मैंने तुरन्त स्वीकार कर लिया, "हां ! ज्ञानियों का यही कहना है कि जो केवल ईश्वर की प्रार्थना करने के लिए संसार को त्याग देता है, वह जीवन के समस्त सुख और आनन्द को अपने पीछे छोड़ आता है, केवल ईश्वर द्वारा निर्मित वस्तुओं पर सन्तोष करता है और पानी और पौधों पर ही जीवित रहता है।"
जरा रुककर गहन विचारों में निमग्न वे बोले, "मैं ईश्वर की भक्ति तो उसके जीवों के बीच रहकर भी कर सकता था, क्योंकि उसे तो मैं हमेशा से अपने माता-पिता के घर पर भी देखता आया हूं। मैंने मनुष्यों का त्याग केवल इसलिए किया कि उनका और मेरा स्वभाव मिलता न था और उनकी कल्पना मेरी कल्पनाओं से मेल नहीं खाती थीं। मैंने आदमी को इसीलिए छोड़ा क्योंकि मैंने देखा कि मेरी आत्मा के पहियों से जोर से टकरा रहे हैं और दूसरी दिशा में घूमते हुए दूसरी आत्माओ के पहियों से जोर से टकरा रहे है। मैंने मानव –सभ्यता को छोड़ि दिया, क्योकि मैंने देखा कि वह एक ऐसा पेड़ हैं, जो अत्यन्त पुराना और भ्रष्ट हो चुका है, किन्तु है शक्तिशाली तथा भयानक। उसकी जड़ें पृथ्वी के अंधकार में बन्द हैं और उसकी शाखांए बादलों में खो गई हैं। किन्तु उसके फूल लोभ, अधर्म और पाप से बने हैं और फल दु:ख संतोष और भय से। धार्मिक मनुष्यों ने यह बीड़ा उठाया हैं। उसके स्वाभाव को बदल देगें,किन्तु वे सफल नहीं हो पाये हैं। वे निराश तथा दुखी होकर मृत्यु को प्राप्त हुए।"
यूसुफ साहब अंगीठी की ओर थोड़ा-सा झुके, मानों अपने शब्दों की प्रतिक्रिया जानने की प्रतीक्षा में हों। मैंने सोचा कि श्रोता ही बने रहना सर्वोत्तम है। वे कहने लगे, "नहीं, मैंने एकान्तवास इसलिए नहीं अपनाया कि मैं एक संन्यासी की भांति जीवन व्यतीत करूं, क्योंकि प्रार्थना, जो हृदय का गीत है, चाहे सहस्त्रों की चीख-पुकार की अवाज से भी घिरी हो, ईश्वर के कानों तक अवश्य पहुंच जायेगी।
"एक बैरागी का जीवन बिताना तो शरीर और आत्मा को कष्ट देना है तथा इच्छाओं का गला घोंटना है। यह एक ऐसा अस्तित्व है, जिसके मैं नितान्त विरुद्ध हूं; क्योंकि ईश्वर ने आत्माओं के मंदिर के रूप में ही शरीर का निमार्ण किया है। और हमारा यह कर्तव्य है कि उसे विश्वास को, जो परमात्मा ने हमें प्रदान किया हैं, योग्यतपूर्वक बनाये रखें।
"नहीं, मेरे भाई, मैंने परमार्थ के लिए एकान्तवास नहीं अपनाया, अपनाया तो केवल इसलिए कि आदमी और उसके विधान से, उसके विचारों तथा उसकी शिकायतों से उसके दु:ख और विलापों से दूर रहूं।
"मैंने एकान्तवास इसलिए अपनाया कि उन मनुष्यों के चेहरे न देख सकूं, जो अपना विक्रय करते हैं और उसी मूल्य से ऐसी वस्तुंए खरीदते है, जो आध्यात्मिक तथा भौतिक दोनों ही रुप उनसे भी घटिया हैं।
"मैंने एकान्तवास इसलिए ग्रहण किया कि कहीं उन स्त्रियों से मेरी भेटं न हो जाए,जो अपने ओठों पर अनेकविध मुस्कान फैलाये गर्व से घूमती रहती हैं- जबकि उनके सहस्त्रों हृदयों की गहराइयों में बस एक ही उद्देश्य विद्यमान है।
"मैंने एकान्तवास इसलिए ग्रहण किया कि मैं उन आत्म-सन्तुष्ठ व्यक्तियों से बच सकूं, जो अपने सपनों में ही ज्ञान की झलक पाकर यह विश्चास कर लेते हैं कि उन्होंने अपना लक्ष्य पा लिया।
"मैं समाज से इसलिए भागा कि उनसे दूर रह सकूं जो अपनी जागृति के समय में सत्य का आभास-मात्र का पाकर संसार भर मे चिल्लाते फिरते हैं कि उन्होंने सत्य को पूर्णत: प्राप्त कर लिया है।
"मैंने संसार का त्याग किया और एकानपतवास को अपनाया, क्योंकि मैं ऐसे लोगों के साथ भद्रता बरतते थक गया था, जो नम्रता को एक कार की कमजोरी, दया को एक प्रकार सकी कारयता तथा क्रूरता को एक प्रकार की शक्ति समझते हैं।
"मैंने एकान्तवस अपनाया, क्योंकि मेरी आत्मा उन लोगों के समागम से थक चुकी थी, जो वास्तव में इस बात पर विश्वास करते हैं कि सूर्य चांद और तारे उनके खजानों से ही उदय होते हैं और उनके बगीचों के अतिरिक्त कहीं अस्त नहीं होते। "मैं उन पदलोलुपों के पास से भागा, जो लोगों की आंखों में सुनहरी धूल झोंककर और उनके कानों की अर्थ विहीन आवाजों से भरकर उनके सांसारिक जीवन की छिन्न- भिन्न कर देते हैं।
"मैंने एकान्तवास ग्रहण किया; क्योंकि मुझे तबतक कभी किसी से दया न मिली, जबतक मैंने जी-जान स उसका पूरा-पूरा मूल्य न चुका दिया।
"मैं उन धर्म-गुरुओं से अगल हुआ, जो धर्मोपदेशों के अनुकूल स्वयं जीवन नहीं बिताते, किन्तु अन्य लोगों से ऐसे आचरण की मागं करते हैं, जिसे वे स्वयं अपनाते नहीं।
"मैंने एकान्तवास अपनाया; क्योंकि उस महान और विकट संस्था से ही मैं विमुख था, जिसे लोग सभ्यता कहते हैं और जो मनुष्य जाति की अविच्छिन्न दुर्गति पर एक सुरुप दानवता के रुप में छाई हुई है।
"मैं एकान्तवासी इसलिए बना कि इसी में आत्मा के लिए, हृदय के लिए तथा शरीर के लिए पूर्ण जीवन है। अपने इस एकान्तवास में मैंने वह मनोहर देश ढूंढ निकाला है, जहां सूर्य का प्रकाश विश्राम करता है: जहां पुष्प अपनी सुगन्ध को अपने मुक्त श्वासों द्वारा शून्य में बिखेरते, हैं, और जहां सरिताएं गाती हुई सागर को जाती हैं। मैंने ऐसे पहाड़ों को खोज निकाला है, जहां मैं स्वच्छ वसन्त को जागते हुए देखता हूं। और ग्रीष्म की रंगीन अभिलाषाओं, शरद के वैभवपूर्ण गीतों और शीत के सुन्दर रहस्यों को पाता हूं। ईश्वर के राज्य के इस दूर कोने में मैं इसलिए आया हूं। क्योंकि विश्च के रहस्यों को जानने और प्रभु के सिंहासन के निकट पहुंचने के लिए भी तो मैं भूखा हूं।"
यूसुफ साहब ने तब एक लम्बी सांस ली, मानों किसी भारी बोझ से अब मुक्ति पा गये हों। उनके नेत्र अनोखी तथा जादूभरी किरणों से सतेज हो उठे और उनके उज्जवल चेहरे पर गर्व, संकल्प संतोष झलकने लगा।
कुछ मिनट ऐसे ही गुजर गये। मैं उन्हें गौर से देखता रहा और जो मेरे लिए अभी तक अज्ञात था उस पर से आवतरण हटता तब मैंने उनसे कहा, "निस्संदेह आपने जो कुछ कहा, उसमें अधिकांश सही है; किंतु लक्षणो को देखकर सामाजिक रोगों का सही अनुमान लगाने से यह प्रमाणित हो गया है कि आप एक अच्छे चिकित्सक हैं मैं समझता हूं कि रोगी समाज को आज ऐसे चिकित्सक की अति आवश्यकता है, जो उसे रोग से मुक्त करे अथवा मृत्यु प्रदान करे। यह पीड़ित संसार सबसे दया की भीख चाहता है। क्या यह दयापूर्ण तथा न्यायोचित होगा कि आप एक पीड़ित रोगी को छोड़ जायं और उसे अपने उपकार से वंचित रहने दें?"
वे कुछ सोचते हुए मेरी ओर एकटक देखने लगे और फिर निराश स्वर में बोले, "चिकित्सक सृष्टि के आरम्भ से ही मानव को उनकी अव्यवस्थाओं से मुक्त कराने की चेष्टाएं करते आ रहे हैं। कुछ चिकित्सकों ने चीरफाड़ का प्रयोग किया और कुछ ने औषधियों का: किन्तु महामारी बुरी तरह फैलती गई। मेरा तो यही विचार है कि रोगी अगर अपनी मैली-कुचैली शैया पर ही पड़े रहने में संतुष्ट रहता और अपनी चिरकालीन व्याधि पर मनन-मात्र करता तो अच्छा होता! लेकिन इसके बदले होता क्या है? जो व्यक्ति भी रोगी मानव से मिलने आता है, अपने ऊपंरी लबादे के नीचे से हाथ निकालकर वह रोगी उसी आदमी को गर्दन से पकड़कर ऐसा धर दबाता है कि वह दम तोड़ देता है। हाय यह कैसा अभाग्य है! दुष्ट रोगी अपने चिकित्सक को ही मार डालता है- और फिर अपने नेत्र बन्द करके मन-ही-मन कहता है, ‘वह एक बड़ा चिकित्सक था।’ न, भाई न, संसार में कोई भी इस मनुष्यता को लाभ नहीं पहुंचा सकता। बीच बोनेवाला कितना भी प्रवीण तथा बुद्धिमान् क्यों न हो शीतकाल में कुछ भी नहीं उगा सकता !’’
किन्तु मैंने युक्ति दी "मनुष्यों का शीत कभी तो समाप्त होगा ही, फिर सुन्दर वसन्त आयेगा और तब अवश्य ही खेतों में फूल खिलेंगे और फिर से घाटियों में झरने वह निकलेगें।"
उनकी भकटी तन गई और कड़वे स्वर में उन्होंने कहा, "काश! ईश्वर ने मनुष्य का जीवन जो उसकी परिपूर्ण वृति हैं, वर्ष की भांति ऋतुओं में बांट दिया होता! क्या मनुष्यों का कोई भी गिरोह जो, ईश्चवर के सत्य और उसकी आत्मा पर विश्वास रखकर जीवित है, इस भूखण्ड पर फिर से जन्म लेना चाहेगा? क्या कभी ऐसा समय आयेगा जब मनुष्य स्थिर होकर दिव्य चेतना की टिक सकेगा, जहां दिन के उजाले की उज्जवलता तथा रात्रि की शान्त निस्तब्ध्ता में वह खुश रह सके? क्या मेरा यह सपना कभी सत्य हो पायेगा? अथवा क्या यह सपना तभी सच्चा होगा जब यह धरती मनुष्य के मांस से ढ़क चुकी होगी और उके रक्त से भीग चुकी होगी?"
यूसुफ साहब तब खड़े हो गये और उन्होने आकाश की ओर ऐसे हाथ उठाया, मानों किसी दूसरे संसार की ओर इशारा कर रहे हों और बोले, "नही हो सकता।इस संसार के लिए यह केवल एक सपना है। किंतु मैं अपने लिए इसकी खोज कर रहा हूं। और जो मैं खोज रहा हूं। वही मेरे हृदय के कोने-कोने में, इन घाटियों में और इन पहाड़ो में व्याप्क है।" उन्होंने अपने उत्तेजित स्वर को और भी ऊंचा करके कहा, "वास्तक में मैं जानता हूं। वह तो मेरे अन्त: करण की चीत्कार है। मैं यहां रह रहा हूं, कितुं मेरे अस्तित्व की गहराइयों में भूख और प्यास भरी हुई है, और अपने हाथों द्वारा बनाये तथा सजाये पात्रों में ही जीवन की मदिरा तथा रोटी लेकर खाने में मुझे आनंद मिलता तथा इसीलिए मैं मनुष्यों के निवास स्थान को छोड़कर यहां आया हूं और अंत तक यहीं रहूंगा।",
वे उस कमरे में व्याकुलता से आगे पीछे घूमते रहे और मैं उनके कथन पर विचार करता रहा तथा समाज के गहरे घावों की व्याख्या का अध्ययन करता रहा।
तब मैंने यह कहकर ढंग से एक और चोट की, "मैं आपके विचारों तथा आपकी इच्छाओं का पूर्णत: आदर करता हूं और आपके एकान्तवास पर मैं श्रद्धा भी करता हूं। और ईर्ष्या भी। किन्तु आपके अपने से अलग करके अभागे राष्ट्र ने काफी नुकसान उठाया है; उसे एक ऐसे समझकर सुधाकर की आवश्यकता है, जो कठिनाइयों में उसकी सहायता कर सके और सुप्त चेतना को जगा सके।"
उन्होंने धीमे-से अपना सिर हिलाकर कहा, "यह राष्ट्र भी दूसरे राष्ट्रों की तरह ही है, और यहां के लोग भी उन्हीं तत्वों से बने हैं, जिनसें शेष मानव। अंतर है तो मात्र बाह्य आकृतियों का, सो कोई अर्थ ही नहीं रखता। हमारे पूर्वीय राष्टों की वेदना सम्पूर्ण संसार की वेदना है। और जिसे तुम पाश्चात्य सभ्यता कहते हो वह और कुछ नहीं,उन अनेक दुखान्त भ्रामक आभासों का एक और रूप है।
"पाखण्ड तो सदैव ही पाखण्ड रहेगा, चाहे उसकी उंगलियों को रंग दिया जाय तथा चमकदार बना दिया जाय। बचना कभी न बदलेगी चाहे उसका स्पर्श कितना भी कोमल तथा मधुर क्यों न हो जाय! असत्यता कभी भी सत्यता में परिणत नहीं की जा सकती, चाहे तुम उसे रेशमी कपड़े पहनकर महलों में ही क्यों न बिठा दो। और लालसा कभी संतोष नहीं बन सकती है। रही अनंत गुलामी, चाहे वह सिद्धातों की हो, रीति-रिवाजों की हो या इतिहास की हो सदैव गुलामी ही रहेगी, कितना ही वह अपने चेहरे को रंग ले और अपनी आवाज को बदल ले। गुलामी अपने डरावने रुप में गुलामी ही रहेगी, तुम चाहें उसे आजादी ही कहों।
"नहीं मेरे भाई, पश्चिम न तो पूर्व से जरा भी ऊंचा है और न जरा भी नीचा। दोनों में जो अंतर है वह शेर और शेर-बबर के अंतर से अधिक नहीं है। समाज के बाह्य रुप के परे मैंने एक सर्वोचित और सम्पूर्ण विधान खोज निकाला है, जो सुख-दुख तथा अज्ञान सभी को एक समान बना देता है। वह विधान ने एक जाति का दूसरी से बढ़कर मानता है और न एक को उभारने के लिए दूसरे को गिराने का प्रयत्न करता है।"
मैंने विस्मय से कहा, "मनुष्यता का अभिमान झूठा है और उसमें जो कुछ भी है वह सभी निस्सार है।"
उन्होंने जल्दी से कहा, "हां, मनुष्यता एक मिथ्या अभिमान है और उसमें जो कुछ भी है, वह सभी मिथ्या है। आविष्कार तथा खोज तो मनुष्य अपने उस समय के मनोरंजन और आराम के लिए करता है, जब वह पूर्णतया थककर हार गया हो। देशीय दूरी को जीतना और समुद्रों पर विजय पाना ऐसा नश्चर फल है जो ने तो आत्मा को संतुष्ट कर सकता है, न हृदय का पोषण तथा उसका विकास ही; क्योंकि वह विजय नितान्त ही अप्राकृतिक है। जिन रचनाओं और सिद्धांतो को मनुष्य कला और ज्ञान कहकर पुकारता है, वे बंधन की उन कड़ियों और सुनहरी जंजीरो के अतिरिक्त कुछ भी नहीं है, जिन्हें मनुष्य अपने साथ घसीटता चलता है और जिनके चमचमाते प्रतिबिम्बों तथा झनझनाहट से वह प्रसन्न होता रहता है। वास्तव में वे मजबूत पिंजरे मनुष्य ने शताब्दियों पहले बनाना आरंभ किया था कितुं तब वह यह ने जानता था कि उन्हें वह अन्दर की तरफ से बना रहा और शीघ्र ही वह स्वयं बंदी बन जायेगा-हमेशा-हमेशा के लिए। हां-हां, मनुष्य के कर्म निष्फल हैं और उसके उद्देश्य निरर्थक हैं और इस पृथ्वी पर सभी कुछ निस्सार है।"
वे जरा से रूके और फिर धीरे –से बोलते गये, "और जीवन की इन समस्त निस्सारताओं में केवल एक ही वस्तु है, जिससे आत्म प्रेम करती हैं जिसे वह चाहती है। एक और अकेली देदीप्यमान वस्तु !"
मैंने कंपित स्वर में पूछा, "वह क्या ?" क्षण भर उन्होंने मुझे देखा और तब अपनी आंखे मीच लीं। अपने हाथ छाती पर रखे। उनका चेहरा तमतमाने लगा और विश्वसनीय तथा गंभीर आवाज में बोले, "वह है आत्मा की जागृति, वह है हृदय की आन्तरिक गहराइयों का उद्बोधन। वह सब पर छा जानेवाली एक महाप्रतापी शक्ति है, जो मनुष्य-चेतना में कभी भी प्रबुद्ध होती है और उसकी आंखे खोल देती है। तब उस महान् संगीत की उज्ज्वल धारा के बीच, जिसे अनंत प्रकाश घेरे रहता है, वह जीवन दिखाई पड़ता है, जिससे लगा हुआ मनुष्य सुन्दरता के स्तम्भ के समान आकाश और पृथ्वी के बीच खड़ा रहता है।
"वह एक ऐसी ज्वाला है, जो आत्मा में अचानक सुलग उठती है और हृदय को तपाकर पवित्र बना देती है, पृथ्वी पर उतर आती है और विस्तृत आकाश में चलकर लगाने लगती है।
"वह एक दया है, जो मनुष्य के हृदय को आ घेरती है, ताकि उसकी प्रेरणा से मनुष्य उन सबको आवाक् बनाकर अमान्य कर दे, जो उसका विरोध करते है और जो उसके महान् अर्थ समझने में असमर्थ रहते हैं, उनके विरुद्ध वह शक्ति विद्रोह पैदा करती है।
"वह एक रहस्यमय हाथ हैस, जिसने मेरे नेत्रो के आवरण को तभी हटा दिया, जब मैं समाज का सदस्य बना हुआ अपने परिवार, मित्रों तथा हितैषियों के बीच रहा करता था।
"कई बार मैं विस्मत हुआ और मन-ही-मन कहता रहा, -‘क्या है यह सृष्टि और क्यों मैं उन लोगों से भिन्न हूं, जो मुझे देखते हैं? मैं उन्हें कैसे जानता हूं, उन्हें मैं कहां मिला और क्यों मैं उनके बीच रह रहा हूं? क्या मैं उन लोगों में एक अजनबी हूं। अथवा वे ही इस प्रकार अपरिचित है-ऐसे संसार के लिए जो दिव्य चेतना से निर्मित है और जिसका मुझे पर पूर्ण विश्चास है?"
अचानक वे चुप हो गये, जैसे कोई भूली बात स्मरण कर रहें हो, जिसे वह प्रकट नहीं करना चाहते। तब उन्होंने अपनी बांहें फैला दीं और फुसफूसाया, "आज से चार वर्ष पूर्व, जब मैंने संसार का त्याग किया, मेरे साथ यही तो हुआ था। इस निर्जन स्थान में मैं इसलिए आया कि जागृत चेतना में एक सकूं और सम्मनस्कता और सौग्य नीरवता के आनदं को भोग सकूं।"
गहन अंधकर की ओर घूरते हुए वे द्वार की ओर बढ़े, मानों तूफान से कुछ कहना चाहते हो, पर वे प्रकम्ति स्वर में बोले, "यह आत्मा के भीतर की जागृति है। जो इसे जानता हों, पर वे प्रकम्पित स्वर में बोले, "यह आत्मा के भीतर की जागृति है। जो इसे जानता है, वह इसे शब्दों में व्यक्त नहीं कर सकता, और जो नहीं जानता, वह अस्त्वि के विवश करनेवाले किंतु सुंदर रहस्यों के बारे में कभी ने सोच सकेगी।"
एक घंटा बीत गया, यूसुफ –अल फाख़री कमरे में एक कोने से दूसरे कोने तक लम्बे डग भरते घूम रहे थे। वे कभी-कभी रुककर तुफान के कारण अत्यधिक भूरे आकाश को ताकने लगते थे। मैं खामोश ही बना रहा और उनके एकांतवासी जीवन की दु:ख-सुख की मिली-जुली तान पर सोचता रहा।
कुछ देर बाद रात्रि होने पर वे मेरे पास आये और देर तक मेरे चेहरे को घूरते रहे, मानों उस मनुष्य के चित्र को अपने मानस-पट पर अंकिट कर लेना सोच हो, जिसकें सम्मुख उन्होंने अपने जीवन के गूढ रहस्यों का उद्धटन कर दिया हो। विचारो की व्याकुलता से मेरा मन भारी हो गया था। और तूफान की धुन्ध के कारण मेरी आंखं बोझिल हो चली थीं।
तब उन्होंने शांतिपूर्वक कहा, "मैं अब रात भर तुफान में घूमने जा रहा हूं,। ताकि प्रकृत के भावाभिव्यंजन की समीपता भांप सकूं। यह मेरा अभ्यास है, जिसका आनंद मैं अधिकतर शरद तथा शीत में लेता हूं। लो, यह थोड़ी मदिरा है और यह तम्बाकू। कृपा कर आज रात भर के लिए मेरा घर अपना ही समझो।"
उन्होंने अपने आपको एक काले लबादे से ढंक लिया और मुस्कराकर बोले, "मैं तुमसे प्रार्थना करता हूं कि सुबह जब तुम जाओं तो बिना आज्ञा के प्रवेश करनेवालों के लिए मेरे द्वार बन्द करते जाना: क्योंकि मेरा कार्यक्रम है कि मैं सारा दिन पवित्र देवदारो के बन में घूमते बिताऊंगा।" तब वे द्वार की ओर बढ़े और एक लम्बी छड़ी साथ लेकर बोले, "यदि तूफान फिर कभी तुम्हें अचानक इस जगह के आपपास घूमते हुए आ घेरे, तो इस आश्रम में आश्रय लेने में संकोच न करना। मुझे आशा है कि अब तुम तूफान से प्रेम करना सीखोगे, भयभीत होना नही! सलाम, मेरे भाई!"
उन्होंने द्वार खोला और अन्धकार में अपने सिर को ऊपर उठाये बाहर निकल गये। यह देखने के लिए कि वे कौन-से रास्ते से गये हैं, मैं ड्योढ़ी पर ही खड़ा रहा, कितुं शीघ्र ही वे मेरी आंखों से ओझल हो गये। कुछ मिनटों तक मैं घाटी के कंकड़ –पत्थरो पर उनकी पदचाप सुनता रहा।
गहन विचारो की उम रात्रि के पश्चात जब सुबह हुई तब तूफान चुका था और आसमान निर्मल हो गया था। सूर्य की गर्म किरणों से मैदान और घाटियां तमतमा रही थीं। नगर को लौटते समय मैं उस आत्मिक जागृति के सम्बन्ध में सोचता जाता था, जिसके लिए यूसुफ-अल-फाख़री ने इतना कुछ कहा था। वह जागृति मेरे अंग-अंग में व्याप रही थी। मैंने सोचा कि मेरा यह स्फरण अवश्य ही प्रकट होना चाहिए। जब मैं कुछ शान्त हुआ तो मैंने देखा कि मेरे चारों ओर पूर्णता तथा सुन्दरता बसी हुई है।
जैसे ही मैं उन चीखते-पुकारते नगर के लोगों के पास पहुंचा मैंने उनकी आवाजों को सुना और उनके कार्यो को देखा, तो मैं रूक गया और अपने अन्त:करण से बोला, "हां आत्मबोध मनुष्य के जीवन में अति आवश्यक है और यही मानव-जीवन का एकमात्र उद्देश्य है।क्या स्वयं सभ्यता समस्त दु:खपूर्ण बहिरंग में आत्मिक जागृति के लिए एक महान ध्येय नहीं है? तब हम किस प्रकार एक ऐसे पदार्थ के अस्तित्व से इन्कार कर सकते हैं, जिसका अस्तित्व ही अभीप्सित योग्यता की समानता का पक्का प्रमाण है? वर्तमान सभ्यता चाहे नाशकारी प्रयोजन ही रखती हो, कितुं ईश्वरीय विधान ने उस प्रयोजन के लिए एक ऐसी सीढ़ी प्रदान की है, जो स्वतन्त्र अस्तित्व की ओर ले जाती है।"
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