17 फ़रवरी, 2010

चंद्रकांता संतति - भाग 8

तेज सिंह अपने सामान से तैयार ही थे, उसी वक्त सलाम कर एक तरफ को रवाना हो गए और महाराज रूमाल से आंखों को पोछते हुए चुनार की तरफ...उदास और पोतों की जुदाई से दुखी महाराज सुरेंद्र सिंह घर पहुंचे। दोनों लड़कों के गायब होने का हाल चंद्रकांता ने भी सुना। वह बेचारी दुनिया के दुख-सुख को अच्छी तरह समझ चुकी थी, इसलिए कलेजा मसोस कर रह गई।
जाहिर में रोना-चिल्लाना उसने पसंद न किया, मगर ऐसा करने से उसके नाजुक दिल पर और भी सदमा पहुंचा, घड़ी-भर में ही उसकी सूरत बदल गई। चपला और चंपा को चंद्रकांता से कितनी मुहब्बत थी इसको सबी लोग खूब जानते हैं। दोनों लड़कों के गायब होने का गम इन दोनों को चंद्रकांता से ज्यादा हुआ और दोनों ने निश्चय कर लिया कि मौका पाकर इंद्रजीत सिंह और आनंद सिंह का पता लगाने की कोशिश करेंगी।
महाराज सुरेंद्र सिंह के आने की खबर पाकर वीरेंद्र सिंह मिलने के लिए उनके पास गए और देवी सिंह भी वहां मौजूद थे। वीरेंद्र सिंह के सामने ही महाराज ने सब हाल देवी सिंह से कहकर पूचा कि- 'अब क्या करना चाहिए?'
देवी सिंह- मैं पहले उस लाश को देखना चाहता हूं जो उस जंगल में पाई गई थी।
सुरेंद्र सिंह- हां, तुम उसे जरूर देखो।
जीत सिंह- (चोबदार से) उस लाश को जो जंगल में पाई गई थी, इसी जगह लाने को कहो।
'बहुत अच्छा' कहकर चोबदार बाहर चला गया। मगर थोड़ी ही देर में वापस आकर बोला-
'महाराज के साथ आते जाते न मालू वह लाश कहां गुम हो गई। कई आदमी उसकी खोज में परेशान हैं, मगर पता नहीं लगता।'
वीरेंद्र सिंह- अब फिर हम लोगों को होशियारी से रहने का जमाना आ गया। जब हजारों आदमियों के बीच से लाश गुम हो गई तो मालूम होता है अभी बहुत कुछ उपद्रव होने वाला है।
जीत सिंह- मैंने तो समझा था कि अब जो कुछ थोड़ी-सी उम्र रह गई है, आराम से कटेगी, मगर नहीं, ऐसी उम्मीद किसी को कुछ भी न रखनी चाहिए।
सुरेंद्र सिंह- खैर जो होगा देखा जाएगा, इस समय जो करना मुनासिब है, उसे सोचो।
जीत सिंह- मेरा विचार था कि तारा सिंह को बद्रीनाथ वगैरह के पास भेजते जिसमें वे लोग भैरो सिंह को छुड़ाकर और किसी कार्रवाई में नहीं फंसे और सीथे यहां चले आवें, मगर ऐसा करने को भी जी नहीं चाहता। आज-भर आप और सब्र करें, अच्छी तरह सोचकर कह मैं अपनी राय दूंगा।

पंडित बद्रीनाथ, पन्नालाल, राम नारायण, चुन्नीलाल और जगन्नाथ ज्योतिषी भैरो सिंह ऐयार को छुड़ाने के लिए शिवदत्तगढ़ की तरफ गए। हुक्म के मुताबिक कंचन सिंह सेनापति ने सेर वाले बाबाजी के पीछे जासूस भेजकर पता लगा लिया कि भैरो सिंह ऐयार शिवदत्तगढ़ किले के अंदर पहुंचाए गए हैं, इसलिए इन ऐयारों का पता लगाने की जरूरत न पड़ी, सीथे शिवदत्तगढ़ पहुंचे और अपनी-अपनी सूरत बदलकर शहर में घूमने-लगे, पांचों ने एक-दूसरे का साथ छोड़ दिया, मगर यह ठीक कर लिया था कि सब लोग घूम-फिरकर फलां जगह इकट्ठे हो जाएंगे।
दिन-भर घूम फिरकर भैरो सिंह का पता लगाने के बाद सब ऐयार शहर के बाहर एक पहाड़ी पर इकट्ठे हुए और रात-भर सलाह करके राय कायम करने में काटी। दूसरे दिन ये सब लोग फिर सूरत बदल-बदलकर शिवदत्तगढ़ पहुंचे, जहां भैरो सिंह कैद थे। कई दिनों तक कैद रहने के सबब उन्होंने अपने को जाहिर कर दिया था और असली सूरत में एक कोठरी के अंदर जिसके तीन तरफ लोहे का जंगला लगा हुआ था, बंद थे। उसी कोठरी के बगल में उसी तरह की एक कोठरी और थी जिसमें गद्दी लगाए बूढ़ा दारोगा बैठा था और कई सिपाही नंगी तलवार लिए घूम-घूमकर पहरा दे रहे थे। राम नारायण और चुन्नी लाल उस कोठरी के दरवाजे पर जाकर खड़े हुए और बूढ़े दारोगा से बात-चीत करने लगे।
राम नारायण- आपको महाराज ने याद किया है।
बूढ़ा- क्यों, क्या काम है? भीतर आओ, बैठो, चलते हैं।
राम नारायण और चुन्नी लाल अंदर गए और बोले-
राम नारायण- मालूम नहीं, क्यों बुलाया है, मगर ताकीद की है कि जल्द बुला लाओ।
बूढ़ा- अभी घंटा-भर भी नहीं हुआ जब किसी ने आकर कहा था कि महाराज खुद आने वाले हैं, क्या यह बात झूठी थी?
राम नारायण- हां, महाराज आने वाले थे, मगर अब न आएंगे।
बूढ़ा- अच्छा आप दोनों आदमी इस जगह बैठें और कैदी की हिफाजत करें, मैं जाता हूं।
राम नारायण- बहुत अच्छा।
राम नारायण और चुन्नीलाल को कोठरी के अंदर बैठाकर बूढ़ा दारोगा बाहर आया और चालाकी से झट उस कोठरी का दरवाजा बंद करके बाहर से बोला-'बंदगी! मैं दोनों को पहचान गया कि ऐयार हो! कहिए अब हमारी कैद में आप फंसे या नहीं? मैंने भी क्या मजे में पता लगा लिया। पूछा कि अभी मालूम हुआ था कि महाराज खुद आने वाले हैं, आपने झट कबूल कर लिया और कहा कि- हां आने वाले थे, मगर अब न आएंगे। यह न समझे कि मैं धोखा देता हूं। इसी अक्ल पर ऐयारी करते हो? खैर, आप लोग भी अब इसी कैदखाने की हवा खाइए और जान लीजिए कि मैं बाकर अली ऐयार आप लोगों को मजा चखाने के लिए इस जगह बैठाया गया हूं...

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