवाई ने खुद पूछा कि- 'पानी भी चाहिए या नहीं?'
पन्नालाल- हां, हां, पानी जरूर देना होगा।
हलवाई- कोई बर्तन है?
पन्नालाल- बर्तन तो है, मगर छोटा है। तुम्हीं किसी मिट्टी के ठलिए में जल दे दो।
पन्ना लाल- इतना अंधेर-खैर हम देंगे।
पूरी, मिठाई और एक घड़ा जल लेकर चारों ऐयार वहां से चले, मगर यह खबर किसी को भी न थी कि कुछ ही दूर पीछे दो आदमी साथ लिए छिपता हुआ हलवाई भी आ रहा है। मैदान में एक बड़े पत्थर की चट्टान पर बैठ चारों ने भोजन किया, जल पिया और हाथ-मुंह धो निश्चित हो धीरे-धीरे आपस में बातचीत करने लगे। आधा घंटा भी न बीता होगा कि चारों बेहोश होकर चट्टान पर लेट गए और दोनों आदमियों को साथ लिए हलवाई इनकी सर पर आ धमका।
हलवाई के साथ आए दोनों आदमियों ने बद्रीनाथ, ज्योतिषी और पन्नालाल की मुश्कें कस डाली और कुछ सुंघा भैरोसिंह को होश में लाकर बोले- 'वाह जी अयायब सिंह- आपकी चालाकी तो खूब काम कर गई! अब तो शिवदत्तगढ़ में आए हुए पांचों नालायक हमारे हाथ आ फंसे! महाराज से सबसे ज्यादा इनाम पाने का काम तो आप ही ने किया!'
बहुत सी तकलीफें उठाकर महाराज सुरेंद्र सिंह, वीरेंद्र सिंह और इन्हीं के बदौलत चंद्रकांता, चपला, चंपा, तेज सिंह और देवी सिंह वगैरह ने थोड़े दिन खूब सुख लूटा, मगर अब वह जमाना न रहा। सच है, सुख और दुख का पहरा बराबर बदलता रहता है। कौन जानता था कि कि गया गुजरा शिवदत्त फिर बला की तरह निकल आएगा? किसे खबर थी कि बेचारी चंद्रकांता की गोद से पले-पलाए दोनों होनहार लड़के यों अलग कर दिए जाएंगे?
कौन साफ कह सकता था कि इन लोगों की वंसावली और राज्य में जितनी तरक्की होगी, एकाएक उतनी ही ज्यादा आफतें आ पड़ेंगी? खैर! खुशी के दिन तो उन्होंने काटे, अब मुसीबत की घड़ी कौन झेले? हां, बेचारे जगन्नाथ ज्योतिषी ने इतना जरूर कह दिया था कि वीरेंद्र सिंह के राज्य और वंश की बहुत कुछ तरक्की होगी, मगर मुसीबत को लिए हुए। खैर आगे जो कुछ होगा देखा जाएगा, पर इस समय तो सबके सब तरद्दुद में पड़े हैं। देखिए, अपने एकांत के कमरे में महाराज सुरेंद्र सिंह कैसी चिंता में बैठे हैं और बाईं तरफ गद्दी का कोना दबाए राजा वीरेंद्र सिंह अपने सामने बैठे हुए जीत सिंह की सूरत किस बेचैनी से देख रहे हैं। दोनों बाप-बेटा अर्थात देवी सिंह और तारा सिंह अपने पास ऊपर के दर्जे पर बैठे हुए बुजुर्ग और गुरु के समान जीत सिंह की तरफ झुके हुए इस उम्मीद में बैठे हैं कि देखें अब आखिरी हुक्म क्या होता है। सिवाय इन लोगों के इस कमरे में और कोई भी नहीं है, एक दम सन्नाटा छाया हुआ है। न मालूम इसके पहिले क्या-क्या बातें हो चुकी हैं, मगर इस वक्त तो महाराज सुरेंद्र सिंह ने इस सन्नाटे को सिर्फ इतना ही कह के तोड़ा- 'खैर, चंपा और चपला की भी बात मान लेनी चाहिए।'
जीत सिंह- जो मर्जी, मगर देवी सिंह के लिए क्या हुक्म है?
सुरेंद्र सिंह- और तो कुछ नहीं, सिर्फ इतना ही ख्याल है कि चुनार की हिफाजत ऐसे वक्त क्यों कर होगी?
जीत सिंह- मैं समझता हूं कि यहां की हिफाजत के लिए तारा बहुत है और फिर वक्त पड़ने पर इस बुढ़ौती में भी मैं कुछ कर गुजरूंगा।
सुरेंद्र सिंह- (कुछ मुस्कुराकर और उम्मीद भरी निगाहों से जीत सिंह की तरफ देखकर) खैर, जो मुनासिब समझो, करो।
जीत सिंह- (देवी सिंह से) लीजिए साहब, अब आपको भी पुरानी कसर निकालने का मौका दिया जाता है। देखें आप क्या करते हैं। ईश्वर इस मुस्तैदी को पूरा करें।
इतना सुनते ही देवी सिंह उठ खड़े हुए और सलाम कर कमरे के बाहर चले गए...

चंद्रकांता संतति - भाग 9

बूढ़े की बात सुन रामनारायण और चुन्नी लाल चुप हो गए, बल्कि शरमाकर सिर नीचा कर लिया। बूढ़ा दारोगा वहां से रवाना हुआ और शिवदत्त के पास पहुंचकर इन दोनों ऐयारों के गिरफ्तार करने का हाल कहा। महाराज ने खुश होकर बाकर अली को इनाम दिया और खुशी-खुशी खुद रामनारायण और चुन्नी लाल को देखने आए।
बद्रीनाथ, पन्नालाल और ज्योतिषी जी को भी मालूम हो गया कि हमारे साथियों में से दो ऐयार पकड़े गए। अब तो एक की जगह तीन आदमियों के छुड़ाने की फिक्र करनी पड़ी।
कुछ रात गए ये तीनों ऐयार घूम-फिरकर शहर के बाहर की तरफ जा रहे थे कि पीछे से एक आदमी काले कपड़े से अपना तमाम बदन छिपाए लपकता हुआ उनके पास आया और लपेटा हुआ एक छोटा-सा कागज उनके सामने फेंक और अपने साथ आने के लिए हाथ से इशारा करके तेजी से आगे बढ़ा।
बद्रीनाथ ने उस पुर्जे को उठाकर सड़क के किनारे एक बनिए की दुकान पर जलते हुए चिराग की रोशनी में पढ़ा, सिर्फ इतना ही लिका था- 'भैरो सिंह'। बद्रीनाथ समझ गए कि भैरो सिंह किसी तरकीब से निकल भागा है और यही जा रहा है। बद्रीनाथ ने भैरो सिंह के हाथ की लिखावट भी पहचानी।
भैरो सिंह पुर्जा फेंककर इन तीनों को हाथ के इशारे से बुला गया था और 10-12 कदम आगे बढ़कर अब इन लोगों के आने की राह देख रहा था।
बद्रीनाथ वगैरह खुश होकर आगे बढ़े और उस जगह पहुंचे जहां भैरो सिंह काले कपड़े से बदन को छिपाए सड़क के किनारे आड़ देखकर खड़ा था। बातचीत करने का मौका न था, आगे-आगे भैरो सिंह और पीछे-पीछे बद्रीनाथ, पन्नालाल और ज्योतिषी जी तेजी से कदम बढ़ाते शहर के बाहर हो गए।
रात अंधेरी थी। मैदान में जाकर भैरो सिंह ने काला कपड़ा उतार दिया। इन तीनों ने चंद्रमा की रोशनी में भैरो सिंह को पहचाना- खुश होकर बारी-बारी से तीनों ने उसे गले लगाया और तब एक पत्थर की चट्टान पर बैठकर बातचीत करने लगे...
बद्रीनाथ- भैरो सिंह, इस वक्त तुम्हें देखकर तबियत बहुत ही खुश हुई!
भैरो सिंह- मैं तो किसी तरह छूट आया, मगर राम नारायण और चुन्नीलाल बेढब जा फंसे हैं।
ज्योतिषी जी- उन दोनों ने भी क्या धोखा ही खाया।
भैरो सिंह- मैं उनके छुड़ाने की भी फिक्र कर रहा हूं।
पन्नालाल- वह क्या?
भैरो सिंह- सो सब कहने-सुनने का मौका तो रातभर है, मगर इस समय मुझे भूख बड़े जोर से लगी है, कुछ हो तो खिलाओ।
बद्रीनाथ- दो-चार पेड़े हैं, जी चाहे तो खा लो।
भैरो सिंह- इन दो-चार पेड़ों से क्या होगा? खैर पानी का तो बंदोबस्त होना चाहिए।
बद्रीनाथ- फिर क्या करना चाहिए?
भैरो सिंह-(हाथ से इशारा करके), यह देखो शहर के किनारे जो चिराग जल रहा है अभी देखते आए हैं कि वह हलवाई की दुकान है और वह ताजी पूरियां बना रहा है, बल्कि पानी भी उसी हलवाई से मिल जाएगा।
पन्ना लाल- अच्छा मैं जाता हूं।
भैरो सिंह- हम लोग भी साथ चलते हैं, सभी का इकट्ठा ही रहना ठीक है, कहीं ऐसा न हो कि आप फंस जाएं और हम लोग राह ही देखते रहें।
पन्ना लाल- फंसना क्या खिलवाड़ हो गया!

चंद्रकांता संतति - भाग 8

तेज सिंह अपने सामान से तैयार ही थे, उसी वक्त सलाम कर एक तरफ को रवाना हो गए और महाराज रूमाल से आंखों को पोछते हुए चुनार की तरफ...उदास और पोतों की जुदाई से दुखी महाराज सुरेंद्र सिंह घर पहुंचे। दोनों लड़कों के गायब होने का हाल चंद्रकांता ने भी सुना। वह बेचारी दुनिया के दुख-सुख को अच्छी तरह समझ चुकी थी, इसलिए कलेजा मसोस कर रह गई।
जाहिर में रोना-चिल्लाना उसने पसंद न किया, मगर ऐसा करने से उसके नाजुक दिल पर और भी सदमा पहुंचा, घड़ी-भर में ही उसकी सूरत बदल गई। चपला और चंपा को चंद्रकांता से कितनी मुहब्बत थी इसको सबी लोग खूब जानते हैं। दोनों लड़कों के गायब होने का गम इन दोनों को चंद्रकांता से ज्यादा हुआ और दोनों ने निश्चय कर लिया कि मौका पाकर इंद्रजीत सिंह और आनंद सिंह का पता लगाने की कोशिश करेंगी।
महाराज सुरेंद्र सिंह के आने की खबर पाकर वीरेंद्र सिंह मिलने के लिए उनके पास गए और देवी सिंह भी वहां मौजूद थे। वीरेंद्र सिंह के सामने ही महाराज ने सब हाल देवी सिंह से कहकर पूचा कि- 'अब क्या करना चाहिए?'
देवी सिंह- मैं पहले उस लाश को देखना चाहता हूं जो उस जंगल में पाई गई थी।
सुरेंद्र सिंह- हां, तुम उसे जरूर देखो।
जीत सिंह- (चोबदार से) उस लाश को जो जंगल में पाई गई थी, इसी जगह लाने को कहो।
'बहुत अच्छा' कहकर चोबदार बाहर चला गया। मगर थोड़ी ही देर में वापस आकर बोला-
'महाराज के साथ आते जाते न मालू वह लाश कहां गुम हो गई। कई आदमी उसकी खोज में परेशान हैं, मगर पता नहीं लगता।'
वीरेंद्र सिंह- अब फिर हम लोगों को होशियारी से रहने का जमाना आ गया। जब हजारों आदमियों के बीच से लाश गुम हो गई तो मालूम होता है अभी बहुत कुछ उपद्रव होने वाला है।
जीत सिंह- मैंने तो समझा था कि अब जो कुछ थोड़ी-सी उम्र रह गई है, आराम से कटेगी, मगर नहीं, ऐसी उम्मीद किसी को कुछ भी न रखनी चाहिए।
सुरेंद्र सिंह- खैर जो होगा देखा जाएगा, इस समय जो करना मुनासिब है, उसे सोचो।
जीत सिंह- मेरा विचार था कि तारा सिंह को बद्रीनाथ वगैरह के पास भेजते जिसमें वे लोग भैरो सिंह को छुड़ाकर और किसी कार्रवाई में नहीं फंसे और सीथे यहां चले आवें, मगर ऐसा करने को भी जी नहीं चाहता। आज-भर आप और सब्र करें, अच्छी तरह सोचकर कह मैं अपनी राय दूंगा।

पंडित बद्रीनाथ, पन्नालाल, राम नारायण, चुन्नीलाल और जगन्नाथ ज्योतिषी भैरो सिंह ऐयार को छुड़ाने के लिए शिवदत्तगढ़ की तरफ गए। हुक्म के मुताबिक कंचन सिंह सेनापति ने सेर वाले बाबाजी के पीछे जासूस भेजकर पता लगा लिया कि भैरो सिंह ऐयार शिवदत्तगढ़ किले के अंदर पहुंचाए गए हैं, इसलिए इन ऐयारों का पता लगाने की जरूरत न पड़ी, सीथे शिवदत्तगढ़ पहुंचे और अपनी-अपनी सूरत बदलकर शहर में घूमने-लगे, पांचों ने एक-दूसरे का साथ छोड़ दिया, मगर यह ठीक कर लिया था कि सब लोग घूम-फिरकर फलां जगह इकट्ठे हो जाएंगे।
दिन-भर घूम फिरकर भैरो सिंह का पता लगाने के बाद सब ऐयार शहर के बाहर एक पहाड़ी पर इकट्ठे हुए और रात-भर सलाह करके राय कायम करने में काटी। दूसरे दिन ये सब लोग फिर सूरत बदल-बदलकर शिवदत्तगढ़ पहुंचे, जहां भैरो सिंह कैद थे। कई दिनों तक कैद रहने के सबब उन्होंने अपने को जाहिर कर दिया था और असली सूरत में एक कोठरी के अंदर जिसके तीन तरफ लोहे का जंगला लगा हुआ था, बंद थे। उसी कोठरी के बगल में उसी तरह की एक कोठरी और थी जिसमें गद्दी लगाए बूढ़ा दारोगा बैठा था और कई सिपाही नंगी तलवार लिए घूम-घूमकर पहरा दे रहे थे। राम नारायण और चुन्नी लाल उस कोठरी के दरवाजे पर जाकर खड़े हुए और बूढ़े दारोगा से बात-चीत करने लगे।
राम नारायण- आपको महाराज ने याद किया है।
बूढ़ा- क्यों, क्या काम है? भीतर आओ, बैठो, चलते हैं।
राम नारायण और चुन्नी लाल अंदर गए और बोले-
राम नारायण- मालूम नहीं, क्यों बुलाया है, मगर ताकीद की है कि जल्द बुला लाओ।
बूढ़ा- अभी घंटा-भर भी नहीं हुआ जब किसी ने आकर कहा था कि महाराज खुद आने वाले हैं, क्या यह बात झूठी थी?
राम नारायण- हां, महाराज आने वाले थे, मगर अब न आएंगे।
बूढ़ा- अच्छा आप दोनों आदमी इस जगह बैठें और कैदी की हिफाजत करें, मैं जाता हूं।
राम नारायण- बहुत अच्छा।
राम नारायण और चुन्नीलाल को कोठरी के अंदर बैठाकर बूढ़ा दारोगा बाहर आया और चालाकी से झट उस कोठरी का दरवाजा बंद करके बाहर से बोला-'बंदगी! मैं दोनों को पहचान गया कि ऐयार हो! कहिए अब हमारी कैद में आप फंसे या नहीं? मैंने भी क्या मजे में पता लगा लिया। पूछा कि अभी मालूम हुआ था कि महाराज खुद आने वाले हैं, आपने झट कबूल कर लिया और कहा कि- हां आने वाले थे, मगर अब न आएंगे। यह न समझे कि मैं धोखा देता हूं। इसी अक्ल पर ऐयारी करते हो? खैर, आप लोग भी अब इसी कैदखाने की हवा खाइए और जान लीजिए कि मैं बाकर अली ऐयार आप लोगों को मजा चखाने के लिए इस जगह बैठाया गया हूं...

16 फ़रवरी, 2010

चंद्रकांता संतति - भाग 7

इंद्रजीत सिंह- हां, मैं इस हिंडोले के पास जाता हूं। तुम देखो, वे औरतें किधर गईं?
आनंद सिंह- बहुत अच्छा।
चाहे जो हो, मगर कुंअर इंद्रजीत सिंह ने उसे पहचान ही लिया जो हिंडोले पर अकेली रह गई थई। भला वह क्यों न पहचानते? जवहरी की नजर दी हुई अंगूठी पर उसकी तस्वीर देख चुके थे, उनके दिल में उसकी तस्वीर खुद गई थी, अब तो मुंहमांगी मुराद पाई, जिसके लिए अपने को मिटाना मंजूर था उसे बिना परिश्रम पाया, फिर क्या चाहिए।
आनंद सिंह पता लगाने के लिए उन औरतों के पीछे गए, मगर वे सब ऐसी भागीं कि झलक तक न दिखाई दी। लाचार आधे घंटे तक हैरान होकर फिर उस हिंडोले के पास पहुंचे, हिंडोले के पास बैठी हुई उस औरत को कौन कहे, अपने भाई को भी वहां न पाया। घबराकर इधर-उधर ढूंढ़ने और पुकारने लगे, यहां तक कि रात हो गई और यह सोच कर किश्ती के पास पहुंचे कि शायद वहां चले गए हों, लेकिन वहां भी सिवाय उस बूढ़े खिदमतगार के किसी दूसरे को न देखा। जी बेचैन हो गया, खिदमतगार को सब हाल बताकर बोले- 'जब तक अपने प्यारे भाई का पता नहीं लगा लूंगा, मैं घर नहीं जाऊंगा। तू जाकर यहां का हाल सभी को खबर कर दे।'
खिदमतगार ने हर तरह से आनंद सिंह को समझाया और घऱ चलने के लिए कहा, मगर कुछ फायदा न निकला। लाचार उसने किश्ती उसी जगह छोड़ी और पैदल रोता-कलपता किले की तरफ रवाना हुआ, क्योंकि यहां जो कुछ हो चुका था उसका हाल राजा वीरेंद्र सिंह से कहना भी उसने आवश्यक समझा।
चौ
था बयान
खि
दमतगार ने किले में पहुंच कर और यह सुनकर कि इस समय दोनों राजा एक ही जगह बैठे हैं, कुंअर इंद्रजीत सिंह के गायब होने का हाल और सबब जो कुंअर आनंद सिंह की जुबानी सुना था, महाराज सुरेंद्र सिंह और वीरेंद्र सिंह के पास हाजिर होकर अर्ज इस खबर के सुनते ही उन दोनों के कलेजे में चोट-सी लगी। थोड़ी देर तक घबराहट के सबब कुछ सोच न सके कि क्या करना चाहिए। रात भी एक पहर से ज्यादे जा चुकी थी। आखिर जीत सिंह, तेज सिंह और देवी सिंह को बुलाकर खिदमतगार की जुबानी जो कुछ सुना था कहा और पूछा कि अब क्या करना चाहिए? किया।
तेज सिंह- उस जंगल में इतनी औरतों का इकट्ठे होकर गाना-बजाना और इस तरह धोखा देना बेसबब नहीं है।
सुरेंद्र सिंह- जब से शिवदत्त के उभरने के खबर सुनी है, सदा एक खटका-सा बना रहता है, मैं समझता हूं यह भी की शैतानी है।
वीरेंद्र सिंह- दोनों लड़के ऐसे कमजोर तो नहीं हैं कि जिसका जी चाहे, उन्हें पकड़ ले।
सुरेंद्र सिंह- ठीक है, मगर आनंद का भी वहां रह जाना बुरा ही हुआ।
तेज सिंह- बेचारा खिदमतगार जबरदस्ती साथ हो गया था, नहीं तो पता भी न लगता कि दोनों कहां चले गए। उनके बारे में जो कुछ सोचना है सोचिए, मगर मुझे जल्द इजाजत दीजिए कि हजार सिपाहियों को साथ लेकर वहां जाऊं और इसी वक्त उस छोटे जंगल को चारों तरफ से घेर लूं। फिर जो कुछ होगा देखा जाएगा।
सुरेंद्र सिंह- (जीत सिंह से), क्या राज है?
जीत सिंह- तेज सिंह ठीक कहता है, इसे अभी जाना चाहिए।
हुक्म पाते ही तेज सिंह दिवानखाने के ऊपर बुर्ज पर चढ़ गए जहां बड़ा-सा नक्कारा और उसके पास ही एक भारी चोब इसलिए रखा हुआ था कि वक्त-बेवक्त जब कोई जरूरत आ पड़े और फौज को तुरंत तैयार करना हो तो इस नक्कारे पर चोब मारी जाए। इसकी आवाज भी निराले ढंग की थी जो किसी नक्कारे की आवाज से मिलती न थी और इसके बजाने के लिए तेज सिंह ने इशारे मुकर्रर किए हुए थे।
तेज सिंङ ने चोब उठाकर जोर से एक दफे नक्कारे पर मारा जिसकी आवाज तमाम शहर में ही नहीं, बल्कि दूर-दूर तक गूंज गई। चाहे इसका सबब किसी शहर वाले की समझ में न आया हो, मगर सेनापति समझ गया कि इसी वक्त हजार फौजी सिपाहिओं की जरूरत है जिसका इंतजाम उसने बहुत जल्द किया।
तेज सिंह अपने सामान से तैयार हो किले के बाहर निकले और हजार सिपाही तथा बहुत से मशालचियों को साथ ले उस छोटे से जंगल की तरफ रवाना हो कर बहुत जल्दी ही वहां जा पहुंचे।
थोड़ी-थोड़ी दूर पर पहरा मुकर्रर करके चारों तरफ से उस जंगल को घेर लिया। इंद्रजीत सिंह तो गायब हो ही चुके थे, आनंद सिंह के मिलने की बहुत तरकीब की गई, मगर उनका भी पता न लगा। तरद्दुत में रात बिताई, सबेरा होते ही तेंज सिंह ने हुक्म दिया कि एक तरफ से इस जंगल को तेजी के साथ काटना शुरू करो जिससे दिनभर में तमाम जंगल साफ हो जाए।
उसी समय महाराज सुरेंद्र सिंह और जीत सिंह वहां आ पहुंचे। जंगल का काटना इन्होंने भी पसंद किया और बोले कि - 'बहुत अच्छा होगा अगर हम लोग इश जंगल से एक दम ही निश्चित हो जाएं।'
इस छोटे जंगल को काटते देर ही कितनी लगती थी, तिस पर महाराज की मुस्तैदी के सबब यहां कोई भी ऐसा नजर नहीं आता था जो पेड़ों की कटाई में न लगा हो। दोपहर होते-होते जंगल कट के साफ हो गया, मगर किसी का कुछ पता न लगा। यहां तक कि इंद्रजीत सिंह की तरह आनंद सिंह के भी गायब हो जाने का निश्चय करना पड़ा। हां, इस जंगल के अंत में एक कमसिन नौजवान हसीन और बेशकीमती गहने-कपड़े से सजी हुई औरत की लाश पाई गई जिसके सिर का पता न था।
यह लाश महाराज सुरेंद्र सिंह के पास लाई गई। अब सभी की परेसानी और बढ़ गई और तरह-तरह के ख्याल पैदा होने लगे। लाचार उस लाश को साथ लिए शहर की तरफ लौटे। जीत सिंह ने कहा- 'हम लोग जाते हैं, तारा सिंह को भेज अब ऐयारों को जो शिवदत्त की फिक्र में गए हुए हैं, बुलवाकर इंद्रजीत सिंह और आनंद सिंह की तलाश में भेजेंगे, मगर तुम इसी वक्त उनकी खोज में जहां तुम्हारा दिल गवाही दे, जाओ।'


चंद्रकांता संतति - भाग 6

...वह कहता है कि अभी इस शहर में पहुंचा हूं, महाराज का दर्शन कर चुका हूं, सरकार के दर्शन हो जाएं, तब आराम से सराय में डेरा डालूं और हमेशा से उसका यही दस्तूर भी है।
इंद्रजीत सिंह- अगर ऐसा है तो उसे आने ही देना मुनासिब है।
आनंद सिंह- अब आज किश्ती पर सैर करने का रंग नजर नहीं आता।
इंद्रजीत सिंह- क्या हर्ज है, कल सही।
चोबदार सलाम करके चला गया और थोड़ी देर में सौदागर को लेकर हाजिर हुआ। हकीकत में वह सौदागर बहुत ही बूढ़ा था, रईसियत और शराफत
उसके चेहरे से बरसती थी। जाते ही सलाम करके उसने दोनों भाइयों को दो अंगूठियां दी और कबूल होने के बाद इशारा पाकर जमीन पर बैठ गया।
इस बूढ़े जवहरी की इज्जत की गई, मिजाज का हाल तथा सफर की कैफियत पूछने के बाद डेरे पर जाकर आराम करने और कल फिर हाजिर होने
का हुक्म हुआ, सौदागर सलाम करके चला गया।
सौदागर ने जो दो अंगूठियां दोनों भाइयों को नजर दी थी उनमें आनंद सिंह की अंगूठी पर निहायत खुशरंग माणिक जड़ा हुआ था और इंद्रजीत सिंह की
अंगूठी पर सिर्फ एक छोटी सी तस्वीर थी जिसे एक दफे निगाल भरकर इंद्रजीत सिंह ने देखा और कुछ सोचकर चुप हो गए।
एकांत होने पर रात को समादान की रोशनी में फिर उस अंगूठी को देखा जिसमें नगीने की जगह एक कमसिन हसीन औरत की तस्वीर जड़ी हुई थी।
चाहे यह तस्वीर कितनी ही छोटी क्यों न हो, मगर मुसौवर ने गजब की सफाई इसमें खर्च की थी। इसे देखते-देखते एक मर्तबे तो इंद्रजीत सिंह की यह हालत हो गई कि अपने को और उस औरत की तस्वीर को भूल गए, मालूम हुआ कि स्वयं वह नाजनीन इनके सामने बैठी है और वह उससे कुछ कहना चाहते हैं, मगर उसके हुस्न के रुआब में आकर चुप रह जाते हैं।
एकाएक यह चौंक पड़े और अपनी बेवकूफी पर अफसोस करने लगे, लेकिन इससे क्या होता है? उस तस्वीर ने तो एक ही सायत में इनके लड़कपन
को धूल में मिला दिया और नौजवानी की दीवानी सूरत इनके सामने खड़ी कर दी। थोड़ी देर पहले सवारी, शिकार, कसरत वगैरह के पेचीले कायदे दिमाग में घूम रहे थे, अब ये एक दूसरी ही उलझन में फंस गए और दिमाग किसी अद्वितीय रत्न के मिलने की फिक्र में गोते खाने लगा। महाराज शिवदत्त की तरफ से अब क्या ऐयारी होती है, भैरो सिंह क्यों कर और कब कैद से छूटते हैं, देखें, बद्रीनाथ वगैरह शिवदत्तगढ़ में जाकर क्या करते हैं, अब शिकार खेलने की नौबत कब तक आती है, एक ही तीर में शेर गिरा देने का मौका कब जाना चाहिए इत्यादि खयालों को अब तो यह भूल गए।
अब तो यह फिक्र पैदा हुई कि सौदागर को यह अंगूठी क्यों हाथ लगी? यह तस्वीर खयाली है या असल में किसी ऐसे की है जो इस दुनिया में मौजूद है? क्या सौदागर उसका पता-ठिकाना जानता होगा?
खूबसूरती की इतनी ही हद है या और भी कुछ है? नजाकत, सुडौली और सफाई वगैरह का खजाना यही है या कोई और? इसकी मोहब्बत के दरिया में
हमारा बेड़ा क्यों पार होगा?
कुंअर इंद्रजीत सिंह ने आज बहाना करना भी सीख लिया और घड़ी ही भर में उस्ताद हो गए। पेट फूला है, भोजन न करेंगे, सिर में दर्द है, किसी का
बोलना बुरा मालूम होता है...
...सन्नाटा हो तो शायद नींद आए, इत्यादि बहानों से उन्होंने अपनी जान बचाई और तमाम रात चारपाई पर करवटें बदल-बदलकर इस फिक्र में काटी कि सवेरा हो तो सौदागर को बुलाकर कुछ पूछें।
सवेरे उठते ही जवहरी को हाजिर करने का हुक्म दिया, मगर घंटे भर के बाद चोबदार ने वापस आकर बताया कि सराय में सौदागर का कोई अता-पता नहीं है।
इंद्रजीत सिंह : उसने अपना डेरा कहां पर बताया था?
चोबदार : ताबेदार को तो उसकी जुबानी यही मालूम था कि सराय में उतरेगा, मगर यहां पता करने पर मालूम हुआ कि यहां कोई सौदागर आया ही नहीं।
इंद्रजीत सिंह : कहीं दूसरी जगह उतरा होगा। पता करो।
'बहुत खूब' कहकर चोबदार तो चला गया मगर इंद्रजीत सिंह पशोपेश में पड़ गए। सिर नीचा कर कुछ सोच ही रहे थे कि आहट हुई। सिर उठाकर देखा तो कुंअर आनंद सिंह थे।
आनंद सिंह : स्नान का समय हो गया है।
इंद्रजीत सिंह : हां! आज कुछ देर हो गई।
आनंद सिंह : तबियत कुछ सुस्त मालूम होती है!
इंद्रजीत सिंह : रातभर सिर में दर्द था।
आनंद सिंह : अब कैसा है?
इंद्रजीत सिंह : अब तो ठीक है।
आनंद सिंह : कुछ झलक-सी मालूम पड़ी थी कि उस अंगूठी में कोई तस्वीर जड़ी हुई है जो उस जौहरी ने नजर की थी।
इंद्रजीत सिंह : हां थी तो।
आनंद सिंह : कैसी तस्वीर है?
इंद्रजीत सिंह : न मालूम, वह अंगूठी कहां रख दी। मिल ही नहीं रही। मैनें सोचा था एक दिन अच्छी तरह देखूंगा, मगर...

अगर भेद खुल जाने का डर न होता कुंवर इंद्रजीत सिंह, सिवा 'ओफ' करने और लम्बी-लम्बी सांसें लेने के कोई दूसरा काम न करते, मगर क्या करें लाचारी से सभी मामूली काम और अपने दादा के साथ बैठकर भोजन भी करना पड़ा, हां शाम को इनकी बेचैनी बहुत बढ़ गई जब सुना कि तमाम शहर छान डालने पर भी उस जवहरी का कहीं पता न लगा और यह भी मालूम हुआ कि उस जवहरी ने बिलकुल झूठ कहा था कि महाराज का दर्शन कर आया हूं अब कुमार के दर्शन हो जाए तब आराम से सराय में डेरा डालूं, वह वास्तव में महाराज सुरेंद्र सिंह और वीरेंद्र सिंह से नहीं मिला था।
तीसरे दिन इनको बहुत ही उदास देख आनंद सिंह ने किश्ती पर सवार होकर गंगा जी की सैर करने और दिल बहलाने के लिए जिद्द की, लाचार उनकी बात माननी ही पड़ी।
एक छोटी-सी खूबसूरत और तेज जाने वाली किश्ती पर सवार हो इंद्रजीत सिंह ने चाहा कि किसी को साथ न ले जाएं, सिर्फ दोनों भाई ही सवार हो और खेकर दरिया की सैर करें। किसकी मजाल थी जो इनकी बात काटता, मगर एक पुराने खिदमतगार ने जिसने कि वीरेंद्र सिंह को गोद में खिलाया था और अब इन दोनों के साथ रहता था ऐसा करने से रोका और अब दोनों भाइयों ने न माना तो खुद किश्ती पर सवार हो गया। पुराना नौकर होने के ख्याल से दोनों भाई कुछ न बोले, लाचार बस साथ ले जाना ही पड़ा।
आनंद सिंह- किश्ती को धारा में ले जाकर बहाव पर छोड़ दीजिए, फिर खेकर ले आवेंगे।
इंद्रजीत सिंह- अच्छी बात है।
सिर्फ दो घंटे दिन बाकी था, जब दोनों बाई किश्ती पर सवार हो दरिया की सैर करने को गए, क्योंकि लौटते समय चांदनी रात का आनंद भी लेना मंजूर था। चुनार से दो कोस पश्चिमी में गंगा के किनारे पर एक छोटा-सा जंगल था। जब किश्ती उसके पास पहुंची, वंशी की और साथ ही गाने की बारीक सुरीली आवाज इन लोगों के कानों में पड़ी। संगीत एक ऐसी चीज है कि हर-एक के दिल को चाहे वह कैसा ही नासमझ क्यों न हो अपनी तरफ खींच लेती है, यहां तक कि जानवर भी इसके वश में होकर अपने को भूल जाता है।
दो-तीन दिन से कुंवर इंद्रजीत सिंह का दिल चुटीला हो रहा था, दरिया की बहार देखना तो दूर रहा इन्हें अपने तन-बदन की भी सुध न थी, ये तो अपनी प्यारी तस्वीर की धुन में सिर झुकाए बैठे कुछ सोच रहे थे, इनके हिसाब में चारों तरफ सन्नाटा था, मगर इस सुरीली आवाज ने इनकी गर्दन घुमा दी और उस तरफ देने को मजबूर किया जिधर से वह आ रही थी।
किनारे की तरफ देखने से यह मालूम न हुआ कि वंशी बजाने या गाने वाला कौन है, मगर इस बात का अंदाज जरूर मिल गया कि वे लोग बहुत दूर नहीं हैं जिनके गाने की आवाज सुनने वालों पर जादू का-सा असर कर रही है।
इंद्रजीत सिंह- ओह, क्या सुरीली आवाज है!
आनंद सिंह- दूसरी आवाज आई। बेशक यहां कई औरतें मिलकर गा-बजा रही हैं।
इंद्रजीत सिंह- (किश्ती का मुंह किनारे की तरफ फेरकर) ताज्जुब है कि इन लोगों ने गाने-बजाने और दिल बहलाने के लिए ऐसी जगह पसंद की। जरा देखना चाहिए।
आनंद सिंह- क्या हर्ज है चलिए।
बूढ़े खिदमतगार ने किनारे किश्ती लगाने और उतरने के लिए मना किया और बहुत समझाया, मगर इन दोनों ने न माना, किश्ती किनारे लगाई और उतरकर उस तरफ चले जिधर से आवाज आ रही थी। जंगल में थोड़ी ही दूर जाकर दस-पंद्रह नौजवान और औरतों का झुंड नजर आया जो रंग-बिरंगी पोशाक और कीमती जेवरों से अपने हुस्न को दूना किए ऊंचे पेड़े से लटकते हुए एक झूले को झुला रही थी। कोई वंशी, कोई मृदंगी बजाती, कोई हाथ से ताल दे-देकर गा रही थी। उस हिंडोले पर सिर्फ एक ही औरत गंगा की तरफ रुख किए बैठी थी।
ऐसा मालूम होता था मानों परियां साक्षात किसी देवकन्या को झूला झुला और गा-बजाकर इसलिए प्रसन्न कर रही हैं कि खूबसूरती बढ़ने और नौजवानी के स्थिर रहने का वरदान पावें, मगर नहीं, उनके भी दिल-की-दिल ही में रही और कुंवर इंद्रजीत सिंह तथा आनंद सिंह को आते देख हिंडोले पर बैठी हुई नाजनीन को अकेली छोड़ न जाने क्यों भाग ही जाना पड़ा।
आनंद सिंह- भैया, वह सब तो भाग गई।


चंद्रकांता संतति -भाग 5

धर, बाकर अली वगैरह ऐयारों ने भी अपने कुछ साथियों को जो चुनार से इनके साथ आए थे ऐयारी के फन में खूब होशियार किया। इस बीच में एक लड़का और उसके बाद लड़की भी महाराज शिवदत्त के घर पैदा हुए। मौका पाकर अपने बहुत से आदमियों और ऐयारों को साथ ले वह शिवदत्तगढ़ के बाहर निकला और राजा वीरेंद्र सिंह से बदला लेने की फिक्र में कई महीने तक घूमता रहा। बस, महाराज शिवदत्त का इतना ही मुख्तसर हाल लिखकर इस बयान को समाप्त करते हैं और फिर इंद्रजीत सिंह के किस्से को छेड़ते हैं।
इंद्रजीत सिंह के गिरफ्तार होने के बाद उन बनावदी शेरों ने भी अपनी हालत बदली और असली सूरत के ऐयार बन बैठे जिनमें यार अली, बाकर अली और खुदाबख्श मुखिया थे। महाराज शिवदत्त बहुत ही खुश हुआ और समझा कि अब मेरा जमाना फिरा, ईश्वर चाहेगा तो मैं फिर चुनार की गद्दी पाऊंगा और अपने दुश्मनों से बदला लूंगा।
इंद्रजीत सिंह को कैद कर वह शिवदत्तगढ़ को ले गया। सभी को ताज्जुब हुआ कि कुंअर इंद्रजीत सिंह ने गिरफ्तार होते समय कुछ भी उत्पात नहीं मचाया, किसी पर गुस्सा न निकाला, किसी पर हरवा न उठाया, यहां तक कि आंखों से रंज-अफसोस या क्रोध भी जाहिर न होने दिया। हकीकत में यह ताज्जुब की बात थी कि बहादुर वीरेंद्र सिंह का शेरदिल लड़का ऐसी हालत में चुप रह जाए और बिना हुज्जत किए बेड़ी पहन ले, मगर नहीं, इसका कोई सबब जरूर है जो आगे चलकर मालूम होगा।

चुनारगढ़ किले के अंदर एक कमरे में महाराज सुरेंद्र सिंह, वीरेंद्र सिंह, जीत सिंह, तेज सिंह, देवी सिंह, इंद्रजीत सिंह और आनंद सिंह बैठे हुए कुछ बातें कर रहे हैं।
जीत सिंह- भैरो ने बड़ी होशियारी का काम किया कि अपने को इंद्रजीत सिंह की सूरत बना शिवदत्त के ऐयारों के हाथ फंसाया।
सुरेंद्र सिंह- शिवदत्त के ऐयारों ने चालाकी तो की थी, मगर...
वीरेंद्र सिंह- साधू जी शेर पर सवार हो सिद्ध बने, लेकिन अपना काम सिद्ध नहीं कर सके।
इंद्रजीत सिंह- मगर जैसे हो, भैरो सिंह को अब बहुत जल्द छुड़ाना चाहिए।
जीत सिंह- कुमार, घबराओ मत, तुम्हारे दोस्त को किसी तरह की तकलीफ नहीं हो सकती, लेकिन अभी उसका शिवदत्त के यहां फंसे ही रहना
मुनासिब है। वह बेवकूफ नहीं है, बिना मदद के आप ही छूटकर आ सकता है, इस पर पन्नालाल, राम नारायण, चुन्नीलाल, बद्रीनाथ और ज्योतिषीजी उसकी मदद को भेजे ही गए हैं। देखों तो क्या होता है। इतने दिनों तक चुपचाप बैठे रहकर शिवदत्त ने फिर अपनी खराबी कराने पर कमर बांधी है।
देवी सिंह- कुमारों के साथ जो फौज शिकाकरगाह में गई है उसके लिए अब क्या हुक्म होता है?
जीत सिंह- अभी शिकारगाह से डेरा उटाना मुनासिब नहीं। (तेजसिंह की तरफ देखकर) क्यों तेज?

तेज सिंह- (हाथ जोड़कर) जी हां, शिकारगाह में डेरा कायम रहने से हम लोग बड़ी खूबसूरती और दिल्लगी से अपना काम निकाल सकेंगे।
सुरेंद्र सिंह- कोई ऐयार शिवदत्तगढ़ से लौटे तो कुछ हालचाल मालूम हो।
तेज सिंह- कल तो नहीं, मगर परसों तक कोई-न-कोई जरूर आएगा।
पहर-भर से ज्यादा देर तक बातचीत होती रही। कुछ बातों को खोलना हम मुनासिब नहीं समझते, बल्कि आखिरी बात का पता तो हमें भी न लगा जो मजलिस उठने के बाद जीत सिंह ने अकेले में तेज सिंह को समझाई थी। खैर जाने दीजिए, जो होगा देखा जाएगा, जल्दी क्या है।
गंगा के किनारे ऊंची बारहदरी में इंद्रजीत सिंह और आनंद सिंह दोनों भाई बैठे हैं। बरसात का मौसम है गंगा खूब चढ़ी हुई हैं, किले के नीचे जल आ पहुंचा है, छोटी-छोटी लहरें दीवार में टक्कर मार रही हैं, अस्त होते हुए सूर्य की लालिमा जल में पड़कर लहरों की शोभा दूनी बढ़ा रही है, सन्नाटे का आलम है, इस बरहदरी में सिवाय इन दोनों भाइयों के कोई तीसरा दिखाई नहीं देता।
इंद्रजीत सिंह- अभी जल कुछ और बढ़ेगा।
आनंद सिंह- जी हां, पिछले साल तो गंगा आज से कहीं ज्यादा बढ़ी हुई थीं, जब दादाजी ने हम लोगों को तैरकर पार जाने के लिए कहा था।
इंद्रजीत सिंह- उस दिन भी खूब ही दिल्लगी हुई, भैरो सिंह सभी में तेज रहा, बद्रीनाथ ने कितना ही चाह कि उसके आगे निकल जाए, मगर न हो सका।
आनंद सिंह- हम दोनों भी कोस-भर तक उस किश्ती के साथ ही गए जो हम लोगों की हिफाजत के लिए संग गई थी।
इंद्रजीत सिंह- बस वही तो हम लोगों का आखिरी इम्तिहान रहा, फिर तब से जल में तैरने की नौबत ही कहां आई।
आनंद सिंह- कल तो मैंने दादजी से कहा था कि आज कल गंगा जी खूब चढ़ी हुई हैं, तैरने को जी चाहता है।
इंद्रजीत सिंह- तब क्या बोले?
आनंद सिंह- कहने लगे कि बस अब तुम लोगों का तैरना मुनासिब नहीं है, हंसी होगी। तैरना भी एक इल्म है जिसमें तुम लोग होशियार हो चुके, अब क्या जरूरत है? ऐसा ही जी चाहे तो किश्ती पर सवार होकर जाओ, सैर करो।
इंद्रजीत सिंह- उन्होंने बहुत ठीक कहा, चलो किश्ती पर थोड़ी दूर घूम आएं।
बातचीत हो ही रही थी कि चोबदार ने आकर अर्ज किया- 'एक बहुत बूढ़ा जवहरी हाजिर है, दर्शन करना चाहता है।'
आनंद सिंह- यह कौन-सा वक्त है?
चोबदार- (हाथ जोड़कर), ताबेदार ने तो चाहा था कि इस समय उसे विदा करे, मगर यह ख्याल करके ऐसा करने का हौसला न पड़ा कि एक तो लड़कपन ही से वह इस दरबार का नमकख्वार है और महाराज की भी उस पर निगाह हरती है, दूसरे 80 वर्ष का बूढ़ा है...


15 फ़रवरी, 2010

चंद्रकांता संतति - भाग 4

इंद्रजीत सिंह : जी हां, दुनिया में भाई से बढ़कर रत्न नहीं तो भाई से बढ़ कर कोई दुश्मन भी नहीं। यह बात मेरे दिल में बैठ गई है कि उसको हटाने के लिए ब्रह्माजी भी आकर समझाएं-बुझाएं तो भी कोई फर्क नहीं पड़ेगा।
सा
धू : बिना उसको साथ लिए तुम तिलिस्म नहीं तोड़ सकते।
इंद्रजीत सिंह : (हाथ जोड़कर), बस तो जाने दीजिए। माफ कीजिए, मुझे तिलिस्म तोड़ने की जरूरत नहीं।
साधू : क्या तुम्हें इतनी जिद है?
इंद्रजीत सिंह : मैं कह चुका हैं कि ब्रह्मा भी मेरी राय नहीं पलट सकते।
साधू : खैर, तब तुम्हीं चलो, मगर इसी वक्त चलना होगा।
इंद्रजीत सिंह : हां, हां, मैं तैयार हूं, अभी चलिए।
साधू उसी समय उठ खड़े हुए। अपनी गठड़ी बांध एक शेर पर लाद दिया तथा दूसरे पर सवार हो गए। इसके बाद एक शेर की तरफ देखकर कहा, 'बच्चा गंगाराम, यहां तो आओ।' वह शेर तुरंत उनके पास आया। साधू ने इंद्रजीत से कहा- 'तुम इस पर सवार हो जाओ।' इंद्रजीत सिंह कूद कर सवार हो गए और साधू के साथ-साथ दक्षिण के रास्ते पर चल दिए। साधू के साथी और शेर भी कोई आगे-पीछे, कोई बाएं, कोई दाहिने हो साधू के साथ जाने लगे।
सब शेर तो पीछे रह गए, मगर दो शेर जिन पर साधू और इंद्रजीत सवार थे आगे निकल गए। दोपहर तक ये दोनों चलते गए। जब दिन ढलने लगा तो साधूजी ने इंद्रजीत सिंह से कहा- 'यहां ठहरकर कुछ खा-पी लेना चाहिए।'
इसके जवाब में कुमार बोले-'साधू जी खाने-पीने की कोई जरूरत नहीं। आप महात्मा ही ठहरे, मुझे कोई भूख नहीं लगी है, फिर अटकने की क्या जरूरत है? जिस काम में पड़े उसमें सुस्ती करना ठीक नहीं!'
साधू ने कहा- 'शाबाश, तुम बड़े बहादुर हो, अगर तुम्हारा दिल इतना मजबूत न होता तो तिलिस्म तुम्हारे ही हाथ से टूटेगा, ऐसा बड़े लोग न कह जाते। खैर चलो!'
कुछ दिन बाद बाकी रहा, जब ये दोनों एक पहाड़ी लुटेरे हाथ में बरछे लिए आते दिखाई दिए और ऐसे ही 20-25 आदमियों को साथ लिए पूरब तरफ से आता हुआ राजा शिवदत्त नजर पड़ा जिसे देखते ही इंद्रजीत सिंह ने ऊंची आवाज में कहा- 'इनको मैं पहचान गया, यही महाराज शिवदत्त हैं। इनकी तस्वीर मेरे कमरे में लटकी हुई है। दादाजी ने इनकी तस्वीर मुझे दिखाकर कहा था कि हमारे सबसे पुराने दुश्मन यही महाराज शिवदत्त हैं। ओफ ओह, हकीकत से साधू जी ऐयार ही निकले, जो सोचा था वही हुआ। खैर क्या हर्ज है, इंद्रजीत सिंह को गिरफ्तार कर लेना जरा टेढ़ी खीर है!'
शिवदत्त- (पास पहुंचकर) मेरा आधा कलेजा तो ठंडा हुआ, मगर अफसोस, तुम दोनों बाई हाथ न आए।
इंद्रजीत सिंह- जी इस भरोसे न रहिएगा कि इंद्रजीत सिंह को फंसा लिया। उनकी तरफ बुरी निगाह से देखान भी कयामत है ।
इस जगह पर थोड़ा-सा हाल महाराज शिवदत्त का भी बयान करना मुनासिब मालूम होता है। महाराज शिवदत्त को हर तरह से कुंअर वीरेंद्र सिंह के मुकाबले में हार माननी पड़ी। लाचार उसने शहर छोड़ दिया और अपने कई पुराने खैर-ख्वाहों को साथ ले चुनार के दक्षिण की तरफ रवाना हुआ।
चुनार से थोड़ा ही दूर दक्षिण में लम्बा-चौड़ा घना जंगल है। यह बिंध्य के पहाड़ी जंगल का सिलसिला राबर्ट्सगंज, सरगुजा और सिंगरौली होता हुआ सैकड़ों कोस तक चला गया है जिसमें बड़े-बड़े पहाड़, घाटियां, दर्रे और खोह पड़ते हैं। बीच में दो-गो, चार-चार कोस के फासले पर गांव भी आबाद है। कहीं-कहीं पहाड़ों पर पुराने जमाने के टूटे-फूटे आलीशान किले अभी तक दिखाई पड़ते हैं। चुनार से आठ-दस कोस दक्षिण अहरौरा के पास पहाड़ पर पुराने करने से मालूम होता है कि जब यह किला दुरुस्त होगा तो तीन कोस से ज्यादे लम्बी-चौड़ी जमीन इसने घेरे होगी, आखिर में यह किला काशी के मशहूर राजा चेतन सिंह के अधिकार में था। इन्हीं जंगलों में अपनी रानी और कई खैरख्वाहों को मय उनकी औरतों और बाल-बच्चों को साथ लिए घूमते-फिरते महाराज शिवदत्त ने चुनार से लगभग 50 कोस दूर जाकर एक हरी-भरी सुहावनी पहाड़ी के ऊपर एक पुराने टूटे हुए मजबूत किले में डेरा डाला और उसका नाम शिवदत्तगढ़ रखा जिसमें उस वक्त भी कई कमरे और दालान रहने लायक थे। यह छोटी पहाड़ी अपने चारों तरफ के ऊंचे पहाड़ों के बीच में इस तरह छिपी और दबी हुई थी कि एकाएक किसी का यहां पहुंचना और कुछ पता लगाना मुश्किल था।
इस वक्त महाराज शिवदत्त के साथ सिर्फ 20 आदमी थे जिनमें तीन मुसलमान ऐयार थे जो शायद नाजिम और अहमद के रिश्तेदारों में से थे और यह समझकर महाराज शिवदत्त ऐयार के साथ हो गए थे कि इनके साथ मिले रहने से कभी-न-कभी राजा वीरेंद्र सिंह से बदला लेने का मौका मिल ही जाएगा, दूसरे सिवाय शिवदत्त के और कोई इस लायक नजर भी न आता था जो इन बेईमानों को ऐयारी के लिए अपने साथ रखता। तीनों ऐयार नीचे लिखे नामों से पुकारे जाते थे- बाकरअली, खुदाबख्स और यारअली। इस सब ऐयारों और साथियों ने रुपए-पैसे से भी जहां तक बन पड़ा महाराज शिवदत्त की मदद की।
राजा वीरेंद्र सिंह की तरफ शिवदत्त का दिल साफ न हुआ, मगर मौका न मिलने के सबब मद्दत तक उसे चुपचाप बैठे रहना पड़ा। अपनी चालाकी और होशियारी से वह पहाड़ी भील और खर्वार इत्यादि जाति के आदमियों का राजा बन बैठा और उनसे मालगुजारी में गल्ला, घी, शहद और बहुत-सी जंगली चीजें वसूल करने और उन्हें करने और उन्हीं लोगों की मारफत शहर में भेजवा और बिकवाकर रुपया बटोरने लगा। उन्हीं लोगों को होशियार करके थोड़ी-बहुत फौज भी उसने बना ली। धीरे-धीरे वे पहाड़ी जाति के लोग भई होशियार हो गए और खुद शहर में जाकर गल्ला वगैरह बेच रुपये इकट्ठा करने लगे। शिवदत्तगढ़ भी अच्छी तरह आबाद हो गया।

चंद्रकांता संतति - भाग 3

साधू : देखो, मैं अपने शेरों को बुलाता हूं। पहचान लो।
साधू ने शंख बजाया। भारी शंख की आवाज जंगल में गूंज उठी। थोड़ी ही देर में इधर-उधर से दौड़ते हुए पांच शेर आ पहुंचे। चारों बहादुर थे इसलिए डटे रहे। कोई और होता डर से उसकी जान ही निकल जाती। पेड़ों से बंधे घोड़े उछल-कूद मचाने लगे। रस्सी मजबूत होने के कारण वे अपने को पेड़ों से न छुड़ा सके। शेरों ने आकर हंगामा मचाना शुरू कर दिया। मगर साधू के डांटते ही सब ठंडे हो गए। और, भेड़-बकरियों की तरह सिर झुकाकर खड़े हो गए।
साधू : देखो! इन शेरों को पहचान लो। अभी दो-चार और हैं। मालूम होता है, उन्होंने अभी तक शंख की आवाज नहीं सुनी है। खैर! अभी में इसी जंगल में हूं। बाकी के शेरों को भी दिखला दूंगा। बस, कल तक केलिए और शिकार बंद रखो।
भैरों सिंह : फिर आपसे मुलाकात कहां होगी? आपकी धूनी कहां लगेगी?
साधू : मुझे तो यही जगह ठीक लगी है। कल इसी जगह आना, यहीं मिलेंगे।
साधू शेर से उतर गए और जितने शेर वहां थे सब साधू के चक्कर लगाने लगे और उन्हें चाटने, सूंघने लगे। इन चारों ने थोड़ी ही देर में साधू से विदा ली और अपने खेमे में वापस आ गए।
जब रात का सन्नाटा बढ़ा तो भैरों सिंह ने इंद्रजीत सिंह से कहा, 'मेरे दिमाग में बहुत सी बातें घूम रही हैं। मैं चाहता हूं कि हम चारों बैठक कर कुछ सोचें।'
इंद्रजीत सिंह ने कहा, 'ठीक है! आनंद और तारा को भी बुला लो।'
भैरों सिंह गए और आनंद सिंह व तारा सिंह को बुला लाए। इन चारों के अलावा खेमे में कोई और न था। भैरों सिंह ने अपने दिल का हाल कहा जिसे सबने सुना। फिर अगली दोपहर तक के लिए एक फैसला कर लिया कि क्या करना है।
बैठक में क्या हुआ, भैरों सिंह का क्या इरादा था, क्या निश्चय किया गया, रातभर ये लोग क्या करते रहे, यह सब समय पर खुल जाएगा।
सुबह होते ही, चारों आदमी खेमे से बाहर आए और फौज के सरदार कंचन सिंह को बुला, कुछ समझाकर, साधू की ओर रवाना हो गए। जब लश्कर से दूर निकल आए तो आनंद सिंह, भैरों सिंह और तारा सिंह तेजी से चुनार की तरफ रवाना हो गए। इंद्रजीत सिंह अकेले साधू से मिलने गए।
साधू शेरों के बीच धूनी रमाए बैठे थे। दो शेर घूम-घूमकर पहरा दे रहे थे। इंद्रजीत सिंह ने पहुंचकर प्रणाम किया। साधू ने आशीर्वाद देकर बैठने के लिए कहा।
इंद्रजीत सिंह ने कल की तुलना में आज दो शेर ज्यादा देखे। थोड़ी देर की चुप्पी के बाद दोनों में बातचीत होने लगी।
साधू : कहो इंद्रजीत सिंह, तुम्हारे भाई और ऐयार कहां गए। वे नहीं आए?
इंद्रजीत सिंह : हमारे छोटे भाई आनंद सिंह को बुखार आ गया। इस वजह से वह नहीं आ सका। उसकी हिफाजत के लिए दोनों ऐयारों को छोड़कर अकेला मैं अपके दर्शनों के लिए आया हूं।
साधू : कोई बात नहीं! शाम तक वह अच्छे हो जाएंगे। और कहो! राज्य में सब कुशल तो है।
इंद्रजीत सिंह : आपकी कृपा से सब आनंद है।
साधू : बेचारे वीरेंद्र सिंह ने भी बड़ा कष्ट पाया है। खैर! जो हो, दुनिया में उनका नाम रह जाएगा। इन हजार वर्षों में कोई ऐसा राजा नहीं हुआ जिसने तिलिस्म तोड़ा हो। एक और तिलिस्म है। असल में वही भारी और तारीफ के लायक है।
इंद्रजीत सिंह : पिताजी का कहना है कि वह तिलिस्म तो मेरे ही हाथों से टूटेगा।
साधू : हां! ऐसा ही होगा। वह जरूर तुम्हारे हाथ से फतह होगा। इसमें कोई सदेह नहीं।
इंद्रजीत सिंह : देखें! कब तक ऐसा होता है। उसकी ताली का तो कहीं पता ही नहीं लगता।
साधू : ईश्वर चाहेगा तो एक या दो दिन में तुम उस तिलिस्म को तोड़ने में हाथ लगा ही दोगे। उस तिलिस्म की ताली में हूं। कई पुश्तों से हम लोग उस तिलिस्म के दारोगा होते चले आए हैं। मेरे परदादा, बाबा और पिता उसी तिलिस्म के दारोगा थे। मेरे पिता ने मरने से पहले उसकी ताली मेरे सुपुर्द कर मुझे उसका दारोगा नियुक्त कर दिया। अब वक्त आ गया है कि मैं उसकी ताली तुम्हारे हवाले करूं। क्योंकि, वह तिलिस्म तुम्हारे नाम पर बांधा गया है। सिवाय तुम्हारे दूसरा कोई और उसका मालिक नहीं बन सकता है।
इंद्रजीत सिंह : तो अब देर क्या है?
साधू : कुछ नहीं! कल से तुम उसे तोड़ने में हाथ लगा दो। मगर एक बात हम तुम्हारे फायदे की कहते हैं।
इंद्रजीत सिंह : वह क्या?
साधू : तुम उसको तोड़ने में अपने भाई आनंद को भी शामिल कर लो, ऐसा करने से दौलत भी दूनी मिलेगी, और दोनों का नाम दुनिया में हमेशा बना रहेगा।
इंद्रजीत : उसकी तो तबियत ठीक नहीं।
साधू : क्या हर्ज है। तुम अभी जाकर जिस बने, उसे मेरे पास ले आओ, मैं बाती की बात में उसको चंगा कर दूंगा। आज ही तुम लोग मेरे साथ चलो जिससे कल तिलिस्म टूटने में हाथ लग जाए, नहीं तो साल-भर फिर मौका न मिलेगा।
इंद्रजीत सिंह : साधू जी, असल बात यह है कि मैं अपने भाई की बढ़ती नहीं चाहता, मुझे यह मंजूर नहीं कि मेरे साथ उसका भी नाम हो।
साधू : नहीं-नहीं, तुम्हें ऐसा नहीं सोचना चाहिए, दुनिया में भाई से बढ़कर कोई रत्न नहीं है।

चंद्रकांता संतति - भाग 2

शिकार के लिए बनरखों को शेर का पता लगाने के लिए कह दिया गया। साथ ही शेर का शिकार पैदल ही करने का निर्णय लिया गया।
दूसरे दिन सुबह, बनरखों ने आकर बताया कि जंगल में शेर तो है लेकिन उन्होंने उसे अपनी आंखों से देखा नहीं है। अगर एक दिन और शिकार के लिए नहीं निकला जाए तो उनका पता लगाया जा सकता है।
अत: शिकार न करने का फैसला किया गया। इंद्रजीत सिंह और आनंद सिंह घोड़ों पर सवार होकर दिनभर जंगल में इधर-उधर घूमते रहे। घूमते-घूमते वे दूर तक चले गए।
ये लोग धीरे-धीरे बातें करते जा रहे थे कि बांई तरफ से शेर के गरजने की आवाज आई। आवाज सुनते ही चारों ठिठक गए और आवाज की दिशा में देखने लगे।
लगभग 200 गज की दूरी पर एक साधू शेर पर सवार होकर जाता दिखाई पड़ा। उसकी लंबी-लंबी और घनी जटाएं पीछे की तरफ लटक रही थीं। उसके एक हाथ में त्रिशूल और दूसरे हाथ में शंख था। शेर बहुत बड़ा और उसके गर्दन के बाल जमीन को छू रहे थे।
इसके आठ-दस हाथ पीछे एक और शेर जा रहा था। इस शेर के ऊपर बहुत सारा माल-असबाब लदा हुआ था। ये सामान शायद उसी साधू का था।
शाम ढलने की ओर थी, अत: साधू का चेहरा साफ दिखाई नहीं पड़ रहा था। लेकिन, इसे देखकरइन चारों को बड़ा ताज्जुब हुआ और वे कई तरह की बातें सोचने लगे।
इंद्रजीत सिंह : इस तरह शेर पर सवार होकर घूमना वाकई मुश्किल है।
आनंद सिंह : कोई बड़े महात्मा मालूम होते हैं।
भैरों सिंह : पीछे वाले शेर को देखिए! कैसे भेड़ की तरह गर्दन झुका के चला जा रहा है।

तारा सिंह : शेरों को बस में कर लिया है! इंद्रजीत सिंह : जी चाहता है...उनके पास चलकर दर्शन करें।
आनंद सिंह : चलिए! पास से देखें, कैसा शेर है!
तारा सिंह : बिना पास गए महात्मा और पाखंडी में भेद मालूम नहीं होगा।
भैरों सिंह : शाम हो गई है! खैर चलो आगे से बढ़कर रोकें।
आनंद सिंह : आगे से चलकर रोकने से कहीं बुरा न मान जाएं!
भैरों सिंह : हम ऐयारों का पेशा ही ऐसा है। पहले तो यही विश्वास नहीं कर पा रहे हैं कि वह एक साधू हैं।
इंद्रजीत सिंह : आप लोगों की तो बात ही क्या है, मूंछें हमेशा मुड़ी ही रहती हैं। खैर चलो!
भैरों सिंह : चलो!
चारों लोग आगे से घूमकर शेर पर सवार साधू के सामने आ गए। इन्हें अपने पास आते देख साधू रुक गए। शेर को देखकर इंद्रजीत सिंह और आनंद सिंह के घोड़े ठिठक गए। लेकिन, ललकारने पर आगे बढ़े। थोड़ी दूर चलकर दोनों भाई घोड़ों से उतर गए। घोड़ों को पेड़ से बांधकर वे पैदल ही साधू की ओर बढ़े।
साधू: (दूर से ही) आओ राजकुमार इंद्रजीत सिंह, आनंद सिंह! कुशल तो हैं।
इंद्रजीत सिंह : (प्रणाम करके) आपकी कृपा से मंगल है।
साधू : (भैरों सिंह और तारा सिंह को देखकर) कहो भैरों और तारा! कैसे हो!
दोनों : आपकी दया है।
साधू : मैं खुद आप लोगों की ओर आ रहा था। क्योंकि मुझे मालूम है कि तुम लोगों ने शेर का शिकार करने के लिए जंगल में डेरा डाला है। मैं गिरनार जा रहा हूं। घूमता-फिरता इस जंगल में आ पहुंचा। यहां मुझे अच्छा लग रहा है। सोच रहा हूं, दो-तीन दिन यहां रहूंगा। कोई ठीक सी जगह देखकर धूनी लगाऊंगा। मेरे पास सवारी और असबाब ढोने के लिए कई शेर हैं। इसलिए, धोखे से भी मेरे किसी शेर को मत मारना, नहीं तो मुश्किल हो जाएगी, सैकड़ों शेर आपके लश्र पर हमला कर देंगे। बहुतों की जान जाएगी। तुम प्रतापी राजा सुरेंद्र सिंह के वंशज हो, इसलिए तुम्हें समझा देना मुनासिब है।
इंद्रजीत सिंह : महाराज! मैं कैसे जानूंगा कि यह आपका शेर है! अगर ऐसा ही है तो मैं शिकरा नहीं खेलूंगा।
साधू : नहीं, तुम शिकार खेलो, मगर मेरे शेरों को मत मारो।
इंद्रजीत सिंह : मगर यह कैसे मालूम होगा कि फलाना शेर आपका है?

चंद्रकांता संतति - 1

पहला बयान
नौगढ़ के राजा सुरेंद्र सिंह के लड़के वीरेंद्र सिंह की शादी विजयगढ़ के महाराज जय सिंह की लड़की चंद्रकांता के साथ हो गई। बारात वाले दिन तेज सिंह की आखिरी दिल्लगी के चलते चुनार के महाराज शिवदत्त को मशालची बनना पड़ा। बहुतों की राय हुई कि महाराज शिवदत्त का दिल अभी तक साफ नहीं हुआ, इसलिए अब उनको कैद ही में रखना मुनासिब है, मगर महाराज सुरेंद्र सिंह ने इस बात को नापसंद करके कहा - "महाराज शिवदत्त को हम छोड़ चुके हैं, इस वक्त जो तेज सिंह से उनकी लड़ाई हो गई, यह हमारे साथ बैर रखने का सबूत नहीं हो सकता। आखिर महाराज शिवदत्त क्षत्रिय हैं, जब तेज सिंह उनकी बेइज्जती करने पर उतारू हो गए तो यह वह कैसे बर्दाश्त कर सकते थे? मैं यह भी नहीं कह सकता कि महाराज शिवदत्त का दिल हम लोगों की तरफ से बिल्कुल साफ हो गया, क्योंकि अगर उनका दिल साफ ही हो जाता तो इस बात को छिपकर देखने के लिए आने की जरूरत क्या थी? तो भी यह समझकर कि तेज सिंह के साथ इनकी यह लड़ाई हमारी दुश्मनी का सबब नहीं कही जा सकती, हम फिर इनको छोड़ देते हैं। अगर अब भी यह हमारे साथ दुश्मनी करेंगे तो क्या हर्ज है, यह भी मर्द हैं और हम भी मर्द हैं, देखा जाएगा।"
महाराज शिवदत्त फिर छूटकर न मालूम कहां चले गए। वीरेंद्र सिंह की शादी होने के बाद महाराज सुरेंद्र सिंह और जय सिंह की राय से चपला की शादी तेज सिंह के साथ और चंपा की शादी देवी सिंह के साथ की गई। चंपा दूर के नाते में चपला की बहन होती थी।
बाकी सब ऐयारों की शादी हो चुकी थी। उन लोगों की घर-गृहस्थी चुनार में ही थी, अदल-बदल करने की जरूरत न पड़ी, क्योंकि शादी होने के थोड़े ही दिन बाद बड़े धूमधाम के साथ कुंवर वीरेंद्र सिंह चुनार की गद्दी पर बैठाए गए और कुंवर छोटे राजा कहलाने लगे। तेज सिंह उनके राज दीवान नियुक्त हुए और इसलिए सब ऐयारों को भी चुनार में ही रहना पड़ा। सुरेंद्र सिंह अपने लड़के को आंखों के सामने से हटाना नहीं चाहते थे, लाचार नौगढ़ की गद्दी फतेह सिंह के सुपुर्द कर वह भी चुनार ही रहने लगे। मगर राज्य का काम बिल्कुल वीरेंद्र सिंह के जिम्मे था, हां कभी-कभी राय दे देते थे। तेज सिंह के साथ जीत सिंह भी बड़ी आजादी के साथ चुनार में रहने लगे। महाराज सुरेंद्र सिंह और जीत सिंह में बहुत मोहब्बत थी। असल में जीत सिंह इसी लायक थे कि उनकी जितनी कदर की जाती, थोड़ी थी।

शादी के दो साल बाद चंद्रकांता को पुत्र रत्न की प्राप्ति हुई, जिसका नाम इंद्रजीत सिंह रखा गया। उसी साल चंपा और चपला को भी पुत्र हुए। तीन साल बाद चंद्रकांता ने दूसरे बेटे को जन्म दिया। चंद्रकांता के दूसरे बेटे का नाम आनंद सिंह रखा गया। चपला और चंपा के बेटों के नाम क्रमश: भैरों सिंह और तारा सिंह रखे गए।
शैशवावस्था में इन सभी बच्चों की शिक्षा-दीक्षा का इंतजाम किया गया, जिसकी जिम्मेदारी जीत सिंह को सौंपी गई। भैरों सिंह और तारा सिंह कुशाग्र बुद्धि थे, अत: ऐयारी के फन में माहिर निकले। जीत सिंह ने उनके इस गुण को पहचानते हुए उनके प्रशिक्षण के लिए खास इंतजाम किए। धीरे-धीरे दोनों इस फन में इतने माहिर हो गए कि उनके गुरु की कला भी उनके सामने फीकी पड़ने लगी।
भैरों सिंह और तारा सिंह में कौन बेहतर! यह आगे की कहानी में पता चल जाएगा। हां, इतना जरूर है कि भैरों सिंह को इंद्रजीत और तारा सिंह को आनंद सिंह ज्यादा प्रिय था।चारों लड़के अब किशोरावस्था की दहलीज पर आ चुके थे। चुनार राज्य की बात करें तो चहुंओर शांति थी। हालांकि, पुराने कष्ट और महाराज शिवदत्त की शैतानी एक बुरे सपने की तरह सभी के दिल में समाई हुई थी।
इंद्रजीत सिंह को शिकार का बहुत शौक था। जहां तक संभव हो, रोज निकल जाते शिकार के लिए। एक दिन किसी बनरखे ने बताया कि इन दिनों जंगल में मंगल हो रहा है। सभी जानवर मदमस्त हो जंगल में घूम रहे हैं। जानवरों की संख्या को देखें तो महीना-दो-महीना टिककर शिकार करें तो भी न खत्म हों। जब दोनों भाइयों ने यह सुना तो उनकी खुशी की सीमा न रही। उन्होंने राजा वीरेंद्र सिंह से आठ दिन के लिए शिकार करने जाने की इजाजत मांगी। इसके जवाब में राजा वीरेंद्र सिंह ने कहा, 'आठ दिन की अनुमति मैं नहीं दे सकता। अपने दादा से पूछो, अगर वह हुक्म दें तो मुझे कोई आपत्ति नहीं।'
यह सुनकर दोनों ने अपने दादा महाराज सुरेंद्र सिंह की ओर रुख किया। उन्होंने खुशी-खुशी मंजूरी दे दी और शिकार का पूरा इंतजाम करने का हुक्म दिया। साथ ही फौज के 500 सिपाहियों को भी भेजने का निर्देश दिया। मंजूरी मिलते ही इंद्रजीत सिंह और आनंद सिह बहुत खुश हुए और भैरों सिंह, तारा सिंह और फौज को साथ लेकर चुनार से रवाना हो गए। चुनार से पांच कोस दक्षिण की ओर घने जंगल में पहुंचकर उन्होंने पड़ाव डाला। शाम ढलने ही वाली थी, इसलिए तय किया गया कि आज आराम किया जाए और कल सवेरे शिकार के लिए निकला जाए।
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