05 मार्च, 2010

मोहब्बत है क्या चीज!

अब आप असली शहद की तरह सच्ची मोहब्बत को चख नहीं पाते और इश्क़ का मजा जो धीमे-धीमे सुलगने में, इंतजार की तड़प में, त्याग और धीरज में है, उसे समझ नहीं पाते।

जमाने के साथ इश्क़ के अंदाज भी बदले हैं। लेखिका नासिरा शर्मा ने मोहब्बत के जिस एहसास को जिया है, उसे अभिनेत्री विद्या बालन शायद बिल्कुल अलग ढंग से देखें। प्रेम पर दो पीढ़ियों की सोच और अनुभव कितने जुदा हैं, व्यापक परिप्रेक्ष्य में बता रही हैं ये ..


स दौर में हमारे सामने एक बड़ा सवाल है कि हालात की मार से मानवीय संवेदनाएं सूखती जा रही हैं, इसका अंत कहां जाकर होगा? आपको यक़ीन होने लगता है कि दुनिया में मोहब्बत जैसी शै नहीं बची है, लेकिन यकायक किसी दिन आप ऐसी घटना से टकराते हैं कि यह धारणा चूर-चूर हो जाती है। नहीं, मोहब्बत अभी इंसानी बस्ती में अपना वजूद रखती है। लेकिन जमाने के साथ उसका मिजाज बदला है। पहले पर्दानशीं इश्क़ होता था, क्योंकि ‘जज्बा’ महत्वपूर्ण था, हाड़-मांस का व्यक्ति नहीं।

जातपात, रंगभेद, धर्म, जबान, उम्र, ख़ूबसूरती, बदसूरती आड़े नहीं आती थी। वरना लैला अपनी सांवली रंगत के बावजूद मजनू को दीवाना न बना पाती और ग़रीबी के बाद भी हीर-रांझा मरते दम तक एक-दूसरे के दीवाने न रहते। शीरिन व ख़ुसरू एक-दूसरे को समझने और पाने के लिए तड़पते न रहते। ये सारे लोग इश्क़ की हसरत से सराबोर थे। यह किया नहीं, हो जाता था।अब इश्क़ किया जाता है। सामाजिक-आर्थिक हालात को देखकर क़दम उठाए जाते हैं और बात न बनने पर तोताचश्मी की तरह नजारें भी फेर ली जाती हैं। आख़िर यह हो क्यों रहा है कि हमारे चाहने के बावजूद हमारे रिश्ते टिकते नहीं। अब रिश्तों में पहले वाली बात नहीं रह गई। ये बातें पहले के दौर में भी सच्ची थीं, मगर हम उन्हें खुली आंखों से घटते नहीं देख पाते थे। दूसरे, आज की तरह पहले ऐसी सहूलियतें भी मौजूद न थीं कि आप विवाह के बंधन में बंधे बिना एक-दूसरे को पा लें और बिना किसी जंजाल में फंसे साथ निभा लें।

जमाना बदला, इंसान की चाहतें बदलीं, उसका नजरिया बदला। डिस्पोजेबल नैपकिन बाजार में आई, तो रूमाल धो कर फैलाने की झंझट से निजात मिली। उसी तरह सहूलियतों ने बहुत-सी जिम्मेदारियों से मुक्ति दे दी कि जाओ, उड़ो, ख़ूब ऊंची पेंगें लो और जब मौसम बदले, तो अपने साथी भी बदल लेना- घर के पर्दे और फर्नीचर की तरह!

कहते हैं लोग कि पहले इश्क़ पर्दानशीं होता था। लैला को देखे बिना उन्स पैदा हो जाता था। क्योंकि तब जज्बा अहम था, अब उपहार है- ख़ासतौर पर वैलेंटाइन के दिन, जिसका वास्तविक अर्थ बाजार ने अपनी जरूरत के मुताबिक़ बदल डाला है। लेकिन कुछ बातें नहीं बदली हैं। अफ़गानिस्तान की कवयित्री राबिया बल्खी के शेरों में इश्क़ की तपिश ने उसे ऐसा बदनाम किया कि भाई ने उसकी कलाई की नस काट उसे गर्म हमामख़ाने में बंद कर दिया, जहां वह ख़ून की स्याही से हमामख़ाने की दीवारों पर शेर लिखती रही। कुछ ऐसा ही बर्ताव विरासत में कुछ इलाकों को मिला है, जहां मोहब्बत करना अपराध समझा जाता है, प्रेमी फौरन फ़ांसी पर लटका दिए जाते हैं। कहीं पर प्यार की नाकामी आत्महत्या के लिए भी मजबूर कर देती है। घटनाओं-दुर्घटनाओं को देखें, टूटे दिलों के एकतरफ़ा क़िस्से सुनें, लांछन और आरोपों के बयान पढ़ें, तो अक्सर महसूस होता है कि इतने सारे हादसे, वे भी विभिन्न कारणों और अनेक प्रवृत्तियों के, एक विशेष कालखंड में एक साथ कैसे वजूद में आते हैं? क्या इसका कारण सहज आकर्षण को इश्क़ समझ लेना है? या फिर साथ-साथ मरने-जीने की जल्दबाजी में शादी के बंधन में बंध कुछ वर्षो बाद तलाक़ की अर्जी देना.. या फिर बाजार की चकाचौंध से चौंधियाई आंखों से उन सारे प्रोडक्ट से लैस बंदे को देख लेना, जिसकी धूम विज्ञापनों द्वारा टीवी, रेडियो और तमाम पोस्टर पहाड़े की तरह रटते रहते हैं? मेरा अपना ख्याल है कि जमाना जो भी हो, हमारा या आपका, उसमें जज्बे का नैसर्गिक प्रस्फुटन ही एहसास दिलाता है कि आपके साथ कुछ अनूठा घटा है। जिस तरह अंगूर शराब और किशमिश में बदल एक नई ख़ासियत में ढलता है, उसी तरह एहसास को भी समय चाहिए। और इसी कारण स्नेह, प्रेम, मोहब्बत, इश्क़ और उन्स की कैफ़ियतें अलग-अलग होती हैं। पहले लोगों को इश्क़ होता था। वह एक दायमी कैफ़ियत (स्थायी आनंद) थी, जो जुनून बनकर चढ़ती थी। उसी हाल में आपको रखती थी। मगर अब इश्क़ बहुत कम होता है। चाहतें अपना चोला बदल लेती हैं, इसलिए युवा आज सिर्फ़ प्यार और मोहब्बत करते हैं। उसमें रिश्तों का स्नेह गहरा हो या नहीं, मगर प्रेम का उबाल जरूर होता है। तभी अभिव्यक्ति के नित नए अंदाज फिल्मों में और मोहब्बत करने के अंदाज लेखों द्वारा युवाओं को सिखाए और पढ़ाए जाते हैं।
जो अक्सर क्या, पेशतर हालात में फेल हो जाते हैं। फिर, टूटे दिलों को कैसे संभालें जैसे कुछ नुस्खे उन्हें मिल जाते हैं। और वे अपने को जानने व समझने की जगह दूसरों के अनुभवों और बताए उपायों में फंसते चले जाते हैं। इस तरह वे असली शहद की तरह सच्ची मोहब्बत को कभी भी चख नहीं पाते और इश्क़ का मजा जो धीमे-धीमे सुलगने में, इंतजार की तड़प में, त्याग और धीरज में है, उसे समझ ही नहीं पाते। बल्कि गोली, तेजाब और चाकू का प्रयोग कर बैठते हैं।

हमारे दौर में इंसानी रिश्तों के बीच जिस भाव ने सबसे ज्यादा जगह बना ली है, वह है बनावटीपन। बनावटी मोहब्बत, बनावटी चेहरा, बनावटी बातें, बनावटी क़समें- ये हर उस आदमी का नशा उतार रही हैं, जो जख्म खाता है। जो इस हुनर में माहिर है, वह धन, प्यार, शोहरत और आराम तो पा रहा है, मगर इज्जत और सुकून नहीं। नींद भी उसे गोली की मदद से आती है और मोहब्बत भी उसे ख़रीदी हुई जीनी पड़ती है। इस स्थिति में आज के इंसान को लाने वाली ख़ुद उसकी उपलब्धियां हैं।



आख़िर बाजार की चमक-दमक तो उसी ने बनाई है, जहां पहुंचकर इंसान फीका लगता है। अब औरत-मर्द को एक-दूसरे की मासूमियत और चरित्र आकर्षित नहीं करते हैं, बल्कि प्रोडक्शन का कोई नया मॉडल, नया मेकअप उन्हें अपनी ओर बरबस खींचता है। यही पाठ हमारी नई पीढ़ी को विज्ञापनों द्वारा रोज पढ़ाया जा रहा है कि इंसान से ज्यादा महत्व प्रोडक्ट और एहसास से ज्यादा महत्व पैसे का है। किसी के दिल में रहो ना रहो, मगर कमाते जाओ। अब ऐसे में इश्क़ का अनुभव कौन करना चाहेगा, जिसमें दर्द, कसक, टीस, विरह, तपन और घुलन है?



हमने किया है फर्ते जुनूं में भी ज्ब्ते इश्क़
ये क़ैस से हुआ न तो फ़रहाद से हुआ

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