15 फ़रवरी, 2010

चंद्रकांता संतति - भाग 4

इंद्रजीत सिंह : जी हां, दुनिया में भाई से बढ़कर रत्न नहीं तो भाई से बढ़ कर कोई दुश्मन भी नहीं। यह बात मेरे दिल में बैठ गई है कि उसको हटाने के लिए ब्रह्माजी भी आकर समझाएं-बुझाएं तो भी कोई फर्क नहीं पड़ेगा।
सा
धू : बिना उसको साथ लिए तुम तिलिस्म नहीं तोड़ सकते।
इंद्रजीत सिंह : (हाथ जोड़कर), बस तो जाने दीजिए। माफ कीजिए, मुझे तिलिस्म तोड़ने की जरूरत नहीं।
साधू : क्या तुम्हें इतनी जिद है?
इंद्रजीत सिंह : मैं कह चुका हैं कि ब्रह्मा भी मेरी राय नहीं पलट सकते।
साधू : खैर, तब तुम्हीं चलो, मगर इसी वक्त चलना होगा।
इंद्रजीत सिंह : हां, हां, मैं तैयार हूं, अभी चलिए।
साधू उसी समय उठ खड़े हुए। अपनी गठड़ी बांध एक शेर पर लाद दिया तथा दूसरे पर सवार हो गए। इसके बाद एक शेर की तरफ देखकर कहा, 'बच्चा गंगाराम, यहां तो आओ।' वह शेर तुरंत उनके पास आया। साधू ने इंद्रजीत से कहा- 'तुम इस पर सवार हो जाओ।' इंद्रजीत सिंह कूद कर सवार हो गए और साधू के साथ-साथ दक्षिण के रास्ते पर चल दिए। साधू के साथी और शेर भी कोई आगे-पीछे, कोई बाएं, कोई दाहिने हो साधू के साथ जाने लगे।
सब शेर तो पीछे रह गए, मगर दो शेर जिन पर साधू और इंद्रजीत सवार थे आगे निकल गए। दोपहर तक ये दोनों चलते गए। जब दिन ढलने लगा तो साधूजी ने इंद्रजीत सिंह से कहा- 'यहां ठहरकर कुछ खा-पी लेना चाहिए।'
इसके जवाब में कुमार बोले-'साधू जी खाने-पीने की कोई जरूरत नहीं। आप महात्मा ही ठहरे, मुझे कोई भूख नहीं लगी है, फिर अटकने की क्या जरूरत है? जिस काम में पड़े उसमें सुस्ती करना ठीक नहीं!'
साधू ने कहा- 'शाबाश, तुम बड़े बहादुर हो, अगर तुम्हारा दिल इतना मजबूत न होता तो तिलिस्म तुम्हारे ही हाथ से टूटेगा, ऐसा बड़े लोग न कह जाते। खैर चलो!'
कुछ दिन बाद बाकी रहा, जब ये दोनों एक पहाड़ी लुटेरे हाथ में बरछे लिए आते दिखाई दिए और ऐसे ही 20-25 आदमियों को साथ लिए पूरब तरफ से आता हुआ राजा शिवदत्त नजर पड़ा जिसे देखते ही इंद्रजीत सिंह ने ऊंची आवाज में कहा- 'इनको मैं पहचान गया, यही महाराज शिवदत्त हैं। इनकी तस्वीर मेरे कमरे में लटकी हुई है। दादाजी ने इनकी तस्वीर मुझे दिखाकर कहा था कि हमारे सबसे पुराने दुश्मन यही महाराज शिवदत्त हैं। ओफ ओह, हकीकत से साधू जी ऐयार ही निकले, जो सोचा था वही हुआ। खैर क्या हर्ज है, इंद्रजीत सिंह को गिरफ्तार कर लेना जरा टेढ़ी खीर है!'
शिवदत्त- (पास पहुंचकर) मेरा आधा कलेजा तो ठंडा हुआ, मगर अफसोस, तुम दोनों बाई हाथ न आए।
इंद्रजीत सिंह- जी इस भरोसे न रहिएगा कि इंद्रजीत सिंह को फंसा लिया। उनकी तरफ बुरी निगाह से देखान भी कयामत है ।
इस जगह पर थोड़ा-सा हाल महाराज शिवदत्त का भी बयान करना मुनासिब मालूम होता है। महाराज शिवदत्त को हर तरह से कुंअर वीरेंद्र सिंह के मुकाबले में हार माननी पड़ी। लाचार उसने शहर छोड़ दिया और अपने कई पुराने खैर-ख्वाहों को साथ ले चुनार के दक्षिण की तरफ रवाना हुआ।
चुनार से थोड़ा ही दूर दक्षिण में लम्बा-चौड़ा घना जंगल है। यह बिंध्य के पहाड़ी जंगल का सिलसिला राबर्ट्सगंज, सरगुजा और सिंगरौली होता हुआ सैकड़ों कोस तक चला गया है जिसमें बड़े-बड़े पहाड़, घाटियां, दर्रे और खोह पड़ते हैं। बीच में दो-गो, चार-चार कोस के फासले पर गांव भी आबाद है। कहीं-कहीं पहाड़ों पर पुराने जमाने के टूटे-फूटे आलीशान किले अभी तक दिखाई पड़ते हैं। चुनार से आठ-दस कोस दक्षिण अहरौरा के पास पहाड़ पर पुराने करने से मालूम होता है कि जब यह किला दुरुस्त होगा तो तीन कोस से ज्यादे लम्बी-चौड़ी जमीन इसने घेरे होगी, आखिर में यह किला काशी के मशहूर राजा चेतन सिंह के अधिकार में था। इन्हीं जंगलों में अपनी रानी और कई खैरख्वाहों को मय उनकी औरतों और बाल-बच्चों को साथ लिए घूमते-फिरते महाराज शिवदत्त ने चुनार से लगभग 50 कोस दूर जाकर एक हरी-भरी सुहावनी पहाड़ी के ऊपर एक पुराने टूटे हुए मजबूत किले में डेरा डाला और उसका नाम शिवदत्तगढ़ रखा जिसमें उस वक्त भी कई कमरे और दालान रहने लायक थे। यह छोटी पहाड़ी अपने चारों तरफ के ऊंचे पहाड़ों के बीच में इस तरह छिपी और दबी हुई थी कि एकाएक किसी का यहां पहुंचना और कुछ पता लगाना मुश्किल था।
इस वक्त महाराज शिवदत्त के साथ सिर्फ 20 आदमी थे जिनमें तीन मुसलमान ऐयार थे जो शायद नाजिम और अहमद के रिश्तेदारों में से थे और यह समझकर महाराज शिवदत्त ऐयार के साथ हो गए थे कि इनके साथ मिले रहने से कभी-न-कभी राजा वीरेंद्र सिंह से बदला लेने का मौका मिल ही जाएगा, दूसरे सिवाय शिवदत्त के और कोई इस लायक नजर भी न आता था जो इन बेईमानों को ऐयारी के लिए अपने साथ रखता। तीनों ऐयार नीचे लिखे नामों से पुकारे जाते थे- बाकरअली, खुदाबख्स और यारअली। इस सब ऐयारों और साथियों ने रुपए-पैसे से भी जहां तक बन पड़ा महाराज शिवदत्त की मदद की।
राजा वीरेंद्र सिंह की तरफ शिवदत्त का दिल साफ न हुआ, मगर मौका न मिलने के सबब मद्दत तक उसे चुपचाप बैठे रहना पड़ा। अपनी चालाकी और होशियारी से वह पहाड़ी भील और खर्वार इत्यादि जाति के आदमियों का राजा बन बैठा और उनसे मालगुजारी में गल्ला, घी, शहद और बहुत-सी जंगली चीजें वसूल करने और उन्हें करने और उन्हीं लोगों की मारफत शहर में भेजवा और बिकवाकर रुपया बटोरने लगा। उन्हीं लोगों को होशियार करके थोड़ी-बहुत फौज भी उसने बना ली। धीरे-धीरे वे पहाड़ी जाति के लोग भई होशियार हो गए और खुद शहर में जाकर गल्ला वगैरह बेच रुपये इकट्ठा करने लगे। शिवदत्तगढ़ भी अच्छी तरह आबाद हो गया।

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