16 फ़रवरी, 2010

चंद्रकांता संतति - भाग 7

इंद्रजीत सिंह- हां, मैं इस हिंडोले के पास जाता हूं। तुम देखो, वे औरतें किधर गईं?
आनंद सिंह- बहुत अच्छा।
चाहे जो हो, मगर कुंअर इंद्रजीत सिंह ने उसे पहचान ही लिया जो हिंडोले पर अकेली रह गई थई। भला वह क्यों न पहचानते? जवहरी की नजर दी हुई अंगूठी पर उसकी तस्वीर देख चुके थे, उनके दिल में उसकी तस्वीर खुद गई थी, अब तो मुंहमांगी मुराद पाई, जिसके लिए अपने को मिटाना मंजूर था उसे बिना परिश्रम पाया, फिर क्या चाहिए।
आनंद सिंह पता लगाने के लिए उन औरतों के पीछे गए, मगर वे सब ऐसी भागीं कि झलक तक न दिखाई दी। लाचार आधे घंटे तक हैरान होकर फिर उस हिंडोले के पास पहुंचे, हिंडोले के पास बैठी हुई उस औरत को कौन कहे, अपने भाई को भी वहां न पाया। घबराकर इधर-उधर ढूंढ़ने और पुकारने लगे, यहां तक कि रात हो गई और यह सोच कर किश्ती के पास पहुंचे कि शायद वहां चले गए हों, लेकिन वहां भी सिवाय उस बूढ़े खिदमतगार के किसी दूसरे को न देखा। जी बेचैन हो गया, खिदमतगार को सब हाल बताकर बोले- 'जब तक अपने प्यारे भाई का पता नहीं लगा लूंगा, मैं घर नहीं जाऊंगा। तू जाकर यहां का हाल सभी को खबर कर दे।'
खिदमतगार ने हर तरह से आनंद सिंह को समझाया और घऱ चलने के लिए कहा, मगर कुछ फायदा न निकला। लाचार उसने किश्ती उसी जगह छोड़ी और पैदल रोता-कलपता किले की तरफ रवाना हुआ, क्योंकि यहां जो कुछ हो चुका था उसका हाल राजा वीरेंद्र सिंह से कहना भी उसने आवश्यक समझा।
चौ
था बयान
खि
दमतगार ने किले में पहुंच कर और यह सुनकर कि इस समय दोनों राजा एक ही जगह बैठे हैं, कुंअर इंद्रजीत सिंह के गायब होने का हाल और सबब जो कुंअर आनंद सिंह की जुबानी सुना था, महाराज सुरेंद्र सिंह और वीरेंद्र सिंह के पास हाजिर होकर अर्ज इस खबर के सुनते ही उन दोनों के कलेजे में चोट-सी लगी। थोड़ी देर तक घबराहट के सबब कुछ सोच न सके कि क्या करना चाहिए। रात भी एक पहर से ज्यादे जा चुकी थी। आखिर जीत सिंह, तेज सिंह और देवी सिंह को बुलाकर खिदमतगार की जुबानी जो कुछ सुना था कहा और पूछा कि अब क्या करना चाहिए? किया।
तेज सिंह- उस जंगल में इतनी औरतों का इकट्ठे होकर गाना-बजाना और इस तरह धोखा देना बेसबब नहीं है।
सुरेंद्र सिंह- जब से शिवदत्त के उभरने के खबर सुनी है, सदा एक खटका-सा बना रहता है, मैं समझता हूं यह भी की शैतानी है।
वीरेंद्र सिंह- दोनों लड़के ऐसे कमजोर तो नहीं हैं कि जिसका जी चाहे, उन्हें पकड़ ले।
सुरेंद्र सिंह- ठीक है, मगर आनंद का भी वहां रह जाना बुरा ही हुआ।
तेज सिंह- बेचारा खिदमतगार जबरदस्ती साथ हो गया था, नहीं तो पता भी न लगता कि दोनों कहां चले गए। उनके बारे में जो कुछ सोचना है सोचिए, मगर मुझे जल्द इजाजत दीजिए कि हजार सिपाहियों को साथ लेकर वहां जाऊं और इसी वक्त उस छोटे जंगल को चारों तरफ से घेर लूं। फिर जो कुछ होगा देखा जाएगा।
सुरेंद्र सिंह- (जीत सिंह से), क्या राज है?
जीत सिंह- तेज सिंह ठीक कहता है, इसे अभी जाना चाहिए।
हुक्म पाते ही तेज सिंह दिवानखाने के ऊपर बुर्ज पर चढ़ गए जहां बड़ा-सा नक्कारा और उसके पास ही एक भारी चोब इसलिए रखा हुआ था कि वक्त-बेवक्त जब कोई जरूरत आ पड़े और फौज को तुरंत तैयार करना हो तो इस नक्कारे पर चोब मारी जाए। इसकी आवाज भी निराले ढंग की थी जो किसी नक्कारे की आवाज से मिलती न थी और इसके बजाने के लिए तेज सिंह ने इशारे मुकर्रर किए हुए थे।
तेज सिंङ ने चोब उठाकर जोर से एक दफे नक्कारे पर मारा जिसकी आवाज तमाम शहर में ही नहीं, बल्कि दूर-दूर तक गूंज गई। चाहे इसका सबब किसी शहर वाले की समझ में न आया हो, मगर सेनापति समझ गया कि इसी वक्त हजार फौजी सिपाहिओं की जरूरत है जिसका इंतजाम उसने बहुत जल्द किया।
तेज सिंह अपने सामान से तैयार हो किले के बाहर निकले और हजार सिपाही तथा बहुत से मशालचियों को साथ ले उस छोटे से जंगल की तरफ रवाना हो कर बहुत जल्दी ही वहां जा पहुंचे।
थोड़ी-थोड़ी दूर पर पहरा मुकर्रर करके चारों तरफ से उस जंगल को घेर लिया। इंद्रजीत सिंह तो गायब हो ही चुके थे, आनंद सिंह के मिलने की बहुत तरकीब की गई, मगर उनका भी पता न लगा। तरद्दुत में रात बिताई, सबेरा होते ही तेंज सिंह ने हुक्म दिया कि एक तरफ से इस जंगल को तेजी के साथ काटना शुरू करो जिससे दिनभर में तमाम जंगल साफ हो जाए।
उसी समय महाराज सुरेंद्र सिंह और जीत सिंह वहां आ पहुंचे। जंगल का काटना इन्होंने भी पसंद किया और बोले कि - 'बहुत अच्छा होगा अगर हम लोग इश जंगल से एक दम ही निश्चित हो जाएं।'
इस छोटे जंगल को काटते देर ही कितनी लगती थी, तिस पर महाराज की मुस्तैदी के सबब यहां कोई भी ऐसा नजर नहीं आता था जो पेड़ों की कटाई में न लगा हो। दोपहर होते-होते जंगल कट के साफ हो गया, मगर किसी का कुछ पता न लगा। यहां तक कि इंद्रजीत सिंह की तरह आनंद सिंह के भी गायब हो जाने का निश्चय करना पड़ा। हां, इस जंगल के अंत में एक कमसिन नौजवान हसीन और बेशकीमती गहने-कपड़े से सजी हुई औरत की लाश पाई गई जिसके सिर का पता न था।
यह लाश महाराज सुरेंद्र सिंह के पास लाई गई। अब सभी की परेसानी और बढ़ गई और तरह-तरह के ख्याल पैदा होने लगे। लाचार उस लाश को साथ लिए शहर की तरफ लौटे। जीत सिंह ने कहा- 'हम लोग जाते हैं, तारा सिंह को भेज अब ऐयारों को जो शिवदत्त की फिक्र में गए हुए हैं, बुलवाकर इंद्रजीत सिंह और आनंद सिंह की तलाश में भेजेंगे, मगर तुम इसी वक्त उनकी खोज में जहां तुम्हारा दिल गवाही दे, जाओ।'


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