10 जुलाई, 2009

मगर और सियार (बाल-कहानी)

एक थी नदी। उसमें एक मगर रहता था। एक बार गरमियों में नदी का पानी बिलकुल सूख गया। पानी की एक बूंद भी न बची। मगर की जान निकलने लगी। वह न हिल-डुल सकता था और न चल ही सकता था।
नदी से दूर एक पोखरा था। पोखरे में थोड़ा पानी था, लेकिन मगर वहां जाये कैसे? तभी उधर से एक किसान निकला। मगर ने कहा, "ओ, किसान भैया! मुझे कहीं पानी में पहुंचा दो। भगवान तुम्हारा भला करेगा।"
किसान बोला, "पहुंचा तो दूं, पर पानी में पहुंचा देने के बाद तुम मुझे पकड़ तो नहीं लोगे?"
मगर ने कहा, "नहीं, मैं तुमको कैसे पकड़ूगा?"
किसान ने मगर को उठा लिया। वह उसे पोखरे के पास ले गया,
और फिर उसको पानी में छोड़ दिया। पानी में पहुंचते ही मगर पानी पीने लगा। किसान खड़ा-खड़ा देखता रहा। तभी मगर ने मुड़कर किसान का पैर पकड़ लिया।
किसान बोला, "तुमने कहा था कि तुम मुझको नहीं खाओगे? अब तुमने तुझको क्यों पकड़ा है?"
मगर ने कहा, "सुनो, मैं तो तुमको नहीं पकड़ता, लेकिन मुझे इतनी जबरदस्त भूख लगी है कि अगर मैंने तुमको न खाया, तो मर जाऊंगा। इससे तो तुम्हारी सारी मेहनत ही बेमतलब हो जायगी? मैं तो आठ दिन का भूखा हूं।"
मगर ने किसान का पैर पानी में खींचना शुरू किया।
किसान बोला, "ज़रा ठहरो। हम किसी से इसका न्याय करा लें।"
मगर ने सोचा—‘अच्छी बात है, थोड़ी देर के लिए यह तमाशा भी देख लें। उसने किसान का पैर मजबूती के साथ पकड़ लिया और कहा, "हां, पूछ लो। जिससे भी चाहो, उससे पूछ लो।"
उधर से एक बूढ़ी गाय निकली। किसान ने उसकी सारी बात सुनाई और पूछा, "बहन! तुम्हीं कहा, यह मगर मुझको खाना चाहता है। क्या इसका यह काम ठीक कहा जायगा?"
गाय ने कहा, "मगर! खा लो तुम इस किसान को। इसकी तो जात ही बुरी है। जबतक हम दूध देते हैं, ये लोग हमें पालते हैं। जब हम बूढ़े हो जाते हैं, तो हमको बाहर निकाल देते हैं। क्यों भई किसान! मैं ठीक कह रही हूं न?" मगर किसान के पैर को ज़ोर से खींचने लगा।
किसान बोला, "ज़रा ठहरो। हम और किसी से पूछ देखें।" वहां एक लंगड़ा घोड़ा चर रहा था।
किसान ने घोड़े को सारी बात सुना दी और पूछा, "कहो, भैया,क्या यह अच्छा है?"
घोड़े ने कहा, "मेहरबान! अच्छा नहीं, तो क्या बुरा है? जरा मेरी तरफ देखिए। मेरे मालिक ने इतने सालों तक मुझसे काम लिया और जब मैं लंकड़ा हो गया, तो मुझे घर से बाहर निकाल दिया? आदमी की तो जात ही ऐसी है। मगर भैया! तुम इसे खुशी-खुशी खा जाओ!"
मगर किसान के पैर को जोर-जोर से खींचने लगा। किसान ने कहा, "ज़रा ठहरो। अब एक किसी और से पूछ लें। फिर तुम मुझको खा लेना।"
उसी समय उधर से एक सियार निकला। किसान ने कहा, "सियार भैया! ज़रा हमारे इस झगड़े का फैसला तो कर जाओ।"
सियारन ने दूर से ही पूछा, "क्या झगड़ा है भाई?"
किसान ने सारी बात कह दी। सियार फौरन समझ गया कि मगर किसान को खा जाना चाहता है। सियार ने पूछा, "तो किसान भैया, तुम वहां उस सूखी जगह में पड़े थे?"
मगर बोला, "नहीं, वहां तो मैं पड़ा था।"
सियार ने कहा, "समझा-समझा,तुम पड़े थे। मैं तो ठीक से समझ नहीं पाया था। अच्छा, तो फिर क्या हुआ?"
किसान ने बात आगे बढ़ाई। सियार बोला, "भैया, क्या करूं? मेरी अकल काम नहीं कर रही है। मैं कुछ समझ नहीं पा रहा हूं। सारी बात एक बार फिर समझाकर कहा। हां, तो आगे क्या हुआ?"
मगर चिढ़कर बोला, "सुनो, मैं कहता हूं। यह देखो, मैं वहां पड़ा था।"
सियार अपना सिर खुजलाते-खुलजाते बोला, "कहां? किस तरह?" मगर ताव में आ गया। उसने किसान का पैर छोड़ दिया और वह दिखाने लगा कि वहां, किस तरह पड़ा हुआ था।
सियार ने फौरन ही किसान को इशारा किया कि भाग जाओ! किसान
भागा। भागते-भागते सियार ने कहा, "मगर भैया! अब मैं समझ गया कि तुम कहां, किस तरह पड़े थे। अब तुम बताओ कि बाद में क्या हुआ?"
मगर छटपटाता हुआ पड़ा रहा गया और सियार पर दांत पीसने लगा। वह मन-ही-मन बोला, "कभी मौका मिला, तो मैं इस सियार की चालबाजी को देख लूंगा। आज इसने मुझे ठग लिया है।
कुछ दिनों के बाद चौमासा शुरू हुआ। नदी में जोरों की बाढ़ आई। मगर नदी में जाकर रहने लगा। एक दिन सियार नदी पर पानी पीने आ रहा था। मगर ने उसे दूर से देख लिया। मगर किनारे पर पहुंचा और छिपकर दलदल में बैठ गया। न हिला, न डुला। सिर्फ अपनी दो आंखें खुली रखीं। सियार ने मगर की आंखें देख लीं। वह वहां से कुछ दूर जाकर खड़ा रहा और हंसकर बोला:
नदी-नाले के दल-दल को दो आंखें मिलीं।
नदी-नाले के दल-दल को दो आंखें मिलीं।
सुनकर मगर ने एक आंख मींच ली। आंखें मटकाते हुए सियार ने कहा:
नदी-नाले के दलदल की एक आंख वची।
नदी-नाले के दलदल की एक आंख बची।
सुनकर मगर ने दोनों आंखें मींच लीं। सियार बोला: ओह् हो!
नदी-नाले के दलदल की दोनों आंख भी गईं।
नदी नाले के दलदल की दोनों आंखें भी गईं।
मगर समझ गया कि सियार ने उसको पहचान लिया है।
उसने कहा, "कोई बात नहीं। आगे कभी देखेंगे।"
बहुत दिन बोत गए। सियार कहीं मिला नहीं।
एक बार बहुत पास पहुंचकर सियार नदी में पानी पी रहा था। तभी सपाटे के साथ मगर उसके पास पहुंचा और उसने सियार की टांग पकड़ ली।
सियार ने सोचा—‘अब तो बेमौत मर जाऊंगा। इस मगर के शिकंजे में फंस गया।’
लेकिन वह ज़रा भी घबराया नहीं। उलटे, ज़ोर से ठहाका मारकर हंसा और बोला, "अरे भैया! मेरा पैर पकड़ो न? पुल का यह खम्भा किसलिए पकड़ लिया है।? मेरा पैर तो यह रहा।" मगर न महसूस किया कि सचमूच उससे भूल हो गई। उसने फौरन ही सियार का पैर छोड़ दिया खम्भे को कचकचाकर पकड़ लिया।
पैर छूटते ही सियार भागा। भागते-भागते सियार ने कहा, "मगर भैया, वह मेरा पैर नहीं है। वह तो खम्भा है। देखो मेरा पैर तो यह रहा!"
फिर सियार ने उस नदी पर पानी पीना बन्द कर दिया। मगर ने बहुत राह देखी। दिन-रात पहरा दिया। पर सियार नदी पर क्यों आने लगा? अब क्या किया जाये?
नदी-किनारे एक अमराई थी। वहां सियार अपने साथियों को लेकर रोज आम खाने पहुंचता था। मगर ने सोचा कि अब मैं अमराई में जाकर छिपूं। एक दिन वह डाल पर पके आमों के बड़े-से ढेर में छिपकर बैठा। सियार को आता देखकर उसने अपनी दोनों आखें खुली रखीं।
हमेशा की तरह सियार अपने साथियों को लेकर अमराई में पहुंचा। फौरन ही उसकी निगाह दो आंखों पर पड़ीं उसने चिल्लाकर कहा, "भाईयों, सुना! यह बड़ा ढेर सरकार का है। इसके पास कोई जाना मत। सब इस दूसरे ढेर के आम खाना।"
इस बात भी सियार पकड़ में नहीं आया। मगर ने सोचा कि अब तो मैं इस सियार की गुफा में ही जाकर बैठ जाऊं। वहां तो यह पकड़ में आ ही जायगा।
एक बार सियार को बाहर जाते देखकर मगर उसकी गुफा में जा बैठा। सारी रात जंगल में घूमने-भटकने के बाद जब सबेरा होने को आया, तो सियार
अपनी गुफा में लौटा। गुफा में घुसते ही उसने वहां मगर की दो आंखें देखीं। सियार ने कहा, "वाह-वाह, आज तो मेरे घर में दो दीए जल रहे हैं।" मगर ने अपनी एक आंख बन्द कर ली। सियार बोला, "अरे रे, एक दीया बुझ गया।" मगर ने अपनी दोनों आंखें बन्द कर लीं।
सियार ने कहा, "वाह, अब तो दोनों ही दीये बुझ गए। अब इस अंधेरी गुफा में कौन जाय! किसी दूसरी गुफा में चला जाऊं।" सियार चला गया। आख़िर मगर उकताकर उठा और वापस नदी में पहुंच गया।
सियार फिर कभी मगर की पकड़ में नहीं आया।

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