15 फ़रवरी, 2010

चंद्रकांता संतति - भाग 2

शिकार के लिए बनरखों को शेर का पता लगाने के लिए कह दिया गया। साथ ही शेर का शिकार पैदल ही करने का निर्णय लिया गया।
दूसरे दिन सुबह, बनरखों ने आकर बताया कि जंगल में शेर तो है लेकिन उन्होंने उसे अपनी आंखों से देखा नहीं है। अगर एक दिन और शिकार के लिए नहीं निकला जाए तो उनका पता लगाया जा सकता है।
अत: शिकार न करने का फैसला किया गया। इंद्रजीत सिंह और आनंद सिंह घोड़ों पर सवार होकर दिनभर जंगल में इधर-उधर घूमते रहे। घूमते-घूमते वे दूर तक चले गए।
ये लोग धीरे-धीरे बातें करते जा रहे थे कि बांई तरफ से शेर के गरजने की आवाज आई। आवाज सुनते ही चारों ठिठक गए और आवाज की दिशा में देखने लगे।
लगभग 200 गज की दूरी पर एक साधू शेर पर सवार होकर जाता दिखाई पड़ा। उसकी लंबी-लंबी और घनी जटाएं पीछे की तरफ लटक रही थीं। उसके एक हाथ में त्रिशूल और दूसरे हाथ में शंख था। शेर बहुत बड़ा और उसके गर्दन के बाल जमीन को छू रहे थे।
इसके आठ-दस हाथ पीछे एक और शेर जा रहा था। इस शेर के ऊपर बहुत सारा माल-असबाब लदा हुआ था। ये सामान शायद उसी साधू का था।
शाम ढलने की ओर थी, अत: साधू का चेहरा साफ दिखाई नहीं पड़ रहा था। लेकिन, इसे देखकरइन चारों को बड़ा ताज्जुब हुआ और वे कई तरह की बातें सोचने लगे।
इंद्रजीत सिंह : इस तरह शेर पर सवार होकर घूमना वाकई मुश्किल है।
आनंद सिंह : कोई बड़े महात्मा मालूम होते हैं।
भैरों सिंह : पीछे वाले शेर को देखिए! कैसे भेड़ की तरह गर्दन झुका के चला जा रहा है।

तारा सिंह : शेरों को बस में कर लिया है! इंद्रजीत सिंह : जी चाहता है...उनके पास चलकर दर्शन करें।
आनंद सिंह : चलिए! पास से देखें, कैसा शेर है!
तारा सिंह : बिना पास गए महात्मा और पाखंडी में भेद मालूम नहीं होगा।
भैरों सिंह : शाम हो गई है! खैर चलो आगे से बढ़कर रोकें।
आनंद सिंह : आगे से चलकर रोकने से कहीं बुरा न मान जाएं!
भैरों सिंह : हम ऐयारों का पेशा ही ऐसा है। पहले तो यही विश्वास नहीं कर पा रहे हैं कि वह एक साधू हैं।
इंद्रजीत सिंह : आप लोगों की तो बात ही क्या है, मूंछें हमेशा मुड़ी ही रहती हैं। खैर चलो!
भैरों सिंह : चलो!
चारों लोग आगे से घूमकर शेर पर सवार साधू के सामने आ गए। इन्हें अपने पास आते देख साधू रुक गए। शेर को देखकर इंद्रजीत सिंह और आनंद सिंह के घोड़े ठिठक गए। लेकिन, ललकारने पर आगे बढ़े। थोड़ी दूर चलकर दोनों भाई घोड़ों से उतर गए। घोड़ों को पेड़ से बांधकर वे पैदल ही साधू की ओर बढ़े।
साधू: (दूर से ही) आओ राजकुमार इंद्रजीत सिंह, आनंद सिंह! कुशल तो हैं।
इंद्रजीत सिंह : (प्रणाम करके) आपकी कृपा से मंगल है।
साधू : (भैरों सिंह और तारा सिंह को देखकर) कहो भैरों और तारा! कैसे हो!
दोनों : आपकी दया है।
साधू : मैं खुद आप लोगों की ओर आ रहा था। क्योंकि मुझे मालूम है कि तुम लोगों ने शेर का शिकार करने के लिए जंगल में डेरा डाला है। मैं गिरनार जा रहा हूं। घूमता-फिरता इस जंगल में आ पहुंचा। यहां मुझे अच्छा लग रहा है। सोच रहा हूं, दो-तीन दिन यहां रहूंगा। कोई ठीक सी जगह देखकर धूनी लगाऊंगा। मेरे पास सवारी और असबाब ढोने के लिए कई शेर हैं। इसलिए, धोखे से भी मेरे किसी शेर को मत मारना, नहीं तो मुश्किल हो जाएगी, सैकड़ों शेर आपके लश्र पर हमला कर देंगे। बहुतों की जान जाएगी। तुम प्रतापी राजा सुरेंद्र सिंह के वंशज हो, इसलिए तुम्हें समझा देना मुनासिब है।
इंद्रजीत सिंह : महाराज! मैं कैसे जानूंगा कि यह आपका शेर है! अगर ऐसा ही है तो मैं शिकरा नहीं खेलूंगा।
साधू : नहीं, तुम शिकार खेलो, मगर मेरे शेरों को मत मारो।
इंद्रजीत सिंह : मगर यह कैसे मालूम होगा कि फलाना शेर आपका है?

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