17 फ़रवरी, 2010

चंद्रकांता संतति - भाग 10

भैरो सिंह- खैर हर्ज क्या है, अगर हम लोग साथ ही चलें? तीन आदमी किनारे खड़े हो जाएंगे, एक आदमी आगे बढ़कर सौदा ले लेगा।
बद्रीनाथ- हां, हां, यही ठीक होगा, चलो हम लोग एक साथ चलें।
चारों ऐयार एक साथ वहीं से रवाना हो गए और उस हलवाई के पास पहुंचे जिसकी अकेली दुकान शहर के किनारे पर थी। बद्रीनाथ, ज्योतिषी और भैरो सिंह कुछ इधर ही खड़े रहे और पन्नालाल सौदा खरीदने दुकान पर गए। जाने के पहले ही भैरो सिंह ने कहा- 'मिट्टी के बर्तन में पानी भी देने का इकरार हलवाई से पहले कर लेना, नहीं तो पीछे हुज्जत करेगा।'
पन्ना लाल हलवाई की दुकान पर गए और दो सेर पूरी तथा सेर भर मिठाई मांगी। हलवाई ने खुद पूछा कि- 'पानी भी चाहिए या नहीं?'
पन्नालाल- हां, हां, पानी जरूर देना होगा।
हलवाई- कोई बर्तन है?
पन्नालाल- बर्तन तो है, मगर छोटा है। तुम्हीं किसी मिट्टी के ठलिए में जल दे दो।
पन्ना लाल- इतना अंधेर-खैर हम देंगे।
पूरी, मिठाई और एक घड़ा जल लेकर चारों ऐयार वहां से चले, मगर यह खबर किसी को भी न थी कि कुछ ही दूर पीछे दो आदमी साथ लिए छिपता हुआ हलवाई भी आ रहा है। मैदान में एक बड़े पत्थर की चट्टान पर बैठ चारों ने भोजन किया, जल पिया और हाथ-मुंह धो निश्चित हो धीरे-धीरे आपस में बातचीत करने लगे। आधा घंटा भी न बीता होगा कि चारों बेहोश होकर चट्टान पर लेट गए और दोनों आदमियों को साथ लिए हलवाई इनकी सर पर आ धमका।
हलवाई के साथ आए दोनों आदमियों ने बद्रीनाथ, ज्योतिषी और पन्नालाल की मुश्कें कस डाली और कुछ सुंघा भैरोसिंह को होश में लाकर बोले- 'वाह जी अयायब सिंह- आपकी चालाकी तो खूब काम कर गई! अब तो शिवदत्तगढ़ में आए हुए पांचों नालायक हमारे हाथ आ फंसे! महाराज से सबसे ज्यादा इनाम पाने का काम तो आप ही ने किया!'
बहुत सी तकलीफें उठाकर महाराज सुरेंद्र सिंह, वीरेंद्र सिंह और इन्हीं के बदौलत चंद्रकांता, चपला, चंपा, तेज सिंह और देवी सिंह वगैरह ने थोड़े दिन खूब सुख लूटा, मगर अब वह जमाना न रहा। सच है, सुख और दुख का पहरा बराबर बदलता रहता है। कौन जानता था कि कि गया गुजरा शिवदत्त फिर बला की तरह निकल आएगा? किसे खबर थी कि बेचारी चंद्रकांता की गोद से पले-पलाए दोनों होनहार लड़के यों अलग कर दिए जाएंगे?
कौन साफ कह सकता था कि इन लोगों की वंसावली और राज्य में जितनी तरक्की होगी, एकाएक उतनी ही ज्यादा आफतें आ पड़ेंगी? खैर! खुशी के दिन तो उन्होंने काटे, अब मुसीबत की घड़ी कौन झेले? हां, बेचारे जगन्नाथ ज्योतिषी ने इतना जरूर कह दिया था कि वीरेंद्र सिंह के राज्य और वंश की बहुत कुछ तरक्की होगी, मगर मुसीबत को लिए हुए। खैर आगे जो कुछ होगा देखा जाएगा, पर इस समय तो सबके सब तरद्दुद में पड़े हैं। देखिए, अपने एकांत के कमरे में महाराज सुरेंद्र सिंह कैसी चिंता में बैठे हैं और बाईं तरफ गद्दी का कोना दबाए राजा वीरेंद्र सिंह अपने सामने बैठे हुए जीत सिंह की सूरत किस बेचैनी से देख रहे हैं। दोनों बाप-बेटा अर्थात देवी सिंह और तारा सिंह अपने पास ऊपर के दर्जे पर बैठे हुए बुजुर्ग और गुरु के समान जीत सिंह की तरफ झुके हुए इस उम्मीद में बैठे हैं कि देखें अब आखिरी हुक्म क्या होता है। सिवाय इन लोगों के इस कमरे में और कोई भी नहीं है, एक दम सन्नाटा छाया हुआ है। न मालूम इसके पहिले क्या-क्या बातें हो चुकी हैं, मगर इस वक्त तो महाराज सुरेंद्र सिंह ने इस सन्नाटे को सिर्फ इतना ही कह के तोड़ा- 'खैर, चंपा और चपला की भी बात मान लेनी चाहिए।'
जीत सिंह- जो मर्जी, मगर देवी सिंह के लिए क्या हुक्म है?
सुरेंद्र सिंह- और तो कुछ नहीं, सिर्फ इतना ही ख्याल है कि चुनार की हिफाजत ऐसे वक्त क्यों कर होगी?
जीत सिंह- मैं समझता हूं कि यहां की हिफाजत के लिए तारा बहुत है और फिर वक्त पड़ने पर इस बुढ़ौती में भी मैं कुछ कर गुजरूंगा।
सुरेंद्र सिंह- (कुछ मुस्कुराकर और उम्मीद भरी निगाहों से जीत सिंह की तरफ देखकर) खैर, जो मुनासिब समझो, करो।
जीत सिंह- (देवी सिंह से) लीजिए साहब, अब आपको भी पुरानी कसर निकालने का मौका दिया जाता है। देखें आप क्या करते हैं। ईश्वर इस मुस्तैदी को पूरा करें।
इतना सुनते ही देवी सिंह उठ खड़े हुए और सलाम कर कमरे के बाहर चले गए...

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