इंद्रजीत सिंह के गिरफ्तार होने के बाद उन बनावदी शेरों ने भी अपनी हालत बदली और असली सूरत के ऐयार बन बैठे जिनमें यार अली, बाकर अली और खुदाबख्श मुखिया थे। महाराज शिवदत्त बहुत ही खुश हुआ और समझा कि अब मेरा जमाना फिरा, ईश्वर चाहेगा तो मैं फिर चुनार की गद्दी पाऊंगा और अपने दुश्मनों से बदला लूंगा।
इंद्रजीत सिंह को कैद कर वह शिवदत्तगढ़ को ले गया। सभी को ताज्जुब हुआ कि कुंअर इंद्रजीत सिंह ने गिरफ्तार होते समय कुछ भी उत्पात नहीं मचाया, किसी पर गुस्सा न निकाला, किसी पर हरवा न उठाया, यहां तक कि आंखों से रंज-अफसोस या क्रोध भी जाहिर न होने दिया। हकीकत में यह ताज्जुब की बात थी कि बहादुर वीरेंद्र सिंह का शेरदिल लड़का ऐसी हालत में चुप रह जाए और बिना हुज्जत किए बेड़ी पहन ले, मगर नहीं, इसका कोई सबब जरूर है जो आगे चलकर मालूम होगा।
चुनारगढ़ किले के अंदर एक कमरे में महाराज सुरेंद्र सिंह, वीरेंद्र सिंह, जीत सिंह, तेज सिंह, देवी सिंह, इंद्रजीत सिंह और आनंद सिंह बैठे हुए कुछ बातें कर रहे हैं।
जीत सिंह- भैरो ने बड़ी होशियारी का काम किया कि अपने को इंद्रजीत सिंह की सूरत बना शिवदत्त के ऐयारों के हाथ फंसाया।
सुरेंद्र सिंह- शिवदत्त के ऐयारों ने चालाकी तो की थी, मगर...
वीरेंद्र सिंह- साधू जी शेर पर सवार हो सिद्ध बने, लेकिन अपना काम सिद्ध नहीं कर सके।
इंद्रजीत सिंह- मगर जैसे हो, भैरो सिंह को अब बहुत जल्द छुड़ाना चाहिए।
जीत सिंह- कुमार, घबराओ मत, तुम्हारे दोस्त को किसी तरह की तकलीफ नहीं हो सकती, लेकिन अभी उसका शिवदत्त के यहां फंसे ही रहना मुनासिब है। वह बेवकूफ नहीं है, बिना मदद के आप ही छूटकर आ सकता है, इस पर पन्नालाल, राम नारायण, चुन्नीलाल, बद्रीनाथ और ज्योतिषीजी उसकी मदद को भेजे ही गए हैं। देखों तो क्या होता है। इतने दिनों तक चुपचाप बैठे रहकर शिवदत्त ने फिर अपनी खराबी कराने पर कमर बांधी है।
देवी सिंह- कुमारों के साथ जो फौज शिकाकरगाह में गई है उसके लिए अब क्या हुक्म होता है?
जीत सिंह- अभी शिकारगाह से डेरा उटाना मुनासिब नहीं। (तेजसिंह की तरफ देखकर) क्यों तेज?
सुरेंद्र सिंह- कोई ऐयार शिवदत्तगढ़ से लौटे तो कुछ हालचाल मालूम हो।
तेज सिंह- कल तो नहीं, मगर परसों तक कोई-न-कोई जरूर आएगा।
पहर-भर से ज्यादा देर तक बातचीत होती रही। कुछ बातों को खोलना हम मुनासिब नहीं समझते, बल्कि आखिरी बात का पता तो हमें भी न लगा जो मजलिस उठने के बाद जीत सिंह ने अकेले में तेज सिंह को समझाई थी। खैर जाने दीजिए, जो होगा देखा जाएगा, जल्दी क्या है।
गंगा के किनारे ऊंची बारहदरी में इंद्रजीत सिंह और आनंद सिंह दोनों भाई बैठे हैं। बरसात का मौसम है गंगा खूब चढ़ी हुई हैं, किले के नीचे जल आ पहुंचा है, छोटी-छोटी लहरें दीवार में टक्कर मार रही हैं, अस्त होते हुए सूर्य की लालिमा जल में पड़कर लहरों की शोभा दूनी बढ़ा रही है, सन्नाटे का आलम है, इस बरहदरी में सिवाय इन दोनों भाइयों के कोई तीसरा दिखाई नहीं देता।
इंद्रजीत सिंह- अभी जल कुछ और बढ़ेगा।
आनंद सिंह- जी हां, पिछले साल तो गंगा आज से कहीं ज्यादा बढ़ी हुई थीं, जब दादाजी ने हम लोगों को तैरकर पार जाने के लिए कहा था।
इंद्रजीत सिंह- उस दिन भी खूब ही दिल्लगी हुई, भैरो सिंह सभी में तेज रहा, बद्रीनाथ ने कितना ही चाह कि उसके आगे निकल जाए, मगर न हो सका।
आनंद सिंह- हम दोनों भी कोस-भर तक उस किश्ती के साथ ही गए जो हम लोगों की हिफाजत के लिए संग गई थी।
इंद्रजीत सिंह- बस वही तो हम लोगों का आखिरी इम्तिहान रहा, फिर तब से जल में तैरने की नौबत ही कहां आई।
आनंद सिंह- कल तो मैंने दादजी से कहा था कि आज कल गंगा जी खूब चढ़ी हुई हैं, तैरने को जी चाहता है।
इंद्रजीत सिंह- तब क्या बोले?
आनंद सिंह- कहने लगे कि बस अब तुम लोगों का तैरना मुनासिब नहीं है, हंसी होगी। तैरना भी एक इल्म है जिसमें तुम लोग होशियार हो चुके, अब क्या जरूरत है? ऐसा ही जी चाहे तो किश्ती पर सवार होकर जाओ, सैर करो।
इंद्रजीत सिंह- उन्होंने बहुत ठीक कहा, चलो किश्ती पर थोड़ी दूर घूम आएं।
बातचीत हो ही रही थी कि चोबदार ने आकर अर्ज किया- 'एक बहुत बूढ़ा जवहरी हाजिर है, दर्शन करना चाहता है।'
आनंद सिंह- यह कौन-सा वक्त है?
चोबदार- (हाथ जोड़कर), ताबेदार ने तो चाहा था कि इस समय उसे विदा करे, मगर यह ख्याल करके ऐसा करने का हौसला न पड़ा कि एक तो लड़कपन ही से वह इस दरबार का नमकख्वार है और महाराज की भी उस पर निगाह हरती है, दूसरे 80 वर्ष का बूढ़ा है...
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