17 अगस्त, 2009

भतीजी की ससुराल में - अमृतलाल नागर (हास्य-व्यंग्य)

रायबरेली नहीं, बांसबरेली की बात कह रहा हूं-वहीं, जहां पागलखाना है, लकड़ी का काम होता है, जहां की पूड़ी और चाट मशहूर है, जहां एक बार मुशायरे में शामिल होने के लिए हज़रत ‘शौकत’ थानवी को थर्ड क्लास का टिकट लेकर सेकेंड क्लास में जाने का सौभाग्य प्राप्त हो चुका है, जिसकी बदौलत उनकी ‘डब्लू.टी.’ कहानी उनके दिल के फफोलों का मरहम बन चुकी है।
स्कूल में जागरफी और ज्योमेटरी इन्हीं दोंनों से डरता रहा, वर्ना आज मैं कम से कम यह तो बतला ही सकता था कि बरेली लखनऊ से किस दिशा में पड़ता है। फिर भी बुद्धिमानों के लिए इतना इशारा दे देना काफी होगा कि रात के दस बजकर सत्ताईस की गाड़ी से दिसम्बर की कड़कती हुई सर्दी में मुझे बरेली जाना पड़ा। संडीला, हरदोई, तिलहर, शाहजहांपुर आदि स्टेशन बीच में पड़े थे, और यह भी सुना करता हूं कि बरेली से हाथ-भर के फासले पर मुरादाबाद भी है।

भतीजी को ससुराल से विदा कराने जा रहा था। चलते वक्त अम्मा, बाबू, भइया और भौजी सबने इस बात की चेतावनी दे दी थी कि समधी के यहां खाना मत। मैंने भी इसे रूमाल में गांठ बांधकर याद रक्खा।
कहना नहीं होगा कि मैं बर्थ पर बिस्तर बिछाकर आराम से बरेली पहुंच गया।
कड़ाके की सर्दी में मैं लाख बार चेष्टा करने पर भी स्टेशन पर दतून-कुल्ला, स्नान-ध्यान और जलपान करने का साहस सवेरे-सवेरे न कर सका। यह सोचकर गया था कि ग्यारह बजे की गाड़ी से सवार होकर शाम के चार बजे तक वापस आ जाऊंगा।

नाश्ते के लिए जिस वक्त सामने चाय और मेवा आई तो इच्छा हुई कि प्रतिज्ञा भंग कर दूं, परन्तु साहस न हुआ। सोचने लगा कि इस महीने में प्रदोष के दो व्रत न सही तीन सही। जी कड़ा करके हाथ जोड़कर विनीत भाव से मैंने कहा, ‘‘माफी चाहता हूं। बस कृपा भाव बनाएं रक्खे।’’
‘‘देखिए साहब, मैं इस रिवाज के सख्त खिलाफ हूं कि लड़की वाला अपने समधी और दामाद के यहां कुछ खाएं-पिए नहीं।’’ लड़के के पिता ने कहा। मैं सोचने लगा कि घंटे-डेढ़ घंटे के लिए इनके यहां रहना है, फिर एहसान क्यों लिया जाए। हाथ जोड़कर मैंने खीसें निपोरते हुए कहा, ‘‘हें ! हें ! हें ! बाबूजी इसकी तो कोई बात नहीं है। कल रात चलते वक्त कुछ इतना अधिक खा गया था कि हज़म नहीं हुआ। खट्टी डकारें आ रही हैं, रात-भर जागा हूं इसलिए सर में दर्द भी है। इस वक्त न खाऊंगा तो तबियत ठीक हो जाएगी।’’

लाचारी का भाव प्रकट करते हुए समधी साहब ने कहा, ‘‘खैर, फिर आपकी मर्ज़ी। उस खयाल से अगर खाना न खाते हों तो मैं वाकई बहुत बुरा मानूंगा।’’
‘‘अजी वाह, अजी वाह, आप तो कैसी बातें करते हैं, बाबू जी। अरे, सब आप ही का दिया खाते हैं।’’
बाबू ने कन्टोप से कान ठीक तरह ढ़कते हुए प्रसन्न भाव से कमर पर हाथ बांधकर टहलना शुरू किया।

घड़ी ने नौ बजाए और मैंने समधी साहब से कहना शुरू किया कि साहब, जल्दी कीजिए, गाड़ी का मामला है। दिन-भर के बाद शाम होते-होते अपने घर पहुंच जाएंगे।
समधी साहब भी उस वक्त हां में हां मिलाकर, तड़पड़ घर में घुसकर घरवाली से बार-बार सुना आते कि बहू को ग्यारह बजे वाली गाड़ी से जाना है। उसके चाचा जल्दी मचा रहे हैं।
घरवाली आखिर लड़के की मां थी। खीझकर वह एकाएक मन ही मन यह निश्चय कर बैठी कि ग्यारह बजे की गाड़ी से वह अपनी बहू को न जाने देगी।

नौ बजा, सवा नौ, साढ़े नौ, पौने दस, साढ़े दस, घर से स्टेशन का आधा घंटे का रास्ता है और ठीक ग्यारह बजकर पांच मिनट पर गाड़ी लखनऊ के लिए रवाना हो जाती है।
मैंने उनसे बार-बार कहा कि देखिए गाड़ी छूटने वाली है। आप कृपया बच्ची को विदा करने की व्यवस्था करें, और वह बार-बार घर में जाकर घरवाली से झगड़ लेते थे। इस प्रकार जल्दी-जल्दी करते हुए घड़ी ने पौने ग्यारह बजा दिए, और जब ग्यारह बजने में पांच मिनट बाकी थे तब समधी साहब ने आकर फरमाया, ‘‘तांगा मंगा दूं, जल्दी कीजिए।’’ जेब से टाइमटेबुल निकालकर मैंने उन्हें दिखाते हुए कहा, ‘‘अब तो मोटर भी शायद वक्त से स्टेशन न पहुंचा सके।’’
मैं सचमुच मन ही मन झुंझला रहा था।
उन्होंने केवल मौखिक रूप में लाचारी प्रकट कर मुझसे माफी मांगकर छुट्टी पा ली। यहां दिन-भर के लिए पेट पर नौबत बज गई।

यहां तक तो हुई भूमिका।
बारह बजे।
घर के अन्दर थालियों की झनझनाहट और रोटी के लिए बच्चों का झगड़ना बाहर स्पष्ट रूप से सुनाई पड़ रहा था। सोचने लगा, आज सवेरे आंख खुलते ही किसका मुंह देखा था। याद आता है कि किसी छोटे स्टेशन पर गाड़ी रुकने से जब नींद खुली थीं, सामने प्लेटफार्म पर एक ‘टामी’ हाथ में अपने टामी की ज़ंजीर पकड़े मुंह में सिगार दबाए हुए टहल रहा था। खटका तो उसी समय हुआ कि आखिर सवेरे-सवेरे मुझे सुग्रीव की सेना के एक सिपाही के दर्शन करने का क्या फल मिलेगा। परन्तु यह नहीं मालूम था कि आज इसके फलस्वरूप सोलहों दंड की एकादशी मनानी पड़ेगी।
समधी साहब हाथ मलते हुए बाहर आए और वाणी में गुड़ घोलकर कहने लगे, ‘‘चलिए भइया साहब, रोटी तैयार है।’’
बजाय मेरी भतीजी की ससुराल वालों के यदि किसी और ने मुझसे यह कहा होता, तो अवश्य ही मैं अपने मन-मंदिर में उसकी काल्पनिक मूर्ति स्थापित कर उसके पोपले गालों को चूमकर उसकी गंजी खोपड़ी पर प्रेम से हाथ फेरते पर कहता कि बेटा जुग-जुग जियो। खीर की कहाड़ी में तुम्हारा सिर हो और भगवान तुम्हें ओकासा और झींनसीन गोल्ड टानिक पिल्स तक सेवन करने की शक्ति प्रदान करें। प्रत्यक्ष रूप में उसके सामने नम्रता की सजीव प्रतिमा बनकर नाज़ोअन्दाज के साथ उसका प्रस्ताव स्वीकार कर चट से भोजन-शाला की ओर पैर बढ़ा देता। लेकिन यहां प्रतीत होने लगा जैसे भूखे अनशन व्रतधारी राजबंदी की बैरक के सामने जेलर महोदय दूधिया हलवा सोहन और गर्मा-गरम समोसों का भोग लगा रहे हों।

मैंने उनसे कहा, ‘‘क्या बताऊं, अभी तक खट्टी डकारें आ रही हैं। कल का खाना अब तक कम्बख्त कुबड़े की तरह मेरे पेट की थैली में आसन जमाए बैठा है।’’
उन्होंने कहा, ‘‘आप तो बड़े मज़ाकिए मालूम होते हैं। अबकी जब आपके भाई साहब को पत्र लिखूंगा तो इसका जिक्र ज़रूर करूंगा कि भाई वाह, क्या खुशमिजाज भाई पाया। सच मानिए, आपसे मिलकर तबीयत बहुत ही खुश हुई। ’’
भूखे पेट से व्यंग्य और खिजलाहट का राम-बाण सर्र से छूटा। अपनी बत्तीसी बाहर की ओर निपोरते हुए मैंने कहा ‘‘हें ! हें !! यकीन मानिए कि आपके यहां आकर और आपके दर्शन कर मेरी तबीयत भी बहुत ही प्रसन्न हुई।’’

थोड़ी देर तक और इसी तरह ‘नां-हां’ का मधुर सम्भाषाण होने के बाद वह यह कहते हुए अन्दर चले गए, ‘‘फिर जैसी आपकी मर्ज़ी।’’
शरीर के अन्दर ऐसा मालूम होने लगा कि कुरुक्षेत्र का मैदान बन गया है। उसी समय भगवान कृष्ण और अर्जुन का रथ मेरे हृदय पथ के खांचे में खड़खड़ करता हुआ आगे बढ़ गया। आज इस समय पेट पर हाथ फेंरता हुआ, पान चबाकर मैं भली भांति सोच-विचार कर यह बात निश्चयपूर्वक कह सकता हूं कि उस दिन कृष्णजी ने दो मिनट के अन्दर गीता के अट्ठारहों अध्याय सुना दिए थे। मन में रह-रहकर यही खयाल आ रहा था कि यदि इस समय यमराजरूपी धोबी आकर मेरे इस पुराने मैले शरीर रूपी कपड़े को धोने ले जाकर मुझे नई खोल पहना दे, तो कम से कम किसी अंधेरे घर का चिराग बनकर, नई अम्मा के स्तनों का दूध पीकर अपने पेट की ज्वाला शान्त करूं। सचमुच गीता का वह श्लोक मुझे तब से सारहीन मालूम पड़ता है। खैर, उसके बाद ही मुझे ऐसा मालूम पड़ने लगा कि मेरे पेटरूपी रथ के सारथि सखा कृष्ण की उत्तेजनामयी आध्यात्मिक बातों को सुनकर उत्तेजित अवस्था में नरोत्तम अर्जुन ने कुछ भाव से गाण्डीव को टंकारा।

रोयें उठ खड़े हुए, दिमाग की नसें झन-झन कर बज उठीं। हृदयरूपी श्मशान पर आशा की चिता थक-थक चट-चट जलने लगी। एकाएक खयाल आया कि कल रात चलते समय भौजी ने ओवरकोट की जेब में मेवा भर दी थी। जेब भारी हो जाने के खयाल से मैंने उसे उलटकर वहीं पटक दिया था। शीघ्रतापूर्वक कुर्सी से उठकर खूंटी पर टंगे हुए ओवर कोट की जेबों को टटोलने लगा। काश, उस वक्त किशमिश और काजू के तीन-चार दाने निकल आते !.....शरद बाबू के ‘चरित्रहीन’ की प्रधान पात्री किरणमयी की भांति हाथ ले अपना ललाट ठोकते हुए मैंने भी कह दिया, ‘‘हाय रे जला कपाल !’’
समधी साहब खा-पीकर लम्बी डकार मारते और ‘‘ओउम्-ओउम्’ करते हुए कमरें में दाखिल हुए। सोच रहा था कि बाजार घूमने के बहाने किसी हलवाई के यहां जाकर अपने पेट को तर्पण दूं। इसी इच्छा से मैंने कोट और टोपी उठाई।

‘‘कहिए साहब, किधर सवारी जा रही है?’’ उन्होंने कहा।
‘‘कुछ नहीं, ऐसे बैठे-बैठे तबीयत ऊबने लगी, मैंने कहां, चलो बाज़ार ही घूम लिया जाए।’’
वे तत्परता के साथ बोले, ‘‘अरे साहब, अकेले कहां जाइएगा। आप को मालूम नहीं, बरेली के तांगेवाले साले बड़े बदमाश होते हैं। और फिर आप नये आदमी ठहरे। चलिए, मैं भी साथ चलता हूं।’’
मैंने बड़ी ना-नू की, परन्तु वह न माने। तांगेवालों की बदमाशियों का वर्णन करते हुए उन्होंने कपड़े पहनना आरम्भ किया।

मैंने अपने मन में कहा कि बरेली के सिर्फ तांगे वाले ही नहीं, वरन सभी लोग अव्वल दरजे के पाजी होते हैं।
तांगा जब शहर की भीड़-भरी सड़कों पर दौड़ रहा था, तब मैं केवल यही देख रहा था कि आखिर बरेली की इतनी बड़ी आबादी में कितने आदमी मेरे समान छैल-चिकनिया बने प्रसन्नता और बीमारी का अभिनय करते हुए अपने पेट को चूहों की कुश्ती का अखाड़ा बनाकर घूम रहे हैं।

सड़क पर थोड़ा आगे बढ़कर एक हलवाई की दूकान पर नजर आई। लोग पूड़िया खरीद रहे थे, मिठाइयां खा रहे थे, और हलवाई की दुकान का धुआं उठकर मेरे मन-मुकुर को धूमिल करता हुआ आगे बढ़ा। मुंह में पानी और आंखों में रोब भरकर मैंने बगल में बैठे हुए समधी साहब की ओर एक बार निहारा। ऐसा मालूम हुआ कि जैसे यमराज की ड्यूटी का चौकीदार मेरे सामने विकराल रूप लिए हुए पान चबा रहा है। इच्छा हुई कि नाक पर एक घूंसा जमाकर कहूं कि कम्बख्त तुझे इस समय मिर्गी ही क्यों नहीं आ जाती, जिससे कि हलवाई की दुकान से पानी लेने के बहाने मिठाई के चार कौर ही मुंह में रख लेता।

पेट में आतिशबाजी का प्रोग्राम शुरू हो गया। चर्खी, बान, अनार और कम्बख्त जी ललचाने वाली चुटपुटी फुलझड़ियां क्षण-क्षण के बाद मेरे मुंह की टंकी को खोलकर पानी का अन्दाज़ लगा लेती थीं।
सिर की नसें अपने हिसाब जैसे हरमोनियम की धौंकनी हो रही थी जो कि मालिक की मर्जी के अनुसार ज़रा-से इशारे पर पूरा राग, दूध राग, गंडेरी रांग, षठराग भरी, राग और रागिनियों को बजाकर मुझे प्रलोभन देता ही चला जा रहा था।
आपसे क्या अर्ज़ करूं कि किस तरह मैंने शाम के चार बजे तक अपना वक्त काटा। उस समय रह-रहकर यही ख्याल आता था कि हमारे लखनऊ में टेढ़ी कबर के पहलवान की पूड़ियां कितनी स्वादिष्ट होती हैं, कालिका भंडार के रसगुल्ले, रामासरे की दूकान की गिलौरियां, दुनिया की समस्त उत्तम खाद्य-सामग्री के काल्पनिक स्वाद ने भूख और प्रचण्ड कर दी। मुझे तो ऐसा मालूम पड़ने लगा कि शेष शैया पर लेटे हुए भगवान विष्णु की नाभि से बजाय ब्रह्मा के बुटबल का सन्तरा पैदा हुआ, जिसे लक्ष्मी जी ने अपने हाथों बड़े प्रेम से मुझे प्रदान किया।

शरीर के अन्दर की दुनिया में आशा और निराशारूपी देव और दानव दृदय-सागर का मंथन कर उसमें से ताज़े-ताज़े गरम-गरम समोसे, हलवा, चटनी, रायता, चटपटी चटनी आदि सुन्दर-सुन्दर रत्न निकाल रहे हैं और मैं महादेव शंकर की तरह किनारे खड़ा हुआ मुंह के पानी को कालकूट की तरह गले में उतार रहा था, जिसकी गर्मी शान्त करने के लिए मुझे भी सर की जगह गले में मफलर लपेटना पड़ा।

अक्ल गुम थी, दिमाग हैरान था कि आखिर इस बच्ची के ससुर से किस तरह अपनी जान बचाकर किसी हलवाई की शरण लूं। एकाएक समस्या कुछ हल-सी होती दिखाईं पड़ी। मैंने टाइम-टेबुल को मौका पाकर समधी साहब के बही-खाते वाली मचान पर धीरे से प्रवेश किया, मैंने उनसे कहा, ‘‘बाबूजी, एक गाड़ी यहां से चार बजकर बावन मिनट पर भी जाती है। आज्ञा दीजिए तो इसी से बच्ची को लखनऊ ले जाऊं। अभी स्टेशन जाने का वक्त भी है।’’ उनकी समझ में यह बात कुछ आ गई उन्होंने कहा,‘‘अच्छी बात है, दो तांगे मंगवाए देता हूं।’’ खैर साहब, दस मिनट के बाद ही स्टेशन पर जाने की पूरी तैयारी हो गई थी। समधी साहब इस बात पर अड़ गए कि बिना मुझे कुछ खिलाए-पिलाए घर से विदा नहीं होने देंगे।

बड़े असमंजस में पड़ा। जिस प्रतिज्ञा के कारण दिन भर आंतों को कंडे बनाकर जलाया और केवल पेट भरने के ही लालच में मैं पांच घण्टे पहले ही स्टेशन के वेटिंग रूम में अपना आसन जमाने की फिक्र में हूं। मुझे जल्दी थी, इधर वह जिद कर रहे थे। लाचार होकर मैंने भरे हुए दूध के गिलास के दो-तीन घूंट पी लिए। सामने पड़ी तरकारी रक्खी हुई थी। सोचा कि अगर सब खा जाऊंगा तो दिन-भर की बीमारी का अभिनय झूठा प्रमाणित हो जाएगा। एक पूरी उठाकर उसका एक कौर तोड़ा और आलू के टुकड़े मुंह में रखकर पानी पी लिया।

समधी साहब बोले, ‘‘साहब, आपने तो कुछ खाया भी नहीं।’’
इच्छा हुई कि समधी साहब से कह दूं, ‘‘मियां, क्यों अपनी और मेरी जान के गाहक बने हो ! आग में घी छोड़ते हो ! फिर कहते हो कि आग तेज़ी क्यों पकड़ रही है!’’ लेकिन फिर भी मैंने उनसे नम्रतापूर्वक कहा, ‘‘आपकी आज्ञा का पालन कर लिया। अब जान बखशिए। आपकी कृपा से पेट अब तक तम्बूरे की तरह तन चुका है। डर लगता है कि कहीं बदहज़मी न हो जाए।’’ समधी साहब बडी तत्परता के साथ अन्दर जाकर चूरन की चार गोलियां ले आए और कहा कि इसे खा लीजिए, दस्त साफ हो जाएगा और बदहज़मी की शिकायत न होगी।

हर एक बात की एक सीमा होती है। दिन-भर भूखा रहा और शाम को बजाय भोजन के हाज़मे की गोलियां खाने को मिल रही हैं। मेरा क्रोध अपनी सीमा पार कर बाहर निकल चुका था, लेकिन फिर शान्त हो गया। लाचारी थी, आंख बचाकर गोलियां इधर-उधर फेंक नहीं सकता था, चुपचाप मुंह में रख लीं।

तांगे आए, उनपर सामान रखा गया। बच्ची को भी एक तांगे पर बैठा दिया और मैं समधी साहब से खड़ा होकर विदा मांगने लगा। जेब से एक रुपया निकालकर उनकी सेवा में समर्पित करते हुए कहा, ‘‘जो कुछ आपके यहां खाया-पीया हो उसका यह दाम है।’’
समधी साहब ने हंसते हुए कहा, ‘‘अच्छा-अच्छा, अभी इसे जेब में रखिए स्टेशन पर भुगतान हो जाएगा।’’

आप यकीन मानिए, कि मेरे पैरों तले से जमीन खिसक गई। कम्बख्त ने मेरी सारी बनी-बनाई आशारूपी कुटिया फूंक मारकर उड़ा दी। बड़ी नम्रतापूर्वक कई बार मैंने उन्हें जाने से रोकना चाहा, लेकिन वह यह कहते दूसरे तांगे पर बैठ गए कि तांगा अकेला छोड़ना ठीक नहीं, आप बहू के पास तांगे पर बैठ जाइए।

अगर मेरे पास उस वक्त पिस्तौल होती तो यह निश्चय था कि समधी साहब की गंजी खोपड़ी में, उनके दिमाग से लेकर पेट तक के रहस्यों का भंडाफोड़ करने के लिए मैं एक सुरंग बना देता। रास्ते-भर पछताता रहा कि हाय ! न हुआ मेरे पास अलादीन का चिराग, वरना ढाई गज़ टुकड़े में उन्हें लपेटकर काले पानी में डुबा देता। रास्ते-भर बदला लेने के इसी प्रकार के सैकड़ों उपाय सोचता हुआ स्टेशन पहुंच गया। उस वक्त लखनऊ के लिए गाड़ी न जाती थी। चार बजकर बावन मिनट की गाड़ी की कथा रेलवे टाइम-टेबुल में परिवर्तन हो जाने के बाद, केवल कोरी कथा ही रह गई थी। यह मुझे मालूम था कि पापी पेट को भोजन से पाटने के लिए ही मैं इतनी जल्दी स्टेशन पर आ गया। परन्तु हाय रे जला कपाल ! स्टेशन मास्टर मेरे दूर के रिश्ते से जीजा और समधी साहब के खास साले लगते थे। उनके क्वार्टर में ही आसन जमा। थोड़ी देर बाद भोजन के लिए कहा गया। चट से समधी साहब ने कह दिया कि इनके पेट में दर्द है। बेचारे दिन-भर तो भूखे रहे, दवाई खाई, अभी तक देखिए इस बेचारे का चेहरा कुम्हलाया हुआ है।

खिझलाया तो बहुत, लेकिन कर कुछ भी न सका, क्योंकि इस दस्त की गोली अपना असर कर चुकी थी। पाखाना हो आने के बाद ऐसा मालूम होने लगा कि मेरी खोपड़ी पर शिवजी नृत्य कर रहे हैं। आंखें बाहर की ओर निकली पड़ रही थीं, पेट पीठ से सटा चला जा रहा था। ऐसे समय ही कानों को सुनाई पड़ा कि समधी साहब खीर की प्रशंसा करते हुए थोड़ी और मांग रहे हैं।
हड्डियां और पसलियां तक, ऐसा मालूम हो रहा था कि शीघ्र ही इस शरीररूपी, इन्द्रजाल को तोड़कर सीधे बैकुण्ठ जाना चाहती हों। आंखें चन्द्रकान्ता सन्तति के तिलस्म का खटकेदार ताला हो रही थीं।
थोड़ी देर के बाद ऐसा प्रतीत होने लगा, जैसे की शरीररूपी मंदिर में हृदयरूपी घड़ियाल बजना बन्द हो गया हो, तथा मेरी जीवन-ज्योति एक बार जल उठकर फिर बुझ गई हो।
आप यकीन मानिए की दिसम्बर की इस कड़कती हुई सर्दी में भी मेरा शरीर पसीने से तर हो गया। भौचक्का होकर बार-बार आंखें खोलता अपना बदन हिला-डुलाकर, दिल की धड़कन की परीक्षा कर मैंने निश्चितन्तता-पूर्वक सन्तोष की एक गहरी सांस ली।

अभी हाल ही में मेरे प्रिय मित्र लाला लल्लूलाल जी अपनी लड़की को ससुराल से विदा कराने बरेली गए थे। उन पर ठीक इसी प्रकार की आफत आ चुकी थी। दिल और दिमाग की नसें घड़-घड़ झन-झन कर अपने लिए भी ऐसे ही चित्र की कल्पना कर रही थीं।

मैं अत्यन्त भयभीत भाव से अपने समधी साहब के यहां पहुंचा। मुझे इस बात का दु:ख है कि रास्ते-भर जिस चित्र की कल्पना ने मेरे शरीर का पसेरी-भर खून जलाकर मुझे निर्जीव-सा बना दिया था, तथा मुझे अपने समधी साहब की ऐसी सुन्दर कल्पना करने के लिए बाध्य किया, उसे उन्होंने अपनी मीठी बातों और खातिरदारी की अप्रत्याशित व्यवस्था से एकदम बरबाद कर डाला। रास्ते-भर मैंने अपने समधी साहब को जिस रूप में देखा और समझा, उसे उन्होंने एकदम पलट दिया। इच्छा हुई कि अपने दिमाग को दुरुस्त कराने के लिए उसे मैं बरेली के पागल-खाने में छोड़ता आऊं।

रास्ते-भर मैंने उनका जितना विकराल रूप देखा था, उतना ही उनके सौजन्यपूर्ण व्यवहार न मेरे मन में उनके प्रति श्रद्धा उत्पन्न कर दी।
राम करे जैसा मेरा राजपाट लौटा, वैसा सबका लौटे !

पडो़सिन की चिट्ठियां - अमृतलाल नागर (हास्य-व्यंग्य)

सावित्री सीने की मशीन खरीदने गई थी। लेकिन बड़ी देर हो गई। मैं उतावला होकर सोचने लगा कि अब तो उसे आ जाना चाहिए। तीन बजे हैं। पिछले बीस दिनों से, जब से सावित्री यहां आई है, हम पहली बार इतनी देर के लिए अलग हुए थे। नई पत्नी वैसे ही आकर्षण की चीज होती है-उसके सामने दुनिया में कुछ नहीं दिखलाई देता।
इन बीस दिनों में हमने दुई को इकाई के रूप में देखा है। हमने इतना प्यार एक-दूसरे पर निछावर किया है कि हमें स्वयं ही अपनी अमूल्य प्रेम निधि की थाह नहीं मिलती, और फिर सावित्री कवयित्री।
‘‘पोस्टमैन!’’-दरवाज़े की खटखट के साथ आवाज आई और दरवाज़े की नीचे की झिरी से कुछ चिट्ठियां और पत्रिकाएं कमरे के फर्श पर आ फिसलीं। जब से सावित्री आई मेरे घर पोस्टमैन रोज़ आने लगा है, वरना मेरी चिट्ठियां तो होली-दीवाली में आया करती थीं।
मैं दरवाज़े के आगे फर्श पर बिखरी हुई डाक को देखता रहा। उठने में ऐसा आलस लग रहा था। सावित्री के अब तक न आने के कारण मन में अनख भी थी।

इस सावित्री को अपनी जीवन संगिनी बनाने से पहले मैंने इन्कार कर दिया था। श्रीमती जी मेरी भाभी की सगी फुफेरी बहन हैं। भाभी स्वाभाविक रूप से इन्हीं के कर-कमलों द्वारा मेरे गले में वरमाला डलवाने का निश्चय कर चुकी थीं।
भाभी नाराज हो गई, मगर मेरी ‘ना’ ‘हां’ में न बदली। इसे पांच-छ: महीने बाद अपनी पत्नी का अपेंडिसाइटिस का आपरेशन कराने के लिए सावित्री के भाई साहब झांसी से लखनऊ पधारे सावित्री भी उनके साथ ही आई थी। मेरे बड़े भैया ने पत्र लिखकर यह आदेश दिया था कि मैं उनके काम आऊं, लिहाजा काम आने लगा। सरकारी फोटोग्राफर हूं। मेरे काम से मेरे अफसर बेहद खुश हैं। उन्हें आस्पताल में काटेज वार्ड भी मिल गया, आपरेशन और देखभाल भी भली प्रकार हुई। सावित्री के भाई साहब छुट्टी बीतने पर मेरे ऊपर ही पूरी जिम्मेदारी छोड़कर लौट गए।...और फिर, जैसा कि जग जाहिर है कि जब एक सावित्री ने यमराज का पीछा न छोड़ा, तो दूसरी भला मुझे क्यों छोड़ सकती थी। उसकी सुन्दरता, कार्य-तत्परता और कार्य-कुशलता तो मन को मोहने वाली लगी ही, बीमार के तीमारदार होने के नाते जब आपस का संकोच मिटा तो उसने बात-बात में अपने मीठे तानों से मेरे पुराने गुनाह के टांके तोड़ दिए। उनकी भाभी भी बढ़ावा देने लगीं।

यह सुनकर मेरे लिए कवयित्री का पति बनने के अलावा कोई चारा न रहा। सच बात यह है कि मैं वचन-मन-कर्म से सावित्री का गुलाम हो चुका था।
यह गुलामी कुछ बुरी नहीं रही। इन बीस दिनों के सहवास से ही सावित्री का यह गुलाम अपने-आपको त्रिभुवन का स्वामी अनुभव करने लगा। सावित्री कवयित्री होने के बावजूद निहायत सीधे स्वभाव की और कुशल गृहिणी है।
और वह अभी तक नहीं आई। कोठी के दूसरे हिस्से में रहनेवाली मिसेज़ राज़दान के साथ गई थी, बड़ी देर कर दी।

मैं आरामकुर्सी से उठ खड़ा हुआ, डाक उठाई, दो पत्रिकाएं, दो पोस्टकार्ड, एक लिफाफा। पत्रिकाओं के रैपर फाड़े। दोनों में सावित्री शर्मा की कविताएँ छपी थीं, एक उसका चित्र भी था। यह चित्र मैंने ही उतारा था। मैंने सोचा, लिफाफा उसकी भाभी या किसी सहेली का होगा। उसे भी पढ़ने की इच्छा हुई.....यह क्या ? पत्र की पहली लाइन, पहले सम्बोधन पढ़ते ही मैं सन्न रह गया, मेरी आंखों के सामने अंधेरा छा गया। सावधान होकर एक बार फिर लिफाफे पर नजर डाली। शायद किसी और का पत्र हमारी डाक के साथ-साथ धोखे में आ गया हो, मगर सावित्री का नाम और पता बिल्कुल ठीक लिखा हुआ था। बस यही था कि यह पत्र मेरे ‘केयर आफ’ होकर नहीं आया था। दिल धुआं धुआं हो गया था। खैर, सावित्री नाम के इस-भेद-भरे पत्र का पूरा पढ़ जाने की इच्छा ने मन को तनिक सम्भाला। चिट्ठी लखनऊ से ही आई थी। लिखा था:

‘‘मेरी प्राणवल्लभा,

‘‘तुम शायद इस तरह मेरे द्वारा पुकारे जाने से नाराज होगी, पर मैं अपने-आपसे मजबूर हूं। तुम अब मेरी रूहेरवां हो, मैं हरदम तुम्हारे ही नाम का जाप किया करता हूं।
‘‘रानी, मैं बहुत पापी हूं, तुम्हारे योग्य नहीं। तुम जैसी देवी को पाकर भी अभागा ही रहा। मैं तुम्हारी कद्र नहीं कर सका। पर मैं तुमसे ईश्वर की सौगन्ध खाकर कहता हूं कि यह दोष मेरा नहीं, शराब और उस बुरी संगत का था, जिसने मेरी बुद्धि पर परदा डाल रक्खा था। तुमने मुझे छोड़ दिया, अच्छा किया। जिसके कारण तुमने छोड़ा, या सच कहूं जिस कांच के लिए मैंने तुम्हारे जैसे हीरे को अपने घर से बाहर निकाला, वह भी आज छ: महीने हुए मुझे छोड़कर चली गई है। सुना है, बम्बई में सिनेमा-स्टार होने गई है। उस पापिष्ठा ने- अब उसका नाम लेने से भी नफरत होती है- मेरे जीवन का सारा सत्व खींच लिया। मैं इसी काबिल था।

‘‘सावित्री, पिछले तीन वर्षों से हर पल आठों पहर मैंने तुम्हें ही याद किया है। कई बार आत्महत्या का विचार भी आया, पर अशोक का ही ध्यान कर रुक गया। उस गरीब की मां मैंने छीन ली। अब खुद भी न रहूं तो वह बेसहारा आखिर कहां जाएगा। उसका क्या होगा ?
‘‘तुम्हारा पता लगाते हुए यहां आया हूं। अशोक भी मेरे साथ ही है। कल मैंने तुम्हारे नये पति के साथ तुम्हें हज़रतगंज में देखा था। तुम मुझे सुखी नज़र आई। तुम्हारा वह पति देखने में तो शरीफ ही लगता है। मैं तुमसे किस तरह बतलाऊं कि अपनी सावित्री को दूसरे के साथ देखकर मेरा दिल रोया है। तुम्हारा नाम लेकर पुकारने के लिए दिल बावला होकर बार-बार उछला। बड़ी मुश्किल से मैं अपने ऊपर काबू पा सका। खैर, तुम खुश रहो प्रिय !
‘‘........क्या एक बार मिल सकोगी? एक बार आ जाओ, मैं तुम्हारे चरण छूकर क्षमा मांगना चाहता हूं। बस, इतना ही चाहता हूं। आओगी ? मेरे लिए न सही, अपने अशोक के लिए ही एक बार, बस एक बार। मैं होटल में आठों पहर तुम्हारी ही प्रतीक्षा करता रहूंगा।

केवल तुम्हारा,
अभागा राम

एक सांस में पत्र पढ़ गया, इतनी जरा-सी देर में ही मेरी दुनिया मेरी न रही। थोड़ी देर के लिए मेरी चेतना हत हो गई।
सावित्री का कोई और भी दावेदार है ? सावित्री किसी के बेटे की मां है ? सावित्री, जिसे मैं अपनी, केवल अपनी समझता था।..पर इसने मुझे ठगा क्यों ? मेरी भाभी ने मुझे क्यों इस तरह बे-आसरा कर दिया ? ओह, मैं कहीं का न रहा।

विश्वास का उठना ही प्रलय है। दीन-दुनिया और ईश्वर से, अपने से मेरा विश्वास उठ गया। खोखलापन बढ़ता ही जा रहा था। मैं सोचने लगा कि सावित्री के सामने आने पर मैं उससे नज़रे कैसे मिलाऊंगा ?
घड़ी ने चार घण्टे बजाए। मेरा ध्यान उधर गया। सावित्री अभी तक नहीं आई। शायद उसका पहला पति उसे रास्ते में कही मिला हो, शायद वह अपने बेटे को देखने चली गई हो, विचारों ने मुझे बेहद बेचैन कर दिया। सहसा विचार आया कि इस पत्र को यहीं पलंग पर खुला छोड़कर चला जाऊं, सावित्री आएगी, पत्र पढ़कर जो उसका जी चाहेगा, करेगी। उसे अपने पहले पति के पास लौट जाना हो तो लौट जाए। तीर की तरह विचार आया, मैंने बेखुदी के आलम में कपड़े पहने, जल्दी-जल्दी उसी पत्र पर एक लिखी कि तुम स्वाधीन हो। आघात, आंसू और अंधेरा यही उस समय मेरे रहनुमा थे। जिधर बढ़ा ले चले, मैं बढ़ चला।

घंटों वीराने में बैठकर तरह-तरह की बातें सोचकर बिता दिए। सावित्री अगर अपने पहले पति के पास जाना चाहे, मान लो, चली जाए, तब मैं दुनिया को मुंह किस तरह दिखाऊंगा। दोस्त-अहबाब खिल्ली उड़ाएंगे। मैंने सोचा कि ऐसी दशा में मैं यह घर, नगर, नौकरी सब छोड़कर सन्यासी हो जाऊंगा.....लेकिन। अगर वह मेरे पास ही रहना पसन्द करे ?

बाहर का अंधेरा मेरे मन के अंधेरे से मिलकर चारों ओर घटाटोप छा गया। कहीं कुछ नहीं सूझ रहा था। कदम अपने-आप मुझे घर की ओर बढ़ा ले चले, शायद उनके लिए भी दूसरा कोई चारा न था।
खिड़की के जंगले की परछाई बगीचे की सड़क और चारदीवारी के किनारे मेहंदी की बाड़ पर लम्बी होकर पड़ रही थी, और उस परछाई के बीचोबीच एक इंसान की छाया अंकित थी। वह इंसान सावित्री के अलावा और कौन हो सकता था? मेरे पैर वहीं के वहीं ठिठक गए, एक बार यह इच्छा भी हुई कि लौट चलूं।
‘‘कौन है !’’ कोठी का चौकीदार दूसरी ओर से गश्त लगाता हुआ मेरी तरफ आया। मुझे जवाब देने पर मजबूर होना पड़ा।
जंगले की परछाई से इंसानी परछाई झट से अलग हो गई, मेरे घर के दरवाज़े खुल गए। सावित्री दरवाजे पर खड़ी थी।
मैं सावित्री से नज़रे न मिला सका, सीधा जाकर आरामकुर्सी पर गिर पड़ा, और आंखें मूंद लीं। मन ही तहों में दबी हुई मेरी आशा के अनुसार सावित्री का स्वर न सुनाई दिया। मेरी खीझ और बढ़ गई। पल, मिनट बनकर बढ़े और मिनट भी बीत गए। सहसा मुंदी आंखों पर तेज चमक पड़ी, कैमरा क्लिक होने की आवाज़ कान में आई। आंखें खुल गईं, देखा मेरी पत्नी कैमरा लिए खड़ी मुस्करा रही है। मुझे देखते देखकर उसने कहा- ‘‘तुम्हारा यह मूड़ तो अब दुबारा देखने को मिलेगा नहीं, फोटों खींच ली ताकि याद रहे।’’

इतनी देर की असाध्य वेदना के कारण बात बड़े ही उलझे और अटपटे ढंग से मेरे कानों में प्रवेश कर सकी। सावित्री हाथ पकड़कर खींचते हुए बोली- ‘‘उठिए, उठिए, आपको तो बीवी की बेवफाई सता रही है, और मेरी आंते भूख के मारे सुलग-सुलगकर कंडा हो रही हैं। कहती हूं चलो भी, उठो, हाथ-मुंह धो लो। अभी मेरा लड़का और भूतपूर्व पति आनेवाला है मुझे लेने के लिए।’’
सावत्री मुझे अपने अनुशासन में बांधती गई। जैसे-जैसे मन सम्भलता गया, उस पत्र को लेकर मेरा कौतूहल भी बढ़ता गया। पर सावित्री को तो मुझे अभी और सताना था। अपनी खरीदी हुई मशीन दिखालाई, स्टोव, बिजली की इस्तरी दिखलाई, मेरी कमीज़ों के लिए कपड़ा दिखलाया, सबके दाम बतलाए, कितनी दूकानें घूमकर किफायतशारी से सौदा किया, इसका ब्यौरा सुनाने लगी।

मैंने कहा- ‘‘सावित्री, मैं बात सुनने के लिए मर रहा हूं !’’
‘‘मैं क्या जानूं ? सावित्री शर्मा नाम की कोई और स्त्री नहीं हो सकती क्या ?’’
‘‘पर यहां का पता-’’
‘‘इस कोठी के अकेले किरायेदार क्या तुम्हीं एक शर्मा जी हो ?’’
‘‘तो क्या, शर्मा जी, वकील साहब की.....’’
‘‘शी! धीरे बोलो। हां, उनका भी वही नाम है। मिसेज़ राजदान मुझे बतलाती थीं, कि पहले ये शर्मा जी की बडी़ लड़की सरोज को पढ़ाने आया करती थीं, फिर इन्होंने सिविल मैरेज कर ली।’’
अपनी स्थिति को सुरक्षित पाकर मेरे मन में श्रीमती सावित्री शर्मा के प्रति सहानुभूति उमड़ने लगी। ध्यान गया, वे बड़ी सरल और शान्त हैं, और उनके चेहरे पर सदा उदासी की काली छाया भी पड़ी रहती है। शर्मा जी भी बड़े सज्जन और गंभीर पुरुष हैं। उन्हीं की कृपा से मुझे यह घर मिला है। क्या उन्हें अपनी पत्नी के पिछले रिश्ते का पता होगा ?

रात बड़ी देर तक हम एक-दूसरे की बाहों में सुरक्षित पड़ोस के घर की बातें करते रहे।
हम लोग सुरक्षित होकर भी परायों के लिए उदास रहे। पड़ोसिन की चिट्ठी उसे दे दी जाए, अथवा नहीं, इस पर भी विचार किया।
अंत में हमने चिट्ठी न देने का निश्चय किया। दो रोज बाद फिर पत्र आया। पत्र लम्बा था और क्षमा-याचना से भरा हुआ, बड़ा ही करुण था। तीसरे-चौथे रोज़ फिर पत्र आने लगे। डाकिया उन्हें मेरी सावित्री के समझकर मेरे घर छोड़ जाता था और हम लोग भी परायी कहानी जानने के लिए उन्हें चुराकर पढ़ते रहे। इस बीच मेरी सावित्री ने वकील साहब की सावित्री के साथ अधिक उठना-बैठना शुरू कर दिया। सावित्री पड़ोसिन सावित्री की प्रशंसा करते नहीं आघाती थी। वकील साहब की पहली पत्नी के दोनों बच्चों को उसने ऐसी ममता दी है कि उन्हें अपनी मां की याद भी नहीं आती। वकील साहब का जीवन भी शांति और संतोष से भरा है।

एक दिन पत्र आया। यह पत्र सबसे छोटा था। लिखा था, ‘‘मुझे इसकी शिकायत नहीं कि तुमने मुझे माफ न किया, सिर्फ मौत ही मेरे गुनाहों को माफ कर सकती है, अशोक को बुखार आ गया है, डाक्टर टाइफायड बतलाता है, पर अब मुझमें किसी की तीमारदारी करने का कुछ भी उत्साह नहीं रहा। आज शाम से कल सुबह तक किसी भी समय, खास तौर पर ऐसे समय जब अंधेरा मेरी मनहूस सूरत को तुम्हारी दृष्टि से बता सके, अशोक तुम्हारी कोठी के फाटक पर पड़ा होगा। अपने बच्चे पर दया आए तो उठा लेना।’’

पत्र पड़कर हम दोनों घबरा गए। पड़ोसिन से उसकी चिट्ठियां छिपाकर हमने बड़ी नादानी, बड़ा अपराध किया। इससे एक व्यक्ति की जान चली जाएगी। चोरी करना आसान है, पर चोरी उगलना बड़ा ही कठिन। फिर भी हमने यही करने का निश्चय किया। सावित्री बोली,- ‘‘तुम होटल जाकर इस राम को बुला लाओ। मैं सावित्री से किसी तरह सारी बात समझाकर कह दूंगी।’’
होटल के कमरे में पड़ोसिन के भूतपूर्व पति और उसे बीमार बच्चो को देखकर बड़ी ही दया उपजी। राम का शरीर कांटे की तरह सूखा हुआ, चेहरे पर मुर्दनी, केवल फटी-फटी आंखें ही जाने किस आशा की ज्योति से जगमगा रही थीं। पड़ोसिन का बेटा, जिसकी आयु लगभग चार वर्ष की होगी, बुखार में बेहोश पड़ा था। मैंने राम को अपना परिचय दिया और उससे फौरन अपने घर जाने का आग्रह किया। बीमार अशोक को ले जाना या अकेला छोड़ जाना असंभव था। मैंने राम के लौट आने तक वहीं बैठे रहने का निश्चय किया।
लेकिन राम फिर लौटकर न आया, चार-पांच घंटे बाद वकील साहब और उनकी सावित्री ने कमरे में प्रवेश किया।
सावित्री गहरी, उदास, कठोर मुखमुद्रा और आंसूविहीन पथराई दृष्टि से देखने वाली नारी अपने बेटे को देखकर कटे पेड़-सी गिर पड़ी, बेहोश हो गई।
घर जाने पर मेरी पत्नी ने बतलाया कि बड़ी देर तक राम के बैठे रहने पर भी, अपनी पत्नी को एक झलक देखने के लिए गिड़गिड़ाहट भरी प्रार्थना करने पर भी, मेरी सावित्री के बार-बार कहने पर भी, पड़ोसिन ने मिलने से इंकार कर दिया था।
सहानुभूति ने दोनों सावित्रियों में सौहार्द उत्पन्न कर दिया। एक दिन मेरी सावित्री ने अंतरंग क्षण में पड़ोसिन से पूंछा:‘‘बहन, तुमने अपने पुत्र को तो बचा लिया, परन्तु उसके पिता को सदा के लिए मिटा दिया, तुम केवल पाप को ही देखती हो, प्रायश्चित को नहीं?’’

पड़ोसिन सावित्री ने कुछ देर मौन रहकर एक दीर्घ श्वास छोड़ते हुए कहा:‘‘परिस्थितियों ने जीवन में दो पति तो दिए; पर दो मन कहां से लाऊं बहन ? अब तो एक जो था वह भी पत्थर हो गया- केवल कर्त्तव्य हो गया।’’
पड़ोसिन सावित्री का पीला और सूखा चेहरा उसके पत्थर मन का प्रतीक बन गया था।

बुरे फंसे : बारात में - अमृतलाल नागर (हास्य-व्यंग्य)

फंसने-फंसाने के मामले में हमारा अब तक यह दृढ़ विश्वास रहा है कि लोग तो बदफेली में फंसते हैं, या राजनीति की गुटबंदियों में। इसीलिए मैं हमेशा ही इन दोनों चीजों से बचता रहा हूं। यह बात दूसरी है कि इस लतों में खुद फंसने के बजाय दूसरों को फंसना, भुस में आग लगाकर जमालो की तरह दूर से तमाशा देखना ही मेरी जिन्दगी का मकसद.......मेरा पेशा है।
फिर भी कइयों के मतानुसार हम कई चीज़ों में गले तक फंसे हुए हैं। मसलन, मेरे एक संन्यासी हो जाने वाले काका, जिन्होंने एक मोक्षस्वरूपिणी चेली को फांस रक्खा है, और जो, अपनी अंतरात्मा में अटकी हुई योग की फांस निकालने के लिए दिन-रात अलख के बजाय गांजे की चिल में जगाने के लिए अपने चिमटे से धूनी की आग कुरेदा करते हैं, कहां करते हैं कि खानदान में एक मैं ही कपूत हूं जो घर-गिरस्ती के माया-मोह में फंसा हुआ हूं। अपने महाजनों की धारणानुसार मैं कर्ज में फंसा हुआ हूं, डाक्टरों का कहना है कि खांसी की फांसी ने मुझे फांस रक्खा है और मेरी पत्नी समझती है कि मेरी नजरें कहीं और फंसी हुई हैं।

परन्तु मैं आपको विश्वास दिलाता हूं कि इनमें से एक भी चक्कर में मैं नहीं फंसा। घर-गिरस्ती में तो आज तक नहीं फंसा, बल्कि असलियत यह है कि घर-गिरस्ती ही मुझसे फंसकर अपना करम फोड़ चुकी है। बीवी और बाल-बच्चे नित्य नियम से आधा फाका कर मेरे नाम को रोते हैं, और मैं औरों की महफिलों में अपने हलुवे मांडे से तर रहता हूं। कर्ज में इसलिए नहीं फंसा कि तय कर चुका हूं कर्ज़ कभी अदा नहीं करूंगा। जो महाजन भी हमसे फंसा, उम्र-भर अदालत की गलियों में चक्कर काटता रह गया......कभी एक अधेला भी वसूल न कर सका। खांसी एक ऐसा आसान रोग है जो महज गले का खटका दबाते ही पैदा हो जाता है, इसलिए मैं अभी भी लोगों को अपने से दूर रखना चाहता हूं, खांस-खांस कर थायसिस का मरीज़ बन जाता हूं। और पत्नी की धारणा तो गंगा उठाके के कह सकता हूं कि एक निर्मूल है। मैं पहले ही अर्ज़ कर चुका हूं कि बदफेली और राजनीति की गुटबंदियों, ये दो ऐसे फंदे हैं जिनमें मैं दूसरों को फांसता हूं, खुद कभी नहीं फंसता। आप इसी से अनुमान लगा लीजिए कि दफा चार सो बीस का जुर्म करने वाले मुनाफाखोरों के युग में मैं या मेरे ऐसे आदमी समाज के लिए कितने उपयोगी होते हैं। ऐसा समाजोपयोगी जीव सदा एक प्रकार का दार्शनिक होता है.........निर्मम, निर्लिप्त, निरर्भिमानी। मैं भी ऐसा ही हूं, जल में कमल की तरह रहता हूं, कभी किसी दलदल में नहीं फंसा। मगर मसल मशहीर है कि ईश्वर किसी का गुमान नहीं रखता, सयाना कौआ भी कभी न कभी चिडीमार के फंदे में फंस ही जाता है। मैं भी फंस गया, और फंसा भी तो एक बरात में फंसा।

किस्सा यों है कि हमारे मुहल्ले के वयोवृद्ध सेठ छिदम्मीमल को अभी हाल ही में, होली से पांच-सात रोज़ पहले, अपने इक्यासी वर्ष के जीवन में पांचवीं बार विधुर होना पड़ा। सवा साल के अरसे में पंद्रह बरस की सेठानी जी साठ से लेकर बीस बरस तक की उम्र वाले आठ बच्चों की मां बनीं, दादी, परदादी, नानी, परनानी बनीं और भरे-पूरे कुनबे को छोड़कर भरा पूरा सुहाग लेकर संखियों के सहारे जग की वैतरिणी को पार कर गई। सेठ जी उसी समय सबके आगे अपना दुखड़ा रोकर कहने लगे कि हाय, किससे होली खेलूंगा, कैसे मेरा मन लगेगा।
सुनते है कि घर वाले उसी दिन में छिदम्मी सेठ को खुशामदियों और दलाल किस्म के आदमियों से बचाने लगे। इसका एक कारण है। जब तीसरी मरी तो छिदम्मी सेठ पिछत्तर पार कर चुके थे, उसके मरने के बाद ही माया-मोह से मन हटाकर अपने ठाकुरद्वार में कीर्तन भी करने लगे थे........कि.........तभी मेरे ही जैसे किसी समाजोपयोगी दार्शनिक ने उनकी नौजवान के मोहनजोदरों को उनके काल-जर्जर हृदय की स्मृतियों से उभारकर एक बार फिर विगत वैभव के उत्साह से भर दिया। नतीजा यह हुआ कि तब से पूरे-पूरे दो बरस भी न बीतने पाए कि यह दूसरी मरी। लूटने वाले हज़ारों रुपया इसी बहाने से लूट ले गए।
और अब तो छिदम्मी सेठ को चस्का पड़ गया है, उनके कृष्णरूप मन को होली खेलने के लिए...........न हो तो साथ बैठकर गुड़िया खेलने के लिए ही एक राधा चाहिए। अधेड़ पतोहुओं और पोतों की जवान-जवान बहुओं को पंद्रह बरस वाली सांसों और ददिया सांसों सो सख्त नफरत होती थी। अंत:पुर की राजनीति में पतंगे दैसी पुखरिन को लेकर आए दिन महाभारत होते थे। अविवाहित लड़के-लड़कियों के क्षेत्र में भी जलन, कुढ़न और मानसिक विकृतियों की नई-नई लीलाएं नित ही हुआ करती थीं। इसीलिए इस बार जब आठों के मेले दिन छिदम्मी सेठ अपनी सूतक में घुटी हुई खोपड़ी के ताज़े उगते हुए बालों पर खिजाब लगाकर, छकलिया, दुपलिया और चूड़ीदार पाजामे से लैस हो, झुकी कमर को जवानों की तरह तानते हुए पतली छडी़ लेकर बाहर जाने लगे तो पोते ने राह रोककर कहा, ‘‘बाबा, अब छकलिये-दुपलिये पर कोई नहीं रीझेगी, बुशर्ट और पतलून पहनकर बंदरियां बाग में घूमा करो। माशाअल्ला गबरू जवान हो.....सड़क पर रीझने वालियों की लाशें बिछ जाएंगी।’’

बाबा ने बुरा माना। उन घरवालों को कोसने लगे जो उनका सुख नहीं देख सकते थे। इस पर बहुओं के घूंघट से गोले बरसे। जवाबी हमले के तौर पर बाबा ने गंदी से गंदी गालियां बकना शुरू किया। यह धमकी भी दी कि अपनी जायदाद सिरी ठाकुर जी के नाम कर जाएंगे, घरवालों को रुलाकर छोड़ेगे।
पहली और दूसरी के बेटे तो अस्सी बरस में फटने वाले बाप की नई जवानी पर शर्म से गर्दन झुकाकर ही रह गए, मगर तीसरी के तीनों लाल को अपने भतीजों के साथ क्रांति के युग में पैदा हुए और पले हैं, हाकी की स्टिकें लेकर दरवाजे पर खड़े हो गए। गर्मा-गर्मी में उन्होंने छिदम्मी की छलकिया-दुपलिया के लत्ते-पलत्ते उड़ा दिए, दो-तीन क्रान्तिकारी तमाचे भी जड़ दिए, टांग तोड़ने की धमकी देने लगे। बड़े बेटे ने आकर बाप को बचाया।

ऐसे सुसंवाद मुहल्ले के मनोरंजन की सामग्री बनने से नहीं बचा करते। उसी रात को लाला इंदरमल कीर्तन में, बाबू राधेश्याम के चबूतरे पर, जग्गू बैद की बैठक में......जहां देखो, इसी की चर्चा चल निकली। एक मनचने ने गीत भी जोड़ लिया कि ‘‘बूढ़े बैल छिदम्मी लाल, कबर में ब्याह रचाने वाले।’’

खबर मेरे कानों तक भी पहुंची। मजाक सूझा, फिर लोभवृत्ति जागी। सोचा, फटे में पांव डालकर ज़रा हम भी अपने जी की निकाल लें। एक बार हिचक हुई; मैंने अपने समाजोपयोगी जीवन-दर्शन और कला का उपयोग अपने मुहल्ले में नहीं किया था। अब तक इसे सिद्धांत की तरह मानता आया हूं, मुहल्ले वाले निश्चिन्त भी हैं। मगर छिदम्मी सेठ की छदामों में मोहिनी थी। मेरा सिद्धान्त टूट गया।
दूसरे दिन छिदम्मी सेठ की हवेली पर पहुंचने से पता लगा कि मोर्चा तगड़ा है। तीसरी की तीनों बाहरवालों को तो क्या घर के नौकर-चाकरों तक को दे-देकर और उकसाती थीं। मिलने की मना सुनी तो और भी जी में ठान ली। अपने उर्वर मस्तिष्क का लखलखा सुंघाकर किसी तरह हम छिदम्मीमल के पास पहुंच ही गए।
सेठ छिदम्मी को दुखड़ा सुनाने के लिए एक आदमी मिला, अपनी फोश गालियों के कोश से चुन-चुनकर घरवालों के लिए रत्न लुटाने लगे। तीसरी के लाल फिर मारने को धाए। हमने बीच-बचाव किया, समझाया कि ‘‘भई, अपनी भुजा के बल पर पढ़े हैं; इतनी माया बटोरी है; जिन्दगी हकूमत और रोब-दाब से बिताई है। घर के बड़े हैं। इस उम्र में ऐसा व्यवहार कर इन्हें ओछा मत बनाओ।’’
‘‘ओछा तो यह आप ही बन रहा है खूसट। अपनी हविस के लिए दो लड़कियों की ज़िन्दगी मिटा चुका है, अब फिर तमाशा दिखाने चला है। हम इसकी हड्डी-पसली तोड़ डालेंगे........’’ एक लड़का बोला, दूसरा बोला, तीसरे ने जबान खोली.......सभी कुछ न कुछ कह चले। किसी ने गर्मी से बात की, किसी ने सिद्धान्त की चर्चा चलाई, कोई घरेलू दृष्टि से ऊंच-नीच की चर्चा समझने लगा, सेठ छिदम्मी अपनी अकड़ पर बार-बार सान चढ़ाने लगे। उन्हें सबसे ज्यादा इस बात पर क्रोध था कि जिन्हें पैदा किया, उन्होंने ही उसे घर में बंद रक्खा है। घर में कौवा-रोर मच रही थी। इंजानिब ने भी नारद की तरह सबके मीठे बनकर आग में घी डाला, छिदम्मी लाला का हौसला बढ़ाया। बड़े लड़के को समझाया कि इन्हें सबसे ज्यादा ताव इसी बात का है कि यह कैद किए गए हैं। जरा बाहर हो आएंगे, ठंडे हो जाएंगे, फिर ऊँच-नीच समझाकर बहला लीजिए। मैं भी इनके मन का बोझ हल्का करूंगा।

मुहल्ले की मुरव्वत में लड़के हमसे कुछ कह तो न सके, हालांकि मेरा बीच में पड़ना उन्हें खतरे से खाली नहीं लगता था........यह मैं उनके चेहरों पर पढ़ रहा था। मगर यह कि हम भी तो हम ही हैं, बड़े-बड़े इलेक्शन लड़ाकर कइयों के छक्के छुड़वाते हैं, हमने जीवन-भर राज-रजवाड़ों की रियासतें फुंकवाई हैं। बड़े-बड़े महाजनों को सोलह दूने आठ का पहाड़ा पढ़ाया है। अजी अपने लिए हमने अपने घरवालों तक को उजाड़ा है, फिर भला छिदम्मी के लड़के किस खेत की मूली थे। लाला को अपने साथ-साथ घर से निकाल लाया।
सेठ छिदम्मी को हमारे घर आए आध घंटा भी नहीं बीता था कि हवेली से बुलावे आने लगे। छिदम्मी भला क्यों जाते ? वे पहले ही से करेला हो रहे थे, और अब तो मेरी नीम भी चढ़ चुकी थी। सारा घर हार गया, छिदम्मी टस से मस न हुए। कहने लगे, अब तो तभी आऊंगा घर में, जब घरवाली साथ होगी। हम भी तन-मन-धन से सेठ छिदम्मी की मनोकामना पूरी करने में लग गए। तन-मन की सेवा में कुछ लगता नहीं था, धन की सेवा में जो लगता था, सेठ उसके प्रोनोट लिख देते थे।

मोहल्ले में प्रोनोटों की चर्चा फैलने लगी। हमारे खिलाफ मोर्चा शुरू हुआ। जब मैं बाहर निकलता, लोग बोलियां-ठोलियां मारते थे। मैं हंसकर निकल जाता था। आप तो जानते ही हैं, मैं दार्शनिक आदमी, अपने काम से काम रखता हूं मान-अपमान की परवाह नहीं करता। लड़की की तलाश जारी रही। मैं बाहर ही बाहर रहा था, शहर में तूफान होने का अंदेशा था।
एक लड़की मिल गई। छिदम्मी के एक सजातीय अनेक पुत्रियों के पिता जो अपनी गरीबी की आड़ लेकर दहेज देने के बजाय दहेज लेने में पटु थे, छिदम्मी की आयु का हिसाब लगाकर ब्लैकमार्केट का भाव मांगने लगे। मैंने भी समझ लिया कि यह बेटी का बाप मेरी परम्परा को एक समाजोपयोगी दार्शनिक है। दस में सौदा तय किया। छिदम्मी से पन्द्रह की दस्तावेज़ लिखाई।

ब्याह का दिन तय हुआ। चार बाराती- एक नाई, एक पुरोहित, एक पाधा और चौधा मैं घर में गौर-गनेश पूजकर दूल्हें के साथ रात के समय बाहर निकले तो देखा, छिदम्मी के आठों लड़के, पोते और मुहल्ले के चार-पांच धनी-धोरी दरवाजें पर खड़े हैं। उन्हें देखते ही मुझे सांप सूंघ गया।
सोचने लगा, इतनी गुप्त सूचना केवल मेरे ही किसी साहबजादे की मार्फत बिक सकती है। जो भी हो इस वक्त मैं ठगा-सा खड़ा रह गया। उधर छिदम्मी के बड़े मुन्नू ने बाप के कदमों पर टोपी रख दी, दूसरे भी हाथ जोड़कर खड़े गए। कहने लगे, ‘‘शादी करना ही है तो अपने घर से कीजिए, इस तरह हमारा मुंह काला न कीजिए। आप जो भी हुक्म करेंगे, हमारे सिर-माथे पर होगा।’’
आपुसदारों ने समझाया, सेठ छिदम्मी भी राजी हो गए। मुझे भी तब सच्चे दार्शनिक की भांति मुहल्लेवालों की बात का समर्थन करना पड़ा। तय हुआ कि बरात दूसरे दिन जाएगी, धूमधाम से जाएगी।
बड़े मुन्नू ने सबके सामने ही मुझे ब्याह का अगुआ बनाया और बाप छिदम्मी भी राजी न थे। उन्हें डर था कि कहीं घर जाकर यह सारे दिखावे के सब्जबाग समेट न लिए जाएं। मुहल्ले के एक दूसरे रईस लाला उन्हें यह कहकर ले गए कि मुहल्ले के नाते दूल्हें पर हमारा भी हक है।

दूसरे दिन बरात चली। बाजे-गाजे और धमधाम को देखकर सेठ छिदम्मी भी शरमा गए। घरों के छज्जे और दरवाजे औरतों से, गली-बाजार देखनेवालों से पटे हुए थे। सेठ छिदम्मी हमसे कहने लगे, ‘‘बड़े मुन्नू ने जो यह सब धूमधाम की है वह हमारी उमर को शोभा नहीं देती।’’
हमने कहा, ‘‘वाह, सेठ जी। अभी आपकी उमर ही क्या है?’’
सेठ फिर बहक में चढ़ गए। हंसकर बोले- लड़के भी यही कहते हैं।
छिदम्मी के लड़कों ने हर बात में मुझे ही अगुआ बनाना शुरू किया। बराती, नौकर-चाकर, नाई-बाम्हन, बाजे-गाजेवाले सब मेरे ताबे में कर दिए। बरात जब मोटरों पर बैठी तो नौशा को लेकर बड़े मुन्नू तो आगे निकल गए, बाजेवालों की विदाई मुझे ही देनी पड़ी। स्टेशन पर ड्राइवरों का इनाम-इकराम भी मुझे ही देना पड़ा। छिदम्मी के मुन्नू हर बार सामने से नदारत हो जाते थे। मैं परेशान, इस वक्त मेरे साथ जो चाल खेली जा रही है उसका मैं जवाब भी नहीं दे सकता। दूसरा कोई मौका होता तो ऐसे-ऐसे मुन्नुओं को हम उल्लू बना देते, मगर मैंने भी सोचा, शादी से छिदम्मी तो मेरे हाथ रहेगा ही, वसूल कर लूंगा। इसी विश्वास के साथ मैंने मुन्नू के आगे बढ़ने से पहले ही बरातियों के टिकट भी खरीद लिए। तब मुन्नी ने आगे बढ़कर कहा- क्या करूं, मैं तो खर्च दे देता, पर बाबू ने हमसे कहा है कि हिसाब-किताब सब आप ही के जिम्मे रहेगा, बाद में वह आप से समझ लेंगे।

मुझे नये सिरे से यकीन हो गया कि बुड्ढा अभी मेरे ही कब्जे में है। और छिदम्मी के लड़कों-पोतों के साथ पढ़ने वाले युनिवर्सिटी-कालेजों के लड़के इन्टर क्लास में बरात जा रहे थे। जिसे देखो वह मेरा ही मुंह देख रहा था। मैंने सामान चढ़वाया, सबके बैठने का इंतजाम किया, कुली-ठेले के पैसे चुकाए, जब ट्रेन चली तो नमो लच्छमीनारायण किया........मगर ट्रेन के चलते ही हमने देखा कि हमारा बड़प्पन बगैर किसी इत्तिला और नोटिस के बड़े मुन्नू के कब्जे में आ गया। उनके नौकर-चाकर पान सिगरेट-शरबत-सोडा का न टूटनेवाला क्रम साधने लगे। बरातियों ने मुन्नू को सलाह-सूत देना शुरू किया। मैंने देखा कि मुझे अब कोई बैठने तक को नहीं पूछता। लड़कों की टोली बात-बात में हमें कर्ताधर्ता जी के नाम से कभी पैर दबाने के लिए, कभी पीकदान उठाने के लिए, कभी मेरी हथेली को ऐशट्रे बनाने के लिए पुकारने लगी। पान तकसीम हुए, हम मुंह में रखने ही जा रहे थे कि लड़के ने झटककर छीन लिए। कहने लगा कि आप तो कर्ता-धर्ता हैं, क्या कीजिएगा खाकर ! इसी तरह शरबत का ग्लास छिना, सिगरेटें छिनीं। कहते शर्म आती है, मगर यह सच है कि मेरी सारी चतुराई फना हो गई, कोई हमारे हथकंडे बयान करने लगा, कोई हमारी राजनीति पोलें खोजने लगा, बाराती-घराती-सभी उस हंसी-मजाक का आनन्द लेने लगे। मैं करता भी तो क्या, उनकी हंसी को इस तरह सिर-माथे पर चढ़ाने लगा, गोया अपने ऊपर आप हंस लेने की आदत है। इतने में लड़कों ने एक नई नकल शुरू की। एक लड़का मेरा पार्ट करता हुआ अलग शान से बैठ गया, दूसरा लड़का सौ बरस की बुढ़िया बना। वह बुढ़िया कमर झुकाकर मेरे प्रतिरूप आकर बोली- सुना है, तुम बूढ़ों का ब्याह कराते हो। मेरा भी ब्याह करा दो। न हो तो अपने ही साथ कर लो। मेरे पास दो लाख रुपया है।

मेरी नकल करनेवाले ने ऐसा अभिनय किया, जैसे मेरी लार ही टपकने लगी हो। नकल देखकर सारे कम्पार्टमेंट का हंसते-हंसते बुरा हाल हो गया। बुढ़िया के चंचल कटाक्षपात, झुकी कमर के साथ उसका नाचना, पोपले मुंह से प्रेम के गीत गाना, और फिर जब मेरा और बुढ़िया के डुएड गाया गया तब तो लोगों ने आसमान ही सर पर उठा लिया। मैं पत्थर बनकर सब देखता रहा। इस वक्त हर तरह से बेबस था। मगर नकल के अन्त में जब यह दिखाया गया कि जिस दो लाख की लालच में हमने बुढ़िया से शादी की थी वह रुपये भी न मिले और न मेरे घर में सौतों का झगड़ा होने लगा, मेरी कानखिंचाई होने लगी.........तब मैं किसी तरह भी बर्दाश्त न कर पाया। गर्म हो उठा। सब लोग समझने लगे कि आप भी बड़े होकर बच्चों का बुरा मानते हैं। अजी, यह तो बरात है बरात।
खैर, यहां तक भी बर्दाश्त किया। मगर हद हो गई कि जब खाना आया तो यार लोग पत्तल उड़ा ले गए। दूसरी आई, वह भी छीन ले गए। मैंने एक स्टेशन पर उतरकर कर्म्पाटमेंट से बाहर जाना चाहा तो सब लोग दावेदार पर खड़े हो गए, मेरे पैर छूने लगे, मेरा तमाशा बनाने लगे।
पूरा दिन बीत गया। न पान न सिगरेट, न एक बूंद पानी, न अन्न का एक दाना......तमाम उम्र में इतना गहरा चकमा कभी न खाया था। बेशर्म जिंदगी में शर्म ने घूंघट उटाकर कभी हमको हमारे ही दिल में इस तरह पहले न देखा था।

स्टेशन आया, हमने देखा- मेरा बक्स और बिस्तर ही गायब। दिन-भर का भूखा, हर तरह से जलील किया गया.......इस वक्त मैं अपना आपा ही खो बैठा। मारपीट करने लगा, चीख-चीखकर गालियां देने लगा......लड़के और घेर-घेरकर मुझे हुश्काने लगे। बरात के दूसरे सम्भ्रांत लोग छिदम्मी सेठ को लेकर आगे बढ़ गए थे। प्लेटफार्म पर भीड़ लग गई। रेलवे पुलिस आ गई, पूछने लगी, क्या हुआ। एक लड़का चट से बोला, इसे भूत चढ़ गया है : सामाजिक न्याय तत्काल की शह दे उठा। लोग मिर्चों की घूनी देने की सोचने लगे।
किसी तरह हाथ-पैर जोड़कर जान छुड़ाई। अपनी दुर्दशा के अंत में मैं यह भी बतला दूं कि विवाह सेठ छिदम्मी का नहीं, वरन तीसरी के तीसरे बेटे का हुआ। मुझसे वैर चुकाने के साथ ही साथ मेरी दुर्दशा दिखाकर सेठ छिदम्मी को आतंकित करना उनके प्रोग्राम का एक सुनिश्चित कार्यक्रम था।

जब बात बनाए न बनी - अमृतलाल नागर (हास्य-व्यंग्य)

बड़े-बूढ़े कुछ झूठ नहीं कह गए हैं कि परदेश जाए तो ऐसे चौकन्ने रहें, जैसे बुढ़ापें में ब्याह करने वाला अपनी जवान जोरू से रहता है। हम चौकन्नेपन क्या, दसकन्नेपन की सिफारिश करते हैं, वरना ईश्वर न करे किसी पर ऐसे बीते, जैसी परदेश में हम पर बीती, यानी हम साढ़े पांच हाथ के जीते-जागते मौजूद रहे और परदेश ने हमारे मुंह पर कानूनी तमाचा मारकर कुछ देर के लिए यह साबित कर दिया कि हम फौत शुद यानी मर गए।
शहर का नाम-ठाठ तो न पूछिएगा, गई-गुजरी बात के लिए किसी को बदनाम करने की हमारी नीयत नहीं। हां ! इतना जान लेना ही आपके लिए काफी होगा कि वह नगर एक दूसरी भाषा बोलने वालों के प्रदेश में ही और हम पापी पेट से बंधे साल-भर के वास्ते वहां रहने गए थे।
मकानों की समस्या के विषय में तो आप सब जानते ही हैं, हमें भी बड़ी किल्लत का सामना करना पड़ा। होटल सस्ता होकर भी बड़ा महंगा था। दाम भरपूर और प्रबंध का यह हाल था कि सुबह की चाय दस तकाज़ों के बाद दोपहर में मिलती थी, और दोपहर का खाना अगर आज मांगा गया है तो परसों शाम को अवश्य पहुँच जाएगा। खैर, बड़ी दौड़-धूप की; दफ्तरी कुर्सियों की मिन्नत-खुशामद की और तकदीर ऐसी सिकन्दर सिद्ध हुई कि चार महीने बाद ही एक मकान हमारे नाम अलाट हो गया। हम बड़े प्रसन्न हुए, मकान देखने गए। एक छोटी-सी चाल थी, अर्थात् उस नई बनी हुई दो मंजिला इमारत में एक-एक कमरे वाले बीस घर थे। हम अपने कार्यालय के एक सहयोगी को लेकर उस जगह को देखने गए थे और जब देख ही रहे थे कि एक सज्जन, गोदी में अपने मुनुआं को लिए बड़ी अकड़ के साथ दाखिल हुए और अपनी भाषा में कुछ पूछा। हम तो खैर नये थे, लेकिन हमारे सहयोगी ने समझकर बात का उत्तर अंग्रेजी में दिया। घड़ाघड़ बात होने लगी।

उन्होंने पूछा—‘‘आप इस घर को ले रहे हैं?’’
उसने कहा—‘‘जी हैं।’’
वे बोले—‘‘लेकिन मैं आपको चेतावनी देता हूं कि इस घर में न आइए।’’
‘‘क्यों साहब ? क्या इस घर में भूत रहते हैं?’’
‘‘भूत!’’ उन्होंने चौंककर शब्द दुहराया, फिर बोले ‘‘जी नहीं। यहां हमलोग रहते हैं।’’
‘‘तो फिर क्या चोर-उचक्कों की बस्ती है?’’
हमारे इस प्रश्न से वे लाल-भभूका हो गए, कहा, ‘‘आप हमारा अपमान करते हैं। यहां सब शरीफ लोग रहते हैं।’’
हम विनम्र हो गए, दीनता से कहा :‘‘यही सोचकर तो हम भी आ रहे हैं, परदेश में शरीफों का साथ ही ठीक रहता है।’’
‘‘लेकिन आप नहीं आ सकते। यहां सब घर-गिरस्ती वाले लोग ही रहते है।’’ उन्होंने कहा।
‘‘हम भी घर-गिरस्ती वाले ही है।’’
‘‘लेकिन आप परदेशी हैं। हमारे यहां कोई परदेशी नहीं रह सकता।’’
हमारे दफ्तरी सहयोगी को बुरा लगा। वे भी परदेशी थे, यद्यपि हमारा उनका प्रदेश भी अलग था और प्रादेशिक भाषा भी। वे गरमा गए, बोले : ‘‘परदेशी होना तो कोई अपराध नहीं। आप भी रोजी-रोजगार से बंधकर किसी ओर प्रदेश में रहने के लिए जा सकते हैं। आपके प्रदेश के बहुत-से लोग हमारे यहां रहते हैं—वे भी तो आखिर वहां परदेशी ही हुए। ये बेजा बात है, हम सब भारतवासी हैं, मानव हैं।’’

हमारे सहयोगी के इस तर्क से वे लुंगी-बनियानधारी मुनुवां खिलावन सज्जन फिर भड़के, कहा, ‘‘यह घर मैं अपने साले के लिए अलॉट करवाना चाहता था, लेकिन वेटिंग लिस्ट में उसका नाम दूसरे नम्बर पर हो गया और आपका पहले नम्बर पर। आप यदि अपनी टांग छोड़ दें, तो यह घर मेरे साले को मिल जाएगा।’’
हमने उनको समझाया, ‘‘देखिए सारी दुनिया को अपने पड़ोस में बसाइए, मगर साले-ससुरे से सात कोस दूर रहना ही आपकी गृहस्थी के लिए शुभ होगा।’’
वे गरमा गए, कहा, ‘‘आप मेरे साले की इन्सल्ट करते हैं।’’
हमने घबराकर चटपट उत्तर दिया, ‘‘बारहा कहा कि मेरी मजाल नहीं जो अपमान कर सकूं। और अगर आपको लगा हो कि मैंने अपमान किया है तो लिखित क्षमा मांग लूंगा, मगर हाथ आया घर न छोड़ूंगा। आपका जी चाहे तो मुझे हंसकर या गाली देकर साला कह सकते हैं। मैं दोनों स्थितियों में अहिंसावादी बना रहूंगा।’’

जब उनका बस चला तो हर मिडिल क्लास क्लर्क बाबू की तरह वे गरमा उठे। उन्होंने निजी बात को फौरन राजनीतिक जामा पहनाते हुए कहा, ‘‘आप हम पर अपना साम्राज्यवाद लादना चाहते हैं। हमारे प्रदेश, हमारे नगर में आकर हमारे मकानों पर कब्जा करना चाहते हैं ? ऑल राइट, आई विल सी यू।’’
हमने कोई ध्यान न दिया, यह, वह या कोई भी प्रदेश क्यों न हो ? सारे भारत में क्लर्क –बाबू पहले-पहल इसी तरह पेश आता है, पोलिटिकल भाषा में बोलता है, ‘‘आई विल सी यू’’ के जोम के साथ गुर्राता है और बाद में हिल-मिलकर एक हो जाता है—बेचारा चलती चक्की में पिसते हुए गेहूं-सा क्यों न कुर्र-कुर्र बोले ?
खैर साहब, उस घर में हम रहने लगे। हम बड़ी शराफत से रहने लगे। गृहस्थी के लिए आवश्यक और उचित चीजें लाने के साथ-साथ हम गणेश और बजरंगबली के चित्र भी ले आए। घण्टी, दीपक, माला, स्त्रोतों की पोथी, धूपबत्ती आदि भी लाकर सजा ली, ताकि लोग हमें भला मानुष समझें।

ऊपर–नीचे, पास-पड़ोस में आते-जाते नमस्कार करके अपना-उनका परचिय लिया-दिया। चार-पांच दिनों में ही उनके साथ सवेरे शाम राजनीति जमाने और अखबारी समाचारों पर बहसें होने लगीं—बस, एक वही साहब हमसे सीधा रुख न मिलाते थे, जिनका साला पड़ोसी न बन सका था। हमने उनकी चिन्ता छोड़ी; एक के नाराज़ होने से क्या बिगड़ता है ? हमने साले वाली बात भी और को बतला दी।
मगर एक पखवारा भी न बीता था कि हम अनुभव करने लगे, लोग-बाग हमसे कतराते है, अब नमस्कारों में मुस्कान का चमत्कार नहीं रहा, ‘वेल सर, हाऊ आर यू,’ का शगूफा भी न छिड़ने लगा, पडोसियों के बच्चे-बच्ची भी हमसे, यानी अपने नये ‘अंकल जी’ से टॉफी मांगने न आने लगे। हम घबराए कि आखिर माजरा क्या है ? कुछ ही दिनों में हम एकदम अकेले पड़ गए। यानी कि लोगों ने नमस्कार का जवाब देना तक किसी हद तक बन्द कर दिया। हमने सोचा कि अवश्य ही कोई सालारजंगी चाल है। पर क्या चाल है, यह पता नहीं चलता था। खैर, समूह में सदा दो-एक नरम दिल के भी होते हैं, हमने एक पड़ोसी को बाहर ही पकड़ा, प्रेम से रेस्तरां में ले जाकर कॉफी पिलाई; तब मालूम हुआ कि हमको उस चाल में रहने वाले सरकारी बाबुओं के पोलिटिकल विचारों की जासूसी करने के लिए खास नई दिल्ली से भेजा गया है।

हमने फौरन ही इसकी काट शुरु की, मगर जासूस का डर पक्का बैठ चुका था, बात हाथ से निकल चुकी थी। हमारी सफाई से पड़ोसियों का संदेह और बढ़ा।
चार दिन बाद हमारे कमरे के पिछवाड़े वाले दरवाज़े के पास एक मुर्गियों की ढाबली दिखलाई पड़ने लगी। हम डरे कि जाने किसकी हो, खामोश रहे। मगर शाम को जब घर आए तो देखा कि सारी स्त्रियां अपनी भाषा में गर्मागर्म शब्द छोंकती मेरे ऊपर टूट पड़ीं।
हमने बहुत समझाया कि हमने मुर्गी-पालन कार्य कभी नहीं किया; हम घोर वैष्णव हैं, प्याज़-लहसुन तक नहीं खाते, मगर कौन सुनता है ? दूसरे दिन मकान-मालिक भी गरमाता आया। हमने उसे लिखकर दिया कि मुर्गियां हमारी नहीं। मगर उसके बाद से हम सबकी नज़रों का खटकता खार हो गए।
इसके बाद एक सप्ताह ही बीता था कि एक दिन सुबह सिपाही के साथ साले साहब को लेकर बहनोई साहब आ धमके। दरवज़ा खटखटाया और हमारे कुण्डी खोलते ही सब लोग अन्दर घुस आए और बिना पूछे-ताछे धड़ाधड़ हमारा सामान फेंका जाने लगा।
हमने पूछा, ‘‘ये क्या माजरा है?’’
बतलाया गया कि जिसके नाम वैधानिक रूप से घर अलॉट हुआ है, वह रहने आया है।
हमने कहा कि घर तो हमारे नाम अलॉट हुआ है। उन्होंने नाम पूछा, हमने अपना नाम बतलाया। वे बोले, इस नाम का किरायेदार तो परसों इसी घर में हार्टफेल से मर गया। सब लोगों की गवाही है। और हम कोई ऐरे-गैरे कल जबर्दस्ती इस घर में घुस आए हैं।
आप समझ सकते है, कि हम पर क्या गुज़री होगी। यानी अब तक ज़िन्दा थे और परसों मर चुके थे। हम, हम न थे बल्कि ऐरे–गैरे थे। हमारा सामान सड़क पर गया और घर साले का हो गया। हमारे बनाए कोई बात न बनी। फिर से अपने–आपको जीवित साबित करने में ही सारा दिन लग गया।

कवित्त - अमृतलाल नागर (हास्य-व्यंग्य)

जैहौं ग्राम गोकुले गोविन्द पद बन्दन को
मोहिं जलपान को सामान करवाय दे
सुकवि शिवराम सौंफ कासनी पछोरि फोरि
घोरिकै अफीम तीन तामैं मिलाय दे।
काली मिर्च कालकूट सिंघिया धतूर तोरि
संखिया सुफैद रंग डैल से डराय दे।
लाय दे करोर बोर केसर सो सरोबोरि
एती थोरी भांग मेरी झोरी भराय दे।

देख रहे हो भोलानाथ एक भगत ने तो सौ मन भंग का गोला छनाकर ही संतोष कर लिया था पर दूसरे को तो करोड़ बोरे भंग भी थोड़ी ही मालूम पड़ रही है, जिसमें संखिया, धतूरा, कालकूट और अफीम भी मिलाई गई है ऐसी गहरी पंचरत्नी को भी मात्र तुम्हारे जलपान का ही साधन बतलाया गया है। हद हो गई योगेश्वर, हद हो गई—भला एक बात तो बताओ, इतनी भांग पीकर तुम्हें हाई या लो ब्लडप्रेशर तो नहीं होता ? अजब हाल कर रखा है तुम्हारे भक्तों ने, एक ओर तो तुम्हें इतनी नशे की गर्मी देते हैं और दूसरी ओर लोटों पर लोटे और कलसों पर कलसे गंगाजल चढ़ाते हैं। इस मार्च के महीने यदि और किसी को इतना नहलाया जाए तो उसे डबल निमोनिया ही हो जाए। मगर आप तो भूतनाथ हैं, सर्दी-गर्मी सब एक समान ही अपने अंदर लय कर लेते हैं। आपके इसी विकट महादेवपन के कारण ही तो बड़े-बड़े कवियों ने आपके साथ बड़े-बड़े मजाक किए हैं। अरे संत शिरोमणि, गोस्वामी तुलसीदास जी तक आपकी ब्याह-बारात का रंगीला वर्णन करने से नहीं चूके। राष्ट्रीय आंदोलन के ज़माने में भी आपके भक्तों ने आपकी नशेबाजी की आदत का खूब मज़ाक उड़ाया है। उस ज़माने का किसी कवि का बनाया हुआ एक कवित्त मुझे याद आ गया— सुनियेगा भगवान्, सुनिए :

गांधी की न आज्ञा गांजा भांग आदि पीने की
भूतनाथ आप अब भंग न पिया करें
छोड़ें पुरानी अपनी अडबंगी चाल
जोरू के साथ बैठ न चकल्लस किया करें
छिड़ा है भारत में स्वतंत्रता का घोर युद्ध
भारतीय नाते भाग इसमें लिया करें
आप बनें लीडर गनेश वालंटियर बनें
कह दें उमा से जाके पिकेटिंग किया करें।।

यह सब हंसी-मजाक सिद्ध करता है कि जनता आपको बेहद चाहती है। आपकी श्रद्धा से सरोबोर होकर कोसों और मीलों से चली आ रही है—बम बम भोले। बम्भोले। हर हर महादेव।
लेकिन भोलेनाथ! एक बात सच्ची बताना। क्या तुम अपने इन बड़े-बड़े मन्दिरों में सचमुच विराजमान हो ? यहां तो तुम्हारे नाम पर तुम्हारे पण्डे-पुजारी तुम्हारे भक्तों को लूट रहे हैं। ये देखो, तुम्हारे मन्दिर के अंदर क्या मारा-मारी मची हुई है। तुम्हारे पुजारी लोग तुम्हारी अपढ़ भोले भक्तों के हाथों से झपाझप प्रसाद और पूजा-सामग्री छीन-छीनकर कोने में घरते जा रहे हैं। इन पुजारियों के चेहरों पर भक्ति-भावना की एक धुंधली-सी छाया भी नहीं पड़ी है। सूरत से ही ये लोग डाकू लग रहे हैं, डाकू। तुम्हारे इस मन्दिर में चांदी के किवाड़ हैं संगमरमर की फर्श है, चांदी का विशाल सर्प और सोने का छत्र है, बांस-बल्लियों की आड़ें लगी होने पर भी भक्तों की भीड़ तुम्हारे दर्शनों के लिए टूटी पड़ रही है—पर तुम यहाँ कहाँ हो भगवान्। कहीं दिखाई नहीं पड़ रहे हो, फूल, बेल-पत्र और धतूरे के फलों का एक पहाड़ तो अवश्य दिखलाई देता है—तो क्या इसी के नीचे तुम दबे हुए हो? तुम अपने भक्तों की अंध श्रद्धा से दबे हुए देवता? नहीं, तुम यहाँ हरगिज-हरगिज़ नहीं हो सकते। शिव ! तुमने तो सदा इन लुटेरे पण्डे-पुजारियों के कर्म-काण्ड का विरोध कर भक्तिरस की अमृत धारा प्रवाहित की है। अपनी मोटी दक्षिणा की लालच से इन पोपपंथी कठमुल्लों ने राजा-प्रजा का कीमती धन और समय यज्ञ पर यज्ञ करके स्वाहा करना शुरू किया, राष्ट्र को अंधा और अपंगु बना डाला तब तुमने भक्ति की महिमा बढ़ाई। तुमने उपदेश दिया कि जो व्यक्ति अपने घर से चलकर नित्य जितनी दूर गंगा-स्नान करने जाता है, जितने कदम चलता है, वह एक-एक कदम पर सौ-सौ वाजपेय यज्ञों का पुण्यफल पाता है। वाह रे त्रिलोचन भगवान् तुमने हजारों-लाखों रुपयों का घी-यव-घान्य आग में जलाकर दक्षिणा से मोटे बननेवालों के धर्म को निकम्मा सिद्ध कर दिया।

दक्षिण भारत के मीनाक्षी मंदिर की दीवार पर तुम्हारी ‘पुट्टू लीला’ के चित्र भी मैंने देखे हैं—कैसी सुन्दर कथा है ! एक बुढ़िया थी, बिचारी के कोई नहीं था, बड़ी गरीब थी, रोज़ चावल के पुट्टी बनाकर बेचती और तुम्हारा भोग लगाती थी। एक बार तमिलनाडु में अकाल पड़ा, बारह बरस, तक पानी न बरसा तो राजा ने हुकुम लगाया कि प्रजा के सब लोग मिलकर तालाब खोदें। धनी लोग मजदूरों को पैसे दे-देकर अपनी सेंती काम कराने लगे पर बिचारी बुढ़िया कहां से पैसे पाए, और उसके शरीर में उतनी शक्ति भी नहीं थी कि फावड़ा चला सके। बेचारी बुढ़िया दुखी थी। तुम्हारी पूजा करके वह कहने लगी कि हे महादेव बाबा, मेरे तो कोई बेटा नहीं, मेरी सेंती कौन काम करेगा। उसका ये कहना था कि तुम झटपट एक जवान मजदूर का भेष धरकर वहां आ पहुंचे और कहा कि मां, मैं तुम्हारा बेटा हूं। ये प्रसाद के पुट्टू तुम मुझे खिला दो तो मैं तुम्हारे बदले तालाब खोद आऊंगा। बुढ़िया बोली कि ये पुट्टू तो शिवजी को भोग लगाऊंगा। तुम्हें नहीं दे सकती। पर तुम भी ठहरे नटखट, तुमने कहा कि नहीं मैया, मैं तो यही पुट्टू खाऊंगा तब तालाब खोदने जाऊंगा। बुढ़िया बोला ‘‘मैं चाहे आप फावड़ा चला लूंगा पर ये शिवजी का भोग है सो उन्हें ही चढ़ाऊंगी।’’ फिर जैसे ही वह तुम्हारी मूर्ति पर पुट्टू चढ़ाने लगी वैसे ही वह पुट्टू उड़कर मजदूर के मुँह में चला गया और मजदूर यानी कि तुम हंसने लगे बुढ़िया चकित हो गई। तुम्हें पहचान कर वह जैसे ही तुम्हारे चरणों में गिरने लगी कि तुमने कहा:‘‘नहीं तुम मेरी मां हो।’’ और एक ही दिन में तुमने तालाब खोदकर पानी निकाल दिया। तुम गरीबों के भगवान् हो, असहायों के सहायक हो, दीनबंधु दीनानाथ हो। अपने भक्तों की तीखी बातें सुनकर भी तुम उन्हें निहालकर देते हो।

यहां मुझे आंध्र के कवि श्रीनाथ की कथा याद आ रही है। बेचारे एक जंगल से चले जा रहे थे, प्यास के मारे उनका गला चिटक रहा था, न तालाब न बावड़ी, न नदी न नाला=बेचारे बड़े ही दुखी थे। चलते-चलते उन्हें दूर पर एक कुआं दिखाई दिया। दौड़ते-हांफते वहां पहुंचे कि अब पानी पीने को मिलेगा, पर वहां पहुंचकर देखा तो कुआं आधा था। श्रीनाथ बेचारे दुखी हो गए। प्यास के मारे झुंझलाकर उन्होंने अपने इष्टदेव से, यानी कि तुमसे कहा कि हे शंकर जी, तुम एक बीवी गंगा जी को अपने सिर पर चढ़ाकर और दूसरी पार्वती जी को वामांग में बिठाकर भंग के नशे में बैठे-बैठे चकल्लस कर रहे हो और यहां तुम्हारे एक भक्त की प्यास के मारे जान निकली जा रही है। तुमको लज्जा नहीं आती ? भक्त की फटकार सुनकर तुमने तुरन्त ही गंगा जी को उस अंधेकुएं में उतार दिया और प्यासे कवि श्रीनाथ की जान बचाई। यानी कथा का अर्थ ये है कि सच्चा भाव होता है वहां कर्म भी होता है और जहां भाव है, कर्म है, वहां ज्ञानगंगा भी आप ही आप प्रवाहित होने लगती है।
हे त्रिनेत्र, तुम ज्ञान देते हो, भक्ति देते हो, शक्ति देते हो। तुम्हारा यही रूप मंगलकारी है, मैं तुम्हारे इसी रुप को भजता हूं। जय भोले।
भोले बम्भोले।
भोलेनाथ, क्या मरज़ी है तुम्हारी ? होली के दिन नगिचियाए हैं आजकल तो डबल गहरी छनती होगी मेरे गुरु, गुरुओं के गुरु। मगर एक बात कहें ? कहोगे कि गुरु से छेड़खानी करता है, भारतीय संस्कृति के खिलाफ काम करता है। नहीं-नहीं, विश्वंभर, सो बात नहीं। अपने यहां के भक्ति दर्शन की यही तो महिमा है

पितु मातु सहायक स्वामि सखा
तुम ही इक नाथ हमारे हो

-सो तुम गुरु भी हो, यार भी हो। इस बखत हमारा तुमसे यारी बरतने का मूड है, सो यारी बरतेंगे और इस बहाने तुम्हारे हित में कुछ खरी-खरी सुनावेंगे। हम पूछते हैं भोले, महंगाई कितनी बढ़ गई है कुछ इसकी भी खबर रखते हो कि सदा अलमस्त ही बने रहते हो। भगवती से पूछे भला कि तुम समान अलमस्त का खर्चा कैसे चलाती होंगी। ये तो कहो कि कार्तिकेय और गणेश अपने-अपने काम-धन्धे से लगे हैं। नहीं तो गुरु, ये तुम्हारा सारा नाच-हुड़दंग कब का खत्म हो जाता। हम पूछते हैं गुरु जी, इतना बढ़िया नाचते हो कि ‘नटराज’, आदि नट, कहलाते हो, एक बढ़िया-सी कम्पनी खोल के दुनिया-भर में अपना डांस ट्रुप क्यों नहीं घुमाते ? तुम्हारी नकलें उतार-उतार कर नर्तक लोग लखपती बन गए और तुम भिखारी के भिखारी ही रहे। भोलानाथ, तनिक कल्पना तो करो कि ठाठ से सूट-बूट पहने हो, गले में सर्प डोल रहा है, हाथ में सिगरेट का टिन है, चेहरे पर लापरवाही और खोएपन की अदा है, कपाल पर तीसरा नेत्र और सिर के जटाजूट में गंगा जी मानिन्द फव्वारे के मद्धिम-मद्धिम पिक्टोरियल एफेक्ट मार रही हैं। भूतनाथ, इस छवि को देखते ही सारी दुनियों तुम्हारे पीछे भूत बनी डोलेगी। जहां जाओगे फोटोग्राफरों का हुजूम पीछे जाएगा। आटोग्राफ देते-देते तुम्हारा हाथ मशीन हो जाएगा। बड़े-बड़े राजमहलों में दावतें उड़ाना, मज़ें से भारतीय संस्कृति पर लेक्चर देना और फिर ठाठ से एक महल बनवाकर रहना बैल छोड़ मोटर, हवाई जहाज़ पर सावारी करना चेला होने के नाते मै भी तुम्हारी कम्पनी का मैनेजर हो जाऊंगा मेरे भी ठाठ हो जाएंगे।
क्या कहा ? आइडिया पसन्द नहीं आया। कहते हो यों ही गुज़री है, यों ही गुजरेगी, हां, एक तरह से तो ठीक ही कहते हो नटराज ! जब तुम्हारे भक्त तक इतने अल्पसन्तोषी हैं कि पुकार-पुकारकर कहते हैं :

चना चबेना गंगजल जो पुरवै करतार।
काशी कबहूं न छोड़िए विश्वनाथ दरबार।।

जब भक्त ही कहीं नहीं जाना चाहते तो तुम अपने भक्तों को छोड़कर भला कहां जाओगे ?
मगर भोले, आज के समय में ये अल्पसन्तोष की फिलासफी ठीक नहीं।

किम दातेन धनेन वाजि करिभिः
प्राप्तेन राज्येन किम।
किंवा पुत्र कलत्र मित्र पशुभिर्देहेन गेहेन किम
ज्ञात्वेतत्क्षणभंगुर सपदिरे त्याज्यम् मनोदूरतः
स्वात्मार्थम् गुरु वाक्यसो भज-भज श्री पार्वती बल्लभम्।।

अच्छा गुरु नाथ, हमारी एक शंका का समाधान करो। ये तो तुम जानते ही हो कि आज हम साफ-साफ कहने –सुनने के मूड में ही बैठे हैं।—हम पूछते हैं भोले—यह मान लिया कि शरीर क्षणभंगुर है—माटी में से आया बन्दे माटी में मिल जाना है—बिलकुल ठीक है। फिर ये माया-मोह कि राजसुख पा लूं और मान-सम्मान पा लूं, दिग्विजय कर लूं, मामले-मुकदमें लड़ लूं, ये मेरा है, ये तेरा है—ये सब व्यर्थ है—आदमी को नित् ब्रह्म मुहूर्त में उठकर माला हाथ में लेकर ओम् नमो शिवाय ही जपते रहना चाहिए। वाह, क्या बात है, अगर ऐसा ही जीवन होता तो फिर कहना ही क्या था। मगर उसमें दो भारी अड़चनें हैं—एक तो पेट और दूसरे विवाह की समस्या। तुम कहोगे, क्या भौतिक बातें कहता हूं, अध्यात्म में क्यों नहीं मन रमता। पर तुम्हारे भगत लोग कह गए हैं गुरु कि :

भूखे भजन न होहिं गुपाला,
यहि लेओ कण्ठी यहि लेओ माला।।

यह पेट का कुत्ता नहीं मानता। इसको भरने के लिए माला को खूंटी पर टांगना ही पड़ेगा। अच्छा टांग दी, अब क्या करें ? चोरी करें, झूठे धर्म और तुम्हारी झूठी महिमा को बखान-बखानकर भोली-भाली श्रद्धामयी जनता को ठगें या मेहनत-मज़ूरी करें, सच्चा काम करें।
क्या कहा ? काम करना चाहिए। सच्ची मेहनत की रोटी खानी चाहिए। ठीक है, तो अपने कथावाचकों और पोप गुरुओं की बेतुकी जबानों पर ताला लगा दो प्रभु, जो दिन रात इस मूलभूत पेट से संचालित दुनिया को मिथ्या बताते हैं। तुम्हारे भक्त थे कलाकार, शिल्पी, इंजीनियर और मज़दूर, जिन्होंने एलोरा में ऊंचे पहाड़ को मोम की तरह काट-मोड़कर तुम्हारा अद्भुत कैलास गुफा मन्दिर बनाया है। भोलेनाथ, तुम्हारे हिमाच्छादित श्वेत कैलास पर्वत की शोभा अनन्त है, दिव्य है, यह माना, पर तुम्हारे भक्तों का—मनुष्यों का बनाया हुआ एलोरा का कैलास मन्दिर भी अपूर्व है, इंच-भर पत्थर का टुकड़ा भी बाहर से लाकर नहीं जोड़ा—एक ही पहाड़ में से अर्ध चन्द्राकार में दो मंजिला इमारत बनाई, उनमें मण्डप बनाए, आले खंभे और उनमें मूर्तियां उकेरीं, बीचो-बीच मुख्य मन्दिर बनाया—कमाल किया है। हमारे पुरखे, तुम्हारे भगत, ऐसे गहरे छनन्ता थे कि पहाड़ को ही नशीली लहर भरी परम स्वादिष्ट ठंडाई बनाकर पी गए और सदियों के लिए प्रेरणा का नशा छोड़ गए। और उसमें चकल्लस भी है। वह अद्भुत मंदिर बनानेवाले अपनी श्रद्धा विनय की छाप भी छोड़ गए हैं।

रावण को लेकर तुम्हारी वह कथा जो प्रसिद्ध है न कि एक बार रावण को अपनी शक्ति पर इतना गर्व हुआ कि उसने अपने गुरु अर्थात् तुम्हारा कैलास पर्वत उखाड़ कर अपने हाथों पर उठा लिया। तुम उस समय पार्वती जी के साथ बैठे चौपड़ खेल रहे थे। कैलास पर्वत हिला तो डरकर पार्वती जी तुमसे लिपट गईं। तुमने ध्यान लगाकर कारण समझ लिया और अपना एक हल्का–सा अंगूठे का भार पर्वत पर डाल दिया। पर्वत फिर अपनी जगह बैठ गया। अहंकारी रावण के हाथ दब गए। अलोरा के कैलास मंदिर में इस कथा की भावमूर्ति दो-तीन जगह बनाई गई है मानो बनाने वाले तुमसे कहते हैं कि हमने कला की शक्ति दिखलाई है। हमने भी बीसियों नहीं बल्कि हज़ारों हाथों से नया कैलास उठाया है, पर वे परमगुरु, हम रावण की तरह अहंकार नहीं प्रदर्शित करते। क्या कहूं, गुरु, तुम्हारे अलोरा वाले मंदिर के उदात्त दर्शन ने मुझे मोह लिया है और तुम्हारे पोप कहते हैं कि माया–मोह छोड़ो। तुम्हारी श्रद्धा में कितना दिव्य शिल्प विकसित हुआ है इस देश में, अमरनाथ कश्मीर से लेकर धुर दक्षिण भारत तक, सोमनाथ, गुजरात से लेकर कटक-उड़ीसा-आसाम तक, नेपाल तक, शिव के रूप में कला की ही महिमा विराजमान है—भोले, पूरा ‘इमोशनल इण्टीग्रेशन’ अर्थात् भावनात्मक एकता का जाल फैला रखा है तुमने, तुम्हारे नाम पर कितना कर्म हुआ है महादेव ! यह कर्म क्या मिथ्या है ? अलोरा, एलिफेन्टा, चिदम्बरम्, तंजौर, रामेश्वरम्, खजुराहो, आदि में मनुष्य की कितनी मेहनत, सूझबूझ, सामर्थ्य और ज्ञान-भक्ति-साधना रमी है और सबसे बढ़कर कितनी दृढ़ संकल्प है— शिव–संकल्प, यह भी तो देखो भोले!

आज हमें उसी शिव-संकल्प की फिर से आवश्यकता है। हमारा वैदिक पुरखा जब अपनी महान् संस्कृति को नया ही नया ढाल रहा था तब उसने शिव-संकल्प का महत्त्व समझा था। सबसे अच्छा धर्म है अपने मन को ऊंचा उठाओ, अपने मन को कल्याणकारी इच्छाओं से भरो। ओम कतो स्मर कृते स्मर, आदि-आदि। अर्थात् संकल्प को याद करो, फिर कर्म को याद करो। कितना सोचा था कि कितना पाया यह याद करो। वाह-वाह, कैसा अनूठा सत्य हमारे पुरखे दे गए। अब गुरु तुम्हारे पोप कठमुल्ले इसी शिव-संकल्प को यों समझते हैं कि जजमान कितना दान देने का संकल्प बोला था, कित्ता दिया ? कितने ब्राह्मण जिमाने थे....कितने जिमाए, दक्षिणा कितनी सोची थी, यज्ञ कितने सोचे थे कितने किए ? धत्तेरे की, यानी तुम्हारे भोले। ये महा झूठा, महा निकम्मा, धर्म है। वेदव्यास महाराज ने धर्म की जो व्याख्या की है, वही सच्ची है :

नमो धर्माय महते धर्मों घारयति प्रजाः।
यत् स्यात् धारणसंयुक्तम् सधर्म इत्युदाहृतः।।

यानी उस महान धर्म को प्रणाम है जो सब मनुष्यों को धारण करता है। सबको धारण करने वाले जो नियम हैं, वे धर्म हैं। अब बोलो भोले, ये ऊंच-नीच, जात-पात कहां गई ? ये बन्धन तो सबको एक में नहीं बांध पाते ? क्यों इसे मानना धर्म है। नहीं, हरगिज़ नहीं, कदापि नहीं। तब फिर बोले, शिव-संकल्प भी ऐसा ही होना चाहिए जो मानव-मात्र के लिए कल्याण कारी हो, यानी पेट भरने के लिए काम करना है और काम करने के लिए करना है शिव-संकल्प। शिव-संकल्प वही है जो मानव-मात्र के लिए कल्याणकारी हो। यानी अपना पेट इस प्रकार भरो कि दूसरे के पेट पर तुम्हारी लात न पड़े। तुम कहोगे कि मेरे पंडो-पुजारियों की निंदा करके मैं स्वयं ही अपने पेट पर लातें मार रहा हूं। अच्छा गुरू, अगर इनको बख्शू तो चोर, डाकू, काले बाज़ारिए आदि सभी गुण्डों को बख्शना पड़ेगा। क्या वह उचित होगी ? नहीं।

यही स्वार्थी लोग ही तो झूठे धर्म-प्रचारक हैं। अपना पेट भरने के लिए ध्वंशसात्मक कार्य करते हैं। वह सब कुछ अब अवश्य ही मायाजाल है, मिथ्या है, परन्तु पेट तो फिर भी सत्य है। पेट है तो नाना प्रकार के रचनात्मक काम भी हैं। और इधर जब औरत-मर्द दुनिया में हैं तो उनका ब्याह भी होगा, बच्चे भी होंगे—पुत्र, कलत्र, मित्र, देह, गेह, सभी कुछ होगा। इसमें कुछ भी मिथ्या नहीं है —तो क्या गुरू वाक्य झूठा है— पेट और बच्चे-बच्चों में ही फंसे रहे ? नहीं, जो गृहस्थ अपना और सबका भला साध कर चलता है और अपने हर काम में तुमको भजता है तुम उसकी आत्मा हो, उसकी मति तुम्हारी गिरिजा है, उसके प्राण तुम्हारे सहचर हैं और उसका शरीर ही तुम्हारा घर है। वह जो कुछ कामकाज की बातें बोलता रहता है वे तुम्हारी ही स्तुति हैं। जितना चलता है तुम्हारी प्रदक्षिणा करता है, यानी दिन-रात जो कुछ भी करता है वह तुम्हारी आराधना है। हां भोले, झूठी माला फेरने से सबको मंगल चाहनेवाली मेहनत-मशक्कत भरी आराधना ही सच्ची है अब तुम कोरी आस्मानी कल्पना मात्र नहीं हो योगेश्वर भूतभावन ! तुम साक्षात् इस भौतिक जगत में हो, मनुष्यमात्र, जीवमात्र शिव है ॐ नमो शिवाय। जय भोले। जय बम्भोले।
कहो गुरू, होली कैसी रही ? जगदम्बा ने तुम्हारे श्रीमुख पर होली के हुड़दंग में जूते की लाल-काली पालिशें तो नहीं मली थीं—क्योंकि आजकल मियां-बीवी में होली खेलने का यही लेटेस्ट फैशन हो गया है। मियां-बीवी रंगो से नहीं, बल्कि जूते की पालिखों से होली खेलते हैं। और गुरू ये बतलाओ, तुम्हारे भगत ने तुम्हें तुम्हारी मर्ज़ी के खिलाफ रंग कर फिर मार-पीट तो नहीं की ?
आजकल ये सब भी होने लगा है गुरूजी। अभी परसों ही एक नवयुवक सवेरे-सवेरे किसी से मिलने जा रहा था। शायद अपनी चाकरी के सम्बन्ध में ही जा रहा होगा। होली के हुड़दंगिए उसके बगुले के परों-से सफेद कपड़े रंगने के लिए झपटे, बेचारे ने प्रार्थना की—कहा कि अभी न रंगो, एक तो कपड़े नये हैं दूसरे, काम से जा रहे हैं। लौटने पर जी चाहे तो रंग डाल लेना। मगर हुड़दंगिए कहां मानते हैं। उनका समझ से क्या सरोकार ! बेचारे को रंग डाला। इस पर वह युवक नाराज़ हो गया, शायद गाली-वाली भी दी। बस, फिर तो हुड़दंगियों ने उसे रिक्शे से उतार बुरी तर पिचकारी-पिचकारियों ही पीटा। इस पर भी उन्हें सन्तोष न हुआ तो तैश में आकर युवक के पेट में छूरा भोंक दिया; बेचारे के साथ खून की होली खेल डाली। और ये सब हुड़दगिए गुरू, तुम्हारे भक्त हैं, ब्रह्मा, विष्णु, महेश पूजते हैं, हर एक को नास्तिक कहते फिरते हैं—और तिसपर भी ये हाल है उनका। इसीलिए तो हमको तुम्हारी चिन्ता हुई भोलानाथ। क्या मज़े की बात ही भगवान् कि तुम्हारे पास तो तीन-तीन आंखे हैं और तुम्हारे भक्तों के पास एक कानी आंख भी नहीं बची। ये शिवभक्त भारत देश इस समय उचित-अनुचित कुछ भी नहीं देख पा रहा है। बस अपने-अपने गुमान में फूले चले जाते हैं हमारे लोग।
आज चारों ओर अहंकार का बड़ा जोर है। जिसे देखो वही शान से ललकार रहा है कि हटो, बचो, हम चौड़े है और बाजार सकरा है, इसलिए पहले हमको आगे निकलने दो। हर तरफ शोर है—पहले हम, पहले हम, पहले हम— अच्छा देवेश्वर, लखनवी तकल्लुफ की ‘पहले आप’ ‘पहले आप’ वाली मज़ाक तो आपने अवश्य सुना होगा। तो बोलिए कि क्या कहूं— पहले हम, कि ‘पहले आप’ ?—चुप्पी साध गए प्रभु ? जवाब न दिया ? अच्छा, हमारी ओर कनपटी निहारकर अब ये मर्म मुस्कान का तीर साध रहे हो भोले ? जान गाए कि मैं तुम्हारे साथ ठग विद्या कर रहा हूं। हः-हः—गुरु, तुमसे पार नहीं पा सकता, तुम नीर-क्षीर विवेक करके सत्य को परख लेते हो। और हम?—अब छिपा तो सकते नहीं तुमसे, इसलिए अपने अहंकार को कहलाने के लिए सच ही बोले देते हैं। पर सीधे-सीधे नहीं कहेंगे देव, तुम्हें एक कविता सुनाएंगे, उसके बहाने जो चाहो तो समझ लेना। श्री विश्वनाथ प्रसाद की एक पुरानी कविता है भोलानाथ, मेरी बड़ी पुरानी नोटबुक में लिखी थी आज वही तुम्हें सुनाए देता हूं। सुनो महादेव :

रचना में महा मधु घोल कहीं, तृण से लघु को भी सराहते हैं
रच नाटक भावुकता का कहीं, हम प्रीति की रीति निबाहते हैं
जिसमें कुछ भी न गंभीरता है, उसको गुण से अवगाहते हैं
जग को ठग के अब भोला ! सुनो, तुमको ठगना चाहते हैं।

यानी अकड़न्चू में जिसको चाहा, मनमाना तंग किया और जब उसने आपत्ति की तो नाराज होकर छुरा मार दिया। फिर जब पकड़े गए तो दनादन तुम्हारी खुशामद में लगे कि हे शिव जी, तुम्हें प्रसाद चढ़ाएंगे, कानून के पंजे से हमें मुक्ति दिला दो। हे भगवान, हमें फांसी के फंदे से बचा लो। हे भगवान्, इस समय मेरे प्राण संकट में ही। तुम्हारे घिनौने घिनौने तिनके समान तुच्छ किसी भगत-पुजारी के कहो कतो सौ बार पैर छू लूंगा, जहां कहो नाक रगड़ आऊंगा—और जब छूट जाऊंगा तो फिर उसी तरह अकन्चू दिखाऊंगा—अपनी अकड़ में मैं तुम्हारे ऊपर यह अहसान भी कर दूंगा कि तुम्हारा एक नया शिवाला बनवा दूंगा—न अपने पैसे के बल पर, बल्कि चंदे के बल पर ही सही—कहो गुरू, तुम्हें ठग लिया कि नहीं? हःहःहः ! ये भी मेरे अहंकार का ही एक रूप था—यानी कवि के शब्दों में—‘रच नाटक भावुकता का कहीं हम प्रीति की रीति निबाहते हैं।’ ये अपने झूठे मंदिर तोड़ डालो बोला। हमारी इस ठग विद्या का अंत करो डालो। ये अहंकार तो ठीक नहीं। लेकिन भोले, यहीं पर हमारी शंका भी निवारण कर दो। सारे धर्मशास्त्र चिल्ला-चिल्लाकर कहते हैं कि अहंकार बुरा है, बुरा है। पर अहंकार तो सब प्राणियों में है। और अहंकार भलाई-बुराई दोनों की जड़ है। यानी एक तरफ तो इतना बड़ा है कि ‘शिवोऽहं’ ‘शिवोऽहं’ की रट लगाई जाती है और दूसरी ओर भी इतना बड़ा है कि हम—बस हमी-हम की गुहार मचाई जाती है। इसमें सच क्या है ? क्या कहा ? आत्मबोध का वह श्लोक पढ़ने को कहते हो जिसमें तुमने कहा है कि—ब्रह्मादि कीट पर्यन्ताः प्राणिनो मयि कल्पिताः। यानी कि मामूली कीट-पतंगों से लेकर ब्रह्मा तक सारे जीवधारी तुम्हारे परम अहं के अदंर कल्पित हैं लेकिन ये तुम्हारा अहम् नहीं है—जैसे समुद्र के ऊपर लहरें और बुदबुदे शान से फूलते इठलाते हैं फपर उनसे समुद्र का गंभीर रूप प्रकट नहीं होता इसी तरह मनुष्य के क्षुद्र अहंभाव में उसके अहम् का गंभीर रूप भी परिलक्षित नहीं होता उसे देखने के लिए तो समुद्र की गहराई में पैठना पड़ता है। ठीक है प्रभु—तुम्हारी बात मानता हूं। आजकल करीब-करीब हर जिले में एकाध ऐसे अवतार अवश्य प्रकट हो गए हैं जो डंके की चोट पर शिवोऽहं, शिवोऽहं कहते हैं। सौ-पचास चेले-चांटियों की गुण्डा पार्टी तैयार कर ली, भगवा रंग लिया। भंग छानने लगी, गांजे-सुल्फे के दम लगने लगे और भगतों को उपदेश यह दिया कि ये आजकल की नई विचारधारा के नास्तिक भंगी, चमारों-शूद्रो को सिर पर चढ़ा रहे हैं। उनको मारो, ये पापी हैं, अधर्मी हैं। अभी-अभी तुमको इष्टदेव के रूप में पूजनेवाली एक ब्राह्मण जाति का एक जातीय अखबार पढ़ रहा था। उसमें एक ने लिखा है कि छुआछूत, ऊंच-नीच, जांत-पांत को अब नहीं मानना चाहिए— दूसने ने इस पर लिखा है कि छुआछूत, जांत-पांत ऊंच-नीच को मानना चाहिए क्योंकि यही धर्म है। ये जितने जातीय अखबार हैं, सब अपनी-अपनी जातियों को पुराने तंग दायरों में बन्द करना चाहते हैं। नये ज़माने का स्वर हर छोटी-बड़ी जाति में फूट पड़ा है, उसे दबाते तो नहीं बनता पर दबाने की कोशिशें खूब की जाती हैं। नमूने देखोगे गुरु ! देखो !! तुम्हारे विश्वनाथ मंदिर में हरिजनों को जब तुम्हारे कठमुल्लों के विरोध के बावजूद दर्शन करने का अधिकार मिल गया तब एक संन्यासी ने तुम्हारे सेठ भक्तों के चंदे से एक नया विश्वनाथ मंदिर बनाया और कहा कि वो विश्वनाथ तो अब गंदी जगह का पत्थर हो गए, इन नये विश्वनाथ को पूजो,। ये तुम्हारे ‘शिवोऽहम मार्का’ भक्त हैं। देखी इनकी लीला, जब इनका गरब-गुमान तुमने खंडित कर दिया तो इन्होंने तुमको ही नष् तने कता प्रयत्न किया। और जब शिवोऽहं जपते हैं तो विश्वभर में जितने ‘हम-हम’ बोलने वाले प्राणी हैं सभी में शिव-शिव-शिव ही दिखलाई पड़ता है। विश्वनाथ यदि सचमुच ही परमेश्वर हो तो ब्राह्मण-हरिजन दोनों ही काटे-तोल एक समान हैं— सभी को शिवोऽहं करने का अधिकार है। जब शिव सबमें हैं तो कैसी ऊंच-नीच, कैसी जात-पांत। अब जात-पांत का मज़ा भी देखो प्रभू ! शायद तुमने अखबारों में पढ़ा भी हो कि हाल में चुनाव में एक ब्राह्मण देवता एक हरिजन उम्मीदवार को अपने किसी स्वार्थवश वोट देने को मजबूर हुए। वोट डालने गए तो गंगाजल साथ लेते गए। हरिजन को वोट डालकर उन्होंने अपने ऊपर गंगाजल छिड़का। ये ‘बांभन’ का धरम देखा गुरू ! इस बंभने के ऊपर तुम गंगाजी से कहके मान-हानि मुकदमा चलवाओं बोले। इसने गंगाजी का बड़ा अपमान किया है। हे देव, तुम्हारे उल्टे पैरों वाले भूतों से मुझे तनिक भी डर नहीं लगता, पर तुम्हारे इन उल्टी मति वाले भूत-पिशाचों से बड़ी घृणा होती है। इनको अबकी कुम्भ में भरके, ऊपर से कपड़ा बांधकर गंगा जी में तैरा दो प्रभु। संन्यासी पंडित पोंगापंथी महामिथ्या अहंकारी सब रावण के वंश वाले हैं। ये तमाम जातीय संगठन राक्षसों के सक्रेटेरियट हैं। इन सबको अपने गांजे-सुल्फे की लपक में भस्म कर डालो प्रभु। ये पाप के घड़े हैं— इनमें घट-घट व्यापी राम नहीं समाता। ये शिवोऽहं कहने के अधिकारी नहीं। शिवोऽहं—जय बम्भोले।

अतिशय अहम् में - अमृतलाल नागर (हास्य-व्यंग्य)

बात कुछ भी नहीं पर बात है अहम् की। आज से करीब पचास व साठ बरस पहले तक अहम् पर खुद्दारी दिखलाना बड़ी शान का काम समझा जाता था। रईस लोग आमतौर पर किसी के घर आया-जाया नहीं करते थे। बराबरी वालों के यहां भी बड़े नाज़ और नखरों से जाते थे। एक रईस महोदय का यह कायदा था कि अपनी बिरादरी में अगर कहीं मौत हो जाती तो स्वयं मुर्दनी में सम्मिलित होने के लिए न जाकर अपने खास नौकर के द्वारा अपने जूते भिजवा दिया करते थे। बिरादरी वालों को रईस महोदय का का यह अहंकार बहुत खलता था। खैर, उन्होंने बदला भी ले लिया। रईस महोदय की बुढ़िया मां मरी, बड़ी धूमधाम से उसका विमान निकालने की तैयारियां होने लगीं। सेठ जी के लगुए-भगुए तो सब पहुंच गए बिरादरी भर के फटे जूतों का गट्ठर उसके घर भिजवा दिया गया। व्यक्ति के अहम् पर समाज के अहम् का बोझ पड़ गया, सेर को सवा सेर मिल गया, घमंडी का सिर नीचा हो गया।

व्यक्तिगत रोब के सैकड़ों दृष्टान्त पुराने वक्त से निकालकर दिए जा सकते हैं। अंग्रेज हाकिम अपने सामने खड़ा ही रखता था। नवाबी ज़माने में एक ब्राह्मण देवता थे। पढ़े-लिखे तो थे नहीं, हां, गुंड़ों में सरनाम थे। लखनऊ के एक बड़े प्रसिद्ध महाजन साहजी साहब गंगाजमनी तामजाम पर बैठे चले जा रहे थे। चार बन्दूक धारी सिपाही आगे, चार पीछे और हटो-बचो की पुकार होती चल रही थी। बाज़ार में लोग झुक-झुककर साहजी साहब को सलाम कर रहे थे। संयोग की बात है कि साहजी साहब को अपनी मूंछों पर एकाएक हाथ फेरने की तबियत आ गई। उधर बांके महाराज की यह आन थी कि उनके सामने कोई मूंछों पर ताव नहीं दे सकता था। जो ऐसा करता वह गोली का निशाना बनता। बांके महाराज महाराज को साहजी की कोठी से अक्सर दान-दक्षिणा भी मिला करती थी। इसलिए साहजी साहब को गोली मारने के बजाय उन्होंने उनके तामजाम पर बने हुए शेर पर गोली दाग दी और बोले ‘‘अबकी छोड़ दिया साहजी ! मगर खबरदार, आगे से कभी मेरे सामने अपनी मूंछों पर ताव न देना।’’

मामला चूंकि साहजी का था इसलिए बादशाह तक खबर पहुंची और गुंडे ब्राह्मण देवता की मुश्कें कस गई और बादशाह की ओर उन्हें फांसी का हुक्म हो गया। लेकिन साहजी साहब आज के जमाने के अतिशय अहमवादी न थे। मौका-महल देखकर ही वे अपना रोब दिखलाते थे। इसलिए बादशाह के पास जाकर बोले, ‘‘जहांपनाह, मेरी बेबसी पर तरस खाइए। अगर हुज़ूर के हुक्म के खिलाफ कुछ कहता हूं तो मेरी गरदन जाती है और अगर चुप रहता हूं तो मेरी वजह से एक ब्राह्मण की जान जाती है और उसमें मेरा लोक-परलोक बिगड़ता है।’’ बादशाह ने साहजी साहब की बात मान ली और घमंडी बांके को छोड़ दिया।

अतिशय अहम् में ऐसे तमाशे अक्सर हुआ करते हैं। दरअस्ल, देखा जाए तो बात कुछ नहीं होती। महज़ एक-दूसरे के जोम में एक-दूसरे को पीसने की प्रवृत्ति ही जोम के खेल दिखलाया करती है। आपने उस मेढ़क का किस्सा अवश्य सुना होगा जिसके बच्चे ने पहली बार बैल देखा और अपने अतिशय अह्म में मेढ़क पेट फुलाकर मर गया, पर अपने बच्चे की नज़रों में बैल न बन पाया।

मेढ़कों की बात जब चल ही पडी है तब मुझे उनका टर्र-टर्र स्वर भी अतिशय अहम् के प्रतीक के रूप में याद आने लगा है। मेढ़कों की टर्र-टर्र पर तनिक ध्यान दीजिए।

मेढ़कों की यह टर्र-टर्र बाबा तुलसीदास जी को बड़ी सुहावनी लगी थी, लिहाजा लिख गए है कि-‘‘दादुर धुनि चहुं दिसा सुहाई’’ और यहीं तक नहीं, अपनी उदारता में स्पेस से लांघते-फलांगते हुए उन्होंने मेढ़कों के टर्राने में वेद पढ़ते हुए लड़कों की टोली तक देख ली। खैर साहब, गुसाई जी महाराज तो संत-महात्मा थे लेकिन अपने राम वैसे शरीफ नहीं हैं, हमने जब मेढ़कों का टर्राना देखा-सुना है तब हमारे मन की स्क्रीन पर दो चित्र नाच उठे हैं, एक तो चारों खाने चित्त हाथ-पैर बांधे टर्रे खां मेढ़कराज हमें मेडिकल कालेज के किसी छात्र या छात्रा के चाकू के नीचे आने लगते हैं और दूसरे कभी-कभी मेढ़कों के टर्र-टर्र में हमें हिन्दुस्तानी बाबुओं की अंग्रेजी की बोल वाली लड़ाई का दृश्य नज़र पड़ जाता है।

एक किस्सा सुनाऊं। रेल में कम्पार्टमेंट में नई सवारी के प्रवेश करने पर झों-झों तकरार, गाली-गुफ्ता और कभी-कभी तो हाथापाई के दृश्य भी उन सभी ने देखे होंगे जो थर्ड क्लास में यात्रा करते हैं। कभी-कभी भीड़ अधिक होने पर सेकेन्ड क्लास कम्पार्टमेंट के यात्री यही दृश्य उपस्थित करते हैं। खैर, तो हम एक बार थर्ड में यात्रा कर रहे थे। भीड़ खासी थी। अपनी दरी-चादर बिछाकर सीट ‘रिजर्व’ करने वाले छोकरे से एक बाबू साहब ने थर्ड क्लास कम्पार्टमेंट में ऊपर की सीट अपने लिए रुकवाई थी। छोटा-सा दरवाजा, भीड़-खासी, हम लोग भी दूसरों के बक्स-बिस्तरों पर किसी प्रकार टिके हुए थे। लगभग तीस पैंतीस बरस के एक दुबले-पतले चश्मा, चोटी, चन्दन, कमीज़-पतलूनधारी एक बाबू साहब भी हमारे पास ही किसी कनस्तर का सहारा लेकर कुछ-कुछ खड़ेनुमा बैठे थे। उन्होंने बराबर अंग्रेजी में ही हमसे बातें की और हम बराबर अपनी ही बोली बोलते रहे।...........तो वो बाबू साहब ने दरी बिछाकर लेटे हुए गैरकानूनी तौर से सीट रिज़र्वेशन करने वाले छोकरे को देखकर धीरे से मेरे कान के पास आकर कहा-
बाबू- यू सी मिस्टर, ही इज़ नाट ए रिएल ट्रेवलर। (देखिए, यह असली यात्री नहीं है।)
मैंने कहा- आपने ये कैसे जाना?
बाबू- आइ हैव सीन हिज़ फेस सम टाइम्स बिफोर आल्सो। यू सी ह्नाट ही डज़ ? ही बिलांग्स टु दैट गेंग आफ छोकराज हू रिजर्व दी अपर सीट्स फार यू लाइक दिस। (मैंने पहले भी इसे देखा है। जानते हैं, वह करता क्या है ? यह छोकरों के उस दल का सदस्य है जो इस प्रकार दूसरों के लिए सीटें रिजर्व करते हैं।)
मैंने कहा- जान पड़ता है कि आपने ने भी कभी इस छोकरे से अपने लिए इसी प्रकार सीट रिज़र्व करवाई थी।
बाबू- यस, यस, मेनी ए टाइम्स बिफोर। यू सी आई एम दी पी.ए. अक्स वाई जेड आप दी सेक्शन बी- फ्लोरबार्थ सेक्टर इन एनीमल हज़बैंड्री, सो आइ हैल टु ट्रेवल। बट दिस इज़ ए बैड प्रैक्टिस, दिस काइंड आफ सीट प्रीज़रवेशन। चीटिंग दी पब्लिक ऐंड गवर्नंमेंट बोथ। यू एग्री मिस्टर। (हां, पहले कई दफा कराई है। मैंने एनीमल हसबैंड्री के फ्लोरबार्थ सेक्टर में सेक्सन बी के के एक्स वाई जेड का पी.ए. हूं, इस लिए मुझे अक्सर सफर करना पड़ता है। लेकिन इस तरह सीट लेना बुरी बात है। यह जनता और सरकार दोनों को धोखा देना है।)
मैंने कहा- जी हां, गलत तो है, लेकिन ये कालाबाज़ारी नीचे से लेकर ऊपर तक फैली हुई है। क्या किया जाए। खुद आप ही इन्हें बढ़ावा देते हैं।
बाबू- नो, बट दिस टाइम आइ विल टीच हिम ए लेसन। इन दी मीनटाइम यू प्लीज टेक केयर आप माई होल्टआल। (लेकिन इस दफा मैं उसे सबक सिखाऊंगा। आप सिर्फ मेरे होल्ड-आल पर नजर रखिए।)
ये कहके साहब ने अपना टीन का संदूक उठाया और खड़े-बैठे लोगों की भीड़ चीरते हुए सीट के सिहारने तक पहुंच गए। संदूक ऊपर चढ़ाया। वह छोकरा बोला, ‘‘क्या करते हैं साहब, ये सीट रिजर्व है।’’
‘‘अबे, तेरे बाप ने निजर्व कराई है यह सीट?’’
‘‘देखिए, बाप-दादा तक न पहुंचिए, अच्छी बात न होगी।’’
अच्छा-अच्छा, टिकट निकालकर दिखाइए अपना, पीछे बात कीजिएगा।’’
छोकरा बोला- ‘‘आप टिकस पूछने वाले कौन होते हैं ? बुलाइए टिकट- बाबू को, अभी दिखा दूंगा।’’
छोकरा तैश में आकर उठ बैठा, बाबू साहब ने तुरन्त अपना संदूक सिरहाने पर रख दिया।
वैसे ही एक दूसरे बाबू साहब ने प्रवेश किया। छोकरा उन्हें देखते ही ‘‘इधर है साब, आपकी सीट पर दूसरा साब जमा जात है, साब’ करके नीचे उतरा। दूसरे बाबू साहब ने, जो देखाव में अधिक रोबीले थे, एक बार अपनी सीट पर नजर डाली और कुली को आवाज़ देने लगे। छोकरा बोला कि साब, पैसे दीजिए। बाबू साहब ने रुपया दिया और ज्योंही उसने अपनी दरी उठाई, त्योंही बाबू ने झपटकर अपना होल्डाल सीट पर फेंक दिया और आगे बढ़कर जल्दी-जल्दी उसे खोलने लगे। दूसरे बाबू तैश खा गए, बोले- ‘‘ये क्या करते हैं आप ? सीट मेरी हैं।’’
बाबू- ‘‘हूसोएवर अक्यूपाइज़ दी सीट फर्स्ट.....।’’ (जो भी पहले सीट घेर ले......)
नया बाबू-‘‘बट आई हैव पेड फार इट।’’ (मैंने सबके सामने रूपया दिया है।)

पहले बाबू ने पूछा कि क्या आपने सरकार से सीट रिज़र्व कराई है, और यह कहते हुए तेजी से अपने होल्डाल के तस्मे खोलते रहे। दूसरे बाबू साहब का सामान सर पर लादे हुए कुली खड़ा हुआ था जो और सामान रखवाने के लिए जल्दी मचा रहा था। बाबू साहब ने उसी सीट पर अपना सामान रखने के लिए कुली को आदेश दिया। पहले बाबू लपककर ऊपर चढ़ने लगे। दूसरे बाबू ने फिर लपककर बाबू की टांग पकड़ी और दोनों बाबू अंग्रेजी में लड़ने लगे।

‘‘यू कान्ट अक्यूपाई दैट सीट।’’ (आप यह सीट नहीं ले सकते।)
‘‘आई शैल श्योरली सिट हियर। आई हैव एव्री राइट।’’ (मैं तो यहीं बैठूंगा। मुझे पूरा हक है।)
‘‘डू यू नो हू आई एम ?’’ (आप जानते हैं, मैं कौन हूं ?)
‘‘ऐन्ड डू यू नो हू आई एम ?’’ (और आप जानते हैं मैं कौन हूं ?)

लीजिए ! ये जोम की तनातनी बढ़ चली। दूसरे बाबू ने पहले बाबू की टांग घसीटकर गिरा दिया और फिर हाथा पाई होने लगी। कम्पार्टमेंट में हंगामा मचा, पुलिस आई और दोनों को पकड़ ले गई। बात कुछ भी नहीं थी मगर अतिशय अहम् के जोम में दो बाबुओं की बात यों बिगड़ गई। टर्रे मेढक मानो मेडिकल विद्यार्थी की छुरी के नीचे आ गए।

मेरे आदिगुरु - अमृतलाल नागर (हास्य-व्यंग्य)

पुराने भारतीय गुरुओं के सम्बन्ध में बहुतों ने बहुत कुछ जो सुन रक्खा होगा उसका एक रूप बीसवीं सदी में रहते हुए भी हमने आंखों देखा है। बचपन में जो पण्डित जी हमको पढ़ाते थे, वे प्राचीन ऋषि गुरुओं की आत्मा और वेशभूषा न रखते हुए भी किसी हद तक उनसे मिलते-जुलते हुए अवश्य थे। मसलन मार्च के महीने में तीसरे पहर यदि आप कभी उनके यहां पहुंचे होते तो हममें से किन्हीं दो छात्रों को आप ज्योमेट्री का थ्योरम ज़ोर-ज़ोर से सुनाते हुए, पण्डित जी की दो गायों की सानी करते हुए पाते। कोई लड़का आप को बाबर के बाप हुमायूं का माहात्म्य बखानता हुआ पण्डित जी के आंगन के साथ-साथ इतिहास को बटोरता हुआ मिल जाता। तीन-चार बजे का समय दरसल पण्डित जी की भांग घोटने का समय हुआ करता था। वे अपने नबाबी ज़माने के बने हुए मकान की पौली में चबूतरे पर दत्तचित्त हो सिलौटी पर विजया सिद्ध किया करते थे। जब तक भांग पीसते-पीसते सिल न उठ आए तब तक पण्डित जी अपने आसन से उठते न थे। इस कार्यक्रम में लगभग डेढ़ घण्टा लगता था। उतने समय में पण्डित जी विद्यार्थियों से सानी-पानी, झाड़-बुहारू आदि काम करवाया करते थे। परन्तु इन कामों को करते हुए भी लड़कों को अपनी पढ़ाई जारी रखना नितान्त आवश्यक था।

पण्डित जी किसी की एक पाई भी मुफ्त में खाना हराम सनझते थे। पौला में बैठकर भांग घोटने के कारण चूंकि पण्डित जी और उनके विद्यार्थियों के बीच में दीवाल की आड़ होती है, इसलिए उनका आदेश था कि सब लोग ज़ोर-ज़ोर से अपना पाठ याद करे जिससे कि उन्हें सुनाई पड़ता रहे। नतीजा यह होता था कि सरस्वती की मानसमुक्ता चुनने वाले हंस मिलकर कौवा-शोर मचा देते थे। ज्योमेट्री की थ्योरी में, इतिहास की कथाएं, भूगोल की कर्क, मकर और विषुवत रेखाएं, हिन्दी में चरित्र गठन के महत्त्व के साथ लिपट-उलझकर सब्ज़ी-मण्डी के कबाड़ियों की तरह अद्भुत स्वर वैचित्र्य उपस्थित किया करती थीं। इस रटाई के कार्यक्रम में हमें खरा आनन्द आता था। अदब से बैठने की ज़रूरत न होती थी, क्योंकि पण्डितजी सामने न होते थे। उठ-उठकर एक-दूसरे की टीपें लगाना, मुंह चिढ़ाना, चोंच दिखाना आदि मनोरंजक कार्यक्रम करते हुए हम चौबीस घण्टों में केवल उतना ही समय अपना मानकर सुख से बिताया करते थे, क्योंकि मार्च का महीना होता था।

हमारी सुबह स्कूल की, और दिन के एक बजे से लेकर रात के नौ बजे तक का समय पण्डित जी का हुआ करता था। सलाना इम्तहान के चार महीने पहले से हमारे खेल-कूदों पर पूर्ण प्रतिबन्ध लग जाता था, क्योंकि पण्डित जी अपने किसी विद्यार्थी का फेल होना बर्दाश्त नहीं कर पाते थे। दीवाली बीती नहीं कि पण्डित जी की आज्ञानुसार हमें अपने-अपने घरों में सुबह चार बजे उठकर पढ़ने बैठ जाना पड़ता था। जो लड़का चार बजे उठकर पढ़ना न आरम्भ कर दे उसकी खैर नहीं, कड़कड़ाती हुई सरदी में भी कम्बल ओढ़कर लालटेन और दूसरे हाथ में लट्ठ लिए पण्डित जी विभिन्न गलियों में रहने वाले अपने सभी विद्यार्थियों के घरों पर जाकर आवाज लगाते थे- फलाने ! और फलाना अगर एक आवाज में न बोला तो उसकी खैर नहीं। इस बुरी तरह धुनते थे कि देखनेवालों को दर्द लगता था। लड़कों के माता-पिता मारपीट के संबंध में कुछ नहीं कह सकते थे। विद्यार्थियों को पढ़ाने से पहले उसे अभिभावकों से मारपीट की शर्त वे तय कर लेते थे। ‘‘छड़ी लागे छम-छम और विद्या आवे धम-धम’’ के सनातन सिद्धान्त में उनका अटूट विश्वास था।

उस समय शहर में कुल जमा दो-तीन सिनेमा घर थे। उनमें भी हिन्दुस्तानी फिल्मों का सिनेमा केवल एक ‘रायल’ ही था, जो कि अमीनाबाद में था। मूक चित्रपटों की हीरोइन मिस पन्ना मिस लोबो, गौहर, जुबेदा, जेबुन्निसा, माधुरी, सुलोचना आदि हम लोगों के परम आकर्षण की जिन्स थीं। परन्तु दिसम्बर से लेकर मई के पहले हफ्ते तक हम उनकी झलक भी न देखा पाते थे। सिनेमा देखना तो दर किनार, चौक से अमीनाबाद तक जाने का आर्डर भी न था। मुझे अच्छी तरह याद है कि एक लड़का अपनी मां के साथ किसी रिश्तेदार के घर अमीनाबाद गया था। संयोग की बात है कि पण्डित जी भी उस दिन अमीनाबाद गए हुए थे। वह लड़का अपने संबंधी के बेटे के साथ बाजार घूमने निकल आया। पण्डित जी ने उसे देख लिया। देखते ही उनके चेहरे पर ऐसी घबराहट आ गई मानो वह लड़का आत्महत्या करने के लिए निकल पड़ा हो। पचास कदम से दौड़ते हुए पण्डित जी उनके पास पहुंचे और हाथ पकड़कर हांफते हुए बोले, ‘‘मोए अमीनाबाद घूम रहा होगा।’’ फिर उसकी एक न सुन बाजार में ही धुन डाला। आसपास भीड़ जमा हो गई। लोगों ने समझा कि शायद यह लड़का पण्डित जी की जेब काटकर भागा है,
इसलिए वे उसे मार रहे हैं। बमुश्किल तमाम उन्होंने यह सुना कि वह अपनी मां के साथ एक संबंधी के घर आया है, सिनेमा देखने नहीं आया। पण्डित जी उसका हाथ पकड़कर संबंधी के घर गए, अन्दर से सूचना मंगवाई, और जब उन्हें विश्वास हो गया कि लड़के का कथन सत्य है, तब उन्होंने उसे छोड़ा।

गर्मी शुरू होते ही उनकी आज्ञा से हममें से हर एक को नित्य प्रति प्रात: काल ब्राह्मी बूटी पीनी पड़ती थी और वह भी एक खास दूकान से लाकर। जो ब्राह्मी बूटी न पिए उसे भी मार पड़ती थी। परीक्षा के दिनों में दो नियम हमें और भी पालन करने पड़ते थे। एक तो दिन-वार के अनुसार शकुन करके घर से निकलना और दूसरे पंडित जी के इष्टदेव एक खास मंदिर के गणेश जी, के दर्शन करना। इन कार्यक्रमों में चूक पड़ जाने पर भी करारी मार पड़ती थी। शकुन वाली कविता तो मुझे अब तक याद है-

‘‘रवि को पान सोम को दर्पण, मंगल को गुड़ कीजै अर्पण।
बधु को धनिया बीफै राई, सूक कहे मोहि दही सुहाई।
सनीचर कहे जो अदरक पाऊं, तीनों लोक जीत घर जाऊं।।’

इतना सब हमसे कराने के बाद पण्डित जी अपने कमजोर विद्यार्थियों को पास करवाने के लिए स्कूल मास्टरों की खुशामद भी किया करते थे। एक बार उनके मुहल्ले में रहने वाले एक मास्टर महोदय ने उनके एक विद्यार्थी को फेल कर दिया। पण्डित जी उनसे बेहद बिगड़े। उनके घर के सामने गली में खड़े होकर पण्डित जी ने उन्हें सैकड़ों गालियां सुना डालीं और यह धमकी दी कि ‘‘निकलना साले कभी, मारे जूतों के खोपड़ी गंजी कर दूंगा।’’
चार महीने तक वे मास्टर महोदय अपने एक पड़ोसी के पिछवाड़े से दूसरी गली में होकर आते-जाते थे, क्योंकि पण्डित जी ने अपने चबूतरे पर जूता लिए रोज़ उनकी प्रतीक्षा किया करते थे।

रिज़ल्ट के दिन के लिए भी उनका एक आदेश था- पास हो के आओ तो हाथ में तरबूज़ की फांक जरूर हो। परीक्षाफल निकलने के दिन पण्डितजी घनघोर पूजा-पाठ कर बड़े आकुल-व्याकुल भाव से अपने घर के सामने वाले चबूतरे पर बैठकर हम लोगों की प्रतीक्षा किया करते थे। दूर से ही हम लोगों को देखकर उन्हें फिर इतनी भी ताव न रह जाती थी कि लड़के पास आकर उन्हें अपना परीक्षाफल सुनाएं। इसीलिए तरबूज की फांक देखकर मेरे नये जूते ने मेरे पैरों को छालेदार बना दिया था। इसलिए लंगड़ाता हुआ चला आ रहा था। रास्ते में तरबूज़ वाले के यहां मुझे फांक भी न मिल सकी, क्योंकि लड़कों ने खरीद ली थी। मैं खाली हाथ पास हुए लड़कों से दस कदम पीछे पैर के छालों से परेशान लंगड़ाता हुआ चला आ रहा था। मेरे हाथ में तरबूज़ की फांक न देखकर पण्डित जी ने समझा कि मैं फेल हो गया। तैश में आकर पण्डित जी चबूतरे से लपककर उठे और लड़कों की भीड़ चीर कर मेरे पास पहुंचे उन्होंने धमा-धम घूंसे और चांटें लगाने शुरू कर दिए। ‘‘मुर्दे, तुझे इत्ता-इत्ता पढ़ाया फिर भी तू फेल हो गया।’’

मेरे मित्रगण चिल्लाए, ‘‘पास हो गया है पण्डित जी, पास हो गया है।’’ पण्डित जी ने मारना छोड़कर एक सेकिण्ड के लिए प्रश्न और प्रसन्नता से भरी हुई दृष्टि से मुझे देखा और फिर दूसरी धुन में मारना शुरू कर दिया, ‘‘अबें तो तरबूज़ की फांक क्यों नहीं लाया ? पचास बार कह चुका हूं कि मुझे दिल की बीमारी हैं, फिर भी मेरा दिल दहला देते हैं, ऐसे हैं आजकल के कम्बख्त चेले!’’

मारने में मेरे आदिगुरु तन्मय हो जाया करते थे, यह सच है, परन्तु उनको अपने बच्चों के समान फल खिलाना भी उन्हें सुहाता था। लड़कों की पढ़ाई को लेकर इतना अधिक सतर्क रहने वाले प्राइवेट ट्यूटर अब कहां मिलेंगे ? पण्डित जी अब नहीं रहे, परन्तु उनकी करालता की वह स्मृति आज बड़ी मधुर होकर मेरे ध्यान में आ रहा है। मैंने उनकी बहुत मार खाई है, क्योंकि हिसाब से कच्चा था। नशे में वे अक्सर मुझे बेतों ही बेतों धुना करते थे। ऊपर से पण्डितजी की मां, बहन, भावज उस मार को देखकर चिल्लातीं, ‘‘अरे लड़के को मार डालेगा क्या ?’’ पर पण्डित जी एक बार बेंत उठाकर तब तक नहीं छोड़ते जब तक उनकी सांस न फूलने लगे।

मैंने उन्हें अपनी हर किताब छपने पर अवश्य ही भेंट करने जाता। जब पहली किताब छपी तो उसमें मैंने लिखा था कि ‘‘जिनकी बेतों की मार की कृपा से आज इस योग्य हुआ।’’ जब दूसरी किताब लेकर पहुंचा तो उसमें यह सब न लिखकर कुछ और लिखा था।

पण्डित जी बोले, ‘‘यब सब कुछ नहीं, वहीं बेंतो की मारवाला मजमून लिखो बेटा।’’ उसके बाद से मैं बार-बार यही करने लगा। पण्डित जिससे मिलते, जहां जाते वहां बात चलाकर वह पुस्तक अवश्य दिखलाते, कहते, ‘‘यह मेरा शिष्य है। देखिए, इसने लिखा है कि बेतों की मार के बदौलत यह इस योग्य बना। यही इसकी योग्यता है।’’

यदि कोई उनसे किताब पढ़ने के लिए मांगता तो वे उसको न देते थे, कह देते, ‘‘ यह पुस्तक बड़ी योग्यता से लिखी गई है। इसको तुम न समझ पाओगे।’’ पण्डित जी न स्वयं किताब पढ़ते थे और न किसी को पढ़ने देते थे। किताब उनके हाथ में तब तक अवश्य रहती थी कि जब तक कि उसका एक-एक पन्ना ढीला होकर उड़ न जाए।

नये वर्ष के नये मनसूबे - अमृतलाल नागर (हास्य-व्यंग्य)

नये वर्ष में हमारा पहला विचार अपने लिए एक महल बनवाने का है। बीते वर्षों में हम हवाई किले बनाया करते थे, इस साल वह इरादा छोड़ दिया क्योंकि हवा बुरी हैं। इस साल दो आफतें एक साथ फरवरी महीने में आ रही हैं- एक तो अष्टग्रही योग* और दूसरा एलेक्शन। इन दोनों ही का हुल्लड़ इतना है कि बहुत घबराकर, चचा ग़ालिब की उक्ति में थोड़ी-सी तरतीम कर हम बार-बार अपने हज़रते दिल से यही गुहार रहे हैं कि-
रहिए अब ऐसी जगह चलकर जहां हुल्लड न हो
वोट मंगना हो न कोई ज्योतिषी कोई न हो
वे दरी दीवार का इक घर बनाना चाहिए
जिसमें कि कुण्डी न हो और पोस्टर चस्पां न हो

-दुखी हो गए हैं साहब ! ठीक तरह से सवेरा भी नहीं हो पाता और दरवाजे की कुण्डी खटकने लगती है। खोलकर देखिए तो कोई न कोई पार्टी वाले खड़े होते हैं। इनकी सूरतें देखते ही हमें फौरन मीयादी बुखार चढ़ आता है। चुनाव के दिनों में ये लोग वोटरों से बोलते नहीं बल्कि हिनहिनाते हैं : ‘हेंहेंहेंहें, हम आपकी सेवा में आए हैं। हेंहेंहेंहें हमारा चुनाव चिह्न चूल्हा है। महंगाई में आजकल घर-घर के चूल्हें ठंडे हैं। हम अपने उम्मीदवार को उन्हीं ठंडे चूल्हों को सुलगता लक्कड़ बनाना चाहते हैं। हेंहेंहेंहें आइए, हमारी मनोकामना पूरी कीजिए। हमारी लक्कड़ पार्टी को अपना कीमती वोट प्रदान कीजिए।’ लक्कड़ पार्टी के बाद फक्कड़ पार्टी के बाद कंकड़-पत्थर पार्टी और फिर पार्टी पर पार्टी के लोग आ-आकर इतनी बार कुण्डी खटखटाते हैं कि हमारे दरवाजे की

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*यह लेख 1961 में लिखा गया था जब अष्टग्रही योग की बड़ी चर्चा थी।

कुण्डी ढीली पड़ गई है, उसे तोड़ने के लिए चोरों को अब छैनी-हथोड़े की आवश्यकता नहीं पड़ेगी, महज एक झटका ही काफी है। यह तो कुण्डी की दशा है, अब तनिक घर की दीवारों का मुलाहिजा फरमाइए- ऊपर से नीचे तक सब पार्टियों के पोस्टर ही पोस्टर चिपके हुए हैं। पिछली दीवाली पर कर्ज लेकर हमने दीवाली की पुताई करवाई थी, वह कर्ज अभी चुका भी नहीं पाए और दीवारों की हालत यह है कि............क्या कहें। बाहर की दीवारे देख-देखकर हमें स्वयं अपने ही घर में घुसने को जी नहीं चाहता, या घर में होते हैं तो बाहर निकलकर उनकी दुर्दशा देखने का साहस नहीं होता। कहीं गेरू से लिखा गया है- ‘फलाने जी को वोट दो।’ उस पर तारकोल से क्रास निशान बनाकर नीचे लिखा गया है- ‘ढिमाके जी को वोट दो।’ किसी ने ‘वोट’ शब्द के अक्षरों की प्रूफ-मिस्टेक सुधारकर उसे भद्दी गाली बनाकर मज़ा लूटा है। किसी ने किसी पोस्टर के ऊपर अपना पोस्टर चिपकाकर हमारी दीवाल पर कागज़ पलस्तर चढ़ाया है। किसी ने किसी का पोस्टर उखाड़ते हुए हमारी दीवाल की पपड़ियां उखाड़ डाली हैं। एलेक्शन वालों से प्रेरणा लेकर अष्टग्रही योग की आनेवाली प्रलय से घबराए हुए धर्मभीरुओं ने भी जगह-जगह लिख रक्खा है- ‘‘पांच फरवरी को प्रलय होगी, उससे बचने के लिए हमारे राम नाम या कृष्ण नाम संकीर्तन मण्डल के सदस्य बनिए।’’

किसी ने लिखा है, ‘‘अष्टग्रहों से सावधान ! अपनी जन्म-पत्री में मकर राशि का स्थान बिचरवाइए, असली ज्योतिष मारदण्ड पंडित नागनाथ जी से अपने अष्टग्रहों की शान्ति करवाइए। फीस गरीब अमीर के जन-कल्याणार्थ हमने बहुत कम रक्खी है, सवा रुपया जन्म कुण्डली दिखाई और सवा पांच रुपिया अष्ट्रग्रह शांति के लिये जाते हैं।’’ यह हाल और जग में हुल्लड़ इतना है कि हम शान्ति से बैठकर कुछ सोच या कर ही नहीं पाते। इसीलिए हमने ‘स्पेस’ में बे-दरो-दीवाल का एक ठगद ज्योतिषियों और नकली नेताओं से तो नजात मिलेगी।

हमारा दूसरा ठोस मनसूबा है कि इस नये वर्ष में हम अपनी सैकड़ों सदियों, पुरानी मातृभाषा का मुंह काला करके एक किराये की मादरी ज़बान को अपने घर में ला बिठाएंगे। ये मातृभाषा, साहब, बड़ी खतरनाक वस्तु है। इसमें हम जो कुछ भी कहते हैं, वह हमारी बे-पढ़ी-लिखी जनता तक समझ जाती है।

यह बात बहुत बुरी और राष्ट्र घाटक बात है। हम अपने राष्ट्रीय मनसूबों की बाबत महान-महान् बातें सोचें और वह भी अपनी देशी ज़बान में ? छि:छि:छि: ! हम अपने मनसूबों का इतना बड़ा अपमान करें ? नहीं, नहीं हरगिज़ नहीं। फिर हमारा शुमार पढ़े-लिखे बाबुओं में क्योंकर होगा, जाहिल किसान,, मजदूरों और लालालूली लोगों पर हमारे रौब का सिक्का क्यों कर जमेगा ? इसलिए हमारा दृढ़ मनसूबा है कि नये साल में अपनी मातृभाषा का त्याग का आदर्श उपस्थित करेंगे।

हमारा तीसरा मनसूबा बड़ा ही सांस्कृतिक है। हम अपने कमरे से नटराज बुद्ध और गांधी की मूर्तियां हटाकर उसे नये सिरे से सजाना चाहते हैं। हमारा विचार है कि चीनी किंवदन्ती के गांधी पोषित तीन उन पर लिखा होगा : ‘‘बुरा देखो। बुरा बोलो। बुरा सुनो। बुरा करो।’’ हम एक सच्ची मिसाल देकर आपको इस नये ‘मॉटो’ (MOTT0) का सत्य साबित कर दिखलाएंगे। अभी हाल ही में एक उपन्यास-लेखक हमसे मिलने के लिए घर पधारे थे। इन्होंने लगभग दो ढाई सौ उपन्याय लिख, छाप और बेचकर अब तक लगभग चार-पांच लाख रुपया कमाया है। साहित्यिक दुनिया में इनका नाम कोई नहीं जानता, पर वे सफल और महान उपन्यासकार तो हैं ही। कहने लगे : ‘‘हम आपको अपना गुरु उसी प्रकार मानते हैं जिस प्रकार एकलव्य द्रोणाचार्य को इसलिए मैं अब केवल बुरा ही बुरा देखता हूं। मैंने अमुक अमुक उपन्यास में एक बेचारी दीन-हीन सुन्दरी विधवा, दो बेचारी लोअर मिडिल क्लास की कालिज कन्याओं और एक बेचारी सुन्दरी स्टैवोग्राफर की दु:ख-दलितहीन दशा का नग्न सत्यवर्णन किया है।

एक चार सौ बीसिया सेठ अपने तीन कालेबाज़ारी सेठ मित्रों के साथ इन चारों रमणियों को चन्द चांदी के टुकड़ों के वास्ते पतित करता है। मैंने एमुक प्रगतिशील आलोचक को ललकार कर कहा कि देखो मैंने यह प्रगतिशाल चित्र अंकित किया है, तो वे बोले कि यह अश्लील चित्र है। मैंने भी उनकी शेखी का जवाब दे दिया। मैंने कहा, ‘‘जिसे तुम अश्लील कहते हो उस किताब की मैंने छह महीने में अठारह हजार प्रतियां बेटी हैं। मैं अश्लीलता में समाज की बुराई ही देखी है। मैंने अपने समाज की अश्लीलता पर घोर प्रहार किया है। यही सच्ची प्रगतिशीलता है।’’ हमने कहा, ‘‘सच है, आपको बुरा देखना फला- और सही अर्थ में आप प्रगतिशील भी बने क्योंकि कल तक प्रफरीडरी करके प्रेसों में चप्पलें चटकाते थे और आज बुरा देखने-दिखाने की बदौलत आपने स्वयं प्रेस-मालिक और मोटरशाली बनकर अपनी प्रगति की है। ‘‘जब वो चले गए तब हम अपनी हालत पर गौर करने लगे। समाज का भला देखने और लेखक बनने के फेर में हमने कमाने की कौन कहे अपने बाप दादों की कमाई भी घर-खर्च को ‘डेफिसिट’ से बचाने में फूंक डाली। जग के भले के पीछे अपना और अपने बाल बच्चों का बुरा किया। लिहाजा क्या यें भला मनसूबा न होगा कि नये वर्ष में हम भी उन उपन्यास लेखक महोदय की तरह बुरा देखें, सुनें, बोलें और कहें ? चूंकि ये मनसूबा हमारा क्रांतिकारी है इसलिए सुनने वालों की नेक सलाह चाहते हैं। क्या बुरा है, हम सब अपने-अपने ही में सिमट जाएं, समाज को गोली मारें। अष्टग्रही योग के प्रताप से खंड-प्रलय आए या न आए मगर बुरा देखने, बोलने, सुनने और करने की तरकीब से दुनिया में महाप्रलय शर्तिया आ जाएगी, यह निश्चित है।

हमारे कुछ मनसूबे बड़े निजी किस्म के हैं- जैसे कि हमारा गरम कोट फट गया है। पिछले कई वर्षों के नये दिनों पर हमने ये मनसूबा साधा कि इस बार तो बनवा ही लेंगे पर न बनवा पाए। हाल की सर्दी में कांपते कलेजे से हम यही सोचते रहे कि इस नये साल में कोट अवश्य सिलवाएंगे। देखिए पूरा होता है या नहीं। आज सुबह से ही हम ये मनसूबा भी बांध रहे हैं, नये वर्ष के नये दिन पेट भरकर गाजर का हलुआ खाएं, मगर घरवाली नाक सिकोड़कर ताना मारती है कि घर में नहीं दाने और आप चले भुनाने ! भला ये लेखक का मुंह और गाजर का हलुआ!- ख़ैर, ये तो मनसूबा है और हम पहले ही अर्ज़ कर चुके कि मनसूबे केवल बांधे जाने के लिए ही होते हैं, पूरे करने के लिए नहीं।

एक घोषणा-पत्र - अमृतलाल नागर (हास्य-व्यंग्य)

इस बार भी अगस्त के महीने में जब हमारी किताबों की रायल्टी की राशि चढ़ती महंगाई के मुकाबिले में एकदम औसत ही आई, तो हम अपने पेशे की आय रूपी अकिंचनता से एकदम चिढ़ उठे, हमने यह तय किया कि अब लिखना छोड़कर कोई और धंधा करेंगे। मगर क्या करें, यह समझ में आता था। कई बिगड़े रईसों के बारे में सुना था कि जिन आदतों से वे बिगड़े थे, उन्हीं में नये लक्ष्मीवाहनों के पट्टों को फंसाकर रईस बन गए थे। हमारी लत तो बुरी ही नहीं निकम्मी भी थी, यानी साहित्यकार बन गए थे। और यह साहित्यिकता आमतौर से रईस छौनों के मनबहलाव की वस्तु ही नहीं होती, इसलिए हमारे वास्ते यह साहित्यिक इल्लत उस रूप में भी बेकार थी। दूसरा विचार आया कि पान और भंग-ठण्डाई की दुकान खोल लें। जगत्-प्रसिद्ध साहित्यिक नहीं बन सके, तो सही, ‘जगत्-प्रसिद्ध तांबूल विक्रेताका साइनबोर्ड टांगने का शानदार मौका मिल जाना भी अपने-आप में कम-महत्त्वपूर्ण उपलब्धि होगी। ठंडाई के तो हमें ऐसे-ऐसे नुस्खे मालूम हैं कि शहर के सारे ठंडाईवाले हमारे आगे ठंडे हो जाएंगे। सीधे गर्वनर से ही दुकान का उद्धाटन कराया जाएगा; उन्होंने अपने शासनकाल में अब तक हर तरह के उद्घाटन कृपापूर्वक कर डाले हैं, बस पान-ठंडाई की दुकान ही अब तक नहीं खोली, खुशी से चले आएंगे। धूम मच जाएगी। बस यही होगा कि चार हमारा मज़ाक उड़ाएंगे कि नागरजी ने पान-ठंडाई की दुकान खोली है। अरे उड़ाया करें, ‘आहारे-व्यवहारे, लज्जा नकारे।जब इतने बड़े महाकवि जयशंकर प्रसाद अपने पैतृक-पेशेवश सुंघनीसाहु कहलाने से सकुचाए, तो पान-ठंडाई-सम्राट कहलाने से भला हम ही क्यों शर्माएं !

भांग के गहरे नशे में इस स्कीम पर हम जितना ही अधिक गौर करते गए, उतनी ही हमारी आस्था भी बढ़ती गई। हमें यही लगा कि जैसी आस्था हमें इस व्यापार-योजना में मिल रही हैं, वैसी किसी साहित्यिक योजना से अब तक मिली न थी। अस्तित्ववाद, शाश्वतवाद, रस-सिद्धान्त, पूंजीवाद, लोकतंत्रवाद, भारतीय संस्कृतिवाद, आदि हर दृष्टि से हमारी यह दुकान-योजना परम ठोस थी। इसलिए मन पोढ़ा करने हमने अपने दोनों लड़कों को बुलाकर अपने मन की बात कही। छोटा बोला, ‘‘बाबूजी, मैं तो सपने में भी यह कल्पना नहीं कर सकता कि आप दुकानदार बन सकते हैं !’’ हमने आस्थायुक्त स्वर में उत्तर दिया, ‘‘बेटे, यथार्थ सदा कल्पना से अधिक विचित्र रहा है। जहां इच्छा है, वहां गति भी है। जवाहरलाल नेहरू का एक वाक्य है कि सफलता प्राय: उन्हीं को मिलती है, जो साहस के साथ कुछ कर गुजरते हैं; कायरों के पास वह क्वचित् ही जाती है।’’ बड़े बेटे ने कहा, ‘‘आप जैसे जाने-माने लेखक के लिए यह शोभन नहीं लगता, बाबूजी। यदि अपनी नहीं, तो कम से कम हम लोगों की बदनामी का ही खयाल कीजिए।’’ हमने तुर्की-बतुर्की जवाब दिया, ‘‘तुम लोगों का यह आबरूदारी का हौवा निहायत पेटी बुर्जूआ किस्म का है। हम घर आती हुई छमाछम लक्ष्मी को देख रहे हैं। तुम लोग क्यों नहीं देखते कि दुकान की सफलता के लिए हमारी साहित्यिक गुड़विल, पान और भांग-रसिया होने के संबंध में हमारी अनोखी किंवदंतियों-भरी ख्याति कितनी लाभकारी सिद्ध होगी। चार-पांच हजार रूपये महीने से कम आमदानी न होगी। तुम लोग चाहे कुछ भी कहो, हम दुकान जरूर खोलेंगे। हज़ार-दो हजार की लागत में लाखों का नफ़ा। हम यह अवश्य करेंगे।’’ लड़के बेचारे हमारे आगे भला क्या बोलते। उठकर चले गए और जाकर अपनी मां के आगे शंख फूंका।
तोप के गोले की तरह लाल-लाल दनदनाती हुई वह हमारे कमरे में आई और बोलीं, ‘‘ये दुकान खोलने की बात आखिर तुम्हें क्यों सूझी ?’’
‘‘पैसा कमाने के लिए।’’
‘‘पैसा तो खाने-भर को भगवान दे ही रहा है।’’ ‘‘हमें ऐश करने के लिए पैसा चाहिए।’’
‘‘इस उमर में ! अब भला क्या ऐश करोगे ! जो करना था, कर चुके।’’
‘‘ऐश का अर्थ सिर्फ औरत और शराब ही नहीं होता, देवी जी। हम कार, बंगला, रेफ्रिजिरेटर, कूलर और डनलोपिलो के गद्दे चाहते हैं। प्राइवेट सेक्रेटरी हो, स्टेनोग्राफर हो, हांजी-हांजी करने वाले दस नौकर हाथ बांधे हरदम खड़े रहें, तब साहित्यिक की वकत होती है आजकल। साले पेटभरू, चप्पल चटकाऊ साहित्यिक का भला मूल्य ही क्या रह गया है, भले ही वह तीस नहीं, एक सौ तीस मारखां ही क्यों न हो ! हम पूछते हैं, क्या तुम्हें चाह नहीं होती इस वैभव की ?
’’पत्नी शांत हो गई, गंभीर स्वर में बोलीं, ‘‘जब मुझे चाह थी, तब तो यह कहते थे कि साहित्य का वैभव साहित्यिक होता है.....’’
‘‘वो हमारी भूल थी। सोशलिस्ट विचारों ने हमारा दिमाग खराब कर दिया था।’’
‘‘पर मैं तो समझती हूं कि तुम्हारी वह दिमाग-खराबी ही बहुत अच्छी थी।’’
‘‘तुम कुछ भी समझती रहो, पर हम तो अब पैसे वाले बनकर ही रहेंगे।’’
‘‘बनो, जो चाहो सो बनो, पर कान खोलकर सुन लो, मैं इस काम के लिए एक कानी कौड़ी भी न दूंगी इस रायल्टी की रकम में से।’’ पत्नी अब तेज हो चली थीं।
हमने भी अकड़कर कहा, ‘‘न दो, हम एक नया उपन्यास लिखकर एडवांस रायल्टी ले लेंगे।’’
‘‘जो चाहो सो करो। जब अपनी बनी तकदीर बिगाड़ने पर तुल ही गए हो, तो कोई क्या कर सकता है ! हि:, रूपये की दो अठन्नियां भुनाना तो आता नहीं, बिज़नेस करेंगे ये !’’ पत्नी तैश में आकर बड़बड़ाती हुई बाहर चली गई और बरामदे में खड़ी होकर गरजने लगीं, ‘‘ये बिज़नेस करेंगे ! अरे, चार बरस पहले नरेन्द्र जी का लड़का परितोष आया था। कितना छोटा था तब वह, फिर भी खेल ही खेल में इन्होंने जब उससे कहा कि हम-तुम साझे में पान की दुकान खोल लें, तो वह बोला कि नहीं चाचाजी, आपके साथ साझा करने में घाटा हो जाएगा। सारे पान और भांग तो ये और इनके यार-दोस्त ही गटक जाएंगे। न ये अपनी आदतें छोड़ सकते हैं और न मुहब्बत। बिज़नेस करेंगे मेरा कपाल !’’ कविवर नरेन्द्र जी के बेटे वाली बात ध्यान में आ जाने से गुस्से का चढ़ाव न चाहते हुए भी थमने लगा। यह झूठ नहीं कि ठंडाई और पान के शौक में ऐसे बहुत-से परिचित मित्र हमारी दुकान पर रोज़ आ जाएंगे, जिनसे पैसा वसूल करना हमारे लिए टेढ़ी खीर हो जाएगा। सोचा कि घरैतिन ठीक ही कहती है, इस धंधे में घाटा होने की संभावना ही अधिक है। फिर धीरे-धीरे मन यहां तक मान गया कि हम न तो धंधा करने के योग्य हैं और न कोई नौकरी ही, चाहे वह बढ़िया वाली ही क्यों न हो। अपनी अयोग्यता और अभागेपन पर झुंझलाहट होने लगी।

दूसरे दिन इतवार था। इतवार औरों के लिए छुट्टी और हमारे लिए सिर दर्द का दिन होता है। अभी घड़ी में पूरे-पूरे सात भी न बजे थे कि बेटी ने आकर मोहल्ले के कई व्यक्तियों के पधारने की सूचना दी। हमने सोचा कि शायद मध्यवधि चुनाव के सिलसिले में किसी उम्मीदवार के नाम का प्रस्ताव लेकर आए होंगे। इस विचार ने मन को स्फूर्ति दी। सोचा, इस बार हम क्यों न खड़े हो जाएं। पान की दुकान न सही, नेतागिरी सही, इन दोनों ही पेशों की आमदानी सदा इनकमटैक्स विभाग वालों की पकड़ से बाहर ही रहती है। इस विचार से एक बार फिर आस्था रूपी जीवनमूल्य की उपलब्धि हुई। तब तक हाथ में अपना हुक्का उठाए हुए बड़े बाबू, लल्लों बाबू, पत्तो बाबू, सत्तो बाबू, सुनत्तो बाबू वगैरह-वगैरह ढब-बेढब नामों के चार-पांच शिष्ट जन पधारे। बड़े बाबू आते ही बोले, ‘‘पंडित जी, गली वाली नाली देखी आज आपने ? गंगा-गोमतियां फ्लडियाया करती थीं, अब साली नाली में फ्लड आता है। ये ज़माना है, ये गवरमेंट है साली!’’‘‘आज पूरी गोबरमिंट है साहब, राज की गोबरनर का है। हम तो कहते हैं कि इस बार मध्यावधि चुनाव में इसे पूरी तरह बदल डालिए’’ अपनी भावी वोटर भगवान को जोश दिलाने की कामना से हमने ज़रा नेता मार्का नाटकीय अंदाज साधा।

‘‘कहते तो आप ठीक ही हैं पंडित जी, मगर मध्यवधि चुनाव के अभी चार-पांच महीने पड़े हैं, आप तत्काल की बात सोचिए। कार्पोरेशन में किसी बड़े अफसर को फोन-वोन करके ये गंदगी ठीक करवाइए जल्दी से, अंदर से मैनहोल उभर रहा है। बड़ी बदबू फैल रही हैं बाहर।’’खैर, किस्सा कोताह यह कि मेयर, डिप्टी मेयर, हेल्थ अफसर आदि और उस सफलता के तुफैल में हमने भावी चुनाव में खड़े होने का इशारा भी फेंक दिया। चार दिन में धूम मच गई कि हम खड़े हो रहे हैं। पत्नी फिर सामने आई, ‘‘इलेक्शन लड़ोगे?’’‘‘हां, अब मिनिस्टर बनने का इरादा है।’’‘‘पैसा कौन देगा ?’’
हमने कहा, ‘‘बुद्धिजीवी जब अपना ईमान बेचता है, तो पैसों की कमी नहीं रहती।’’
तभी लड़के आए, उन्होंने पूछा, ‘‘आप किस पार्टी से इलेक्शन लड़ेंगे ?’’
हम बोले, ‘‘इस समय तो हमारी गुडविल ऐसी जबरदस्त है कि सभी पार्टियां हमें टिकट देना चाहती हैं।’’
बड़ा बोला, ‘‘मगर इस समय तो इन सब पार्टियों की साख गिरी हुई है। इनमें से एक भी पूरी तरह सफलता नहीं पाएगी।’’
‘‘हमने कहा, ‘‘सही कहते हो। हम बुद्धिमत्ता से काम लेकर अपनी पार्टी बनाएंगे।’’
‘‘आपका मेनिफेस्टो क्या होगा ?’’

हम गौर करने लगे। अपना स्वार्थ साधने के लिए ऐसा मेनिफेस्टो बनाना चाहिए, जो औरों से अलग लगे और साथ ही पैसा मिलने के साधन भी जुट जाएं।
हमने कहा, ‘‘देखो, इनमें से कोई भी पार्टी इस बार बहुमत नहीं पाएगी। क्योंकि जनता सबमें अपना विश्वास खो बैठी है। और यहां के सेठ हमें पैसा ही नहीं देंगे, क्योंकि इनमें से कुछ कांग्रेस के साथ हैं और कुछ जनसंघ के। इसलिए हमारा पहला नारा यह होगा कि भारत के जिन-जिन प्रदेशों में इस समय मध्यावधि चुनाव हो रहा है, उनमें स्थायी शांति और सुशासन लाने के लिए दस बरसों तक पाकिस्तान, अमरीका और ब्रिटेन का सम्मिलित राज होना चाहिए। इससे हिन्दू-मुस्लिम एकता और स्थायी शांति बढ़ेगी तथा इन तीनों की तरफ से मुख्यमंत्रित्व का भार हम संभालेंगे। इस त्रिदेशीय फार्मूले से हिन्दुस्तान और पाकिस्तान के सारे मसले हल हो जाएंगे। इस तरह देश की पूर्वी और पश्चिम सीमाओं पर नि:शस्त्रीकरण की नीति को अमल में लाने के लिए एक रास्ता खुल जाएगा।’’
‘‘ठीक। और क्या होगा आपके मेनिफेस्टो में?’’
विचारों की रोशनी से हमारी आंखें सहसा चौंधिया उठीं। हमने फौरन अपना धूप का चश्मा चढ़ा लिया और गंभीर पैगंबरी स्वर में कहा, ‘‘हम अपरिवर्तनवाद का सिद्धान्त चलाएंगे- हिन्दू हिन्दू रहे और मुसलमान मुसलमान। इन्हें एक भारतीय समाज हरगिज़ न बनने देना चाहिए, हम एक और अखंड भारत के खिलाफ हैं।’’
‘‘और भाषा ?’’
‘‘भाषा का भूमि और संस्कृति से कोई संबंध नहीं। पाकिस्तान, अमरीका और ब्रिटेन में से जो हमारे इलेक्शन का खर्च उठाने को राजी हो जाएगा, उसकी भाषा का समर्थन करेंगे। वैसे अपनी जनता की सुविधा के लिए हम अंग्रेजी को भारत की राष्ट्रभाषा...........’’
‘‘क्या कहा ? अंग्रेजी को राष्ट्रभाषा बनाओगे ! अपने स्वार्थ के लिए हर झूठ को सच बनाओगे ?’’
पत्नी के तेहे पर हमने अपनी बौद्धिक मार्का हंसी का गुल खिलाया और कहा, ‘‘अरी पगली, नेता और वकीलों की सफलता ही इस बात पर निर्भर करती है।’’
‘‘झाड़ू पड़े तुम्हारी नेतागिरि पर। मैं आज से ही तुम्हारा खुला विरोध करूँगी।’’
‘‘अरे, पूरी बात तो सुन लो ! देश में इस वक्त अन्न की कमी है......’’ हम बोले, तो पत्नी ने बात बीच में काट दी, तुम्हें कौन खाने पीने की तकलीफ है...जो......’’
हमसे आगे सुना नहीं गया। हमने अपना तेहा दिखाया, ‘‘ज्यादा बकबक मत करो.........ज्यादा बात करने से भूख भी ज्यादा लगती है......जब तक भारत में औरतों के मुंह पर पट्टी नहीं बांध दी जाएगी, तब तक अन्न-समस्या हल होने वाली नहीं है।
अन्न मंगवाने के लिए हमने तय किया है कि एक टन गेहूं के बदले में हम एक नेता उस देश को सप्लाई करेंगे, जो हमें अन्न देगें।’’

पत्नी मुंह बाये सुन रही थीं। मौका देखकर हमने और खुलासा किया, ‘‘हमारी पार्टी भ्रष्टाचार को शिष्टाचार के रूप में मंजूर करती है, बगैर तकल्लुफ के कहीं राज चलते हैं ? घूसखोरी का तकल्लुफ हमारे राज में बराबर जाएगा ! रोजी-रोटी मांगने वालों की खाल खिंचवाकर बाटा वालों को सप्लाई की जाएगी, ताकि रूस से आने वाली जूतों की मांग पूरी की जा सके।

‘‘गीता का यह श्लोक हमारा सिद्धान्त वाक्य होगा और नारा भी.....’’
‘‘स्वधर्मे निधनं श्रेय: परमधर्मो भयावह:’’
‘‘दकियानूसियों ने इस श्लोक की रेढ़ मारके रख दी है। हम इसका सीधा, सरल और सही अर्थ अपनी धर्मप्राण जनता को समझाएंगे।’’
‘‘क्या?’’ पत्नी ने बिफर के पूछा।
‘‘अरे भई, सीधी-सी बात है। हर आदमी का अपना-अपना धर्म है। चोर का धर्म चोरी करना, डकैत का डाका डालना, बेईमान का बेईमानी करना, इसी तरह गरीब का धर्म है गरीबी और अमीर का अमीरी। गरीब को अमीर का धर्म अपनाने की छूट नहीं दी जाएंगी और न अमीर को गरीब का धर्म अपनाने की। हम इस धर्म-परिवर्तन के सख्त खिलाफ हैं।

इस धर्मवादिता से जनसंघ के समर्थक भी हमारी पार्टी में आ सकते हैं.....’’
पत्नी हमारे विरुद्ध प्रचार करने लगी हैं। हमारा चुनाव का सपना डांवाडोल हो रहा है और जनता के क्रोध से बचने के लिए हम इस समय बंबई भाग आए हैं। क्रोध के बराबर यहीं बात मन में फूटती है कि सत्यानाश हो इस जनता का, जो हमें नेता नहीं मानती।
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