एक था कुनबी और एक थी कुनबिन। एक दिन शाम को कुनबी खेत से लौटकर खटिया पर बैठ-बैठ थकान उतार रहा था। इसी बीच कुनबिन रसोईघर के अन्दर से बोली, ‘‘सुनते हो? मेरे मायके से मण्डन अहीर आया है। वह ख़बर लाया है कि वहां अकाल पड़ा है और दाना मिलता नहीं है। कह रहा था कि मेरे मां-बाप दुबले हो गए है।’’
कुनबी ने धीमे-से जवाब दिया, ‘‘अब इसमें हम क्या करें? हम भगवान तो हैं नहीं, जो पानी बरसा दें! हां अकाल भी पड़ता तो है।’’
कुनबिन को बुरा लगा। वह गरजकर बोली, ‘‘लो, सुन लो! कहते हैं, हां, अकाल भी पड़ता तो हैं। पता तो तब चले, जब खुद अकाल भुगता हो। सुनो, मैं कहती हूं कि आज ही चले जाओ, और एक गाड़ी-भर गेहूं वहां डाल आओ। यहां अपने घर तो यह भूरी भैस दूध दे ही रही है, इसलिए साथ में माथे पर टीकेवाली अपनी यह गोरी गय थी लेते जाओ। कुछ सुना?’’ कुनबी सोचने लगा। सोचते-सोचते उसके दिमाग में एक बात आ गई। वह फुरती से उठ खड़ा हुआ और रसोईघर में जाकर कहने लगा, ‘‘अरे, यह कौन बड़ी बात है? तुम रास्ते के लिए खाना तैयार कर दो। कल अंधेरे ही मैं चला जाऊंगा। साथ में अपना लल्ला जायगा।’’ लल्ला पास ही खड़ा था। उसकी खुशी का तो कोई ठिकाना ही न रहा!
कुनबी ने बड़े तड़के गाड़ी जोती। कुनबिन ने गाड़ी में गेंहूं भर दिए। ठूंस-ठूंसकर भरे। अन्दर पचास रुपयों की एक थैली भी छिपा दी। उसने सोचा कि गेहूं के साथ थैली भी उसके बापू को मिल जायगी। गेहूं भर देने के बाद गाड़ी के साथ एक गाय भी बांध दी।
गाय के गले में एक बढ़िया कलगी बांधी, और गाड़ी के साथ कुनबी को बिदा कर कर दिया।
गाड़ी चली जा रही थी कि इस बीच दो रास्ते फटे। एक रास्ता कुनबी की ससुराल वाले गांव का था, और दूसरा कुनबी की बहन के गांव का था। कुनबी ने धीमे-से रास खींची और गाड़ी बहन के गांव के रास्ते पर चल पड़ी।
गाड़ी में बैठा लल्ला बोला, ‘‘दद्दा! यह रास्ता तो बुआजी के गांव का है। गामा के गांव का रास्ता तो वह रहा।’’
कुनबी ने कहा, ‘‘चुप रह! बहुत चतुराई मत बघार! रास्ता क्या तुझे ही मालूम है? कल का छोकरा!’’ लल्ला चुप्पी साधे बैठा रहा और गाड़ी चलती रही।
शाम हुई। गाड़ी बहन के गांव में पहुंची। वहां भी अकाल पड़ा था। नदी सूख गई थी। फसल जल चुकी थी। दाने-पानी की हैरानी थीं भाई को देखकर बहन को बड़ी खुशी हुई। एक तो भैया घर आए, और साथ में गाड़ी-भर गेहूं लाये। फिर दूध देती एक गाय भी ले आए!
बहन ने जल्दी से लपसी बनाई। मूंग बनाए। अपने भैया को और भतीजे की खूब मनुहार कर-करके भोजन करवाया। बाप-बेटे दोनों बहन के घर दो-चार दिन बड़े आराम से रहे, और फिर गाड़ी जोतकर घर लौटै।
कुनबी को घर आया देखकर कुनबिन ने कहा, ‘‘कहो, गेहूं पहुंचा दिए? गाय मेरे मां-बाप को कैसी लगी? वहां सब अच्छे तो हैं?’’
कुनबी बोला, ‘‘मैं तो खेत पर जा रहा हूं। तुम इस लल्ला से सब पूछ लेना।’’
कुनबिन ने पूछा, ‘‘क्यों, लल्ला! तुम्हारे मामा तो अच्छे हैं न?’’
लल्ला बोला, ‘‘मां, वहां कोई मामा नहीं थे।’’
कुनबिन ने कहा, ‘‘शायद मामा किसी दूसरे गांव गए होंगे। मामी तो अच्छी थीं न?’’
लल्ला बोला, ‘‘लेकिन, मां! वहां मामी-वामी कोई नहीं थीं। वहां तो बुआजी थीं, भानजे थे, फूफाजी थे और दूसरे सब लोग भी थे।’’
कुनबिन समझ गई। मन-ही-मन बोली, ‘लगता है, सारा सामान अपनी बहन के घर डाल आए हैं!’ कुनबिन ने तय कर लिया कि अब कुनबी की पूरी फजीहत करनी चाहिए।
फिर तो सिर पर घूंघट लेकर उसने अपना सिर पीटना शुरु किया। कुनबिन रोती जाती थी और सिर पीटकर कहती जाती थी:
गोरी गाय के गले में कलगी,
गाड़ी-भर गेहूं और गेहूं में थैली
ओ रे, बेदरदी! ओ रे, बेदरदी!
लोग सब इकट्ठे होने लगे। सब पूछने लगे, ‘‘परसानी! तुम्हें क्या हो गया है? तुम क्यो रो रही हो!’’
कुनबिन ने कहा, ‘‘ये यहां से अपनी बहन के घर गोरी गाय और गाड़ी-भर गेहूं पहुंचाने गए थे, लेकिन वहां अकाल के कारण बहन, बहनोई और भानजे सब मर चुके हैं, इसलिए आज मैं उनके नाम से यहां रो रही हूं।’’
कुनबी का घर अच्छज्ञ-भला घर था। इसलिए सारा गांव रोने-पीटने के लिए इकट्ठा हो गया। खेत पर कुनबी को ख़बर मिली कि घर में रोना-पीटना मचा है, तो वह भी दौड़ता-हांफता घर आ पहुंचा। आकर देखा कि सब रो-पीट रहे हैं और कह रहे है।:
गोरी गाय के गले में कलगी,
गाड़ी-भर गेहूं और गेहूं में थैली,
ओ रे, बेदरदी! ओ रे, बेदरदी।
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