05 दिसंबर, 2009

हमारी बोध कथाएं - आचार्य रजनीश

१. मृत्यु से अभय

एक युवा सन्यासी था। उस पर एक राजकुमारी मोहित हो गई। राजा को पता चला तो उसने सन्यासी से राजकुमारी के साथ विवाह करने को कहा। सन्यासी बोला, "मैं तो हूं ही नहीं। विवाह कौन करेगा?"

संन्यासी की यह बात सुनकर राजा ने अपने को बड़ा अपमानित अनुभव किया। उसने अपने मंत्री को आदेश दिया कि उसे तलवार से मार डाला जाय।

संन्यासी उसके आदेश पर बोला "शरीर के साथ मेरा आरम्भ से ही कोई संबंध नहीं रहा। जो अलग ही हैं, आपकी तलवार उन्हें और क्या अलग करेगी? मैं तैयार हूं और आप जिसे मेरा सिर कहते हैं, उसे काटने के लिए उसी प्रकार आमंत्रित करता हूं, जैसे वसंत की यह वायु पेड़ों से उनके फूलों को गिरा रही है।"

वह मौसम सचमुच वसंत का था और पेड़ों से फूल गिर रहे थे। राजा ने उन फूलों को देखा, और देखा मौत के सामने उपस्थित जानते हुए भी उस संन्यासी की आनंदित आंखों को। उसने एक क्षण सोचा, "जो मृत्यु से भयभीत नहीं है और जो मृत्यु को भी जीवन की भांति स्वीकार करता है, उसे मारना व्यर्थ है। उसे तो मृत्यु भी नहीं मार सकती।"

राजा ने अपना आदेश तुरन्त वापस ले लिया।

२. अमृतत्व की किरण

एक राजा था। वह एक दिन अपने वज़ीर से नाराज हो गया और उसे एक बहुत बड़ी मीनार के ऊपर कैद कर दिया। एक प्रकार से यह अत्यन्त कष्टप्रद मृत्युदण्ड ही था। न तो उसे कोई भोजन पहुंचा सकता था और न उस गगनचुम्बी मीनार से कूदकर उसके भागने की कोई संभावना थी।

जिस समय उसे पकड़कर मीनार पर ले जाया रहा था, लोगों ने देखा कि वह जरा भी चिंतित और दुखी नहीं है, उल्टे सदा की भांति आनंदित और प्रसन्न है। उसकी पत्नी ने रोते हुए उसे विदा दी और पूछा, "तुम इतने प्रसन्न क्यों हो?"

उसने कहा, "यदि रेशम का एक बहुत पतला सूत भी मेरे पास पहुंचाया जा सकता तो मैं स्वतंत्र हो जाऊंगा। क्या इतना-सा काम भी तुम नहीं कर सकोगी?"

उसकी पत्नी ने बहुत सोचा, लेकिन इतनी ऊंची मीनार पर रेशम कापतला धागा पहुंचाने का कोई उपाय उसकी समझ में न आया। तब उसने एक फकीर से पूछा। फकीर ने कहा, "भृंग नाम के कीड़े को पकड़ो। उसके पैर में रेशम के धागे को बांध दो और उसकी मूंछों के बालों पर शहद की एक बूंद रखकर उसका मुंह चोटी की ओर करके मीनार पर छोड़ दो।"

उसी रात को ऐसा किया गया। वह कीड़ा सामने मधु की गंध पाकर, उसे पाने के लोभ में, धीरे-धीरे ऊपर चढ़ने लगा और आखिर उसने अपनी यात्रा पूरी कर ली। रेशम के धागे का एक छोर कैदी के हाथ में पहुंच गया। रेशम का यह पतला धागा उसकी मुक्ति और जीवन बन गया। उससे फिर सूत का धागा बांधकर ऊपर पहुंचाया गया, फिर सूत के धागे से डोरी और डोरी से मोटा रस्सा। उस रस्से के सहारे वह कैद से बाहर हो गया।

सूर्य तक पहुंचने के लिए प्रकाश की एक किरण बहुत है। वह किरण किसी को पहुंचानी भी नहीं है। वह तो हर एक के पास मौजूद है।

३. 'मैं' का ताला

एक साधु किसी गांव से गुजर रहा था। उसका एक मित्र साधु उस गांव में रहता था। उसने सोचा, लाओ, उससे मिलता चलूं। रात आधी हो रही थी। फिरभी वह उससे मिलने गया। एक बन्द खिड़की से प्रकाश आते देख कर उसने दरवाजा खटखटाया। भीतर से आवाज आई, "कौन है?"

उसने यह सोचकर कि वह आवाज से पहचान लिया जायगा, कहा, "मैं हूं।"

इसके बाद भीतर से कोई उत्तर नहीं आया। उसने बार-बार दरवाजा खटखटाया, पर भीतर से कोई नहीं बोला। उसे ऐसा लगने लगा, जैसे वह घर बिल्कुल सूना है। उसने जोर से कहा, "मेरे लिए तुम दरवाजा क्यों नहीं खोल रहे हो? चुप क्यों हो गये हो"

भीतर से आवाज आई, "तुम कौन ना-समझ हो, जो अपने को 'मैं' कहते हो? 'मैं' कहने को अधिकार सिवाय परमात्मा के और किसी को नहीं है।"

प्रभु के द्वारा पर 'मैं' का ही ताला है। जो उसे तोड़ देते हैं, वे पाते हैं कि द्वारा तो सदा से ही खुले थे।

४. मजबूत किला

एक साधु से उसके मित्रों ने पूछा, "यदि दुष्ट लोग आप पर हमला कर दें तो आप क्या करेंगे?"

वह बोला, "मैं अपने मजबूत किले में जाकर बैठ रहूंगा।"

यह बात उस साधु के शत्रुओं के कान तक पहुंच गई। उन्होंने एक दिन एकांत से साधु को घेर लिया और कहा, "यह बताइये कि आपका मजबूत किला कहां है?"

साधु खूब हँसने लगा। फिर अपने हृदय पर हाथ रखकर बोला, "यह है मेरा किला। इसके ऊपर कभी कोई हमला नहीं कर सकता। शरीर तो नष्ट किया जा सकता है, पर जो उसके भीतर है, उसके रास्ते को जानना ही मेरी सुरक्षा है।"

जो व्यक्ति इस मजबूत किले को नहीं जानता, उसका पूरा जीवन असुरक्षित है। प्रति क्षण शत्रुओं से घिरा हैं

५. भीतरी और बाहरी सम्पदा

एक महर्षि थे। उनका नाम था कणाद। किसान जब अपना खेत काट लेते थे तो उसके बाद जो अन्न-कण पड़े रह जाते थे, उन्हें बीन करके वे अपना जीवन चलाते थे। इसी से उनका यह नाम पड़ गया था।

उन जैसा दरिद्र कौन होगा! देश के राजा को उनके कष्ट का पता चला। उसने बहुत-सी धन-सामग्री लेकर अपने मन्त्री को उन्हें भेंट करने भेजा। मंत्री पहुंचा तो महर्षि ने कहा,

"मैं सकुशल हूं। इस धन को तुम उन लोगों में बांट दो, जिन्हें इसकी जरुरत है।"

इस भांति राजा ने तीन बार अपने मंत्री को भेजा और तीनों बार महर्षि ने कुछभी लेने से इन्कार कर दिया।

अंत में राजा स्वयं उनके पास गया। वह अपने साथ बहुत-सा धन ले गया। उसने महर्षि से प्रार्थना की कि वे उसे स्वीकार कर लें, किन्तु वे बोले, "उन्हें दे दो, जिनके पास कुछ नहीं है। मेरे पास तो सबकुछ है।"

राजा को विस्मय हुआ! जिसके तन पर एक लंगोटी मात्र है, वह कह रहाहै कि उसके पास सबकुछ है। उसने लौटकर सारी कथा अपनी रानी से कही। वह बोली, "आपने भूल की। ऐसे साधु के पास कुछ देने के लिए नहीं, लेने के लिए जाना चाहिए।"

राजा उसी रात महर्षि के पास गया और क्षमा मांगी।

कणाद ने कहा, "गरीब कौन है? मुझे देखो और अपने को देखो। बाहर नहीं, भीतर। मैं कुछ भी नहीं मांगता, कुछ भी नहीं चाहता। इसलिए अनायास ही सम्राट हो गया हूं।"

एक सम्पदा बाहर है, एक भीतर है। जो बाहर है, वह आज या कल छिन ही जाती है। इसलिए जो जानते हैं, वे उसे सम्पदा नहीं, विपदा मानते हैं। जो भीतर है, वह मिलती है तो खोती नहीं। उसे पाने पर फिर कुछ भी पाने को नहीं रह जाता।

६. यह कैसी धर्म-साधना?

एक व्यक्ति ने किसी साधु से कहा, "मेरी पत्नी धर्म-साधना में श्रद्धा नहीं रखती। यदि आप उसे थोड़ा समझा दें तो बड़ा अच्छा हो।"

साधु बोला, "ठीक है।"

अगले दिन सवेरे ही वह साधु उसके घर गया। पति वहां नहीं था। उसने उसके संबंध में पत्नी से पूछा। पत्नी ने कहा, "जहां तक मैं समझती हूं, वह इस समय चमार की दुकान पर झगड़ा कर रहे हैं।"

पति पास के पूजाघर में माला फेर रहा था। उसने पत्नी की बातसुनी। उससे यह झूठ सहा नहीं गया। बाहर आकर बोला, "यह बिल्कुल गलत है। मैं पूजाघर में था।"

साधु हैरान हो गया। पत्नी ने यह देखा तो पूछा, "सच बताओ कि क्या तुम पूजाघर में थे? क्या तुम्हारा शरीर पूजाघर में, माला हाथ में और मन और कहीं नहीं था।"

पति को होश आया। पत्नी ठीक कह रही थी। माला फेरते-फेरते वह सचमुच चमार की दुकान पर ही चला गया था। उसे जूते खरीदने थे और रात को ही उसने अपनी पत्नी से कहा था कि सवेरा होते ही खरीदने जाऊंगा। माला फेरते-फेरते वास्तव में उसका मन चमार की दुकान पर पहुंच गया था और चमार से जूते के मोल-तोल पर कुछ झगड़ा हो रहा था।

विचार को छोड़ो और निर्विचार हो जाओ तो तुम जहां हो, वहीं प्रभु का आगमन हो जाता है।

७. छोटे-से-छोटे में विराट का संदेश

मक्का की बात है। एक नाई किसी के बाल बना रहा था। उसी समय फकीर जुन्नैद वहां आ पहुंचे। उन्होंने कहा, "खुदा की खातिर मेरी हजामत भी कर दे।"

नाई ने खुदा का नाम सुनते ही अपने गृहस्थ-ग्राहक से कहा, "दोस्त, अब मैं थोड़ी देर आपकी हजामत नहीं बना सकूंगा। खुदा की खातिर उस फकीर की खिदमत मुझे पहली करनीचाहिए। खुदा का काम सबसे पहले है।"

इसके बाद उसने फकीर की हजामत बड़े प्रेम और श्रद्धा-भक्ति से बनाई और नमस्कार करके उसे विदा कर दिया।

कुछ दिन बीत गये। एक रोज जुन्नैद को किसी नेकुद पैसे भेंट किये तो वह उन्हें नाई को देने आये। पर नाई ने पैसे लेने से इन्कार कर दिया। उसने कहा, "आपको शर्म नहीं आती? आपने तो खुदा की खातिर हजामत बनाने को कहा था पैसों की खातिर नहीं।"

फिर तो जीवन-भर फकीर जुन्नैद को वह बात याद रही और वह अपनी मंडली में कहा करते थे, "निष्काम ईश्वर-भक्ति मैंने एक हज्जाम से सीखी है।"

छोटे-से-छोटे में भी विराट के संदेश छिपे हैं। जो उन्हें उघाड़ना जानता है, वह ज्ञान को प्राप्त करता है जीवन में सजग होकर चलने से प्रत्येक अनुभव प्रज्ञा बन जाता है। जो मूर्च्छित बने रहते हैं, वे दरवाजे पर आये आलोक को भी लौटा देते हैं।

८. खुदी को छोड़ो

एक राजा था। उसने परमात्मा को खोजना चाहा। वह किसी आश्रम में गया। उस आश्रम के प्रधान साधु ने कहा, "जो कुछ तुम्हारे पास है, उसे छोड़ दो। परमात्मा को पाना तो बहुत सरल है।

राजा ने यही किया। उसने राज्य छोड़ दिया और अपनी सारी सम्पत्ति गरीबों में बांट दी। वह बिल्कुल भिखारी बन गया, लेकिन साधु ने उसे देखते ही कहा, "अरे, तुम तो सभी कुछ साथ ले आये हो!"

राजा की समझ में कुछ भी नहीं आया, पर वह बोला नहीं। साधु ने आश्रम के सारे कूड़े-करकट का फेंकने का काम उसे सौंपा। आश्रमवासियों को यह बड़ा कठोर लगा, किन्तु साधु ने कहा, "सत्य को पाने के लिए राजा अभी तैयार नहीं है और इसका तैयार होना तो बहुत ही जरुरी है।"

कुछ दिन और बीते। आश्रमवासियों ने साधु से कहा कि अब वह राजा को उस कठोर काम से छुट्टी देने के लिए उसकी परीक्षा ले लें। साधु बोला, "अच्छा!"

अगले दिन राजा अब कचरे की टोकरी सिर पर लेकर गाव के बाहर फेंकने जा रहा था तो एक आदमी रास्ते में उससे टकरा गया। राजा बोला, "आज से पंद्रह दिन पहले तुम इतने अंधे नहीं थे।"

साधु को जब इसका पता चला तो उसने कहा, "मैंने कहा था न कि अभी समय नहीं आया है। वह अभी वही है।"

कुछ दिन बाद फिर राजा से कोई राहगीर टकरा गया। इस बार राजा ने आंखें उठाकर उसे सिर्फ देखा, पर कहा कुछ भी नहीं। फिर भी आंखों ने जो भी कहना था, कह ही दिया।

साधु को जब इसकी जानकारी मिली तो उसने कहा, "सम्पत्ति को छोड़ना कितना आसान है, पर अपने को छोड़ना कितना कठिन है।"

तीसरी बार फिर यही घटना हुई। इस बार राजा ने रास्ते में बिखरे कूड़े को बटोरा और आगे बढ़ गया, जैसे कुछ हुआ ही न हो। उस दिन साधु बोला, "अब यह तैयार है। जो खुदी को छोड़ देता, वही प्रभु को पाने का अधिकारी होता है।"सत्य को पाना है तो स्वयं को छोड़ दो।'मैं' से बड़ा और कोई असत्य नहीं है।

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