10 जुलाई, 2009

जापान के गांधी - कागावा (प्रेरक प्रसंग) बनारसीदास चतुर्वेदी

कागावा का जन्म १० जुलाई १८८८ को जापान के कौबे नामक नगर में हुआ था उनका पूरा नाम था टोयोहिको कागावा। जब वह चार साल के थे तभी उनके पिता का देहान्त हो गया और उनकी माता भी उसी समय चल बसीं। कागावा अपनी बहन के साथ अपनी सौतेली मां और दादी के पास रहने के लिए गॉँव भेज दिये गए।

पौने पांच साल की उम्र में उन्हें पाठशाला में भर्ती कराया गया। हालॉँकि कागावा को पढ़ाना अच्छा लगता था, पर उनकी रूचि खेती की ओर थी और धान की बुबाई के समय वह बराबर किसानों के लड़को के साथ रहते थे। धान की कटाई के समय भी वह छोटा-सा हसिया लिये खेत पर मौजूद रहते थे। धान के पौधों से वह खडाऊं बनाते थे और अपने पहनने के लिए कपड़ा भी बुन लेते थे। मछली पकड़ना और तरह-तरह की चिड़ियों को पालना भी उनके ही सुपुर्द था। घर के घोड़े के लिए घास खोदने को कागावा ही भेजे जाते थे और यह काम उनको पसन्द भी था। घोड़ो से उनको प्यार था।

कागावा अपनी धुन के पक्के थे। जो अच्छे विचारउनके मन में आते, उन पर अमल करने के लिए वह तुरन्त तैयार हो जाते। कहीं पर एक बिल्ली का बच्चा मोरी में ड़ूब रहा था। कागावा उसे उठा लाये और नहला कर उसको अपने कमरे में रख लिया। एक मरियल कुत्ते को, जो घर का था घाट का, उन्होने अपनी दखरेज में ले लिया। जब दूसरे विधार्थियों ने इस पागलपन का विरोध किया तो उन्होने कहा, ‘‘किसी सुन्दर और हट्टे-कट्टे कुत्ते को तो चाहे जो प्रेम कर सकता हैं, पर इस अभागे कुत्ते की चिन्ता कौन करेगा ?’’

कुत्ते और बिल्ली तक तो गनीमत थी, पर कागावा ने तो कमाल ही कर दिया। वह रास्ते चलते एक भिखारी को अपने कमरे में ले आये और उसे अपने साथ रहने के लिए जगह दे दी। यही नहीं, वे उसे अपने पास से ही भोजन भी कराने लगे, मानों वह उनका सगा भाई ही हो।

मई १९१४ में उनका विवाह हुआ. बसंती देवी जब उनके यहॉँ आई, उसने देखा, : फुट लम्बी और : फुट चौड़ी एक कोठरी में ही उनका घर था और कागावा ने जिसे अपना परिवार कह कर परिचय कराया , उसमें एक भी आदमी उनका सगा-संबंधी नही था ७० साल का एक बूढ़ा और उसकी ६०६५ साल की बुढ़िया थी, जिन्हें कोई दूसरी जगह मिलने पर कागावा ने कोठरी दे दी थी।

और सदस्यों में अधेड उम्र की एक स्त्री थी। जो कागावा के घर में आने के पहले दर-दर की ठोकरें खाती फिरती थी। इसके अलावा एक भिखारिन और एक ११ साल का लड़का भी था।

कागावा को जो थोडे से रुपये मिलते थे, उनमें से भी कुछ दान कर देते थे, यहॉँ तक कि अपने जूते और कपड़ा भी दे डालते थे। अपने से भी गरीब विधाथिर्यो की सेवा करने लिए वे सदा तैयार रहते थे।

टाल्स्टाय रूस के एक बड़े महात्मा हो गये है।कागावा ने उनकी किताबो को पढ़ा। इन किताबो में टाल्स्टाय ने लोगों को अहिंसा पर चलने की सलाह दी थीं . उन दिनो रूस और जापान में लड़ाई हो रही थी। कालेजा की एक सभा में कागावा ने लड़ाई का विरोध किया और दोनो पक्षो को शान्ति से रहने की बात कही। इसका नतीजा यह हुआ कि उनके साथी विधाथिर्यो ने उनको देश का दुश्मन कहकर बदनाम करना शुरू किया और उनसे सारे संबंध तोड़ लिए।

विधाथिर्यो को आशा थी कि कागावा दब जायगें, पर वे दबने वाले नहीं थे। इस पर अंत में विद्यार्थियों ने एक जाल रचा। रात के समय कागावा को भरमा कर कलेजा के बाहर खेल के मैदान में ले गये और वहॉँ बीस विद्यार्थियों ने मिलकर उनकी खूब मरम्मत की।

जिस समय उन पर घूसों की बौंछार हो रही थीं, कागावा हाथ जोडे खड़े थे और ईश्वर से प्रार्थना करते हुए कह रहे थे, ‘‘हे परमपिता , इन्हें क्षमा करों, क्योंकि ये जानते नहीं कि क्या कर रहे है।’’

यह उन दिनो की बात है जब कागावा कॉलेज में पढ़ते थे। १९०९ में एक दिन उन्होने अपनी गठरी उठाकर गाड़ी पर रख दी और कालेज से सीधे शिकावा की गंदी बस्ती की और चल पड़े।

वहां पहुंचकर उन्होने जो छोटी सी कोठरी ली , उसकी चर्चा हम ऊपर कर चुके है। इस बस्ती में आते ही लोगों ने कागावा को घेरना शुरू कर दिया। एक दिन एक लड़का रोता हुआ उनकी कोठरी में आया। उसके सारे शरीर में खुजली हो रही थी। उसके रहने के लिए और कोई जगह नहीं थी। इसलिए कागावा ने उसे अपनी कोठरी में रख लिया। नतीजा यह हुआ कि कागावा को भी खुजली हो गई

कुछ दिन बाद उनकी कोठरी में एक शराबी घुस आया। वह भी बेघरबार था कागावा को छोड़ वह कहां जाता ! कागावा ने अपनी कोठरी में उसे भी जगह दे दी।

एक हत्यारा था, जो जेल काट चुका था। उसके दिल में डर बैठ गया था कि जिस आदमी को उसने मारा है वह भूत बनकर उसका पीछा कर रहा है। कागावा ने उसे भी जगह दे दी। वह कागावा के पास सोता था और रात में सोता-सोता डर के मारे कागावा का हाथ किचकिचा कर पकड़ लेता था।

एक आदमी ने आकर कहा, ‘‘कई दिन से मुझे पानी के सिवा कुछ नहीं मिला ’’ उसे भी कागावा ने अपने घर में रख लिया।

इस तरह कागावा के परिवार में 4 आदमी हो गये। इन दिनों में उन्हें कालेज में लगभग 16 रूपये महीने का वजीफा मिलता थो। उसमें चार प्राणियों का गुजर करना मुश्किल था। इसलिए कागावा गलियों में जलने वाली लालटेनों को साफ करने का काम करने लगे।

एक बार तो उनकी कोठरी में दस आदमियों ने पनाह ली। उसमें कहीं बैठने तक को भी जगह नहीं रहीं। आखिर एक दीवार तोड़ दी गयी। इन आदमियों में से एक आदमी तपैदिक का मरीज था। कागवा उसके कपड़े हाथों से धोते थे। एक का दिमाग ठीक नहीं था, क्योकिं उसके घर वालों तथा दोस्तों ने उसे छोड़ दिया था। उसमें एक रोगी बेश्या और एक ऐसी औरत थी। जिसकी आंखों में कोई खतरनाक बीमारी थीं। कागावा को भी यह भयंकरं बीमारी लग गई और उनकी आंखो की रोशनी बहुत मंद हो गई।

इन्हीं दिनों एक भिखारी उनकी कोठरी में आया और बोला, ‘‘तुम बडे ईसाई बनते हो। मैं तब जानूं, जब तुम मुझे अपना कुरता दे दो।’’

कागावा ने उसे अपना कुरता दे दिया और दुसरे दिन कोट और पाजामा भी उसके हवाले कर दिया।

कागावा की कोठरी के आसपास की कोठरियां बदमाशों के अड्डे थे। उन्हे वेश्यालय कहना अधिक ठीक होगा कागावा ने वेश्याओं और उनके पास जाने वालों के विरुद्व बोलना शुरू कर दिया इसका फल यह हुआ कि कईवेश्याओं को अपना इस तरह का जीवन बिताने पर बड़ा पछतावा हुआ और उन्होने अपने इस नरक के पेशे को छोड़कर मेहनत और मजदूरी का कागावा को वचन दिया।

जिन धूर्त्तो और बदमाशो को वेश्यालयों से लाभ होता था, वे बड़े नाराज हुए। एक ने यहा तक किया कि वह कागावा के घर में घुस आया और कागावा को धमकाया और उनके खाने-पीने के सारे वर्तन तोड़ डाले।

शिकावा की इन गन्दी बस्तियों में जिन्दगी की कोई कीमत नहीं थी, हत्या कर डालना तो एक मामूली सी बात थी। कागावा के आने के पहले उनकी कोठरी में जो हत्या हुई थी, उसका कारण था सिर्फ पांच आने की रकम अपने आने के पहले साल में कागावा को सात हत्याएं अपने आस-पास देखनी पड़ी। उनमें एक हत्या तो मुर्गी के बच्चें (चूजे) के लिए की गई थी। दूसरी हत्या एक औरत के लिए हुई। एक कहता था वह मेरी है। दूसरा कहता था, वह मेरी है आपस में लड़ाई हो गई और इसी में एक कत्ल हो गया। इसी तरह एक तेरह साल के लड़के ने अपनी ही उम्र के एक बच्चे को मार डाला।

जापान में उसा समय ऐसी अनेक गंदी बस्तियां थी। इनमें आमतौर पर रिक्शा खीचने वाले, सड़क खोदने वाले मजदूर, कुली, सस्ती मिठाई वेचने वाले, छोटेमोटे हाथ देखने वाले, हत्यारे , वेश्याएं और उनके दलाल रहा करते थे।चोरों और जुआरियों के अड्डे भी यहीं पर होते थे।

इक्कीस साल की उम्र में जब कागावा शिकावा की उस गंदी बस्ती में आये तो उन्होने अपने मन में कहा, ‘‘मुझे किसी बात का डर नहीं है’- बीमारी का, मारे जाने का चोर डकैतों का। आखिर एक दिन मरना तो है ही। वैसे भी मैं ज्यादा नहीं जीऊंगा। डर किसका करुं ?’’

इस तरह मन में पक्का इरादा करके यह एक अहिंसावादी वीर योद्वा की भॉँति उस इलाके में आये और 15 साल तक गरीबों, और बुरे देशो से लड़ाई लडते रहे।

इन सब कामों में कागावा को अपनी पत्नी बसन्ती देवी का बराबर सहयोग मिलता रहा। जो काम कागावा करते, उसको करने में बसन्ती देवी को भी हिचक होती। वह पढ़ी-लिखी थी, पर उन्हें ऊंची शिक्षा पाने का मौका नहीं मिला था। उन्होने इस कमी को पूरा करने की भी कोशिश की

कागावा को मजदूर विधार्थियों को सुबह और शाम एक-एक घंटा पढ़ाते थे। श्रीमती कागावा भी इस कक्षा में शामिल हो गई। यही नहीं, वह तीसरे पहर स्त्री-समाज के सकूल में जाकर बाइबिल पढ़ने लगीं। आगे चलकर उन्होने बड़ी उम्र में दसवां दर्जा पास किया और याकोहामा शहर में तीन साल पढ़ने के बाद बी. . पास कर लिया।

उन्होने दो पुस्तकें लिखीं। एक में तो उन्होने कारखानो में काम करने वाली लड़कियों का हाल दिया और दूसरी में गंदे मुहल्लों की तस्वीरें खींची। इन गंदे मोंहल्लों में जो भयंकर वेश्यावृत्ति चलती थी उसके बारें में उन्होने एक लेख किसी पत्र में लिखा। इसमें किसी वेश्यालय के मालिक को क्रोध गया। वह मौका पाकर एक दिन उस समय कागावा के घर पहुंचा जब कि बसन्ती देवी अकेली थी। उसने उनको खूब पीटा, पर इससे बसन्ती देवी विचलित हुई, उल्टे उनमें इस न्याय के विरूद्व प्रचार करने का नया होसला पैदा हो गया।

अपने जीवन के पन्द्रह बर्ष शिकावा की इस कोठरी में बिताने का फल यह हुआ कि कागावा के ग्रन्थों को पढ़ कर, उनके भाषणों को सुनकर और उनके जीवन तथा उनकी सेवाओ को देख कर जापान की जनता का ध्यान इस गंदे मोहल्लें की ओर गया। उधर सरकार ने तय किया कि जापान के : बड़े नगरोंटोकियो, ओसाका, याकोहामा, कौबे, क्याटी और नागोयाके गंदे मोहल्लों को साफ कर दिया जाय।

आज इन नगरों में से किसी में भी गंदे मोहल्लों का नामोनिशान नहीं रहा। इस सफाई के साथ ही कागावा की वह : फुट चौड़ी लम्बी कोठरी भी चली गई, पर अपने साथ वह : महानगरों के गन्दे मोहल्लों को भी लेती गई

कागावा की महान साधना और उनकी तपस्या के कारण ही यह सब संभव हुआ है। अपने भाषणों के दो शब्दमें कागावा ने बड़ी मार्मिक बात लिखी थीं : ‘‘मेरी पुस्तक को पढ़ने वाले वाले बहुतेरे है, पर पुस्तक लिखना ही मेरे जीवन का उद्देश्य नही है। मैं तो एक सिपाही आदमी हूं और लोगों के अंत:करण को जगाने के लिए आंदोलन करना ही मेरा काम है। मेरी किताबों में मेरी आत्मा रोती है और उसके रोने को जो कोई सुनता है, वही मेरा सच्चा मित्र है।’’

कागावा व्यक्ति की स्वतंत्रता को बड़ा महत्व देते थे उनके विचार से यह स्वतंत्रता तभी मिल सकती थी, जबकि इंसान अपने पैरो पर खड़ा हो। इस बारे में उनका कहना था :

‘‘आदमी अपनी सादगी के बारे में रहे कि उसे किसी दूसरे की सेवा लेनी पडे, अपनी सेवा वह स्वंय कर सके। यदि कोई आदमी अपने हाथ की बनाई झोपड़ी में रहें, अपने हाथ से उसमें रसोई वनावें, अपने हाथ से उगाई तरकारियां खावें , अपने करघे पर बुना हुआ कपडा पहने और सादगी के साथ अपने घर का प्रबन्ध स्वयं करे तो उसे कितनी आजादी मिल सकती है।’’

कागावा जिन्दगी भर दूसरों की सेवा में लगे रहे और इस कथन को उन्होने सही सिद्व कर दिया :

‘‘दौड़ से आखिरी मील तक मैं चलता ही रहूंगा, बीच मे बैठने का नहीं। रेल पर सफर करते हुए या सागर की यात्रा करते हुए परलोक से बुलाबा आवेगा, मैं नहीं जानता। मेरा काम तो बराबर चलना है बाकी सब ईश्वर के हाथ है।’’

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