16 फ़रवरी, 2010

चंद्रकांता संतति - भाग 6

...वह कहता है कि अभी इस शहर में पहुंचा हूं, महाराज का दर्शन कर चुका हूं, सरकार के दर्शन हो जाएं, तब आराम से सराय में डेरा डालूं और हमेशा से उसका यही दस्तूर भी है।
इंद्रजीत सिंह- अगर ऐसा है तो उसे आने ही देना मुनासिब है।
आनंद सिंह- अब आज किश्ती पर सैर करने का रंग नजर नहीं आता।
इंद्रजीत सिंह- क्या हर्ज है, कल सही।
चोबदार सलाम करके चला गया और थोड़ी देर में सौदागर को लेकर हाजिर हुआ। हकीकत में वह सौदागर बहुत ही बूढ़ा था, रईसियत और शराफत
उसके चेहरे से बरसती थी। जाते ही सलाम करके उसने दोनों भाइयों को दो अंगूठियां दी और कबूल होने के बाद इशारा पाकर जमीन पर बैठ गया।
इस बूढ़े जवहरी की इज्जत की गई, मिजाज का हाल तथा सफर की कैफियत पूछने के बाद डेरे पर जाकर आराम करने और कल फिर हाजिर होने
का हुक्म हुआ, सौदागर सलाम करके चला गया।
सौदागर ने जो दो अंगूठियां दोनों भाइयों को नजर दी थी उनमें आनंद सिंह की अंगूठी पर निहायत खुशरंग माणिक जड़ा हुआ था और इंद्रजीत सिंह की
अंगूठी पर सिर्फ एक छोटी सी तस्वीर थी जिसे एक दफे निगाल भरकर इंद्रजीत सिंह ने देखा और कुछ सोचकर चुप हो गए।
एकांत होने पर रात को समादान की रोशनी में फिर उस अंगूठी को देखा जिसमें नगीने की जगह एक कमसिन हसीन औरत की तस्वीर जड़ी हुई थी।
चाहे यह तस्वीर कितनी ही छोटी क्यों न हो, मगर मुसौवर ने गजब की सफाई इसमें खर्च की थी। इसे देखते-देखते एक मर्तबे तो इंद्रजीत सिंह की यह हालत हो गई कि अपने को और उस औरत की तस्वीर को भूल गए, मालूम हुआ कि स्वयं वह नाजनीन इनके सामने बैठी है और वह उससे कुछ कहना चाहते हैं, मगर उसके हुस्न के रुआब में आकर चुप रह जाते हैं।
एकाएक यह चौंक पड़े और अपनी बेवकूफी पर अफसोस करने लगे, लेकिन इससे क्या होता है? उस तस्वीर ने तो एक ही सायत में इनके लड़कपन
को धूल में मिला दिया और नौजवानी की दीवानी सूरत इनके सामने खड़ी कर दी। थोड़ी देर पहले सवारी, शिकार, कसरत वगैरह के पेचीले कायदे दिमाग में घूम रहे थे, अब ये एक दूसरी ही उलझन में फंस गए और दिमाग किसी अद्वितीय रत्न के मिलने की फिक्र में गोते खाने लगा। महाराज शिवदत्त की तरफ से अब क्या ऐयारी होती है, भैरो सिंह क्यों कर और कब कैद से छूटते हैं, देखें, बद्रीनाथ वगैरह शिवदत्तगढ़ में जाकर क्या करते हैं, अब शिकार खेलने की नौबत कब तक आती है, एक ही तीर में शेर गिरा देने का मौका कब जाना चाहिए इत्यादि खयालों को अब तो यह भूल गए।
अब तो यह फिक्र पैदा हुई कि सौदागर को यह अंगूठी क्यों हाथ लगी? यह तस्वीर खयाली है या असल में किसी ऐसे की है जो इस दुनिया में मौजूद है? क्या सौदागर उसका पता-ठिकाना जानता होगा?
खूबसूरती की इतनी ही हद है या और भी कुछ है? नजाकत, सुडौली और सफाई वगैरह का खजाना यही है या कोई और? इसकी मोहब्बत के दरिया में
हमारा बेड़ा क्यों पार होगा?
कुंअर इंद्रजीत सिंह ने आज बहाना करना भी सीख लिया और घड़ी ही भर में उस्ताद हो गए। पेट फूला है, भोजन न करेंगे, सिर में दर्द है, किसी का
बोलना बुरा मालूम होता है...
...सन्नाटा हो तो शायद नींद आए, इत्यादि बहानों से उन्होंने अपनी जान बचाई और तमाम रात चारपाई पर करवटें बदल-बदलकर इस फिक्र में काटी कि सवेरा हो तो सौदागर को बुलाकर कुछ पूछें।
सवेरे उठते ही जवहरी को हाजिर करने का हुक्म दिया, मगर घंटे भर के बाद चोबदार ने वापस आकर बताया कि सराय में सौदागर का कोई अता-पता नहीं है।
इंद्रजीत सिंह : उसने अपना डेरा कहां पर बताया था?
चोबदार : ताबेदार को तो उसकी जुबानी यही मालूम था कि सराय में उतरेगा, मगर यहां पता करने पर मालूम हुआ कि यहां कोई सौदागर आया ही नहीं।
इंद्रजीत सिंह : कहीं दूसरी जगह उतरा होगा। पता करो।
'बहुत खूब' कहकर चोबदार तो चला गया मगर इंद्रजीत सिंह पशोपेश में पड़ गए। सिर नीचा कर कुछ सोच ही रहे थे कि आहट हुई। सिर उठाकर देखा तो कुंअर आनंद सिंह थे।
आनंद सिंह : स्नान का समय हो गया है।
इंद्रजीत सिंह : हां! आज कुछ देर हो गई।
आनंद सिंह : तबियत कुछ सुस्त मालूम होती है!
इंद्रजीत सिंह : रातभर सिर में दर्द था।
आनंद सिंह : अब कैसा है?
इंद्रजीत सिंह : अब तो ठीक है।
आनंद सिंह : कुछ झलक-सी मालूम पड़ी थी कि उस अंगूठी में कोई तस्वीर जड़ी हुई है जो उस जौहरी ने नजर की थी।
इंद्रजीत सिंह : हां थी तो।
आनंद सिंह : कैसी तस्वीर है?
इंद्रजीत सिंह : न मालूम, वह अंगूठी कहां रख दी। मिल ही नहीं रही। मैनें सोचा था एक दिन अच्छी तरह देखूंगा, मगर...

अगर भेद खुल जाने का डर न होता कुंवर इंद्रजीत सिंह, सिवा 'ओफ' करने और लम्बी-लम्बी सांसें लेने के कोई दूसरा काम न करते, मगर क्या करें लाचारी से सभी मामूली काम और अपने दादा के साथ बैठकर भोजन भी करना पड़ा, हां शाम को इनकी बेचैनी बहुत बढ़ गई जब सुना कि तमाम शहर छान डालने पर भी उस जवहरी का कहीं पता न लगा और यह भी मालूम हुआ कि उस जवहरी ने बिलकुल झूठ कहा था कि महाराज का दर्शन कर आया हूं अब कुमार के दर्शन हो जाए तब आराम से सराय में डेरा डालूं, वह वास्तव में महाराज सुरेंद्र सिंह और वीरेंद्र सिंह से नहीं मिला था।
तीसरे दिन इनको बहुत ही उदास देख आनंद सिंह ने किश्ती पर सवार होकर गंगा जी की सैर करने और दिल बहलाने के लिए जिद्द की, लाचार उनकी बात माननी ही पड़ी।
एक छोटी-सी खूबसूरत और तेज जाने वाली किश्ती पर सवार हो इंद्रजीत सिंह ने चाहा कि किसी को साथ न ले जाएं, सिर्फ दोनों भाई ही सवार हो और खेकर दरिया की सैर करें। किसकी मजाल थी जो इनकी बात काटता, मगर एक पुराने खिदमतगार ने जिसने कि वीरेंद्र सिंह को गोद में खिलाया था और अब इन दोनों के साथ रहता था ऐसा करने से रोका और अब दोनों भाइयों ने न माना तो खुद किश्ती पर सवार हो गया। पुराना नौकर होने के ख्याल से दोनों भाई कुछ न बोले, लाचार बस साथ ले जाना ही पड़ा।
आनंद सिंह- किश्ती को धारा में ले जाकर बहाव पर छोड़ दीजिए, फिर खेकर ले आवेंगे।
इंद्रजीत सिंह- अच्छी बात है।
सिर्फ दो घंटे दिन बाकी था, जब दोनों बाई किश्ती पर सवार हो दरिया की सैर करने को गए, क्योंकि लौटते समय चांदनी रात का आनंद भी लेना मंजूर था। चुनार से दो कोस पश्चिमी में गंगा के किनारे पर एक छोटा-सा जंगल था। जब किश्ती उसके पास पहुंची, वंशी की और साथ ही गाने की बारीक सुरीली आवाज इन लोगों के कानों में पड़ी। संगीत एक ऐसी चीज है कि हर-एक के दिल को चाहे वह कैसा ही नासमझ क्यों न हो अपनी तरफ खींच लेती है, यहां तक कि जानवर भी इसके वश में होकर अपने को भूल जाता है।
दो-तीन दिन से कुंवर इंद्रजीत सिंह का दिल चुटीला हो रहा था, दरिया की बहार देखना तो दूर रहा इन्हें अपने तन-बदन की भी सुध न थी, ये तो अपनी प्यारी तस्वीर की धुन में सिर झुकाए बैठे कुछ सोच रहे थे, इनके हिसाब में चारों तरफ सन्नाटा था, मगर इस सुरीली आवाज ने इनकी गर्दन घुमा दी और उस तरफ देने को मजबूर किया जिधर से वह आ रही थी।
किनारे की तरफ देखने से यह मालूम न हुआ कि वंशी बजाने या गाने वाला कौन है, मगर इस बात का अंदाज जरूर मिल गया कि वे लोग बहुत दूर नहीं हैं जिनके गाने की आवाज सुनने वालों पर जादू का-सा असर कर रही है।
इंद्रजीत सिंह- ओह, क्या सुरीली आवाज है!
आनंद सिंह- दूसरी आवाज आई। बेशक यहां कई औरतें मिलकर गा-बजा रही हैं।
इंद्रजीत सिंह- (किश्ती का मुंह किनारे की तरफ फेरकर) ताज्जुब है कि इन लोगों ने गाने-बजाने और दिल बहलाने के लिए ऐसी जगह पसंद की। जरा देखना चाहिए।
आनंद सिंह- क्या हर्ज है चलिए।
बूढ़े खिदमतगार ने किनारे किश्ती लगाने और उतरने के लिए मना किया और बहुत समझाया, मगर इन दोनों ने न माना, किश्ती किनारे लगाई और उतरकर उस तरफ चले जिधर से आवाज आ रही थी। जंगल में थोड़ी ही दूर जाकर दस-पंद्रह नौजवान और औरतों का झुंड नजर आया जो रंग-बिरंगी पोशाक और कीमती जेवरों से अपने हुस्न को दूना किए ऊंचे पेड़े से लटकते हुए एक झूले को झुला रही थी। कोई वंशी, कोई मृदंगी बजाती, कोई हाथ से ताल दे-देकर गा रही थी। उस हिंडोले पर सिर्फ एक ही औरत गंगा की तरफ रुख किए बैठी थी।
ऐसा मालूम होता था मानों परियां साक्षात किसी देवकन्या को झूला झुला और गा-बजाकर इसलिए प्रसन्न कर रही हैं कि खूबसूरती बढ़ने और नौजवानी के स्थिर रहने का वरदान पावें, मगर नहीं, उनके भी दिल-की-दिल ही में रही और कुंवर इंद्रजीत सिंह तथा आनंद सिंह को आते देख हिंडोले पर बैठी हुई नाजनीन को अकेली छोड़ न जाने क्यों भाग ही जाना पड़ा।
आनंद सिंह- भैया, वह सब तो भाग गई।


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