05 दिसंबर, 2009

हमारी बोध कथाएं - विनोबा भावे

१. जैसी दृष्टि

रामदास रामायण लिखते जाते और शिष्यों को सुनाते जाते थे। हनुमान भी उसे गुप्त रुप से सुनने के लिए आकर बैठते थे। समर्थरामदास ने लिखा, "हनुमान अशोक वन में गये, वहाँ उन्होंने सफेद फूल देखे।"

यह सुनते ही हनुमान झट से प्रकट हो गये और बोले, "मैंने सफेद फूल नहीं देखे थे। तुमने गलत लिखा है, उसे सुधार दो।"

समर्थ ने कहा, मैंने ठीक ही लिखा है। तुमने सफेद फूल ही देखे थे।"

हनुमान ने कहा, "कैसी बात करते हो! मैं स्वयं वहां गया और मैं ही झूठा!"

अंत में झगड़ा रामचंद्रजी के पास पहुंचा। उन्होंने कहा, "फूल तो सफेद ही थे, परंतु हनुमान की आंखें क्रोध से लाल हो रही थीं, इसलिए वे उन्हें लाल दिखाई दिये।"

इस मधुर कथा का आशय यही है कि संसार की ओर देखने की जैसी हमारी दृष्टि होगी, संसार हमें वैसा ही दिखाई देगा।

२. वित्त में अमृतत्व नहीं

पुरानी कहानी है। याज्ञवलक्य ऋषि के दो पत्नियां थीं। एक सामान्य, संसार में आसक्ति रखनेवाली और दूसरी विवेकशील, जिसका नाम मैत्रेयी था। याज्ञवल्क्य को लगा कि अब घर छोड़कर आत्मचिंतन के लिए बाहर जाना चाहिए। जाते समय उन्होंने दोनों पत्नियों को बुलाया और कहा, "अब मैं घर छोड़कर जा रहा हूं। जाने से पहले जो भी संपत्ति है, आप दोनों में बांट दूं।"

मैत्रयी ने पूछा, "क्या पैसे से अमृत-जीवन प्राप्त हो सकता है?"

याज्ञवल्कय ने जवाब दिया, "नहीं, अमृतत्वस्य तु नाशास्ति वित्तेन—वित्त से अमृतत्व की आशा करना बेकार है। उससे तो वैसा जीवन बनेगा, जैसाकि श्रीमानों का होता है। वह तो मृत-जीवन है। अमृत-जीवन की अगर इच्छा है तो आत्मा की व्यापकता का अनुभव करो। सबकी सेवा करो। सबसे एकरुप हो जाओ।"

३. क्रोधाग्नि पर प्रेम का पानी

एक बार ज्ञानदेव महाराज को क्रोध आ गया तो उनकी बहन मुक्ताई ने कहा, "ताटी उघड़ा ज्ञानेश्वरा, " (ज्ञानेश्वर महाराज, आप अपना अकड़ना कम कीजिए)।

उन्होंने कहा, "विश्व रागे झाले बहन, संत मुखे बहावे पानी।" (यदि दुनिया आग-बबूला हो उठे तो संतों को चाहिए कि स्वयं पानी बन जायें)।

अग्नि को पानी बुझा देता है। अगर पानी में आग डाल दे तो क्या वह पानी को जला देगी या खुद बुझ जायेगी? संतों का स्वभाव भी ऐसा होना चाहिए। कोई कितना ही क्रोधित क्यों न हो, उन्हें शांत रहना चाहिए।

४. निष्पाप जीवन का रहस्य

एक सज्जन ने एकनाथ से पूछा, "महाराज, आपका जीवन कितना सीधा-साधा और निष्पाप है! हमारा जीवन ऐसा क्यों नहीं? आप कभी किसी पर गुस्सा नहीं होते। किसी से लड़ाई झगड़ा नहीं, टंटा-बखेड़ा नहीं। कितने शांत, कितने प्रेमपूर्ण, कितने पवित्र हैं आप!"

एकनाथ ने कहा, "अभी मेरी बात छोड़ो। तुम्हारे संबंध में मुझे एक बात मालूम हुई है। आज से सात दिन के भीतर तुम्हारी मौत आ जायेगी।"

एकनाथ की कही बात को झूठ कौन मानता! सात दिन में मृत्यु! सिर्फ १६८ घंटे बाकी रहे! हे भगवान! यह क्या अनर्थ? वह मनुष्य जल्दी-जल्दी घर दौड़ गया। कुछ सूझ नहीं पड़ता था। आखिरी समय की, सब कुछ समेट लेने की, बातें कर रहा था। वह बीमार हो गया। बिस्तर पर पड़ गया। छ: दिन बीत गये। सातवें दिन एक नाथ उससे मिलने आये। उसने नमस्कार किया। एकनाथ ने पूछा, "क्या हाल है?"

उसने कहा, "बस अब चला!"

नाथजी ने पूछा, "इन छ: दिनों में कितना पाप किया? पाप के कितने विचार मन में आये?"

वह मरणासन्न व्यक्ति बोला, "नाथजी, पाप का विचार करने की तो फुरसत ही नहीं मिली। मौत एक-सी आंखों के सामने खड़ी थी।"

नाथजी ने कहा, "हमारा जीवन इतना निष्पाप क्यों है, इसका उत्तर अब मिल गया न?"

मरणरुपी शेर सदैव सामने खड़ा रहे, तो फिर पाप सूझेगा किसे?

५. संत की महानता

संत अलवार की झोपड़ी में उसके सोनेभर की ही जगह थी। बारिश हो रही थी। किसी ने दरवाजे को खटखटाते हुए पूछा, "क्या अंदर जगह है?"

उसने जवाब दिया, "हां, यहां पर एक सो सकता है, पर दो बैठ सकते हैं। जरुर अंदर आइये।"

उसने उस भाई को अंदर ले लिया और दोनों बैठे रहे। इतने में तीसरा व्यक्ति आया और पूछने लगा, "क्या अंदर जगह है?"

संत अलवार ने जवाब दिया, "हो, यहां, पर दो तो बैठ सकते हैं, पर तीन खड़े हो सकते हैं। आप भी आइये।"

उसने उस भाई को भी अंदर बुला लिया और तीनों रातभर कोठरी में खड़े रहे।

उसने अगर यह कहा होता कि, "समाजवाद तो तब होता, जब मेरा मकान बड़ा होता और तभी आपको जगह दी जाती," तो क्या उसे यह शोभा देता? या अगर वह यह कहता कि, "मेरी कोठरी छोटी है, मेरे अकेले के ही सोने लायक है, इस हालत में मैं इसे कैसे बांट सकता हूं, अत: अन्य किसी के पास जाइये।" तो वह 'संत अलवार' नहीं बनता। वह एक सामान्य नीच मनुष्य ही होता, जिसे मनुष्य कहना भी मुश्किल है।

६. अपरिग्रही संन्यासी

एक संन्यासी अपने आपको अपरिग्रही कहता था। उसने अपने पास केवल एक तुंबा रखा था। एक दिन उसे प्यास लगी और वह नदी पर गया। साथ में तुंबा लिया। उसके पीछे-पीछे एक कुत्ता भी वहां पहुँचा। कुत्ते ने चट से पानी पिया और भाग गया। संन्यासी ने सोचा, "मैं अपरिग्रही हूँ या कुत्ता, क्योंकि वह मेरे बाद आया और पानी पीकर चला भी गया। इसलिए सच्चा संन्यासी वहीं हैं। वहीं मेरा गुरु है।" यह कहकर उसने तुंबा नदी को अर्पित कर दिया।

७. भगवान के बेटों को न सताओ

संत पाल की एक कहानी बड़ी मशहूर है। इस ईसाई संत ने ईसाई धर्म का खूब प्रचार किया था। वह पहले कोई महापंडित और ईसाइयत का घोर विरोधी था।

ईसा के शिष्य बिल्कुल सीधे-सादे और गरीब हुआ करते थे। कोई मछुआ था तो कोई बुनकर। मछुआ से ईसा ने कहा, "कम एंड फॉलो मी, एंड आई विल मेक यू फिशर्ज ऑफ मैंन।"(तुम मेरे पीछे आओ, मैं तुम्हे मछुआ नहीं, मनुष्य-मार बनाऊंगा।) वे अपना जाल छोड़कर ईसा के पीछे हो लिये।

ईसा के शिष्य एक के बाद एक मारे गये और सताये जाते थे। यह पाल ही, जो पहले 'साल' था, उन्हें बहुत सताता था। एक बार ईसा के अनुयायी कहीं जा रहे थे और पाल उनको सतानेवाला था।

उसे पहली ही रात नींद नहीं आई और सपने में भगवान आकर बोले, "सॉल! सॉल! व्हाई डू यू परसीक्यूट मी?" (सॉल-सॉल, तुम मुझे क्यों सताते हो?)

साल ने कहा, "तुझे तो मैं नहीं सता रहा हूं। तुझे कब सताया है?"

तब ईसा बोले, "तू मेरे लड़को को सताता है, तो मुझे ही सताता है।"

वह वाक्य उसने सुना और उसके दिल का परिवर्तन हो गया। वह साल से पाल होकर ईसा का ऐसा श्रेष्ठ शिष्य बना, जिसके दिल में भगवान आ विराजे।

८. श्रद्धा नहीं तो बेड़ा गर्क

एक साधु था। उसने अपने चेले से कहा, "राम-नाम जपने से मनुष्य हर संकट से पार हो सकता है।" गुरु-वाक्य पर शिष्य को श्रद्धा तो थी, लेकिन पूरा-पूरा विश्वास नहीं था कि राम-नाम चाहे जिस संकट से उबार देगा।

एक बार उसे नदी पार करनी थी। वह बेचारा अर्धश्रद्धालु राम-नाम रटता हुआ नदी पार करने लगा। जैसे-जैसे गले तक पानी में गया और वहां से गोते खाता हुआ बड़ी मुश्किल से वापस आ गया। गुरु से कहने लगा, "लगातार नाम-स्मरण किया, लेकिन पानी कम नहीं हुआ। सब अकारथ गया।"

गुरु बोला, "अनेक बार नाम-स्मरण किया, इसलिए अकारथ गया। अगर नाम-स्मरण में श्रद्धा थी तो एक बार किया हुआ नाम-स्मरण तुझे काफी क्यों नहीं लगा? श्रद्धा कम थी इसीलिए तूने बार-बार नाम-स्मरण किया और इसीलिए गोते खाये।"

९. पूर्णमद: पूर्णमिदम्

एक दफा एक पिता और पुत्र खाने बैठे। पिता की थाली में मां ने एक पूरा लड्डू रखा और बच्चे की थाली में आधा। बच्चा रोने लगा, हठ करने लगा कि हमे पूरा ही लड्डू चाहिए।

मां कुशल थी। उसने एक छोटा-सा गोल लड्डू बनाया। और बच्चे को परोस दिया। लड़का खुश हुआ, क्योंकि उसे पूरा लड्डू मिल गया था।

इसका अर्थ यह हुआ कि बच्चा कहता है, "मेरा बाप जितना पूर्ण आत्मा है, उतना ही पूर्ण आत्मा मैं भी हूं। मैं छोटा हूं, पर टुकड़ा नहीं हूं।"

जो विश्व का राज होगा, वह बड़ा होगा और गांव का राज छोटा लड्डू होगा। पर वह भी पूर्ण होना चाहिए। इसीलिए हम हमेशा कहते हैं—"पूर्णमद: पूर्णमिदम्।"

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