04 अप्रैल, 2010

बाबूजी का घर

बाबूजी छड़ी को सहारा देते रहे या छड़ी बाबूजी को, यह भी अनसुलझी पहेली बनी रही। बरसों-बरस बाबूजी के सिर का तेल पीकर दीवार पर जो आकृति बनी थी, वह बाबूजी की अनुपस्थिति में भी खौफ और अनुशासन को ज़िंदा रखने की ताकत रखा करती और बाबूजी की छड़ी ? छड़ी की ठक-ठक की आहट मात्र ही घर के हर सदस्य को चौकन्ना कर अपनी-अपनी मर्यादाओं में बांध सकने की शक्ति रखती थी।

लगभग पचास-पचपन साल पहले बना ‘पांडे सदन’ टूट रहा था। फिर बनने के लिए हेमंत की आंखों में मिले-जुले भाव तैर रहे थे। पिता की इस निशानी को खत्म कर फिर संवारने का यह ख्याल उसे अपराधबोध से ग्रसित कर रहा था। एक पल वह स्वयं को समझाइश देता कि उसका फैसला सही है, वह कुछ गलत नहीं कर रहा पर विचारों से मुक्ति कहां..। अगले ही क्षण बाबूजी की ज़िद से जुड़ी वे सारी बातें उसके ज़ेहन में घूम जातीं, जिसके कारण पिछले दस-बारह वर्षो से परिवार के हर सदस्य की इच्छा के बावजूद बड़ी-बड़ी इमारतों के बीच जर्जर-सा हो चला बूढ़ा मकान अपनी जवानी फिर पाने के लिए बेताब रहा।

बूढ़े मकान का नसीब बदले, आखिर बाबूजी को यह गवारा क्यों नहीं था? बाबूजी के पुराने दिन तो नहीं लौट सकते थे पर घर की रौनक तो लौटाई जा सकती थी। इस सच को बाबूजी क्यों नहीं समझ सके? मरते दम तक अपनी पैनी नाक को जिस शख्स ने सम्भाल रखा हो, अपनी हां और अपनी न के आगे जिसने किसी की न चलने दी हो, उसे दुनियादारी की किसी भी नई परिपाटी से जोड़ पाना, हेमंत की सबसे बड़ी शिकस्त रही।

लम्बे-चौड़े, पचासी की उम्र में भी चेहरे पर ग़जब का आकर्षण, चिकनी चमकदार गुलाबी त्वचा के मालिक श्री सर्वेश्वरदयाल पांडे की दौलत और यूं समझिए पूरी दुनिया ही थी ‘पांडे सदन’, जिसके लिए वे ताउम्र बेहद पज़ेसिव रहे। हकीकत भी यही थी कि घर की हर ईंट पर उनकी जी-तोड़ मेहनत और उसकी कमाई का हिसाब लिखा था, पर उनके भीतर यह अहसास इतना गहरा गया था कि उनके अपने ही लोगों को इस अहसास में अभिमान की बू महसूस होने लगी थी।

घर की व्यवस्थाओं में की गई छोटी-सी भी तदीली बाबूजी के बर्दाश्त के बाहर हो जायाकरती। ‘यह घर मेरा है!’ जब वे यदा-कदा इस जुमले का इस्तेमाल करते, तो लगता सचमुच यह घर ईंट-गारे का बना मकान नहीं, बल्कि उनके अतिरिक्त लाड़-प्यार में पल रही उनकी बिगड़ी औलाद है। हुआ भी कुछ ऐसा ही था। इस घर ने शुभ अवसरों की रौनक दिखाई थी, पर गम के साए से यह घर कोसों दूर रहा।

इस घर की यह खुशकिस्मती रही कि बाबूजी की दो बेटियों बड़ी वर्षा, छोटी मेघा और बेटे हेमंत के विवाह के मंगल अवसरों के अलावा बाबूजी के नाती-पोतों की दूसरी पीढ़ी की दुनिया भी इस घर ने खूब संवारी थी। अम्मा की मौत भी एक हादसा थी। अपने मायके उरई के प्रवास के दौरान अचानक अम्मा चल बसीं। मीलों दूर का यह गम ‘पांडे सदन’ तक आंसुओं के सूख जाने के बाद ही पहुंचा। समय के साथ सब कुछ बदला पर यदि नहीं बदला, तो बाबूजी का स्वभाव और घर का हुलिया।

अभी चार साल पहले की ही बात है। हेमंत की बेटी के ब्याह का मौका था। हेमन्त ने घर की रौनक बढ़ाने के लिए क्या-क्या उपाय नहीं सोचे थे पर बाबूजी के अड़ियल रुख के सामने वह ढेर होता चला गया था। बहुत ज्यादा बहस की गुंजाइश तो बाप-बेटे के इस रिश्ते में यूं भी कभी नहीं थी, पर पत्नी और बच्चों के कहने पर हेमंत ने बाबूजी के सामने बड़े संयम के साथ यह प्रस्ताव रखा, ‘बाबूजी! आप यदि आज्ञा दें, तो घर में एक कमरा बनवाया जा सकता है।

ऊपर की दुछतरी पर एक हॉल आराम से निकल आएगा, नीचे के गुसलखाने के ऊपर एक और गुसलखाना बन सकता है, मेहमानों को रुकवाने में सहूलियत हो जाएगी।’ बाबूजी को इस दलील में कोई सार नजर नहीं आया। बड़े ही अनमने और बे-रुखे ढंग से उन्होंने जवाब दिया-‘मेहमान तो चार दिन के लिए ही आएंगे न! उसके लिए ये ताम-झाम क्यों?’ हेमंत ने हिम्मत हारे बगैर एक और तर्क रखा-‘पर बाबूजी, दो-चार साल बाद अर्पित का ब्याह भी तो होगा और उसकी गृहस्थी बसेगी भी और बढ़ेगी भी।’

‘तो उसके लिए सारी जमा-पूंजी खर्च कर दी जाए? लोग दो कमरों के मकान में सारा कुनबा चला लेते हैं, आप लोगों को यह हवेली भी छोटी पड़ रही है।’

हेमंत बखूबी जानता था कि बाबूजी की नाराज़गी के संकेत क्या होते हैं। अक्सर ऐसे मौकों पर तुम की जगह आप के आदर से घोर निरादर का इशारा वे बड़ी आसानी से दे दिया करते हैं। ऐसे मौकों पर हेमंत अपनी शिकस्त हमेशा ही मान लिया करता है पर, आज वह कुछ और भी कह लेना चाहता है कि आखिर उसकी खुद की उम्र भी तो पचास की हो चली है। इस बात का लिहाज़ भी तो होना चाहिए। इसे बाबूजी समझें, हमेशा की तरह उसकी बातों को नज़रअंदाज़ न कर दें।

यह ध्यान में रखते हुए उसने फिर कहा- ‘बाबूजी, घर में दालान ज्यादा हैं, कमरे कम। थोड़े से हेर-फेर से घर का नशा नहीं बदल जाएगा।’ गंभीर स्वर में बाबूजी ने बात-बीच में ही काटी-‘पर मैं नक्शा नहीं बदलना चाहता।’ खीझते हुए हेमंत ने एक आखिरी तर्क दिया-‘बाबूजी, ऑफिस का हर शख्स लोन लेकर मकान बना चुका है। मैं तो एक हॉल बनवाने की बात कर रहा हूं। इन्कम टैक्स में रियायत मिल जाएगी। पचास की उम्र में लोन नहीं लिया, तो फिर कब ले पाऊंगा?’

पर भला बाबूजी इस बात से सहमत कैसे होते? उन्होंने बात खत्म करने के अंदाज़ में टका-सा जवाब दे दिया- ‘लोन लेना क्या फैशन में है? तुम लोन लिए बगैर या नाकाबिल और अधूरे साबित हो जाओगे? मुझे ये सब बातें कतई पसंद नहीं। तुम कुछ खर्च करना ही चाहते हो, तुम्हारी जेब यदि कुलबलाहट ही रही है और तुम्हारी नज़र में पैसों की कीमत नहीं है, तो ज्यादा से ज्यादा घर का रंग-रोगन करवा लो, उसी में घर चमक जाएगा।’ ले-देकर रंग-रोगन के लिए बाबूजी तैयार हुए थे, वह भी इस शर्त पर कि इस मकान में लगने वाले रुपए उनके बैंक अकाउंट से ही निकाले जाएं।

बाबूजी के इस फाइनल वर्डिक्ट को हेमंत समझ चुका था। वह चुपचाप वहां से उठा और चला गया। परदे के पीछे खड़ी पत्नी सुनंदा से नज़रें चार करने की भी हिम्मत उसमें नहीं थी। पहले तो तिलमिलाहट में उसने यह सोचा कि बेहतर यही है कि घर जैसा है, उसे वैसा ही पड़ा रहने दिया जाए पर, अपने बेबस हालात के मद्देनÊार उसने यह तय किया कि इससे पहले कि बाबूजी अपने इस फैसले पर पुनर्विचार करने लगें, बेहतर होगा कि रंग-रोगन का इंतज़ाम कर लिया जाए।

अगले ही दिन से रंग-रोगन का काम बाबूजी के सूक्ष्म निरीक्षण और ढेरों हस्तक्षेपों के बीच जैसे-तैसे शुरू हो पाया। शायद इस घर का यह आखिरी रंग-रोगन था। निकिता का याह हुआ। झिलमिल रोशनी में नहाए हुए अपने घर को निहारते हुए बाबूजी की आंखों में जो चमक थी, वह हेमंत की आंखों में अब तक कैद है। घर को लेकर बाबूजी का अतिरिक्त मोह हेमंत की समझ से परे था। पर ऐसा भी नहीं था कि हेमंत ने इस बारे में कभी निष्पक्ष होकर सोचा न हो।

यह हेमंत की खुशकिस्मती थी कि उसे अपने इस पैतृक निवास में मिली पनाह ने घर बनाने के दर्द से उसे कोसों दूर रखा था। इस छत्रछाया से दूर किसी बसेरे की कल्पना भी उसने कभी नहीं की थी, यही सब सोचकर वह बाबूजी के स्वभाव की इस कमी को नज़रअंदाज़ करता रहा। पर हद तो यह थी कि बाबूजी अपनी दिनचर्या के साथ भी कभी समझौता पसंद नहीं करते। घर की बैठक में टीवी के सामने रखा बड़ा लकड़ी का काउच उनके लिए आरक्षित था। कोच के बगल में रखी टेबल, उस पर न जाने किस Êामाने का बड़ा मरफी रेडियो, कुछ किताबें, कुछ कागज़ात, कुछ गैर जरूरी चीजों, कभी न चलने वाले पेन आदि-आदि उनकी आरक्षित स्थान की अति महत्वपूर्ण निधि घोषित किए जा चुके थे।

अलसुबह चार बजे तारों के साथ बाबूजी की पहली चाय होती पर सुनंदा को यह बात सदा याद रही कि चाहे अम्मा के जीते जी की बात हो या अम्मा के जाने के बाद का वक्त, बाबूजी ने इस पहली चाय में न ही अम्मा को और न किसी और को शामिल होने के लिए बाध्य किया। यह सालों साल का एक उपक्रम ही था कि रोज रात को रसोई की सफाई के बाद दूधदानी, शक्करदानी, कप और छोटी छलनी के साथ चाय की ट्रे सजा दी जाती।

सुबह बाबूजी पानी गरम कर अपनी चाय खुद तैयार करते। यह अलग बात है कि पहले रेडियो, फिर टीवी के समाचारों की तेज़ आवाज से ही घर के हर सदस्य की नींद टूटती। बाबूजी घूमकर लौटते और फिर जम जाते काउच पर, कम से कम दो से तीन अखबारों के साथ एक-एक अखबार जब बाबूजी की नज़रों से होकर गुजर जाता, तब कहीं वह परिवार के दूसरे सदस्यों के हाथों और आंखों को नसीब होता। ‘बहू तरकारी है या लानी है’, दिन के दूसरे प्रहर की दिनचर्या यहां से शुरू होती।

रामायण की चौपाइयों की आवाजों पूरे मोहल्ले को खबर दे देतीं कि बाबूजी अब नहाकर पूजा कर रहे हैं। ठण्ड हो या गरमी, आज तक ऐसा कोई दिन नहीं गया जब जल्दबाज़ी में ही सही, बाबूजी ने मालिश किए बगैर स्नान किया हो। स्नान के बाद भी ढेर-सा तेल वे सिर में डालते। सिर पर फुर्ती से दौड़ते उनके हाथों की गति के साथ ही चौपाइयों के स्वर भी कभी ऊपर, तो कभी नीचे की ओर दौड़ते। बाबूजी को देखे बगैर घर का हर सदस्य उनके हर कार्यकलाप का अंदाज़ा दूर से ही लगा लिया करता।

तेल पी-पी कर उनकी बेंत की छड़ और बैठक में आरक्षित कोच के ठीक पीछे की दीवार, अपनी मज़बूती की दास्तान आसानी से बयां कर सकती थी। बाबूजी छड़ी को सहारा देते रहे या छड़ी बाबूजी को, यह भी अनसुलझी पहेली बनी रही। बरसों-बरस बाबूजी के सिर का तेल पीकर दीवार पर जो आकृति बनी थी, वह बाबूजी की अनुपस्थिति में भी खौफ और अनुशासन को ज़िंदा रखने की ताकत रखा करती और बाबूजी की छड़ी .? छड़ी की ठक-ठक की आहट मात्र ही घर के हर सदस्य को चौकन्ना कर अपनी-अपनी मर्यादाओं में बांध सकने की शक्ति रखती थी। यहां तक कि काउच की गादी, उस पर पड़ी सिलवटें, बरसों से हो रहे इस्तेमाल को बयां करते कोच के हत्थे, उन पर उभर आए निशान, घिस-घिस कर रेडियो के कानों की फीकी हो चली चमक आदि-आदि बाबूजी के अनुशासन को जिंदा रखने वाले सिपहसालार थे।



एक दफा सुनंदा ने घर के सफाई कार्यक्रम में बाबूजी के काउच के साथ रखी टेबल, उस पर रखे रेडियो, बेतरतीब रखे कागज़ात और किताबों के ढेर को करीने से सजाने और संवारने का दुस्साहस किया था पर उसके दुष्परिणाम जानने के बाद बाबूजी के जिंदा रहते किसी ने भी यह जुर्रत नहीं की कि वह बाबूजी के अधिकार क्षेत्र की इन तमाम चीजों को हाथ भी लगा सके। जिस ठसक, अदब और रौब का गवाह था बाबूजी का यह घर, उसे उन्होंने अपनी ज़िंदगी के आखिरी दम तक बनाए रखा।

शाम सात बजे के समाचार सुनकर बाबूजी भोजन किया करते। काउच पर सीधे तने बैठे बाबूजी के सामने सुनंदा स्टूल सरका गई। भोजन तैयार होने के इस संकेत के बावजूद बाबूजी हाथ धोने नहीं उठे, वे जैसे बैठे थे बस बैठे ही रह गए। रात भर बैठक में उनका शव रखा रहा। चेहरे पर वही धीर-गंभीर भाव अभी भी पढ़े जा सकते थे। घर के हर सदस्य की नम आंखें इस संभावना को भी नकार नहीं पा रहीं थी कि बाबूजी अभी उठेंगे, कोने में रखी छड़ी की ठक-ठक से ही सबको सूचना देते हुए घर से बाहर निकल पड़ेंगे।

कहा जाता है, ‘आज मरे कल तीसरा होय।’ बाबूजी को गुज़रे कब साल निकल गया, यह पता चला भी और नहीं भी। कुछ ऐसा जो सबने महसूस तो किया पर जबान पर नहीं आया। अब कुछ खुला-खुला-सा हो चला था। घर का वातावरण, मानो आजादी की मंद शीतल मधुर बयार के संचार से घर को नया जीवन मिल रहा हो। सिर पर अर्पित के ब्याह की तैयारियां थीं। अब तो बाबूजी भी नहीं रहे। नवंबर का ब्याह जून तक टाला गया इसलिए ताकि घर को नए सिरे से सजाया जा सके।

आर्किटेक्ट आए, इंजीनियर आए, घर के पुराने कंधों पर नए साजो-सामान की ज़िम्मेदारियों का अनुमान लगाया गया। हथौड़े, कुदाल और फावड़े की चोट से धराशायी होते घर के हिस्सों में से यादों की आत्माएं बाहर निकलती जा रही थीं। बैठक की दीवार पर जितनी बार चोट पड़ती, हेमंत के सामने बाबूजी की छाया खड़ी हो जाती। अब बारी थी काउच के पीछे बाबूजी के सिर का तेल पी-पीकर मज़बूत बनी दीवार के टूटने की। पिछले साल भर से बाबूजी के न रहने के बावजूद इस काउच पर बैठकर दीवार से सिर टिकाने की हिम्मत कोई नहीं कर सका था।

हेमंत देख रहा था- लगातार हथौड़े की चोट से मुश्किल से टूट रही दीवार के अब उस हिस्से पर चोट हो रही थी, जो अमूर्त चित्र की तरह ही सही, बाबूजी को अब तक ज़िंदा किए हुए थी। ‘परिवर्तन जीवन का नियम है, बाबूजी भी इसे स्वीकार कर आशीर्वाद देंगे’, विचारों के द्वंद्व में उलझता हुआ हेमंत भावनाओं के समुद्र में उतरता चला जा रहा था। एक भारी चोट से दीवार बिखर गई। अवाक् से खड़े हेमंत का रोंया-रोंया कांप उठा। वह पल फिर अपनी पूरी पीड़ा के साथ जीवित हो उठा, जब बाबूजी की चिता को अग्नि में प्रवेश करवाने के बाद एक मात्र पुत्र हेमंत ने बाबूजी की कपाल-क्रिया की थी। आज साल भर बाद बाबूजी के अस्तित्व को मटियामेट कर रही यह कपालक्रिया करना भी शायद उसी का फर्ज़ था।

-शोभा चतुर्वेदी

कोई टिप्पणी नहीं:

एक टिप्पणी भेजें

Related Posts with Thumbnails