20 फ़रवरी, 2010

चंद्रकांता संतति - भाग 11

अपने भाई इंद्रजीत सिंह की जुदाई से व्याकुल हो उसी समय आनंद सिंह उस जंगल के बाहर हुए और मैदान में खड़े हो इधर-उधर निगाल दौड़ाने लगे। पश्चिम तरफ दो औरतें घोड़ों पर सवार धीरे-धीरे जाती हुई दिखाई पड़ी। ये तेजी के साथ उस तरफ बढ़े और उन दोनों के पास पहुंचने की उम्मीद में दो कोस तक पीछा किए चले गए, मगर उम्मीद पूरी न हुई, क्योंकि पहाड़ी के नीचे पहुंच कर वे दोनों रुकी और अपने पीछे आते हुए आनंद सिंह की तरफ देख घोड़ों को एक दम तेज कर पहाड़ी के बगल से घुमाती हुई गायब हो गई।
खूब खिली हुई चांदनी रात होने के सबब से आनंद सिंह को ये दोनों औरतें दिखाई पड़ी और इन्होंने इतनी हिम्मत भी की, पर पहाड़ी के पास पहुंचते ही उन दोनों के भाग जोने से इनको बड़ा ही रंज हुआ। खड़ा होकर सोचने लगे कि अब क्या करना चाहिए। इनको हैरान और सोचते हुए छोड़कर निर्दयी चंद्रमा ने भी धीरे-धीरे अपने घर का रास्ता लिया और अपने दुश्मन को
जाते देख मौका पाकर अंधेरे ने चारों तरफ हुकूमत जमाई। आनंद सिंह और भी दुखी हुए। क्या करें? कहां जाएं? किससे पूछें कि इंद्रजीत सिंह कौन ले गया? दूर से एक रोशनी दिखाई पड़ी। गौर करने से मालूम हुआ कि किसी झोपड़ी के आगे आग डल रही है। आनंद सिंह उसी तरफ चले और थोड़ी ही देर में कुटी के पास पहुंच कर देखा कि पत्तों की बनाई हुई हरी झोपड़ी के आगे आठ-दस आदमी जमीन पर फर्श बिछाए बैठे हैं, जो कि दाढ़ी और पहिरावे से साफ मुसलमान मालूम पड़ते हैं। बीच में दो मोमी शमादान जल रहे हैं। एक आदमी फारसी के शेर पढ़कर सुना रहा है और बकी सब 'वाह-वाह' की धुन लड़ा रहे हैं। एक तरफ आग जल रही है और दो-तीन आदमी कुछ खाने की चीजें पका रहे हैं। आनंद सिंह फर्श के पास जाकर खड़े हो गए।
आनंद सिंह को देखते ही सब के सब खड़े हुए और बड़ी इज्जत से उनको फर्श पर बैठाया। उस आदमी ने जो फारसी के शेर पढ़-पढ़ कर सुना रहा था, खड़े हो अपनी रंगीली भाषा में कहा- 'खुदा का शुक्र है कि शाहजाद-ए-चुनार ने इस मजलिस में पहुंच कर हम लोगों की इज्जत को फल्के-हफ्तूम' तक पहुंचाया। इस जंगल बियावान में हम लोग क्या खातिर कर सकते हैं सिवाय इसके कि इनके कदमों को अपनी आंखों पर जगह दें और इत्र व इलायची पेश करें!'
केवल इतना ही कहकर इत्रदान और इलायची की डिब्बी उनके आगे ले गया। पढ़े-लिखे भले आदमियों की खातिर जरूरी समझकर आनंद सिंह ने इत्र सूंघा और इलायची ले लिया, इसके बाद इनसे इजाजत लेकर वह फिर फारसी कविता पढ़ने लगा। दूसरे आदमियों ने दो एक तकिए इनके अगल-बगल में रख दिए।
इत्र की विचित्र खुशबू ने इनको मस्त कर दिया, इनकी पलकें भारी हो गई और बेहोशी ने धीरे-धीरे अपना असर जमाकर इनको फर्श पर सुला दिया। दूसरे दिन दोपहर को आंख खुलने पर इन्होंने अपने को एक-दूसरे ही मकान में मसहरी पर पड़े हुए पाया। घबड़ाकर उठ-बैठे और इधऱ-उधर देखने लगे।
पांच कमसिन और खूबसूरत औरतें सामने खड़ी हुई दिखाई दीं, जिनमें से एक सरदारनी की तरह कुछ आगे बढ़ी हुई थी। उनके हुस्न और अदा को देख आनंद सिंह दंग हो गए। उसकी बड़ी-बड़ी आंखों और बांकी चितवन ने उन्हें आपे से बाहर कर दिया, उसकी जरा-सी हंसी ने इनके दिल पर बिजली गिराई और आगे बढके हाथ जोड़ इस कहने ने तो और भी सितम ढाया कि- 'क्या आप मुझसे खफा हैं?'
आनंद सिंह भाई की जुदाई, रात की बात, ऐयारों के धोखे में पड़ना, सब कुछ बिलकुल भूल गए और उसकी मुहब्बत में चूर हो बोले- 'तुम्हारी-सी परी-जमाल से और रंज!'
वह औरत पलंग पर बैठ गई और आनंद सिंह के गले में हाथ डाल के बोली- 'खुदा की कसम खाकर कहती हूं कि साल भर से आपेक इश्क ने मुझे बेकार कर दिया। सिवाय आपके ध्यान के खाने-पीने की बिलकुल सुध न रही, मगर मौका न मिलने से लाचार थी।'

आनंद सिंह- (चौंककर) हैं! क्या तुम मुसलमान हो जो खुदा की कसम खाती हो?
औरत- (हंसकर) हां, क्या मुसलमान बुरे होते हैं?
आनंद सिंह यह कहकर उठ खड़े हुए- 'अफसोस, अगर तुम मुसलमान न होती तो मैं तुम्हें जी-जान से प्यार करता, मगर एक औरत के लिए अपना मजहब नहीं बिगाड़ सकता।'
औरत- (हाथ थाम कर) क्या यह बात दिल से कहते हो?
आनंद सिंह- हां, बल्कि कसम खाकर!
औरत- तो तुम यहां से चले जाओगे?
आनंद सिंह- जूरूर!
औरत- मुमकिन नहीं।
आनंद सिंह- क्या मजाल कि तुम मुझको रोको!
औरत- ऐसा खयाल भी न करना।
'देखें, मुझे कौन रोकता है!' कहकर आनंद सिंह उस कमरे के बाहर हुए और उसी कमरे की एक खिड़की, जो दीवार में लगी हुई थई, खोल वे औरतें वहां से निकल गई।
आनंद सिंह इस उम्मीद में चारों तरफ घूररने लगे कि कहीं रास्ता मिले तो बाहर हो जाएं, मगर उनकी उम्मीद किसी तरफ पूरी न हुई।
यह मकान बहुत लम्बा-चौड़ा न था। सिवाय इस कमरे और एक सहन के और कोई जगह इसमें न थी। चारों तरफ ऊंची-ऊंची दीवारों के सिवाय बाहर जाने के लिए कहीं से भी कोई दरवाजा न था। हर तरह से लाचार और दुखी हो फिर उसी पलंग पर आ लेटे और सोचने लगे-
'अब क्या करना चाहिए! इस कम्बख्त से किस तरह जाने बचे? यह तो हो ही नहीं सकता कि मैं इसे चाहूं या प्यार करूं। राम राम, मुसलमानिन से और इश्क! यह तो सपने में भी नहीं होने का। तब फिर क्या करूं? लाचारी है, जब किसी तरह छुट्टी न देखूंगा तो इस खंजर से, जो मेरी कमर में है, अपनी जान दे दूंगा।'
कमर से खंजर निकालना चाहा, देखा तो कमर खाली है। फिर सोचने लगे-'गजब हो गया, इस हरामजादी ने तो मुझे किसी लायक न रखा। अगर कोई दुश्मन आ जाए तो मैं क्या कर सकूंगा? बेहया अगर मेरे पास आवे तो गला दबाकर मार डालूं। नहीं, नहीं वीर पुत्र होकर स्त्री पर हाथ उठाना! यह मुझसे न होगा, तब क्या भूखे-प्यासे जान दे देना पड़ेगा? मुसलमानिन के घर में अन्न-जल कैसे ग्रहण करूंगा! हां ठीक है, एक सूरत निकल सकती है। (दीवार की तरफ देखकर) इसी खिड़की से वे लोग बाहर निकल गई हैं। अबकी अगर यह खिड़की खुले और वह कमरे में आवे् तो मैं भी जबर्दस्ती इसी राह से बाहर हो जाऊंगा।'

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