22 फ़रवरी, 2010

चंद्रकांता संतति - भाग 13

आनंद सिंह- जो कहिए, दूंगा।
सिपाही- आपके पास क्या है जो मुझे देंगे?
आनंद सिंह- इस वक्त भी हजारों रुपए का माल मेरे बदन पर है।
सिपाही- मैं यह सब कुछ नहीं चाहता।
आनंद सिंह- फिर?
सिपाही- उसी कम्बख्त के बदन पर जो कुछ जेवर है मुझे दीजिए और एक हजार अशर्फी।
आनंद सिंह- यह कैसे हो सकेगा? वह तो यहां मौजूद नहीं और हजार अशर्फी भी कहां से आवें?
सिपाही- उसी से लेकर दीजिए।
आनंद सिंह- क्या वह मेरे कहने से देगी?
सिपाही- (हंसकर) वह तो आपके लिए जान देने को तैयार है, इतनी रकम की क्या बिसात है।
आनंद सिंह- तो क्या आज मुझे यहां से न छुड़ावेंगे?
सिपाही- नहीं, मगर आप कोई चिंता न करें, आपका कोई कुछ बिगाड़ नहीं सकता, कल जब वह युवती आए तो उससे कहिए कि तुमसे मुहब्बत तब करूंगा जब अपने बदन का कुल जेवर और एक हजार अशर्फी यहां रख दो, उसके दूसरे दिन तुम जो-जो कहोगी मैं मानूंगा। वह तुरंत अशर्फी मंगा देगी और कुल जेवर भी उतार देगी। नालायक बड़ी मालदार है, उसे कम न समझिए।
आनंद सिंह- खैर जो कहोगे करूंगा।
सिपाही- जब तक आप यह न करेंगे, मैं आपको इस कैद से न छुड़ाऊंगा। आप यह न सोचिए कि उसे धोखा देकर या जबर्दस्ती उस राह से चले जाएंगे जिधर से वह आती-जाती है। यह कभी नहीं हो सकेगा, उसके आने-जाने के लिए कई रास्ते हैं।
आनंद सिंह- अगर वह तीन-चार दिन न आवे तब?
सिपाही- क्या हर्ज है, मैं आपकी बराबर ही सुध लेता रहूंगा और खाने-पीने को पहुंचाया करूंगा।
आनंद सिंह- अच्छा, ऐसा ही सही।
वह सिपाही कमंद लगाकर छत पर चढ़ा और दीवार फांद मकान के बाहर हो गया। थोड़ी रात बच गई थी जो आनंद सिंह ने इसी सोच-विचार में काटी कि यह कौन है, जो ऐसे वक्त में मेरी मदद को पहुंचा। इसे लालच बहुत है, कोई ऐयार मालूम पड़ता है। ऐयारों का जितना ज्यादे खर्च होता है उतना ही लालच भी करते हैं। खैर कोई हो, अब तो जो कुछ उसने कहा है करना ही पड़ेगा।
रात बीत गई, सवेरा हुआ। वह और फिर उन्हीं चारों लड़कियों को लिये आ पहुंची। देखा कि आनंद सिंह पलंग पर पड़े हैं और खाने-पीने का सामान ज्यों-का-त्यों उसी जगह रखा है जहां वह रख गई थी।
औरत- आप क्यों जिद्द करके भूखे-प्यासे अपनी जान देते हैं?
आनंद सिंह- इसी तरह मर जाऊंगा, मगर तुमसे मुहब्बत न करूंगा। हां, अगर एक बात मेरी मानो तो तुम्हारा कहा करूं।
औरत- (खुश होकर और उनके पास बैठकर) जो कहो मैं करने को तैयार हूं, मगर मुझसे जिद्द न करो।
आनंद सिंह- अपन बदन पर से कुल जेवर उतार दो और एक हजार अशर्फी मगा दो।
औरत- (आनंद सिहं के गले में हाथ डालकर) बस, इतने ही के लिए! लो, मैं अभी देती हूं!
एक हजार अशर्फी लाने के लिए उसने दो लड़कियों को कहा और अपने बदन से कुल जेवर उतार दिए। थोड़ी ही देर में वह दोनों लड़कियां अशर्फियों का तोड़ा लिए आ गईं।
औरत- लीजिए, अब आप खुश हुए? अब तो उज्र नहीं?
आनंद सिंह- नहीं, मगर एक दिन की और मोहलत मांगता हूं? कल इसी वक्त तुम आओ बस मैं तुम्हारा हो जाऊंगा।
औरत- अब यह ढकोसला क्या निकाला? आज भी भूखे-प्यासे काटोगे तो तुम्हारी क्या दशा होगी?
आनंद सिंह- इसकी फिक्र न करो, मुझे कई दिनों तक भूखे-प्यासे रहने की आदत है।
औरत- लाचार, खैर यह भी सही, ठहरिए, मैं आती हूं।
इतना कहकर आनंद सिंह को उसी जगह छोड़ चारों लड़कियों को साथ ले वह कमरे से बाहर चली गई। घंटा-भर बीतने पर भी वह न लौटी तो आनंद सिंह उठे और कमरे के बाहर जा उसे ढूंढ़ने लगे, मगर कहीं पता न लगा। बाहर की दीवार में छोटी-मोटी दो आलमारियां लगी हुई दिखाई दीं। अंदाज कर लिया कि शायद उस खिड़की की तरह यह भी बाहर जाने का कोई रास्ता हो और इधर ही से वे लोग निकल गई हों। सोच और फिक्र में तमाम दिन बिताया, पहर रात जाते-जाते कल की तरह वही सिपाही फिर पहुंचा और मेवा-दूध आनंद सिंह को दिया।
आनंद सिंह- लीजिए, आपकी फरमाइश तैयार है।
सिपाही- तो बस, अब आप भी इस मकान के बाहर चलिए। एक रोज के कष्ट में इतनी रकम हाथ आई, क्या बुरा हुआ!
सब कुछ सामान अपने कब्जे में करने के बाद सिपाही कमरे के बाहर निकला और सहन में पहुंच कमरबंद के जरिए से आनंद सिंह को मकान के बाहर निकालने के बाद आप भी बाहर हो गया। मैदान की हवा लगने से आनंद सिंह का जी ठिकाने हुआ। समझे कि अब जान बची। बाहर से देखने पर मालूम हुआ कि यह मकान एक पहाड़ी के अंदर है, कारीगरों ने पत्थर तोड़कर इसे तैयार किया है। इस मकान ने अगल-बगल में कई सुरंगे भी दिखाई पड़ी।
आनंद सिंह को लिए हुए वह सिपाही कुछ दूर चला गया जहां कसे-कसाए दो घोड़े पेड़ से बंधे थे। बोला- 'लीजिए, एक पर आप सवार होइए, दूसरे पर मैं चढ़ता हूं। चलिए, आपको घर तक पहुंचा आऊं।'


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