दीना ने जवाब दिया कि जिस चीज को देखकर मैं बहुत खुश हूं, वह आपकी जमीन है। हमारे यहां जमीन की कमी है और वह उपजाऊ भी इतनी नहीं होती, लेकिन यहां उसका कोई पार नहीं है और वह जमीन उपजाऊ भी खूब है। मैंने तो अपनी आंखों से यहां-जैसी धरती दूसरी देखी नहीं।
दुभाषिये ने दीना की बात अपने लोगों को समझा दी। कुछ देर वे आपस में सलाह करते रहे। दीना समझ नहीं सकता कि वे क्या कह रहे हैं। लेकिन उसने देखा कि वे बहुत खुश मालूम होते है, बड़े हंस रहे हैं और जोर-जोर से बोल रहे हैं। अनंतर वे चुप हुए और दीना की तरफ देखने लगे।
फिर आपस में बात करने लगे। मालूम पड़ा कि जैसे उनमें कुछ दुविधा है। दीना ने पूछा कि उन लोगों में अब किस बात की अटक है। दुभाषिये ने बताया कि उनमें कुछ की राय है कि सरदार से जमीन देने के बारे में और पूछ लेना चाहिए, गैर-हाजिरी में कुछ कर डालना ठीक नहीं है। दूसरों का खयाल है कि इस बात में सरदार के लौटने की राह देखने की जरुरत नहीं है, जरा-सी तो बात है।
यह विवाद चल रहा था कि एक आदमी बड़ी-सी बालदार टोपी पहने वहां आ पहुंचा। सब चुप होकर उसके संम्मान में खड़े हो गये। दुभाषिये ने कहा कि यही हमारे सरदार है।
दीना ने फौरन अपने सामान में से एक बढ़िया लबाद निकाला और चाय का एक बड़ा डिब्बा, और अन्य चीजें सरदार को भेंट कीं। सरदार ने भेंट स्वीकार की और अपने आसन पर आ बैठा। बैठते ही कोल लोगों ने उससे कुछ कहना शुरु किया। सरदार कुछ देर सुनता रहा, फिर उसने उन्हें चुप रहने का इशारा किया। उसे बाद दीना की तरफ मुखातिब होकर हिन्दुस्तानी में कहा:
‘‘इन भाइयों ने जो कहा, ठीक है। जितनी जमीन चाहे चुन लो। हमारे यहां उसका घाटा नहीं है।’’
दीना ने सोचा कि मैं मनचाहे जितनी जमीन कैसे ले सकता हूं। पक्का करने के लिए दस्तावेज वगैरा भी तो चाहिए, नहीं तो जैसे आज इन्होंने कह दिया कि यह तुम्हारी है, पीछे वैसे ही उसे ले भी सकते हैं।
प्रकट में उसने कहा, ‘‘आपकी दया के लिए मैं कृतज्ञ हूं। आपके पास बहुत धरती है और मुझे थोड़ी-सी चाहिए। लेकिन मुझे भरोसा होना चाहिए कि मेरा अपना छोटा टुकड़ा कौन-सा है और यह कि वह मेरा ही है। क्या ऐसा नहीं हो सता कि जमीन को नाप लिया जाय और उतना टुकड़ा फिर मेरे हवाले कर दिया जाय? मरना-जीना ईश्वर के हाथ है और संसार में यही चक्कर चलता है। आप दयावान लोग तो मुझे यह देते हैं, पर हो सता है कि पीछे आपकी औलाद उसीको वापस ले लेना चाहे तब?’’
सरदार ने कहा, ‘‘तुम्हारी बात ठीक है। जमीन तुम्हारे हवाले ही कर दी जायगी।’’
दीना ने कहा, ‘‘सुना है, यहां एक सौदागर आया था। उसको भी आपने जमीन दी थी और उस बाबत कागज पक्का कर दिया था। वैसे ही मैं चाहता हूं कि कागज पक्का हो जाय।’’
सरदार समझ गया।
बोला, ‘‘हां, जरुर। यह तो आसानी से हो सकता है। हमारे यहां एक मुंशी है, कस्बे में चलकर लिखा-पढ़ी पक्की कर ली जायगी और रजिस्ट्री हो जायगी।’’
दीना ने पूछा, ‘‘कीमत की दर क्या होगी?’’
‘‘हमारी दर तो एक ही है। एक दिन के एक हजार रुपये।’’
दीना समझा नहीं। बोला, ‘‘दिन! दिन का हिसाब यह कैसा है? यह बताइये कितने एकड़?’’
सरदार ने कहा, ‘‘यह सब गिनना-गिनाना हमसे नही होता। हम तो दिन कि हिसाब से बेचते हैं, जितनी जमीन एक दिन में पैदल चलकर तुम नाप डालो, वही तुम्हारी। और कीमत है ही दिनभर की एक हजार।’’
दीना अचरज में पड़ गयां कहा, ‘‘एक दिन में तो बहुत-सी जमीन को घेरा जा सकता है।’’
सरदार हंसा। बोला, ‘‘हां, क्यों नही। बस, वह सब तुम्हारी। लेनि एक शर्त है। अगर तुम उसी दिन, उसी जगह न आ गये, जहां से चले थे, तो कीमत जब्त समझी जायगी।’’
‘‘लेकिन मुझे पता कैसे चलेगा कि मैं इस जगह से चला था।’’
‘‘क्यों, हम सब साथ चलेंगे और जहां तुम ठहरने को कहोगे, ठहरे रहेंगे। उस जगह से शुरु करना और वहीं लौट आना। साथ फावड़ा ले लेना। जहां जरुरी सूमझा, निशान लगा दिया। हर मोड़ पर एक गड्ढा किया और उस पर घास को जरा ऊंचा चिन दिया। पीछे फिर हमलोग चलेंगे और हल से इस निशान से उस निशान तक हदबन्दी खींच देंगे। अब दिन भर में जितना चाहो, बडे-से-बड़े चक्कर तुम लगा सकते हो। पर सूरज छिपने से पहले जहां से चले थे, वहां आ पहुंचना। जितनी जमीन तुम इस तरह नाप लोगे, वह तुम्हारी हो जायगी।’’
दीना खुश हुआ। तय हुआ कि अगले सवेरे ही चलना शुरु कर दिया जायगा। फिर कुछ गपशप हुई, खाना-पीना हुआ। ऐसे ही करते-कराते रात हो गई। दीना के लिए उन्होंने खूब आराम का परों का बिस्तर लगा दिया और वे लोग रातभर के लिए विदा हो गये। कह गये कि पौ फटने से पहले ही वे आ जायंगे, ताकि सूरज निकलने से पहले-पहले मुकाम पर पहुंच जाया जाय।
दीना अपने परों के बिस्तरे पर लेटा तो रहा, पर उसे नींद ने आई। रह-रहकर वह जमीन के बारे में सोचने लगता था:
‘‘चलकर मैं कितनी जमीन नाप डालूं कुछ ठिकाना है! एक दिन में पैंतीस मील तो आसानी से कर ही लूंगा। दिन आजकल लंबे होते हैं और पैंतीस मील!—कितनी जमीन उसमें आ जायगी! उसमें से घटिया वाली तो बेच दूंगा या किराये पर उठा दूंगा, लेकिन जो चुनी हुई बढ़िया होगी वहां अपना फाम्र बनाऊंगा। दो दर्जन तो बैल फिलहाल काफी होंगे। दो आदमी भी रखने होंगे। कोई डेढ़ सौ एकड़ में तो काश्त करुंगा। बाकी चराई के लिए।’’
दीना रातभर पड़ा जमीन-आसमान के कुलाबे मिलाता रहा। देर-रात कहीं थोड़ी नींद आई। आंख झपी होगी किसी के बाहर से खिलखिलाकर हंसने की आवाज उसके कानों में आई। अचरज हुआ कि यह कौन हो सकता है? उठकर बाहर आकर देखा कि कोल लोगों का वह सरदार ही बाहर बैठा जोर-जोर से हंस रहा है। हंसी के मारे अपना पेट पकड़ रक्खा है। पास जाकर दीना ने पूछना चाहा, ‘‘आप ऐसे हंस क्यों रहे हैं?’’ लेकिन अभी पूछ पाया नहीं था कि देखता क्या है कि वहां सरदार तो है नहीं, बल्कि वह सौदागर बैठा है, जो अभी कुछ दिन पहले उसे अपने देश में मिला था ओर जिसने इस जमीन की बात बताई थी। तब दीना उससे पूछने को हुआ कि यहां तुम कैसे हो और कब आये? लेकिन देखा तो वह सौदागर भी नहीं, बल्कि वही पुराना किसान है जिसने मुद्दत हुई तब सतलज-पार की जमीन का पता दिया था। लेकिन फिर जो देखता है तो वह किसान भी नहीं है, बल्कि खुद शैतान है, जिसके खुर हैं और सींग है। वही वहां बैठा ठट्टा मारकर हंस रहा है। सामने उसके एक आदमी पड़ा हुआ है—नंगे पैर, बदन पर बस एक कुर्त्ता-धोती। जमीन पर वह आदमी औंधे मुंह बेहाल पड़ा है। दीना ने सपने में ही ध्यान से देखा कि ऐसा पड़ा हुआ आदमी कौन है और कैसा? देखता क्या है कि वह आदमी दूसरा कोई नहीं, खुद दीना ही है और उसकी जान निकल चुकी है। यह देखकर मारे डर के वह घबरा गया। इतने में उसी आंख खुल गई।
उठकर सोचा कि सपने में आदमी जाने क्या-क्या वाहियात बातें देख जाता है। अंह्! यह सोचकर मुंह मोउ़ दरवाजे के बाहर झांककर जो देखा तो सवेरा होनेवाला था। सोचा, समय हो गया। उन्हें अब जगा देना चाहिए। चलने में देर ठीक नहीं।
वह खड़ा हो गया और गाड़ी में सोते हुए अपने आदमी को जगाया। कहा कि गाड़ी तैयार करो। खुद कोल लोगों को बुलाने चल दिया।
जाकर कहा, ‘‘सवेरा हो गया है। जमीन नापने चल पड़ना चाहिए।’’ कोल लोग सब उठे और इकट्ठे हुए। सरदार भी आ गये। चलने से पहले उन्होंने चाय की तैयारी की और दीना को चाय के लिए पूछा। लेकिन चाय में देर होने का खयाल कर उसने कहा, ‘‘अगर जाना है तो हमको चल देना चाहिए। वक्त बहुत हो गया।’’
कोल तैयार हुए और सब चल पड़े। कुछ घोड़े पर, कुछ गाड़ी में। दीना नौकर के साथ अपनी छोटी बहली में सवार था। फावड़ा उसने साथ रख लिया था। खुले मैदान में जब पहुंचे, तड़का फूट ही रहा था। पास एक ऊंची टेकड़ी थी, पार खुला बिछा मैदान। टेकड़ी पर पहुंचकर गाड़ी-घोड़ों से सब उतर आये और एक जगह जमा हुए। सरदार ने फिर आगे जाने कितनी दूर तक फैले मैदान की तरफ हाथ उठाकर दीना से कहा कि देखते हो, जहांतक यह सब, आंख जाती है वहांतक, हमलोगों की जमीन है। उसमें जितनी तुम चाहों, ले लो।
दीना की आंखें चमक उठीं। धरती एकदम अछूती पड़ी थी। हथेली की तरह हमवार और मुलायम। काली ऐसी कि बिनौला। और जहां कहीं जरा निचान था, वहां छाती-छाती जितनी तरह-तरह की हरियाली छाई थी।
सरदार ने अपने सिर की रोएंदार टोपी उतारी और धरती पर रख दी। कहा ‘‘यह निशान रहा। यहां से चलो और यहां आ जाओ। जितनी जमीन चल लोगे, वहीं तुम्हारी।’’
दीना ने भी रुपये निकाले और टोपी पर निगकर रख दिये। फिर उसने पहना हुआ अपना कोट उतार डाला और धोती को कस लिया। अंगोछे में रोटी रक्खी, आस्तीनों चढ़ाई, पानी का बन्दोबस्त किया, आदमी से फावड़ा लिया, और चलने को तैयार खड़ा हो गया। कुछ क्षण सोचता रह गया कि किस तरफ को चलना बेहतर होगा। सभी तरफ का लालच था।
उसने तय किया कि आगे देखा जायगा। पहले तो सामने सूरज की तरफ ही चला चलूं। एक बार पूरब की ओर मुंह करके खड़ा हो गया, अंगड़ाई लेकर बदन की सुस्ती हटाई और धरती के किनारे सूरज के मुंह चमकाने का इंतजार करने लगा।
सोचने लगा कि मुझे वक्त नहीं खोना चाहिए और ठंड-ठंड में रास्ता अच्छा पार हो सकता है। सूरज की पहली किरण का उनकी ओर आना था कि दीना, कंधे पर फावड़ा संभाल, खुले मैदान में कदम बढ़ाकर चल दिया।
शुरु में वह न धीमे चला, न तेज। हजार-एक गज चलने पर वह ठहरा। वहां एक गड्ढा किया और घास ऊंची चिन दी कि आसानी से दीख सके। फिर आगे बढ़ा। उसे बदने में फुर्ती आ गई। उसने चाल तेज कर दी। कुछ देर बाद दूसरा गड्ढा खोदा।
अब पीछे मुड़कर देखा। सूरज की धूप में टेकड़ी साफ दीखती थी। उस पर आदमी खड़े थे और गाड़ी के पहियों के आरे तक चमकते दीखते थे। अंदाजन तीन मील तो वह आ गया होगा। धूप में ताप आता जाता था। कुर्ते पर से बास्कट उतारकर उसने कंधे पर डाल ली और फिर चल पड़ा। अब खासी गर्मी होने लगी। उसने सूरज की तरफ देखा। वक्त हो गया था कि कुछ खाने-पीने की भी सोची जाती।
‘‘एक पहर तो बीत गया। लेकिन दिन में चार पहर होते हैं। अंह्, अभी जल्दी है। लेकिन जूते उतार डालूं।’’ यह सोच उसने जूते उतारकर अपनी धोती में खोंस लिये और बढ़ चला। अब चलना आसान था।
सोचा, ‘‘अभी तीन-एक मील तो और भी चला चलूं। तब दूसरी दिशा लूंगा। कैसी उमदा जगह ह। इसे हाथ से जाने देना हिमाकत है; लेकिन क्या अजब बात है कि जितना आगे बढ़ो, उतनी जमीन एक-से-एक बढ़कर मिलती है।’’
कुछ देर वह सीधा बढ़ा चला। फिर पीछे मुड़कर देखा तो टेकड़ी मुश्किल से दीख पड़ती थी और उस पर के आदमी रेंगती चींटी-से मालूम होते थे और वहां धूप में जाने क्या कुछ चलता हुआ-सा दीख पड़ता था।
दीना ने सोचा, ‘‘ओह, मैं इधर काफी बढ़ आया हूं। अब लौटना चाहिए।’’ पसीना बेहद आ रहा था और प्यास भी लग आई थी।
यहां ठहरकर उसने गड्ढा किया, ऊपर घास को ढेर चिन दिया। उसके बाद पानी पीकर सीधा बाई। तरफ मुड़ गया। चलता चला गया, चलता चला गया। घास ऊंची थी और गरमी बढ़ रही थी। वह थकने लगा। उसने सूरज की तरफ देखा। सिर पर दोपहर हो आई थी।
सोचा, अब जरा आराम कर लेना चाहिए। वह बैठ गया। रोटी निकालकर खाई और कुछ पानी पिया। लेटा नहीं कि कहीं नींद न आ जाय। इस तरह कुछ देर बैठ, फिर आगे बढ़ चला।
पहले तो चलना आसान हुआ। खाने से उसमें दम आ गया था। लेकिन गरमी तीखी हो चली और आंखों में उसके ऊंघ-सी आने लगी। तो भी वह चलता ही चला गया। सोचा कि तकलीफ घड़ी-दो-घड़ी की है, आराम जिंदगी भर का हो जायगा।
इस तरह भी उसने काफी लम्बी राह नापी। वह बाईं तरफ मुड़ने वाला ही था कि आगे जमीन उपजाऊ दिखाई दी। उसने सोचा कि इस टुकड़े को छोड़ना तो मूर्खता होगी। यहां सनी की बाड़ी ऐसी उगेगी कि क्या कहना! यह सोच उसने उस टुकड़े को भी नाप डाला और पार आकर गड्ढे का निशान बना दिया। फिर दूसरी तरफ मुड़ा। जो टेकड़ी की तरफ देखा तो ताप के मारे हवा कांपती-सी मालूम हुई। उस कंपकंपी के धुंधकारे में से वह टेकड़ी की जगह मुश्किल से चीन्ह पड़ती थी।
दीना ने सोचा कि क्षेत्र की ये दो भुजाएं मैंने ज्यादा मैंने नाप डाली है। अब इधर कुछ कम ही रहने दूं। वह तेज कदमों से तीसरी तरफ बढ़ा। उसने सूरज को देखा। सूरज कोई दो-तिहाई। अपना चक्कर काट चुका था। मुकाम से अभी वह दस मील दूर था। उसने सोचा कि छोड़ा जाने भी दो। मेरी जमीन की एक बाजू छोटी रह जायगी तो छोटी सही। लेकिन अब सीधी लकीर में मुझे वापस चलना चाहिए। जो ऐसे कहीं दूर निकल गया। तो बाजी गई। अरे, इतनी ही जमीन क्या थोड़ी है!
यह सोच दीना ने वहां तीसरे गड्ढे का निशान डाल दिया और टेकड़ी की तरफ मुंह कर ठीक उसी सीध में चल दिया।
नाक की सीध बांधकर सवह टेकड़ी की तरफ चला। लेकिन अब चलते मुश्किल होती थी। धूम उसका सत ले चुकी थी। नंगे पैर जगह-जगह कट और छिल गये थे और टांगें जवाब दे रही थीं। जरा आराम करने का उसका जी हुआ, लेकिन यह कैसे हो सकता था? सूरज छिपने से पहले उसे वहां पहुंच जाना था। सूरज किसी की बाट देखता बैठा नहीं रहता! वह पल-पल नीचे ढल रहा था।
उसके मन में सोच होने लगा कि मुझसे बड़ी भूल हुई। मैंने इतने पैर पसारे क्यों? अगर कहीं वक्त तक न पहुंचा तो?
उसने फिर टेकड़ी की तरफ देखा, फिर सूरज की तरफ। मुकाम से अभी वह दूर था और सूरज धरती के पास झूक रहा था।
दीना जी-तोड चलने लगा। चलने में सांस फूलती और कठिनाई होती थी; लेकिन तेज-पर तेज कदम वह रखता गया। बढ़ा चला, लेकिन जगह अब भी दूर बनी थी। यह देख उसने भागना शुरु किया। कंधे से वास्कट फेंक दी, जूते दूर हटाए, टोपी अलग की,बस साथ में निशान लगाने के लिए वह हल्का फावड़ा रहने दिया।
रह-रहकर सोच होता कि मैं क्या करुं? मैंने बिसात से बाहर चीज हथियानी चाही।
उसमें बना काम बिगड़ा जा रहा है। अब सूरज छिपने से पहले मैं वहां कैसे पहुंचूंगा?
इस सोच और डर के कारण वह और हांफने लगा। वह पसीना-पसीना हो रहा था, धोती गीली होकर चिपकी जा रही थी और मुंह सूख गया था। लेकिन फिर भी वह भागता ही जाता था। छाती उसकी लुहार की धौंकनी की तरह चल उठी, दिल भीतर हथौड़े की चोट-सा धड़कने लगा। उधर टांगे बेबस हुई जा रही थीं। दीना को डर हुआ कि इस थकान के मारे कहीं गिरकर ढेर ही न हो जाय।
हाल यह था, पर रुक वह नहीं सका। इतना भागकर भी अगर मैं जब रूकूंगा तो वे सब लोग मुझ पर हंसेगे और बेवकूफ बनायंगे, इसलिए उसने दौड़ना न छोड़ा दौड़े ही गया। आगे कोल लोगों की आवाज सुन पड़ती थी। वे उसको जोर जोर से कहकर बुला रहे थे। इन आवाजों पर उसका दिल और सुलग उठा। अपनी आखिरी ताकत समेट वह दौड़ा।
सूरज धरती से लगा जा रहा था। तिरछी रोशनी के कारण वह खूब बड़ा और लहू-सा लाल दीख रहा था। वह अब डूबा, अब डूबा। सूरज बहुत नीचे पहुंच गया था। लेकिन दीना भी जगह के बिल्कुल किनारे आ लगा था। टेकड़ी पर हाथ हिला-हिलाकर बढ़ावा देते हुए कोल लोग उसे सामने दिखाई देते थे। अब तो जमीन पर रक्खी वह टोपी भी दीखने लगी, जिस पर उसकी रकम भी रक्खी थी। वहां बैठा सरदार भी दिखाई दिया- वह पेट पकड़े हंस रहा था।
दीना को सपने की याद हो आई।
उसने सोचा कि हाय, जमीन तो काफी नाप डाली है, लेकिन क्या ईश्वर मुझे उसको भोगने के लिए बचने देगा? मेरी जान तो गई दीखती है। मैं मुकाम तक अब नहीं पहुंच सकूंगा। दीना ने हसरत-भरी निगाह से सूरज की तरफ देखा सूरज धरती को छू चुका था। वह बची-खुची अपनी शक्ति से आगे बढ़ा । कमर झुकाकर भागा, जैसे कि टांगें साथ न देती हों। टेकड़ी पर पहुंचते-पहुंचते अंधेरा हो आया था। उसने ऊपर देखा-सूरज छिप चुका था। उसके मुंह से एक चीख–सी निकल गई, "ओह, मेरी सारी मेहनत व्यर्थ गई!"-यह सोचकर वह थमने को हुआ, लेकिन उसे सुन पड़ा कि खड़े हैं और उन्हें सूरज अब भी दीख रहा होगा। सूरज छिपा नहीं है, अगर्चे मुझको नहीं दीखता। यह सोचकर उसने लंबी सांस खींची और टेकड़ी पर आंख मूंदकर दौड़ा। चोटी पर अभी धूप थी। पास पहुंचा और सामने टोपी देखी। बराबर सरदार बैठा वहीं पेट पकड़े हंस रहा था। दीना को फिर अपना सपना याद आया और उसके मुंह से चीख निकल पड़ी। टांगों ने जवाब दे दिया।
वह मुंह के बल आगे को गिरा और उसके हाथ टोपी तक जा पहुंचे।
"खूब ! खूब !" सरदार ने कहा, "देखो, उसने कितनी जमीन ले डाली !"
दीना का नौकर दौड़ा आया और उसने मालिक को उठाना चाहा। लेकिन देखता क्या है कि मालिक के मुंह से खून निकल रहा है।
hmm.. Heart touching story.. I loved it..
जवाब देंहटाएंone time reading.
जवाब देंहटाएंgood.
Good story..!!
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