21 फ़रवरी, 2010

चंद्रकांता संतति - भाग 12

भूखे प्यासे दिन बीत गया, अंधेरा हुआ चाहता था कि वही छोटी-सी खिड़की खुली और चारों औरतों को साथ लिए वह पिशाची आ मौजूद हुई। एक औरत थाल उठाए और चौथी पान का जड़ाऊं डिब्बा लिए साथ मौजूद थी।
आनंद सिंह पलंग से उठ खड़े हुए और हालर निकल जाने की उम्मीद में उस खिड़की के अंदर घुसे। उन औरतों ने इन्हें बिलकुल न रोका, क्योंकि वे जानती थीं कि सिर्फ इस खिड़की ही के पार चले जाने से उनका काम न चलेगा।
खिड़की के पार तो हो गए मगर आगे अंधेरा था। इस छोटी-सी कोठरी में चारों तरफ घूमे, मगर रास्ता न मिला। हां एक तरफ बंद दरवाजा मालूम हुआ जो किसी तरह खुल न सकता था, लाचार फिर उसी कमरे में लौट आए।
उस औरत ने हंसकर कहा- 'मैं पहले ही कह चुकी हूं कि आप मुझसे अलग नहीं हो सकते। खुदा ने मेरे ही लिए आपको पैदा किया है। अफसोस कि आप मेरी तरह खयाल नहीं करते और मुफ्त में अपनी जान गंवाते हैं! बैठिए, खाइए, पीजिए, आनंद कीजिए, किस सोच में पड़े हैं!'
आनंद सिंह- मैं तेरा छुआ खाऊं?
औरत- क्यों हर्ज क्या है? खुदा सबका है, उसी ने हमको भी पैदा किया, आपको भी पैदा किया। जब एक ही बाप के सब लड़के हैं तो आपस में छूत कैसी?
आनंद सिंह- (चिढ़कर) खुदा ने हाथी पैदा किया, गदहा भी पैदा किया, कुत्ता भी पैदा किया, सुअर भी पैदा किया, मुर्गा भी पैदा किया- जब एक ही बाप के सब लड़के हैं तो परहेज काहे का!
औरत- अच्छा, आप मुझसे शादी न करें, इसी तरह मुहब्बत रखें।
आनंद सिंह- कभी नहीं , चाहे हो!
औरत- (हाथ का इशारा करके) अच्छा उस औरत से शादी करेंगे जो आपके पीछे खड़ी है? वह तो हिंदुआनी है।
'मेरे पीछे दूसरी औरत कहा से आई!' ताज्जुब से पीछे फिरकर आनंद सिंह ने देखा। उस नालायक को मौका मिला, खिड़की के अंदर हो झट किवाड़ बंद कर दिया।
आनंद सिंह पूरा धोखा खा गए, हर तरह से हिम्मत टूट गई। लाचार फिर उसी पलंग पर लेट गए। भूख से आंखें निकली आती थीं, खाने-पीने का सामान मौजूद था, मगर वह जहर...

दिल ने समझ लिया कि अब जान गई। कभी उठते, कभी बैठते कभी दालान के बाहर निकलकर टहलते, आधी रात जाते-जाते भूख की कमजोरी ने उन्हें चलने-फिरने लायक न रखा, फिर पलंग पर आकर लेट गए और ईश्वर को याद करने लगे।
एकाएक बाहर से धमाके की आवाज आई, जैसे कोई कमरे की छत पर से कूदा हो। आनंद सिंह उठ बैठे और दरवाजे की तरफ देखने लगे। सामने से एक आदमी आता हुआ दिखाई पड़ा, जिसकी उम्र लगभग चालीस वर्ष की होगी। सिपाहियाना पोशाक पहने, ललाट पर त्रिपुंड लगाए, कमर में नीमचा खंजर और ऊपर से कमंद लपेटे, बगल से मुसाफिरी का झोला, हाथ में दूध से भरा लोटा लिए आनंद सिंह के सामने आ खड़ा हुआ और बोला- 'अफसोस, आप राजकुमार होकर वह काम करना चाहते हैं, जो ऐयारों, जासूसों या अदले सिपाहियों के करने लायक हो! नतीजा यह निकला कि इस चांडालिन के यहां फंसना पड़ा। इस मकान में आए आपको कितने दिन हुए! घबराइए मत, मैं आपका दोस्त हूं, दुश्मन नहीं!'
इस सिपाही को देख आनंद सिंह ताज्जुब में आ गए और सोचने लगे कि यह कौन है, जो ऐसे वक्त मेरी मदद को आ पहुंचा! खैर, जो भी हो बेशक यह हमारा खैरख्वाह है, बदख्वाह नहीं।
आनंद सिंह- जहां तक खयाल करता हूं यहां आए दूसरा दिन है।
सिपाही- कुछ अन्न-जल तो न किया होगा!
आनंद सिंह- कुछ नहीं।
सिपाही- हाय, राजा वीरेंद्र सिंह के प्यारे लड़के की यह दशा! लीजिए, मैं आपको खाने-पीने के लिए देता हूं।
आनंद सिंह- पहले मुजे मालूम होना चाहिए कि आपकी जाति उत्तम है और मुझे धोखा देकऱ अधर्मी करने की नीयत नहीं है।
सिपाही- (दांत के नीचे जबान दबाकर) राम-राम? ऐसा स्वप्न में भी खयाल न कीजिएगा कि मैं धोखा देकर आपको अजाति करूंगा। मैंने पहले ही सोचा था कि आप शक करेंगे इसलिए ऐसी चीजें लाया हूं, जिनके खाने-पीने में आप उज्र न करें। पलंग पर से उठिए, बाहर आइए।
आनंद सिंह उसके साथ बाहर गए। सिपाही ने लोटा जमीन पर रख दिया और झोले में से कुछ मेवा निकाल उनके हाथ में देकर बोला-' लीजिए इसे खाइए और (लोटे की तरफ इशारा करते हुए कहा) यह दूध है, पीजिए।'
आनंद सिंह की जान में जान आ गई, प्यास और भूख से दम निकला जाता था, ऐसे समय में थोड़े मेवे और दूध का मिल जाना क्या थोड़ी खुशी की बात है? मेवा खाया, दूध पिया, जरी ठिकाने हुआ, इसके बाद उस सिपाही को धन्यवाद देकर बोले- 'अब मुझे किसी तरह इस मकान के बाहर कीजिए।' सिपाही- मैं आपको इस मकान के बाहर ले चलूंगा, मगर इसकी मजदूरी भी तो मुझे मिलनी चाहिए।

कोई टिप्पणी नहीं:

एक टिप्पणी भेजें

Related Posts with Thumbnails