बाबू ब्रजनाथ कानून पढ़ने में मग्न थे, और उनके दोनों बच्चे लड़ाई करने में। श्यामा चिल्लाती, कि मुन्नू मेरी गुड़िया नहीं देता। मुन्नु रोता था कि श्यामा ने मेरी मिठाई खा ली।
ब्रजनाथ ने क्रुद्घ हो कर भामा से कहा—तुम इन दुष्टों को यहॉँ से हटाती हो कि नहीं? नहीं तो मैं एक-एक की खबर लेता हूँ।
भामा चूल्हें में आग जला रही थी, बोली—अरे तो अब क्या संध्या को भी पढ़तेही रहोगे? जरा दम तो ले लो।
ब्रज०--उठा तो न जाएगा; बैठी-बैठी वहीं से कानून बघारोगी ! अभी एक-आध को पटक दूंगा, तो वहीं से गरजती हुई आओगी कि हाय-हाय ! बच्चे को मार डाला !
भामा—तो मैं कुछ बैठी या सोयी तो नहीं हूँ। जरा एक घड़ी तुम्हीं लड़को को बहलाओगे, तो क्या होगा ! कुछ मैंने ही तो उनकी नौकरी नहीं लिखायी!
ब्रजनाथ से कोई जवाब न देते बन पड़ा। क्रोध पानी के समान बहाव का मार्ग न पा कर और भी प्रबल हो जाता है। यद्यपि ब्रजनाथ नैतिक सिद्धांतों के ज्ञाता थे; पर उनके पालन में इस समय कुशल न दिखायी दी। मुद्दई और मुद्दालेह, दोनों को एक ही लाठी हॉँका, और दोनों को रोते-चिल्लाते छोड़ कानून का ग्रंथ बगल में दबा कालेज-पार्क की राह ली।
२
सावन का महीना था। आज कई दिन के बाद बादल हटे थे। हरे-भरे वृक्ष सुनहरी चादर ओढ़े खड़े थे। मृदु समीर सावन का राग गाता था, और बगुले डालियों पर बैठे हिंडोले झूल रहे थे। ब्रजनाथ एक बेंच पर आ बैठे और किताब खोली। लेकिन इस ग्रंथ को अपेक्षा प्रकृति-ग्रंथ का अवलोकन अधिक चित्ताकर्षक था। कभी आसमान को पढ़ते थे, कभी पत्तियों को, कभी छविमयी हरियाली को और कभी सामने मैदान में खेलते हुए लड़कों को।
एकाएक उन्हें सामने घास पर कागज की एक पुड़िया दिखायी दी। माया ने जिज्ञासा की—आड़ में चलो, देखें इसमें क्या है।
बुद्धि ने कहा—तुमसे मतलब? पड़ी रहने दो।
लेकिन जिज्ञासा-रुपी माया की जीत हुई। ब्रजनाथ ने उठ कर पुड़िया उठा ली। कदाचित् किसी के पैसे पुड़िया में लिपटे गिर पड़े हैं। खोल कर देखा; सावरेन थे। गिना, पुरे आठ निकले। कुतूहल की सीमा न रही।
ब्रजनाथ की छाती धड़कने लगी। आठों सावरेन हाथ में लिये सोचने लगे, इन्हें क्या करुँ? अगर यहीं रख दूँ, तो न जाने किसकी नजर पड़े; न मालूम कौन उठा ले जाय ! नहीं यहॉँ रखना उचित नहीं। चलूँ थाने में इत्तला कर दूँ और ये सावरेन थानेदार को सौंप दूँ। जिसके होंगे वह आप ले जायगा या अगर उसको न भी मिलें, तो मुझ पर कोई दोष न रहेगा, मैं तो अपने उत्तरदायित्व से मुक्त हो जाऊँगा।
माया ने परदे की आड़ से मंत्र मारना शुरु किया। वह थाने नहीं गये, सोचा—चलूं भामा से एक दिल्लगी करुँ। भोजन तैयार होगा। कल इतमीनान से थाने जाऊँगा।
भामा ने सावरेन देखे, तो हृदय मे एक गुदगुदी-सी हुई। पूछा किसकी है?
ब्रज०--मेरी।
भामा—चलो, कहीं हो न !
ब्रज०—पड़ी मिली है।
भामा—झूठ बात। ऐसे ही भाग्य के बली हो, तो सच बताओ कहॉँ मिली? किसकी है?
ब्रज०—सच कहता हूँ, पड़ी मिली है।
भामा—मेरी कसम?
ब्रज०—तुम्हारी कसम।
भामा गिन्नयों को पति के हाथ से छीनने की चेष्टा करने लगी।
ब्रजनाथ के कहा—क्यों छीनती हो?
भामा—लाओ, मैं अपने पास रख लूँ।
ब्रज०—रहने दो, मैं इसकी इत्तला करने थाने जाता हूँ।
भामा का मुख मलिन हो गया। बोली—पड़े हुए धन की क्या इत्तला?
ब्रज०—हॉँ, और क्या, इन आठ गिन्नियों के लिए ईमान बिगाडूँगा?
भामा—अच्छा तो सवेरे चले जाना। इस समय जाओगे, तो आने में देर होगी।
ब्रजनाथ ने भी सोचा, यही अच्छा। थानेवाले रात को तो कोई कारवाई करेंगे नहीं। जब अशर्फियों को पड़ा रहना है, तब जेसे थाना वैसे मेरा घर।
गिन्नियॉँ संदूक में रख दीं। खा-पी कर लेटे, तो भामा ने हँस कर कहा—आया धन क्यों छोड़ते हो? लाओ, मैं अपने लिए एक गुलूबंद बनवा लूँ, बहुत दिनों से जी तरस रहा है।
माया ने इस समय हास्य का रुप धारण किया।
ब्रजनाथ ने तिरस्कार करके कहा—गुलूबंद की लालसा में गले में फॉँसी लगाना चाहती हो क्या?
३
प्रात:काल ब्रजनाथ थाने के लिए तैयार हूए। कानून का एक लेक्चर छूट जायेगा, कोई हरज नहीं। वह इलाहाबाद के हाईकोर्ट में अनुवादक थे। नौकरी में उन्नति की आशा न देख कर साल भर से वकालत की तैयारी में मग्न थे; लेकिन अभी कपड़े पहन ही रहे थे कि उनके एक मित्र मुंशी गोरेवाला आ कर बैठ गये, ओर अपनी पारिवारिक दुश्चिंताओं की विस्मृति की रामकहानी सुना कर अत्यंत विनीत भाव से बोले—भाई साहब, इस समय मैं इन झंझटों मे ऐसा फँस गया हूँ कि बुद्धि कुछ काम नहीं करती। तुम बड़े आदमी हो। इस समय कुछ सहायता करो। ज्यादा नहीं तीस रुपये दे दो। किसी न किसी तरह काम चला लूँगा, आज तीस तारीख है। कल शाम को तुम्हें रुपये मिल जायँगे।
ब्रजनाथ बड़े आदमी तो न थे; किन्तु बड़प्पन की हवा बॉँध रखी थी। यह मिथ्याभिमान उनके स्वभाव की एक दुर्बलता थी। केवल अपने वैभव का प्रभाव डालने के लिए ही वह बहुधा मित्रों की छोटी-मोटी आवश्यकताओं पर अपनी वास्तविक आवश्यकताओं को निछावर कर दिया करत थे, लेकिन भामा को इस विषय में उनसे सहानुभूति न थी, इसलिए जब ब्रजनाथ पर इस प्रकार का संकट आ पड़ता था, तब थोड़ी देर के लिए उनकी पारिवारिक शांति अवश्य नष्ट हो जाती थी। उनमें इनकार करने या टालने की हिम्मत न थी।
वह सकुचाते हुए भामा के पास गये और बोले—तुम्हारे पास तीस रुपये तो न होंगे? मुंशी गोरेलाल मॉँग रहे है।
भामा ने रुखाई से रहा—मेरे पास तो रुपये नहीं।
ब्रज०—होंगे तो जरुर, बहाना करती हो।
भामा—अच्छा, बहाना ही सही।
ब्रज०—तो मैं उनसे क्या कह दूँ !
भामा—कह दो घर में रुपये नहीं हैं, तुमसे न कहते बने, तो मैं पर्दे की आड़ से कह दूँ।
ब्रज०--कहने को तो मैं कह दूँ, लेकिन उन्हें विश्वास न आयेगा। समझेंगे, बहाना कर रहे हैं।
भामा--समझेंगे; तो समझा करें।
ब्रज०—मुझसे ऐसी बमुरौवती नहीं हो सकती। रात-दिन का साथ ठहरा, कैसे इनकार करुँ?
भामा—अच्छा, तो जो मन में आवे, सो करो। मैं एक बार कह चुकी, मेरे पास रुपये नहीं।
ब्रजनाथ मन में बहुत खिन्न हुए। उन्हें विश्वास था कि भामा के पास रुपये है; लेकिन केवल मुझे लज्जित करने के लिए इनकार कर रही है। दुराग्रह ने संकल्प को दृढ़ कर दिया। संदूक से दो गिन्नियॉँ निकालीं और गोरेलाल को दे कर बोले—भाई, कल शाम को कचहरी से आते ही रुपये दे जाना। ये एक आदमी की अमानत हैं, मैं इसी समय देने जा रहा था --यदि कल रुपये न पहुँचे तो मुझे बहुत लज्जित होना पड़ेगा; कहीं मुँह दिखाने योग्य न रहूँगा।
गोरेलाल ने मन में कहा—अमानत स्त्री के सिवा और किसकी होगी, और गिन्नियॉँ जेब मे रख कर घर की राह ली।
४
आज पहली तारीख की संध्या है। ब्रजनाथ दरवाजे पर बैठे गोरेलाल का इंतजार कर रहे है।
पॉँच बज गये, गोरेलाल अभी तक नहीं आये। ब्रजनाथ की ऑंखे रास्ते की तरफ लगी हुई थीं। हाथ में एक पत्र था; लेकिन पढ़ने में जी नहीं लगता था। हर तीसरे मिनट रास्ते की ओर देखने लगते थे; लेकिन सोचते थे—आज वेतन मिलने का दिन है। इसी कारण आने में देर हो रही है। आते ही होंगे। छ: बजे, गोरे लाल का पता नहीं। कचहरी के कर्मचारी एक-एक करके चले आ रहे थे। ब्रजनाथ को कोई बार धोखा हुआ। वह आ रहे हैं। जरुर वही हैं। वैसी ही अचनक है। वैसे ही टोपी है। चाल भी वही है। हॉँ, वही हैं। इसी तरफ आ रहे हैं। अपने हृदय से एक बोझा-सा उतरता मालूम हुआ; लेकिन निकट आने पर ज्ञात हुआ कि कोई और है। आशा की कल्पित मूर्ति दुराशा में बदल गयी।
ब्रजनाथ का चित्त खिन्न होने लगा। वह एक बार कुरसी से उठे। बरामदे की चौखट पर खडे हो, सड़क पर दोनों तरफ निगाह दौड़ायी। कहीं पता नहीं। दो-तीन बार दूर से आते हुए इक्कों को देख कर गोरेलाल का भ्रम हुआ। आकांक्षा की प्रबलता !
सात बजे; चिराग जल गये। सड़क पर अँधेरा छाने लगा। ब्रजनाथ सड़क पर उद्विग्न भाव से टहलने लगे। इरादा हुआ, गोरेलाल के घर चलूँ, उधर कदम बढाये; लेकिन हृदय कॉँप रहा था कि कहीं वह रास्ते में आते हुए न मिल जायँ, तो समझें कि थोड़े-से रुपयों के लिए इतने व्याकुल हो गये। थोड़ी ही दूर गये कि किसी को आते देखा। भ्रम हुआ, गोरेलाल है, मुड़े और सीधे बरामदे में आकर दम लिया, लेकिन फिर वही धोखा ! फिर वही भ्रांति ! तब सोचले लगे कि इतनी देर क्यों हो रही हैं? क्या अभी तक वह कचहरी से न आये होंगे ! ऐसा कदापि नहीं हो सकता। उनके दफ्तर-वाले मुद्दत हुई, निकल गये। बस दो बातें हो सकती हैं, या तो उन्होंने कल आने का निश्चय कर लिया, समझे होंगे, रात को कौन जाय, या जान-बूझ कर बैठे होंगे, देना न चाहते होंगे, उस समय उनको गरज थी, इस समय मुझे गरज है। मैं ही किसी को क्यों न भेज दूँ? लेकिन किसे भेजूँ? मुन्नू जा सकता है। सड़क ही पर मकान है। यह सोच कर कमरे में गये, लैप जलाया और पत्र लिखने बैठे, मगर ऑंखें द्वार ही की ओर लगी हुई थी। अकस्मात् किसी के पैरों की आहट सुनाई दी। परन्तु पत्र को एक किताब के नीचे दबा लिया और बरामद में चले आये। देखा, पड़ोस का एक कुँजड़ा तार पढ़ाने आया है। उससे बोले—भाई, इस समय फुरसत नहीं हैं; थोड़ी देर में आना। उसने कहा--बाबू जी, घर भर के आदमी घबराये हैं, जरा एक निगाह देख लीजिए। निदान ब्रजनाथ ने झुँझला कर उसके हाथ से तार ले लिया, और सरसरी नजर से देख कर बोले—कलकत्ते से आया है। माल नहीं पहुँचा। कुँजड़े ने डरते-डरते कहा—बाबू जी, इतना और देख लीजिए किसने भेजा है। इस पर ब्रजनाथ ने तार फेंक दिया और बोले--मुझे इस वक्त फुरसत नहीं है।
आठ बज गये। ब्रजनाथ को निराशा होने लगी—मुन्नू इतनी रात बीते नहीं जा सकता। मन में निश्चय किया, आज ही जाना चाहिए, बला से बुरा मानेंगे। इसकी कहॉँ तक चिंता करुँ स्पष्ट कह दूँगा मेरे रुपये दे दो। भलमानसी भलेमानसों से निभाई जा सकती है। ऐसे धूर्तो के साथ भलमनसी का व्यवहार करना मूर्खता हैं अचकन पहनी; घर में जाकर माया से कहा—जरा एक काम से बाहर जाता हूँ, किवाड़े बन्द कर लो।
चलने को तो चले; लेकिन पग-पग पर रुकते जाते थे। गोरेलाल का घर दूर से दिखाई दिया; लैंप जल रहा था। ठिठक गये और सोचने लगे चल कर क्या कहूँगा? कहीं उन्होंने जाते-जाते रपए निकाल कर दे दिये, और देर के लिए क्षमा मॉँगी तो मुझे बड़ी झेंप होगी। वह मुझे क्षुद्र, ओछा, धैर्यहीन समझेंगे। नहीं, रुपयों की आतचीत करूँ? कहूंगा—भाई घर में बड़ी देर से पेट दर्द कर रहा है। तुम्हारे पास पुराना तेज सिरका तो नहीं है मगर नहीं, यह बहाना कुछ भद्दा-सा प्रतीत होता है। साफ कलई खुल जायगी। ऊंह ! इस झंझट की जरुरत ही क्या है। वह मुझे देखकर आप ही समझ जायेंगे। इस विषय में बातचीत की कुछ नौबत ही न आवेगी। ब्रजनाथ इसी उधेड़बुन में आगे बढ़ते चले जाते थे जैसे नदी में लहरें चाहे किसी ओर चलें, धारा अपना मार्ग नहीं छोड़ती।
गोरेलाल का घर आ गया। द्वार बंद था। ब्रजनाथ को उन्हें पुकारने का साहस न हुआ, समझे खाना खा रहे होंगे। दरवाजे के सामने से निकले, और धीरे-धीरे टहलते हुए एक मील तक चले गए। नौ बजने की आवाज कान में आयी। गोरेलाल भोजन कर चुके होंगे, यह सोचकर लौट पड़े; लेकिन द्वार पर पहुंचे तो, अंधेरा था। वह आशा-रूपी दीपक बुझ गया था। एक मिनट तक दुविधा में खड़े रहे। क्या करूँ। अभी बहुत सबेरा है। इतनी जल्दी थोड़े ही सो गए होंगे? दबे पॉँव बरामदे पर चढ़े। द्वार पर कान लगा कर सुना, चारों ओर ताक रहे थे कि कहीं कोई देख न ले। कुछ बातचीत की भनक कान में पड़ी। ध्यान से सुना। स्त्री कह रही थी-रुपये तो सब उठ रए, ब्रजनाथ को कहॉँ से दोगे? गोरेलाल ने उत्तर दिया-ऐसी कौन सी उतावली है, फिर दे देंगे। और दरख्वास्त दे दी है, कल मंजूर हो ही जायगी। तीन महीने के बाद लौटेंगे तब देखा जायगा।
ब्रजनाथ को ऐसा जान पड़ा मानों मुँह पर किसी न तमाचा मार दिया।
क्रोध और नैराश्य से भरे हुए बरामदे में उतर आए। घर चले तो सीधे कदम न पड़ते थे, जैसे कोई दिन-भर का थका-मॉंदा पथिक हो।
५
ब्रजनाथ रात-भर करवटें बदलते रहे। कभी गोरेलाल की धुर्तता पर क्रोध आता था, कभी अपनी सरलता पर; मालूम नहीं; किस गरीब के रुपये हैं। उस पर क्या बीती होगी ! लेकिन अब क्रोध या खेद रो क्या लाभ? सोचने लगे--रुपये कहॉँ से आवेंगे? भाभा पहले ही इनकार कर चुकी है, वेतन में इतनी गुंजाइश नहीं। दस-पॉँच रुपये की बात होती तो कतर ब्योंत करता। तो क्या करू? किसी से उधार लूँ। मगर मुझे कौन देगा। आज तक किसी से मॉँगने का संयोग नहीं पड़ा, और अपना कोई ऐसा मित्र है भी नहीं। जो लोग हैं, मुझी को सताया करते हैं, मुझे क्या देंगे। हॉँ, यदि कुछ दिन कानून छोड़कर अनुवाद करने में परिश्रम करूँ, तो रुपये मिल सकते हैं। कम-से-कम एक मास का कठिन परिश्रम है। सस्ते अनुवादकों के मारे दर भी तो गिर गयी है ! हा निर्दयी ! तूने बड़ी दगा की। न जाने किस जन्म का बैर चुकाया है। कहीं का न रखा !
दूसरे दिन ब्रजनाथ को रुपयों की धुन सवार हुई। सबेरे कानून के लेक्चर में सम्मिलित होते, संध्या को कचहरी से तजवीजों का पुलिंदा घर लाते और आधी रात बैठे अनुवाद किया करते। सिर उठाने की मुहलत न मिलती ! कभी एक-दो भी बज जाते। जब मस्तिष्क बिलकुल शिथिल हो जाता तब विवश होकर चारपाई पर पड़े रहते।
लेकिन इतने परिश्रम का अभ्यास न होने के कारण कभी-कभी सिर में दर्द होने लगता। कभी पाचन-क्रिया में विध्न पड़ जाता, कभी ज्वर चढ़ आता। तिस पर भी वह मशीन की तरह काम में लगे रहते। भाभा कभी-कभी झुँझला कर कहती--अजी, लेट भी रहो; बड़े धर्मात्मा बने हो। तुम्हारे जैसे दस-पॉँच आदमी और होते, तो संसार का काम ही बन्द हो जाता। ब्रजनाथ इस बाधाकारी व्यंग का उत्तर न देते, दिन निकलते ही फिर वही चरखा ले बैठते।
यहॉँ तक कि तीन सप्ताह बीत गये और पचीस रुपये हाथ आ गए। ब्रजनाथ सोचते थे--दो तीन दिन में बेड़ा पार है; लेकिन इक्कीसवें दिन उन्हें प्रचंड ज्वर चढ़ आया और तीन दिन तक न उतरा। छुट्टी लेनी पड़ी, शय्यासेवी बन गए। भादों का महीना था। भाभा ने समझा, पित्त का, प्रकोप है; लेकिन जब एक सप्ताह तक डाक्टर की औषधि सेवन करने पर भी ज्वर न उतरा तब घबरायी। ब्रजनाथ प्राय: ज्वर में बक-झक भी करने लगते। भाभा सुनकर डर के मारे कमरे में से भाग जाती। बच्चों को पकड़ कर दूसरे कमरे में बन्द कर देती। अब उसे शंका होने लगती थी कि कहीं यह कष्ट उन्हीं रुपयों के कारण तो नहीं भोगना पड़ रहा है ! कौन जाने, रुपयेवाले ने कुछ कर धर दिया हो ! जरूर यही बात है, नहीं तो औषधि से लाभ क्यों नहीं होता?
संकट पड़ने पर हम धर्म-भीरु हो जाते हैं, औषधियों से निराश होकर देवताओं की शरण लेते हैं। भाभा ने भी देवताओं की शरण ली। वह जन्माष्टमी, शिवरात्रि का कठिन व्रत शुरू किया।
आठ दिन पूरे हो गए। अंतिम दिन आया। प्रभात का समय था। भाभा ने ब्रजनाथ को दवा पिलाई और दोनों बालकों को लेकर दुर्गा जी की पूजा करने के लिए चली। उसका हृदय आराध्य देवी के प्रति श्रद्धा से परिपूर्ण था। मन्दिर के ऑंगन में पहुँची। उपासक आसनों पर बैठे हुए दुर्गापाठ कर रहे थे। धूप और अगर की सुगंध उड़ रही थी। उसने मन्दिर में प्रवेश किया। सामने दुर्गा की विशाल प्रतिमा शोभायमान थी। उसके मुखारविंद पर एक विलक्षण दीप्त झलक रही थी। बड़े-बड़े उज्जल नेत्रों से प्रभा की किरणें छिटक रही थीं। पवित्रता का एक समॉँ-सा छाया हुआ था। भाभा इस दीप्तवर्ण मूर्ति के सम्मुख साधी ऑंखों से ताक न सकी। उसके अन्त:करण में एक निर्मल, विशुद्ध भाव-पूर्ण भय का उदय हो आया। उसने ऑंखें बन्द कर लीं। घुटनों के बल बैठ गयी, और हाथ जोड़ कर करुण स्वर से बोली—माता, मुझ पर दया करो।
उसे ऐसा ज्ञात हुआ, मानों देवी मुस्कराई। उसे उन दिव्य नेत्रों से एक ज्योति-सी निकल कर अपने हृदय में आती हुई मालूम हुई। उसके कानों में देवी के मुँह से निकले ये शब्द सुनाई दिए—पराया धन लौटा दे, तेरा भला होगा।
भाभा उठ बैठी। उसकी ऑंखों में निर्मल भक्ति का आभास झलक रहा था। मुखमंडल से पवित्र प्रेम बरसा पड़ता था। देवी ने कदाचित् उसे अपनी प्रभा के रंग में डूबा दिया था।
इतने में दूसरी एक स्त्री आई। उसके उज्जल केश बिखरे और मुरझाए हुए चेहरे के दोनों ओर लटक रहे थे। शरीर पर केवल एक श्वेत साड़ी थी। हाथ में चूड़ियों के सिवा और कोई आभूषण न था। शोक और नैराश्य की साक्षात् मूर्ति मालूम होती थी। उसने भी देवी के सामने सिर झुकाया और दोनों हाथों से ऑंचल फैला कर बोली—देवी, जिसने मेरा धन लिया हो, उसका सर्वनाश करो।
जैसे सितार मिजराब की चोट खा कर थरथरा उठता है, उसी प्रकार भाभा का हृदय अनिष्ट के भय से थरथरा उठा। ये शब्द तीव्र शर के समान उसके कलेजे में चुभ गए। उसने देवी की ओर कातर नेत्रों से देखा। उनका ज्योतिर्मय स्वरूप भयंकर था, नेत्रों से भीषण ज्वाला निकल रही थी। भाभा के अन्त:करण में सर्वथा आकाश से, मंदिर के सामने वाले वृक्षों से; मंदिर के स्तंभों से, सिंहासन के ऊपर जलते हुए दीपक से और देवी के विकराल मुँह से ये शब्द निकलकर गूँजने लगे--पराया धन लौटा दे, नहीं तो तेरा सर्वनाश हो जायगा।
भाभा खड़ी हो गई और उस वृद्धा से बोली-क्यों माता, तुम्हारा धन किसी ने ले लिया है?
वृद्धा ने इस प्रकार उसकी ओर देखा, मानों डूबते को तिनके का सहारा मिला। बोली—हॉं बेटी !
भाभा--कितने दिन हुए ?
वृद्धा--कोई डेढ़ महीना।
भामा--कितने रुपये थे?
वृद्धा--पूरे एक सौ बीस।
भामा--कैसे खोए?
वृद्धा--क्या जाने कहीं गिर गए। मेरे स्वामी पलटन में नौकर थे। आज कई बरस हुए, वह परलोक सिधारे। अब मुझे सरकार से आठ रुपए साल पेन्शन मिलती है। अक्की दो साल की पेन्शन एक साथ ही मिली थी। खजाने से रुपए लेकर आ रही थी। मालूम नहीं, कब और कहॉँ गिर पड़े। आठ गिन्नियॉँ थीं।
भामा--अगर वे तुम्हें मिल जायँ तो क्या दोगी।
वृद्धा--अधिक नहीं, उसमें से पचास रुपए दे दूँगी।
भामा रुपये क्या होंगे, कोई उससे अच्छी चीज दो।
वृद्धा--बेटी और क्या दूँ जब तक जीऊँगी, तुम्हारा यश गाऊँगी।
भामा--नहीं, इसकी मुझे आवश्यकता नहीं !
वृद्धा--बेटी, इसके सिवा मेरे पास क्या है?
भामा--मुझे आर्शीवाद दो। मेरे पति बीमार हैं, वह अच्छे हो जायँ।
वृद्धा--क्या उन्हीं को रुपये मिले हैं?
भामा--हॉँ, वह उसी दिन से तुम्हें खोज रहे हैं।
वृद्धा घुटनों के बल बैठ गई, और ऑंचल फैला कर कम्पित स्वर से बोली--देवी ! इनका कल्याण करो।
भामा ने फिर देवी की ओर सशंक दृष्टि से देखा। उनके दिव्य रूप पर प्रेम का प्रकाश था। ऑंखों में दया की आनंददायिनी झलक थी। उस समय भामा के अंत:करण में कहीं स्वर्गलोक से यह ध्वनि सुनाई दी--जा तेरा कल्याण होगा।
संध्या का समय है। भामा ब्रजनाथ के साथ इक्के पर बैठी तुलसी के घर, उसकी थाती लौटाने जा रही है। ब्रजनाथ के बड़े परिश्रम की कमायी जो डाक्टर की भेंट हो चुकी है, लेकिन भामा ने एक पड़ोसी के हाथ अपने कानों के झुमके बेचकर रुपये जुटाए हैं। जिस समय झुमके बनकर आये थे, भामा बहुत प्रसन्न हुई थी। आज उन्हें बेचकर वह उससे भी अधिक प्रसन्न है।
जब ब्रजनाथ ने आठों गिन्नियॉँ उसे दिखाई थीं, उसके हृदय में एक गुदगुदी-सी हुई थी; लेकिन यह हर्ष मुख पर आने का साहस न कर सका था। आज उन गिन्नियों को हाथ से जाते समय उसका हार्दिक आनन्द ऑंखों में चमक रहा है, ओठों पर नाच रहा है, कपोलों को रंग रहा है, और अंगों पर किलोल कर रहा है; वह इंद्रियों का आनंद था, यह आत्मा का आनंद है; वह आनंद लज्जा के भीतर छिपा हुआ था, यह आनंद गर्व से बाहर निकला पड़ता है।
तुलसी का आशीर्वाद सफल हुआ। आज पूरे तीन सप्ताह के बाद ब्रजनाथ तकिए के सहारे बैठे थे। वह बार-बार भामा को प्रेम-पूर्ण नेत्रों से देखते थे। वह आज उन्हें देवी मालूम होती थी। अब तक उन्होंने उसके बाह्य सौंदर्य की शोभ देखी थी, आज वह उसका आत्मिक सौंदर्य देख रहे हैं।
तुलसी का घर एक गली में था। इक्का सड़क पर जाकर ठहर गया। ब्रजनाथ इक्के पर से उतरे, और अपनी छड़ी टेकते हुए भामा के हाथों के सहारे तुलसी के घर पहुँचे। तुलसी ने रुपए लिए और दोनों हाथ फैला कर आशीर्वाद दिया--दुर्गा जी तुम्हारा कल्याण करें।
तुलसी का वर्णहीन मुख वैसे ही खिल गया, जैसे वर्षा के पीछे वृक्षों की पत्तियॉँ खिल जाती हैं। सिमटा हुआ अंग फैल गया, गालों की झुर्रियॉँ मिटती दीख पड़ीं। ऐसा मालूम होता थ, मानो उसका कायाकलूप हो गया।
वहॉँ से आकर ब्रजनाथ अपवने द्वार पर बैठे हुए थे कि गोरेलाल आ कर बैठ गए। ब्रजनाथ ने मुँह फेर लिया।
गोरेलाल बोले--भाई साहब ! कैसी तबियत है?
ब्रजनाथ--बहुत अच्छी तरह हूँ।
गोरेलाल--मुझे क्षमा कीजिएगा। मुझे इसका बहुत खेद है कि आपके रुपये देने में इतना विलम्ब हुआ। पहली तारीख ही को घर से एक आवश्यक पत्र आ गया, और मैं किसी तरह तीन महीने की छुट्टी लेकर घर भागा। वहॉँ की विपत्ति-कथा कहूँ, तो समाप्त न हो; लेकिन आपकी बीमारी की शोक-समाचार सुन कर आज भागा चला आ रहा हूँ। ये लीजिये, रुपये हाजिर हैं। इस विलम्ब के लिए अत्यंत लज्जित हूँ।
ब्रजनाथ का क्रोध शांत हो गया। विनय में कितनी शक्ति है ! बोले-जी हॉँ, बीमार तो था; लेकिन अब अच्छा हो गया हूँ, आपको मेरे कारण व्यर्थ कष्ट उठाना पड़ा। यदि इस समय आपको असुविधा हो, तो रुपये फिर दे दीजिएगा। मैं अब उऋण हो गया हूँ। कोई जल्दी नहीं है।
गोरेलाल विदा हो गये, तो ब्रजनाथ रुपये लिये हुए भीतर आये और भामा से बोले--ये लो अपने रुपये; गोरेलाल दे गये।
भामा ने कहा--ये मरे रुपये नहीं तुलसी के हैं; एक बार पराया धन लेकर सीख गयी।
ब्रज०--लेकिन तुलसी के पूरे रुपये तो दे दिये गये !
भामा--दे दिये तो क्या हुआ? ये उसके आशीर्वाद की न्योछावर है।
ब्रज०-कान के झुमके कहॉँ से आवेंगे?
भामा--झुमके न रहेंगे, न सही; सदा के लिए ‘कान’ तो हो गये।
Yadgar kahani nhi hakikat
जवाब देंहटाएंAGAR HUM BHI INHI RAHO PER CHALE TO SYAD GINDAGI KE HAQIQUAT
जवाब देंहटाएंDE
AGAR HUM BHI INHI RAHO PER CHALE TO SYAD GINDAGI KE HAQIQUAT
जवाब देंहटाएंDE
YAHI WO SACCHI GYAN KI BAATEIN H JINHE HAME APNE MAN KE ANDER BASANA CHAHIYE
हटाएंYAHI WO SACCHI GYAN KI BAATEIN H JINHE HAME APNE MAN KE ANDER BASANA CHAHIYE
हटाएंImandari ki hi jeet hoti h- shriniwas
हटाएंParaya dhan kabhi apna nhi hota h.vh kisi n kisi bhane se vyarth karyo m chala hi jata h....
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