यूसूफ अल-फाख़री की आयु तब तीस वर्ष की थी, जब उन्होंने संसार को त्याग दिया और उत्तरी लेबनान में वह कदेसा की घाटी के समीप एक एकांत आश्रम में रहने लगे। आपपास के देहातों में यूसुफ के बारे में तरह-तरह की किवदन्तियां सुनने में आती थीं। कइयों का कहना था कि वे एक धनी-मानी परिवार के थे और किसी स्त्री से प्रेम करने लगे थे, जिसने उनके साथ विश्वासघात किया। अत: (जीवन से) निराश हो उन्होंने एकान्तवास ग्रहण कर लिया। कुछ लोगों का कहना था कि वे एक कवि थे और कोलाहलपूर्ण नगर को त्यागकर वे इस आश्रम में इसलिए रहने लगे कि यहां (एकान्त में) अपने विचारों को संकलित कर सकें और अपनी ईश्वरीय प्रेरणाओं को छन्दोबद्ध कर सकें। परन्तु कइयों का यह विश्वास था कि वे एक रहस्यमय व्यक्ति थे और उन्हें अध्यात्म में ही संतोष मिलता था, यद्यपि अधिकांश लोगों क यह मत था कि वे पागल थे।
जहां तक मेरा सम्बन्ध है, इस मनुष्य के बारे में मैं किसी निश्चय पर न पहुंच पाया, क्योंकि मैं जानता था कि उसके हृदय में कोई गहरा रहस्य छिपा है, जिसक ज्ञान कल्पना-मात्र से प्राप्त नहीं किया जा सकता। एक अरसे से मैं इस अनोखे मनुष्य से भेटं करने की सोच रहा था। मैंने अनेक प्रकार से इनसे मित्रता स्थापित करने का प्रयास किया; इसलिए कि मैं इनकी वास्तविकता को जान सकूं और यह पूछकर कि इनके जीवन का क्या ध्येय है, इनकी कहानी को जान लूं। किन्तु मेरे सभी प्रयास विफल रहे। जब मैं प्रथम बार उनसे मिलने गया तो वे लेबनान के पवित्र देवदारों के जंगल में घूस रहे थे। मैंने उन्हें चुने हुए शब्दों की सुन्दरतम भाषा में उनका अभिवादन किया, किन्तु उन्होंने उत्तर में जरा-सा सिर झुकाया और लम्बे डग भरते हुए आगे निकल गये।
दूसरी बार मैंने उन्हें आश्रम के एक छोटे-से अंगूरों के बगीचे के बीच में खड़े देखा। मैं फिर उनके निकट गया। और इस प्रकार कहते हुए उनका अभिनन्दन किया, "देहात के लोग कहा करते हैं कि इस आश्रम का निर्माण चौदहवीं में सीरिया-निवासियों के एक सम्प्रदाय ने किया था। क्या आप इसके इतिहास के बारे में कुछ जानते है?"
उन्होंने उदासीन भाव में उत्तर दिया, "मैं नहीं जानता कि उस आश्रम को किसने बनवाया और सन ही मुझे यह जानने की परवा है।" उन्होंने मेरी ओर से पीठ फेर जली और बोले, "तुम अपने बाप-दादों से क्यों नहीं पूछते, जो मुझसे अधिक बूढ़े हैं और जो इन घाटियों के इतिहास से मुझसे कहीं अधिक परिचित हैं?"
अपने प्रयास को बिल्कुल ही व्यर्थ समझकर मैं लौट आया।
इस प्रकार दो वर्ष व्यतीत हो गये। उस निराले मनुष्य की झक्की जिन्दगी ने मेरे मस्तिष्क में घर कर लिया और वह बार-बार मेरे सपनों में आ-आकर मुझे तंग करने लगा।
शरद् ऋतु में एक दिन, जब मैं यूसुफ-अल फ़ाखरीके आश्रम के पास की पहाड़ियों तथा घाटियों में घूमता फिर रहा था, अचानक एक प्रचण्ड आंधी और मूसलाधार वर्षा ने मुझे घेर लिया और तूफान मुझे एक ऐसी नाव की भांति इधर-से-उधर भटकाने लगा, जिसकी पतवार टूट गई हो और जिसका मस्तूल सागर के तूफानी झकोरों से छिन्न-भिन्न हो गया हो। बड़ी कठिनाई से मैंने अपने पैरों को यूसुफ साहब के आश्रम की ओर बढ़ाया और मन-ही-मन सोचने लगा, "बड़े दिनों की प्रतीक्षा के बाद यह एक अवसर हाथ लगा है। मेरे वहां घुसने के लिए तूफान एक बहाना बन जायगा और अपने भीगे हुए वस्त्रों के कारण मैं वहां काफी समय तक टिक सकूंगा।"
जब मैं आश्रम में पहुंचा तो मेरी स्थिति अत्यन्त ही दयनीय हो गई थी। मैंने आश्रम के द्वार को खटखटाया तो जिनकी खोज में मैं था, उन्होंने ही द्वार खोला। अपने एक हाथ में वह ऐसे मरणसन्न पक्षी को लिये हुए थे, जिसके सिर में चोट आई थी और पंख कट गये थे। मैंने यह कहकर उनकी अभ्यर्थना की,"कृपया मेरे इस बिना आज्ञा के प्रवेश और कष्ट के लिए क्षमा करें। अपने घर से बहुत दूर तूफान में मैं बुरी तरह फंस गया था।"
त्यौरी चढ़ाकर उन्होंने कहा, " इस निर्जन वन में अनेक गुफांए हैं, जहां तुम शरण ले सकते थे।" किन्तु जो भी हो, उन्होंने द्वार बन्द नहीं किया। मेरे हृदय की धड़कन पहले से ही बढ़ने लगी; क्योंकि शीघ्र ही मेरी सबसे बड़ी तमन्ना पूर्ण होने जा रही थी। उन्होंने पक्षी के सिर को अत्यन्त ही सावधानी से सहलाना शुरु किया और इस प्रकार अपने एक ऐसे गुण को प्रकट करने लगे, जो मुझे अति प्रिय था। मुझे इस मनुष्य के दो प्रकार के परस्पर विरोधी गुण-दया और निष्ठुरता-को एक साथ देखकर आश्चर्य हो रहा था। हमें ज्ञात हुआ कि हम गहरी निस्तब्धता के बीच खड़े है। उन्हें मेरी उपस्थिति पर क्रोध आ रहा था और मैं वहां ठहरे रहना चाहता था।
ऐसा प्रतीत होता है कि उन्होंने मेरे विचारों को भांप लिया, क्योंकि उन्होंने ऊपर (आकाश) की ओर देखा और कहा, "तूफान साफ है और खट्टा (बुरे मनुष्य का) मांस खाना नहीं चाहता। तुम इससे बचना क्यों चाहते हो?"
कुछ व्यंग्य से मैंने कहा, "हो सकता है, तूफान खट्टी और नमकीन वस्तुएं न खाना चाहता हो, किन्तु प्रत्येक पदार्थ को वह ठण्ड़ा तथा शक्तिहीन बना देने पर तुला है और निस्संदेह यह वह मुझे फिर से पकड़ लेगा तो अपने में समाये बिना न छोड़ेगा।"
उनके चेहरे का भाव यह कहते-कहते अत्यन्त कठोर हो गया, "यदि तूफान ने तुम्हें निगल लिया होता तो तुम्हारा बड़ा सम्मान किया होता, जिसके तुम योग्य भी नहीं हो।"
मैंने स्वीकारते हुए कहा, "हां श्रीमान ! मैं इसीलिए तूफान से छिप गया कि कहीं ऐसा सम्मान न पा जाऊं, जिसके कि मैं योग्य ही नहीं हूं।"
इस चेष्टा में कि वे अपने चेहरे पर की मुस्कान मुझसे छिपा सकें, उन्होंने अपना मुंह फेर लिया। तब वे अंगीठी के पास रखी हुई एक लकड़ी की बेंच की ओर बढ़े और मुझसे कहा कि मैं विश्राम करुं और अपने वस्त्रों को सूखा लूं। अपने उल्लास को मैं बड़ी कठिनाई से छिपा सका।
मैंने उन्हें धन्यावाद दिया और स्थान ग्रहण किया। वे भी मेरे सामने ही एक बेंच पर, जो पत्थर को काटकर बनाई गई थी, बैठ गये। वे अपनी उंगलियों को एक मिट्टी के बरतन में, जिसमें एक प्रकार का तेल रखा हुआ था, बार-बार डुबोने लगे और उस पक्षी के सिर तथा पंखों पर मलने लगे।
बिना ऊपर को देखे ही बोले, "शक्तिशाली वायु ने इस पक्षी को जीवन-मृत्यु के बीच पत्थरों पर दे मारा था।",
तुलना-सी करते हुए मैंने उत्तर दिया, "और भयानक तुफान ने इससे पहले कि मेरा सिर चकनाचूर हो जाय और मेरे पैर टूट जायं मुझे भटकाकर आपके द्वार पर भेज दिया।" गम्भीरतापूर्वक उन्होंने मेरी ओर देखा और बोले, "मेरी तो यही चाह है कि मनुष्य पक्षियों का स्वभाव अपनाये और तूफान मनुष्य के पैर तोड़ डाले; मनुष्य का झुकाव भय और कायरता की ओर है और जैसे ही वह अनुभव करता है कि तूफान जाग गया है, यह रेगते-रेंगते गुफाओं और खाइयों में घुस जाता है। अपने को छिपा लेता हैं।"
मेरा उद्देश्य था कि उनके स्वत: स्वीकृत एकान्तवास की कहानी जान लूं। इसीलिए मैंने उन्हें यह कहकर उत्तेजित किया, "हां ! पक्षी के पास ऐसा सम्मान और साहस है, जो मनुष्य के पास नहीं। मनुष्य विधान तथा सामाजिक आचारों के साये में वास करता है, जो उसने अपने लिए स्वयं बनाये हैं: किन्तु पक्षी उसी स्वतन्त्र –शाश्वत विधान के अधीन रहते हैं, जिसके कारण पृथ्वी सूर्य के चारों ओर रास्ते पर निरन्तर घूमती रहती है।"
उनके नेत्र और चेहरा चमकने लगे, मानों मुझसे उन्होंने एक समझदार शिष्य को पा लिया हो। वे बोले, "अति सुन्दर ! यदि तुम्हे स्वयं अपने शब्दों पर विश्वास है तो तुम्हें सभ्यता और उसके दूषित विधान तथा अति प्राचीन परम्पराओं को तुरन्त ही त्याग देना चाहिए और पक्षियों की तरह ऐसे शून्य स्थान में रहना चाहिए, जहां आकाश और पृथ्वी के महान विधान के अतिरिक्त कुछ भी न हो।
"विश्वास रखना एक सुन्दर बात है; किन्तु उस विश्वास को प्रयोग में लाना साहस का काम है। अनेक मनुष्य ऐसे हैं, जो सागर की गर्जन के समान चीखते रहते हैं, किन्तु उनका जीवन खोखला और प्रवाहहीन होता है जैसे कि सड़ती हुई दल-दल, और अनेक ऐसे हैं, जो अपने सिरों को पर्वत की चोटी से भी ऊपर उठाये चलते हैं, किन्तु उनकी आत्माएं कन्दराओं के अन्धकार में सोती पड़ी रहती हैं।"
वे कांपते हुए अपनी जगह से उठे और पक्षी को खिड़की के ऊपर एक तह किये हुए कपड़े पर रख आये। तब उन्होंने कुछ सूखी लकड़ियां अंगीठी में डाल दीं। और बोले, "अपने जूतों को उतार दो और अपने पैरों को सेंक लो, क्योंकि भीगे रहना आदमी के स्वास्थय के लिए हानिकारक है। तुम अपने वस्त्रों को ठीक से सूखा लो और आराम से बैठो।"
यूसुफ साहब के इस निरन्तर आतिथ्य ने मेरी आशाओं को उभार दिया। मैं आग के और समीप खिसक गया और मेरे भीगे कुरते से पानी भाप बनकर उड़ने लगा। जब वह भूरे आकाश को निहारते हुए ड्योढ़ी पर खड़े रहे मेरा मस्तिष्क उनके आन्तरिक रहस्यों को खोजता दौड़ रहा था। मैंने एक अनजान की तरह उनसे पूछा, "क्या आप बहुत दिनों से यहां रह रहे है?"
मेरी ओर देखे बिना ही उन्होंने शान्त स्वर में कहा, "मैं इस स्थान पर तब आया था, जब यह पृथ्वी निराकार तथा शून्य थी, जब इसके रहस्यों पर अन्धकार छाया हुआ था, और ईश्वर की आत्मा पानी की संतह पर तैरती थी।"
यह सूनकर मैं अवाक् रह गया। क्षुब्ध और अस्त-व्यस्त ज्ञान को समेटने का संघर्ष करते हुए मन-ही-मन मैं बोला, "कितने अजीब व्यक्ति हैं ये और कितना कठिन है इनके वास्तविकता को पाना ! किन्तु मुझे सावधानी के साथ, धीरे-धीरे और संतोष रखकर तबतक चोट करनी होगी, जबतक इनकी मूकता बातचीत में न बदल जाय और इनके विचित्रता समझ में न आ जाय!"
रात्रि अपनी अन्धकार की चादर उन घाटियों पर फैला रही थी। मतवाला तूफान चिंघाड़ रहा था और वर्षा बढ़ती ही जा रही थीं। मैं सोचने लगा कि बाइबिल वाली बाढ़ चैतन्य को नष्ट करने और ईश्चर की धरती पर से मनुष्य की गंदगी को धोने के लिए फिर से आ रही है।।
ऐसा प्रतीत होने लगा कि तत्वों की क्रान्ति ने यूसुफ साहब के हृदय में एक ऐसी शान्ति उत्पन्न की है, जो प्राय: स्वभाव पर अपना असर छोड़ जाती है और एकान्तता को प्रसन्नता से प्रतिबिम्बित कर जाती है। उन्होंने दो मोमबत्तियां सुलगायीं और तब मेरे सम्मुख शराब की एक सुराही और एक बड़ी तश्तरी में रोटी मक्खन, जैतून के फल,मधु और कुछ सूखे मेवे लाकर रक्खे। तब वह मेरे पास बैठ गये और खाने की थोड़ी मात्रा के लिए–उसकी सादगी के लिए नहीं- क्षमा मांग कर, उन्होंने मुझसे भोजन करने को कहा।
हम उस समझी–बूझी निस्तब्धता में हवा के विलाप तथा वर्षा के चीत्कार को सुनते हुए साथ-साथ भोजन करने लगे। साथ ही मैं उनके चेहने को घूरता रहा और उनके हृदय के रहस्यों को कुरेद-कुरेदकर निकालने का प्रयास करता रहा। उनके असाधारण अस्तित्व के सम्भव कारण को भी सोचता रहा। भोजन समाप्त करके उन्होंने अंगीठी पर से एक पीतल की केतली उठाई और उसमें से शुद्ध सुगन्धित कॉफी दो प्यालों में उड़ेल दी। तब उन्होंने एक छोटे-से लड़की के बक्स को खोला और ‘भाई’ शब्द से सम्बोधित कर, उसमे से एक सिगरेट भेंट की। कॉफी पीते हुए मैंने सिगरेट ले ली, किन्तु जो कुछ भी मेरी आंखे देख रही थी, उस पर मुझे विश्वास नहीं हो रहा था।
उन्होंने मेरी ओर मुस्कराते हुए देखा और अपनी सिगरेट का एक लम्बा कश खींचकर तथा काफी की एक चुस्की लेकर उन्होंने कहा, "अवश्य ही तुम-मदिरा, कॉफी और सिगरेट यहां पाकर सोच में पड़ गये हो और मेरे खान-पान तथा ऐश आराम पर उन्हीं लोगों में से एक हो, जो इन बातों में विश्चास करते हैं। कि लोगों से दूर रहने पर मनुष्य जीवन से भी दूर हो जाता है। और ऐसे मनुष्य को उस जीवन के सभी सुखों से वंचित रहना चाहिए।"
very nice story ''toofan''......................
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