15 फ़रवरी, 2010

चंद्रकांता संतति - भाग 3

साधू : देखो, मैं अपने शेरों को बुलाता हूं। पहचान लो।
साधू ने शंख बजाया। भारी शंख की आवाज जंगल में गूंज उठी। थोड़ी ही देर में इधर-उधर से दौड़ते हुए पांच शेर आ पहुंचे। चारों बहादुर थे इसलिए डटे रहे। कोई और होता डर से उसकी जान ही निकल जाती। पेड़ों से बंधे घोड़े उछल-कूद मचाने लगे। रस्सी मजबूत होने के कारण वे अपने को पेड़ों से न छुड़ा सके। शेरों ने आकर हंगामा मचाना शुरू कर दिया। मगर साधू के डांटते ही सब ठंडे हो गए। और, भेड़-बकरियों की तरह सिर झुकाकर खड़े हो गए।
साधू : देखो! इन शेरों को पहचान लो। अभी दो-चार और हैं। मालूम होता है, उन्होंने अभी तक शंख की आवाज नहीं सुनी है। खैर! अभी में इसी जंगल में हूं। बाकी के शेरों को भी दिखला दूंगा। बस, कल तक केलिए और शिकार बंद रखो।
भैरों सिंह : फिर आपसे मुलाकात कहां होगी? आपकी धूनी कहां लगेगी?
साधू : मुझे तो यही जगह ठीक लगी है। कल इसी जगह आना, यहीं मिलेंगे।
साधू शेर से उतर गए और जितने शेर वहां थे सब साधू के चक्कर लगाने लगे और उन्हें चाटने, सूंघने लगे। इन चारों ने थोड़ी ही देर में साधू से विदा ली और अपने खेमे में वापस आ गए।
जब रात का सन्नाटा बढ़ा तो भैरों सिंह ने इंद्रजीत सिंह से कहा, 'मेरे दिमाग में बहुत सी बातें घूम रही हैं। मैं चाहता हूं कि हम चारों बैठक कर कुछ सोचें।'
इंद्रजीत सिंह ने कहा, 'ठीक है! आनंद और तारा को भी बुला लो।'
भैरों सिंह गए और आनंद सिंह व तारा सिंह को बुला लाए। इन चारों के अलावा खेमे में कोई और न था। भैरों सिंह ने अपने दिल का हाल कहा जिसे सबने सुना। फिर अगली दोपहर तक के लिए एक फैसला कर लिया कि क्या करना है।
बैठक में क्या हुआ, भैरों सिंह का क्या इरादा था, क्या निश्चय किया गया, रातभर ये लोग क्या करते रहे, यह सब समय पर खुल जाएगा।
सुबह होते ही, चारों आदमी खेमे से बाहर आए और फौज के सरदार कंचन सिंह को बुला, कुछ समझाकर, साधू की ओर रवाना हो गए। जब लश्कर से दूर निकल आए तो आनंद सिंह, भैरों सिंह और तारा सिंह तेजी से चुनार की तरफ रवाना हो गए। इंद्रजीत सिंह अकेले साधू से मिलने गए।
साधू शेरों के बीच धूनी रमाए बैठे थे। दो शेर घूम-घूमकर पहरा दे रहे थे। इंद्रजीत सिंह ने पहुंचकर प्रणाम किया। साधू ने आशीर्वाद देकर बैठने के लिए कहा।
इंद्रजीत सिंह ने कल की तुलना में आज दो शेर ज्यादा देखे। थोड़ी देर की चुप्पी के बाद दोनों में बातचीत होने लगी।
साधू : कहो इंद्रजीत सिंह, तुम्हारे भाई और ऐयार कहां गए। वे नहीं आए?
इंद्रजीत सिंह : हमारे छोटे भाई आनंद सिंह को बुखार आ गया। इस वजह से वह नहीं आ सका। उसकी हिफाजत के लिए दोनों ऐयारों को छोड़कर अकेला मैं अपके दर्शनों के लिए आया हूं।
साधू : कोई बात नहीं! शाम तक वह अच्छे हो जाएंगे। और कहो! राज्य में सब कुशल तो है।
इंद्रजीत सिंह : आपकी कृपा से सब आनंद है।
साधू : बेचारे वीरेंद्र सिंह ने भी बड़ा कष्ट पाया है। खैर! जो हो, दुनिया में उनका नाम रह जाएगा। इन हजार वर्षों में कोई ऐसा राजा नहीं हुआ जिसने तिलिस्म तोड़ा हो। एक और तिलिस्म है। असल में वही भारी और तारीफ के लायक है।
इंद्रजीत सिंह : पिताजी का कहना है कि वह तिलिस्म तो मेरे ही हाथों से टूटेगा।
साधू : हां! ऐसा ही होगा। वह जरूर तुम्हारे हाथ से फतह होगा। इसमें कोई सदेह नहीं।
इंद्रजीत सिंह : देखें! कब तक ऐसा होता है। उसकी ताली का तो कहीं पता ही नहीं लगता।
साधू : ईश्वर चाहेगा तो एक या दो दिन में तुम उस तिलिस्म को तोड़ने में हाथ लगा ही दोगे। उस तिलिस्म की ताली में हूं। कई पुश्तों से हम लोग उस तिलिस्म के दारोगा होते चले आए हैं। मेरे परदादा, बाबा और पिता उसी तिलिस्म के दारोगा थे। मेरे पिता ने मरने से पहले उसकी ताली मेरे सुपुर्द कर मुझे उसका दारोगा नियुक्त कर दिया। अब वक्त आ गया है कि मैं उसकी ताली तुम्हारे हवाले करूं। क्योंकि, वह तिलिस्म तुम्हारे नाम पर बांधा गया है। सिवाय तुम्हारे दूसरा कोई और उसका मालिक नहीं बन सकता है।
इंद्रजीत सिंह : तो अब देर क्या है?
साधू : कुछ नहीं! कल से तुम उसे तोड़ने में हाथ लगा दो। मगर एक बात हम तुम्हारे फायदे की कहते हैं।
इंद्रजीत सिंह : वह क्या?
साधू : तुम उसको तोड़ने में अपने भाई आनंद को भी शामिल कर लो, ऐसा करने से दौलत भी दूनी मिलेगी, और दोनों का नाम दुनिया में हमेशा बना रहेगा।
इंद्रजीत : उसकी तो तबियत ठीक नहीं।
साधू : क्या हर्ज है। तुम अभी जाकर जिस बने, उसे मेरे पास ले आओ, मैं बाती की बात में उसको चंगा कर दूंगा। आज ही तुम लोग मेरे साथ चलो जिससे कल तिलिस्म टूटने में हाथ लग जाए, नहीं तो साल-भर फिर मौका न मिलेगा।
इंद्रजीत सिंह : साधू जी, असल बात यह है कि मैं अपने भाई की बढ़ती नहीं चाहता, मुझे यह मंजूर नहीं कि मेरे साथ उसका भी नाम हो।
साधू : नहीं-नहीं, तुम्हें ऐसा नहीं सोचना चाहिए, दुनिया में भाई से बढ़कर कोई रत्न नहीं है।

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