12 सितंबर, 2010

आपका एटिट्युड क्या है?

एक बार की बात है एक जगह मंदिर बन रहा था और एक राहगीर वहां से गुजर रहा था।

उसने वहां पत्थर तोड़ते हुए एक मजदूर से पूछा कि तुम क्या कर रहे हो और उस पत्थर तोड़ते हुए आदमी ने गुस्से में आकर कहा देखते नहीं पत्थर तोड़ रहा हूं आंखें हैं कि नहीं?

वह आदमी आगे गया उसने दूसरे मजदूर से पूछा कि मेरे दोस्त क्या कर रहे हो? उस आदमी ने उदासी से छैनी हथोड़ी से पत्थर तोड़ते हुए कहा रोटी कमा रहा हूं बच्चों के लिए बेटे के लिए पत्नी के लिए । उसने फिर अपने पत्थर तोडऩे शुरु कर दिए ।

अब वह आदमी थोड़ा आगे गया तो देखा कि मंदिर के पास काम करता हुआ एक मजदूर काम करता हुआ गुनगुना रहा था। उस आदमी ने उससे पूछा कि क्या कर रहे हो? उसने फिर पत्थर तोड़ते उस मजदूर से पूछा क्या कर रहे हो मित्र। उस आदमी ने कहा भगवान का मंदिर बना रहा हूं । और इतना कहकर उसने फिर गाना शुरु कर दिया ।

ये तीनों आदमी एक ही काम कर रहे हैं पत्थर तोडऩे का पर तीनों का अपने काम के प्रति दृष्टीकोण अलग -अलग है। तीसरा मजदूर अपने काम का उत्सव मना रहा है।

तीनों एक ही काम कर रहें हैं लेकिन तीसरा मजदूर अपने काम को पूजा की तरह कर रहा है इसीलिए खुश है।

जिन्दगी में कम ही लोग हैं जो अपने काम से प्यार करते हैं और जो करते हैं वे ही असली आनन्द के साथ सफलता को प्राप्त करते हैं। दूनिया में हर आदमी सुखी बन सकता है अगर वो अपना काम समर्पण के साथ करता है।

हम जो कर रहे हैं, उसके प्रति हमारा एटिटयुड क्या है, वह सवाल है। और जब इस एटिटयुड का इस भाव का परिवर्तन होता है, तो हमारी सारी गतिविधि बदल जाती है।

आचार्य विनोबा भावे की अहिंसा नीति

आचार्य विनोबा भावे अपने ज्ञान और सद्विचारों के कारण अत्यंत प्रिय थे। लोग उनसे उपदेश ग्रहण करने आते और प्राप्त ज्ञान को अपने व्यवहार में ढालकर बेहतर इंसान बनने का प्रयास करते। हर विषय पर उनके विचार इतने स्पष्ट और सरल होत कि सुनने वाले के हृदय में सीधे उत्तर जाते। उनके शिष्यों में न केवल भारतीय बल्कि विदेशी भी शामिल थे।

एक बार आचार्य विनोबा पदयात्रा करते हुए अजमेर पहुंचे। वहां भी उनके काफी शिष्य मौजूद थे। उन्होंने पहले अपना आवश्यक कार्य पूरा किया और फिर सभी से मिले। वहां उनके कुछ विदेशी शिष्य भी बैठे थे। उन्हीं में एक अमेरिकी शिष्य भी था। वह विनोबाजी से बोला- आचार्य जी, मैं अमेरिका वापस जा रहा हूं। अपने देशवासियों को आपकी ओर से क्या संदेश दूं।

विनोबाजी कुछ क्षण के लिए गंभीर हो गए और फिर बोले मैं क्या संदेश दूं? मैं तो बहुत छोटा आदमी हूं और आपका देश बहुत बड़ा हैं।

जब अमेरिकी ने काफी जिद की तो वे बोले- अपने देशवासियों से कहना कि वे अपने कारखानों में साल में तीन सौ पैसठ दिन काम कर खूब हथियार बनाएं क्योंकि तुम्हारे आयुध कारखानों और आदमियों को काम चाहिए। काम नहीं होगा, तो बेरोजगारी फैलेगी। किंतु जितने भी हथियार बनाएं, उन्हें तीन सौ पैसठवें दिन समुद्र में फेंक दें।
विनोबाजी की बात का मर्म समझकर अमेरिकी का सिर शर्म से झुक गया। क्योंकि अमेरिका की हिंसक नीति सर्वविदित है।

विनोबाजी का यह संदेश आज के युग में और महत्वपूर्ण हो गया है। जबकि चारो ओर हिंसा व्याप्त है। हिंसा दरअसल हिंसा को ही जन्म देती है। हिंसा को अहिंसा से ही दबाया जा सकता है। यदि मन में संकल्प कर लें, तो हिंसा अंतत: अहिंसा से पराजित हो जाती है।

पितृभक्ति

हारूं रशीद बगदाद का बहुत नामचीन बादशाह था। एक बार किसी कारण से वह अपने वजीर पर नाराज हो गया। उसने वजीर और उसके लड़के फजल को जेल में डलवा दिया।

वजीर को ऐसी बीमारी थी कि ठंडा पानी उसे हानि पहुंचाता था। उसे सुबह हाथ-मुंह धोने को गर्म पानी आवश्यक था। किंतु जेल में गर्म पानी कौन लाए? वहां तो कैदियों को ठंडा पानी ही दिया जाता था।

फजल रोज शाम लौटे में पानी भरकर लालटेन के ऊपर रख दिया करता था। रातभर लालटेन की गर्मी से पानी गर्म हो जाता था। उसी से उसके पिता सुबह हाथ-मुंह धोते थे। उस जेल का जेलर बड़ा निर्दयी था। जब उसे ज्ञात हुआ कि फजल अपने पिता के लिए लालटेन पर पानी गर्म करता है, तो उसने लालटेन वहां से हटवा दी।

फजल के पिता को ठंडा पानी मिलने लगा। इससे उनकी बीमारी बढऩे लगी। फजल से पिता का कष्ट नहीं देखा गया। उसने एक उपाय किया। शाम को वह लौटे में पानी भरकर अपने पेट से लोटा लगा लेता था। रात भर उसके शरीर की गर्मी से लौटे का पानी थोड़ा बहुत गर्म हो जाता था। उसी पानी से वह सुबह अपने पिता का हाथ-मुंह धुलाता था। किंतु रातभर पानी भरा लोटा पेट पर लगाए रहने के कारण फजल सो नहीं सकता था। क्योंकि नींद आने पर लोटा गिर जाने का भय था। कई राते उसने बिना सोये ही गुजार दी। इससे वह अति दुर्बल हो गया। किंतु पितृभक्त फजल ने उफ तक नहीं की।

जब जेलर को फजल की इस पितृभक्ति का पता चला तो उसका निर्दयी हृदय भी दया से पिघल गया और उसने फजल के पिता के गर्म पानी का प्रबंध करा दिया। पिता के लिए फजल की यह त्याग भावना सिखाती है कि अपने जनक के प्रति हमारे मन में वैसा ही समर्पण होना चाहिए। जैसा उनका हमारे लिए होता है। पितृ ऋण चुकाने का यही सही तरीका है।

जीवन नहीं बदल सकते

अपना जीवन न तो किसी को दिया जा सकता है और ना ही किसी से उसका जीवन उधार लिया जा सकता है। जिन्दगी में प्रेम का, खुशी, का सफलता या असफलता का निर्माण आपको ही करना होता है इसे किसी और से नहीं पाया जा सकता है।

बात दूसरे महायुद्ध के समय की है। इस युद्ध में मरणान्नसन सैनिकों से भरी हुई उस खाई में दो दोस्तों के बीच की यह अद्भुत बातचीत हुई थी। जिनमें से एक बिल्कुल मौत के दरवाजे पर खड़ा है। वह जानता है कि वह मरने वाला है और उसकी मौत कभी भी हो सकती है। इस स्थिति में वह अपने पास ही पड़े घायल दोस्त से बोलता है। दोस्त में जानता हूं तुम्हारा जीवन अच्छा नहीं रहा। बहुत अपराध तुम्हारे नाम है। तुमने अपने जीवन में कई अक्षम्य भूलें की हैं। उनकी काली छाया हमेशा तुम्हें घेरे रही। उसके कारण बहुत दुख और अपमान तुमने सहे हैं। तुमने जो किया वो सब जानते हैं। लेकिन मेरे विरोध में अधिकारियों के बीच कुछ भी नहीं है। तुम एक काम करो तुम मेरा नाम ले लो मेरा सैनिक नंबर भी और मेरा जीवन भी और मैं तुम्हारा जीवन ले लेता हूं। मैं तो मर रहा हंू। मैं तुम्हारे अपराधों और कालीमाओं को अपने साथ ले जाता हूं। ऐसा कहते हुए वह मर जाता है।

प्रेम से ये उसके कहे गए शब्द कितने प्यारे हैं। काश ऐसा हो सकता, नाम और जीवन बदला जा सकता लेकिन ये असंभव है। जीवन कोई किसी से नहीं बदल सकता न तो कोई किसी के स्थान पर जी सकता है। ना किसी की जगह मरा जा सकता है। जीवन ऐसा ही है आप चाह कर भी किसी के पाप पुण्य नहीं ले सकते और ना ही दे सकते हैं। जीवन कोई वस्तु नहीं जिसे किसी से ये बदला जा सके। उसे तो स्वयं से और स्वयं ही निर्मित करना है।

संत दादू के पद

पूजे पाहन पानी

दादू दुनिया दीवानी, पूजे पाहन पानी।
गढ़ मूरत मंदिर में थापी, निव निव करत सलामी।
चन्दन फूल अछत सिव ऊपर बकरा भेट भवानी।
छप्पन भोग लगे ठाकुर को पावत चेतन न प्रानी।
धाय-धाय तीरथ को ध्यावे, साध संग नहिं मानी।
ताते पड़े करम बस फन्दे भरमें चारों खानी।
बिन सत्संग सार नहिं पावै फिर-फिर भरम भुलानी।


रूप रंग से न्यारा

दादू देखा मैं प्यारा, अगम जो पंथ निहारा।
अष्ट कँवल दल सुरत सबद में, रूप रंग से न्यारा।
पिण्ड ब्रह्माण्ड और वेद कितेवे, पाँच तत्त के पारा।
सत्त लोक जहँ पुरु बिदेही वह साहिब करतारा।
आदि जोत और काल निरंजन, इनका कहाँ न पसारा।
राम रहीम रब्ब नहीं आतम, मोहम्मद नहीं औतारा।
सब संतन के चरन सीस धर चीन्हा सार असारा।

संतोष का पुरस्कार

आसफउद्दौला नेक बादशाह था। जो भी उसके सामने हाथ फैलाता, वह उसकी झोली भर देता था।

एक दिन उसने एक फकीर को गाते सुना- जिसको न दे मौला उसे दे आसफउद्दौला। बादशाह खुश हुआ। उसने फकीर को बुलाकर एक बड़ा तरबूज दिया। फकीर ने तरबूज ले लिया, मगर वह दुखी था। उसने सोचा- तरबूज तो कहीं भी मिल जाएगा। बादशाह को कुछ मूल्यवान चीज देनी चाहिए थी।

थोड़ी देर बाद एक और फकीर गाता हुआ बादशाह के पास से गुजरा। उसके बोल थे- मौला दिलवाए तो मिल जाए, मौला दिलवाए तो मिल जाए। आसफउद्दौला को अच्छा नहीं लगा। उसने फकीर को बेमन से दो आने दिए। फकीर ने दो आने लिए और झूमता हुआ चल दिया। दोनों फकीरों की रास्ते में भेंट हुई। उन्होंने एक दूसरे से पूछा, 'बादशाह ने क्या दिया?' पहले ने निराश स्वर में कहा,' सिर्फ यह तरबूज मिला है।' दूसरे ने खुश होकर बताया,' मुझे दो आने मिले हैं।' 'तुम ही फायदे में रहे भाई', पहले फकीर ने कहा। दूसरा फकीर बोला, 'जो मौला ने दिया ठीक है।' पहले फकीर ने वह तरबूज दूसरे फकीर को दो आने में बेच दिया।

दूसरा फकीर तरबूज लेकर बहुत खुश हुआ। वह खुशी-खुशी अपने ठिकाने पहुंचा। उसने तरबूज काटा तो उसकी आंखें फटी रह गईं। उसमें हीरे जवाहरात भरे थे।

कुछ दिन बाद पहला फकीर फिर आसफउद्दौला से खैरात मांगने गया। बादशाह ने फकीर को पहचान लिया। वह बोला, 'तुम अब भी मांगते हो? उस दिन तरबूज दिया था वह कैसा निकला?' फकीर ने कहा, 'मैंने उसे दो आने में बेच दिया था।' बादशाह ने कहा, 'भले आदमी उसमें मैंने तुम्हारे लिए हीरे जवाहरात भरे थे, पर तुमने उसे बेच दिया। तुम्हारी सबसे बड़ी कमजोरी यही है कि तुम्हारे पास संतोष नहीं है। अगर तुमने संतोष करना सीखा होता तो तुम्हें वह सब कुछ मिल जाता जो तुमने सोचा भी नहीं था। लेकिन तुम्हें तरबूज से संतोष नहीं हुआ। तुम और की उम्मीद करने लगे। जबकि तुम्हारे बाद आने वाले फकीर को संतोष करने का पुरस्कार मिला।'
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