16 दिसंबर, 2010

भारतीय होने का ज़ज़्बा - डॉ. पुष्पेंद्र दुबे

ब लोगों के पास कुछ काम नहीं रह जाता तब उनमें अचानक देशभक्ति का ज़ज़्बा पैदा हो जाता है। अधिकतर यह ज़ज़्बा सेवानिवृत्ति की उम्र के बाद ही जाग्रत होता है। आदमियों की गिनती शुरू होते ही भारतीय होने का ज़ज़्बा पैदा हो गया। ख़ुद में तो जागा ही दूसरों में जगाने के लिए भी बुझी मशाल लेकर निकल पड़े।

लोगों को अपने भाषणों से यह याद दिलाने की तुम भारतीय पहले हो, भले ही तुम्हारी जाति कोई भी क्यों न हो। आदमियों की गिनती में जाति लिखाना गुनाह है। यह अभारतीय होने के बराबर। ऐसी बात कहने वालों ने इस देश के लोगों से क्या-क्या नहीं छीना। रोटी छीनी, कपड़ा छीना, झोपड़ा छीना, धरती छीनी, आसमान छीना, उद्योग छीने। अब वे उनकी पहचान भी छीन लेना चाहते हैं।

आज़ादी के बाद से उसने भारतीय बनने की बहुत कोशिश की, परंतु पार्टीवालों ने उसे बनने ही नहीं दिया। वह दलों के दलदल में धँसा कभी इसे अपना तारणहार समझता रहा, कभी उसे। सभी अपने फ़ायदे के लिए उसकी उँगलियों के निशान लेते रहे। अब उसी से कह रहे हैं तुम भारतीय हो। समाजशास्त्री बरसों से कहते आ रहे हैं भारत जातियों का अजायबघर है। जब अजायबघर में सभी की गिनती अलग-अलग हो सकती है तो जातियों की गिनती अलग-अलग क्यों नहीं हो सकती।

एक बार तो यह पता चल ही जाना चाहिए कि आख़िर इस देश के अजायबघर में कितनी जातियाँ हैं। वैसे यह ठेका तो अभी तक इस देश के सभी राजनीतिक दलों के पास है, जो बच्चे के पैदा होते ही उसमें अपने वोटबैंक की संभावनाएँ तलाश करने लगते हैं। वे ढूँढ-ढूँढ कर जाति वाले उम्मीदवार को टिकट देने के लिए स्वतंत्र हैं। जातिवाले के जीतने की संभावना भरपूर रहती है। तब पता नहीं भारतीयता का झंडा कहाँ गुम हो जाता है। यदि जाति के आधार से गिनती कर लेंगे तो देश खण्डित हो जाएगा और ख़ुद जाति के आधार से चुनाव लड़ेगे और लड़वाएँगे तो देश का लोकतंत्र परिपक्व कहलाएगा। वाह रे भारतीयता! इनकी भारतीयता तो इतनी कच्ची है कि चुनाव के एक झटके में यह तार-तार हो जाती है। पार्टी के आदेश से बंधे हुए गुलाम ही ज़ोर-ज़ोर से भारतीय होने की पुकार मचा रहे हैं। जिनके सामने जब भी निर्णय करने का प्रश्न आता है, वे पार्टी मुख्यालय की ओर टकटकी लगाए बैठ जाते हैं। उनके हरेक निर्णय में पार्टी पहले है, देश बाद में है। पार्टी का भला होगा, तो देश का हो ही जाएगा। जिन्हें हिंदुत्व संकट में लगता है, वही जाति की गिनती होने से डर रहे हैं। जाति के आधार से आरक्षण तो स्वीकार है, परंतु गिनती नहीं। गुड़ खाएँ और गुलगुले से परहेज़ करें। कोई भूखे पेट रहकर अपने में राष्ट्र के प्रति स्वाभिमान कैसे जाग्रत कर सकता है ? कोई मंच बनाने से स्वाभिमान जाग्रत हो जाता तो इस देश से भ्रष्टाचार, आतंकवाद, नक्सलवाद कब का समाप्त हो चुका होता।

कहा तो जाता है कि ‘जात न पूछे साधु की पूछ लीजिए ज्ञान’, लेकिन पिछले बासठ साल से इस देश की हवा में यही प्रश्न तैर रहा है कौन जात हो ? इसका उत्तर तो अजायबघर में जातियों की गिनती से ही मिल सकता है। आखिर हम कोई ऐसा काम भी तो करें, जो अँगरेज़ों ने इस देश में रहकर नहीं किया हो।


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