13 जुलाई, 2009

तिवारी जी (कहानी)

एक थे तिवारी। नाम था, दलपत। दलपत तिवारी की घरवाली को बैंगन बहुत पसंद थेंएक दिन घरवाली ने उनसे कहा, ‘‘ तिवारीजी!’’

तिवारी बोले, ‘‘क्या कहती हो भट्टानी?’’

भट्टानी ने कहा, ‘‘बैंगन खाने का मन हो रहा है। जाओं, बैंगन ही ले आओ।’’

तिवारी बोले, ‘‘अच्छा लाता हूं।’’

हाथ में एक फटी-पुरानी लकड़ी लेकर ठक्-ठक् आवाज़ करते हुए तिवारी अपने घर से निकले। नदी-किनारे एक बाड़ी थी। वहां पहुंचे। लेकिन बाड़ी में

कोई था नहीं। जब बाड़ी का मालिक वहां नहीं है, तो बैंगन किससे लिए जायं?

आखिर तिवारी ने सोचा, ‘‘बाड़ी का मालिक नहीं है, तो सही, पर बाड़ी तो है ? चलूं, बाड़ी से ही पूछ लूं।

तिवारी ने कहा, ‘‘बाड़ी बाई, , बाड़ी बाई!’’

बाड़ी तो कुछ बोली नहीं, पर ये खुद ही बोले, ‘‘क्या कहते हो, दलपत तिवारी?’’

तिवारी ने कहा, ‘‘बैंगन ले लूं दो-चार?’’

बाड़ी फिर भी नहीं बोली। इस पर बाड़ी की तरफ से दलपत ने कहा, ‘‘’हां, ले लो, दस-बारह!’’ दलपत तिवारी ने बैंगन लिये और घर पहुंचकर तिवारी और भट्टानी ने बैंगन का भुरता बनाकर खाया।

भट्टानी को बैंगन का चस्का लग गया, इसलिए तिवारी रोज हो बाड़ी में पहुंचते और बैंगन चुराकर ले आते। बाड़ी में बैंगन कम होने लगे। बाड़ी के मालिक ने सोचा कि जरुर कोई चोर बैंगन चुराने आता होगा। उसे पकड़ना चाहिए।

एक दिन शाम को बाड़ी का मालिक एक पेड़ की आड़ में छिपकर खड़ा हो गया। कुछ ही देर में दलपत तिवारी पहुंचे और बोले, ‘‘बाड़ी बाई, बाड़ी बाई!’’

बाड़ी के बदले दलपत ने कहा, ‘‘क्या कहते हो, दलपन तिवारी?’’

तिवारी बोले, ‘‘बैंगन ले लू दो-चार?’’

फिर बाड़ी की तरफ से दलपत ने कहा, ‘‘ले लो दस-बारह!’’

दलपत तिवारी ने झोली भरकर बैंगन ले लिये और ज्योंही जाने लगा, बाड़ी का मालिक पेड़ की आड़ में से बाहर निकला और उसने कहा, ‘‘ठहरो, बूढ़े बाबा! आपने ये बैगन किससे पूछकर लिये हैं?’’

तिवारी बोले, ‘‘किससे पूछकर लिये? मैंने तो इस बाड़ी से पूछकर लिये हैं।’’

मालिक ने कहा, ‘‘लेकिन क्या बाड़ी बोलती है?’’

तिवारी बोले, ‘‘बाड़ी तो नहीं बोलती, पर मैं बोला हूं न।’’

मालिक को गुस्सा गया। उसने उसकी बांह पकड़ ली और उसे कुएं के पास ले गया। तिवारी की कमर में रस्सा बांधा और उसे कुएं में उतारा।

बाड़ी के मालिक का नाम था, बिसराम भूवा।

बिसराम भूवा बोला, ‘‘कुआं रे भाई, कुआं!’’

कुएं के बदले बिसराम ने कहा, ‘‘क्या कहते हो बिसराम भूवा?’’

बिसराम ने कहा, ‘‘डुबकिया खिलाऊं दो-चार?’’

कुएं के बदले फिर बिसराम बोले, ‘‘खिलाओं भैया, दस-बारह।’’

दलपत तिवारी की नाक में और मुंह में पानी भर गया। तब वह बहुत गिड़गिड़ाकर बोला, ‘‘भैया! मुझे छोड़ दो। अब मैं कभी चोरी नहीं करुंगा।’’

बिसराम को दया गयी। उसने तिवारी को बाहर निकाल दिया और घर जाने दिया। तिवारी ने फिर चोरी नहीं की, और भट्टानी भी बैंगन का अपना शौक भूल गयी।

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