04 मार्च, 2010

जानेजां ढूंढ़ता फिर रहा..- हास्य-व्यंग्य (प्रेम जनमेजय)

लेखक ने छुटपन से सुन रखा था कि खोजने से भगवान भी मिल जाते हैं। इसलिए जब वसंत के बिना होली की मस्ती अधूरी लगी, तो वे वसंत को खोजने निकल पड़े। प्रेम बाबू बड़े प्रेम से ढूंढ़ते रहे। उन्हें सफलता मिली या नहीं, यह तो बाद की बात, पर इस चक्कर में देश-दुनिया का बहुत सारा ज्ञान और अंत में आत्मज्ञान जरूर मिल गया। होली के हुल्लड़ में हम भी खोजते हैं उनके साथ, कहते हुए कि..

मैं बहुत दिनों से वसंत को ढूंढ़ रहा था। पता चला कि इस बार वो 20 जनवरी को दिखा था, पर उसके बाद पता नहीं कहां चला गया। वसंत ने तो मुझसे उधार भी नहीं लिया है कि वो मुझसे मुंह चुराए। मैं किसी क्रेडिट कार्ड बनवाने वाली, उधार देने वाली, बीमा करने वाली या फिर मकान बेचने वाली कंपनी के कॉल सेंटर में काम भी नहीं करता हूं कि वो मुझसे बचकर चले। वसंत किसी मल्टीनेशनल कंपनी में तो काम करने नहीं लग गया है। मल्टीनेशनल कंपनी में काम करने वाले युवक कब घर आते हैं और कब द़फ्तर जाते हैं, मोहल्ले की क्या औकात, मां-बाप तक को पता ही नहीं चलता है। हो सकता है, किसी कंपनी ने वसंत का अपने नाम पेटेंट करवा लिया हो और वो बेचारा हाथ बांधे अपने मालिक की सेवा में खड़ा हो।

पिछले वर्ष, एक दिन वसंत रास्ते में मिल गया, पर मैं पहचान नहीं सका। उसके चेहरे पर पतझड़ का वैसा ही सूखापन था, जैसा सूखापन आजकल राजनीति में नैतिकता का है। उसका चेहरा किसी भूखे के पेट की तरह सख़्त था और आंखों से किसी ग़रीब के जीवन का सूनापन झांक रहा था। होली के आसपास कौन एेसे वसंत को पहचान सकता है। पर हो सकता है, इस बार उसका चेहरा बदल गया हो। पिछले साल तो मंदी थी, इस बार तो तेजी आने वाली है।

मैंने तय कर लिया कि इस बार तो वसंत को ढूंढ़ ही निकालूंगा। महात्मा बुद्ध ज्ञान की खोज में महलों का सुख त्यागकर रात को निकले थे, मैं दिन में ही, कॉलेज में पढ़ाने का सुख त्यागकर निकल पड़ा। कॉलेज में पढ़ाने का सुख, महलों के सुख से कम नहीं है। आप पढ़ाते नहीं, पर फिर भी माना जाता है कि आप पढ़ाते हैं।

वसंत की खोज में निकला ही था कि देखा नुक्कड़ के मकान के बाहर पत्नी अपने पति को तिलक करते हुए कह रही है, ‘जाओ प्रिय, चार माह के लिए तुम देश सेवा के लिए जाओ। चाहे मेरे घर का जितना भी बजट बिगड़ जाए, तुम तो देश का बजट बनाकर आओ। राष्ट्रहित में मैं चार महीने के विरह का पतझड़ सह लूंगी।’

जहां दीया तले अंधेरा होता है, वहां दीये ऊपर उजाला होता है, जहां विरह का पतझड़ होता है, वहां मिलन का वसंत भी होता है। यह सोचकर मैंने पूछा, ‘हे देवी, आप विरह का पतझड़ क्यों सह रही हैं?’ ‘मेरे पति बजट-बाबू हैं। इन्हें देश का बजट बनाने वित्त मंत्रालय की क़ैद में जाना है। जब तक बजट नहीं बनेगा, मेरे जीवन में विरह का पतझड़ छाया रहेगा।’ मैंने बजट-बाबू से कहा, ‘आपकी पत्नी के जीवन में तो विरह का पतझड़ छाया होगा और आपके जीवन में बजट का वसंत छाएगा। इसका मतलब वसंत आपके साथ कमरे में बंद रहता है।’

- ‘वसंत, हमारे साथ कमरे में! वो तो हमसे डरता है, हमारे पास फटकता नहीं कि कहीं हम उस पर सर्विस टैक्स न लगा दें। वित्त मंत्री के तीरों से अच्छे-अच्छे घबराते हैं, वसंत किस खेत की मूली है। जाओ, उसे किसी मॉल में ढूंढ़ो।’


मैं वसंत को ढूंढ़ने निकल पड़ा। मुझे लगा कि कहीं वो दाल और चीनी की तरह बाजार से तो ग़ायब नहीं हो गया। पर दाल और चीनी की तो ग़रीब को आवश्यकता होती है, वसंत की नहीं, वसंत की तो अमीरों को आवश्यकता होती है। उनके जीवन में तो बारहमासी वसंत छाया रहता है, नहीं छाता है, तो बाजार से ख़रीदकर छवा लेते हैं। वो सारी चीजें, जिनकी आवश्यकता अमीरों को होती है, वो कभी बाजार से ग़ायब नहीं होती हैं। फ्रिज, टीवी, एसी, बड़ी-बड़ी कारें, साधनसंपन्न कोठियां, बेईमानी, भ्रष्टाचार, अनैतिकता आदि आपने कभी ग़ायब होते देखे हैं? ये तो ‘बाय वन गेट वन फ्री’, यानी एक के साथ दूसरा मु़फ्त पाओ की शैली में मिलते हैं।

आजकल बाजार से जो चीज ग़ायब हो रही है, जिसके भाव बढ़ रहे हैं, उसका पता कृषि-मंत्री को होता है। आप तो जानते ही हैं कि हमारे मंत्री किसी जादूगर से कम नहीं होते हैं। जब मंत्री बनते हैं, तो किसी सुदामा से कम नहीं होते हैं, पर ऐसा जादू करते हैं कि झोपड़ी के स्थान पर महल बन जाते हैं। जादूगर चीजों को आपकी आंखों के सामने ऐसे ग़ायब करता है कि आप देखते रह जाते हैं। और जो चीज ग़ायब करता है, वो ही तो बता सकता है कि वो चीज ग़ायब होकर कहां गई है। इसलिए मैं भी ग़ायब वसंत के बारे में पता करने के लिए कृषि-मंत्री के पास चला गया।

मैंने कृषि-मंत्री से पूछा, ‘आपने वसंत को देखा है? कहीं मिल नहीं रहा है।’
-‘कौन वसंत ?’
-‘वसंत, अपना वसंत।’
-‘अपना मराठी मानुस! उसके बारे में अप्पन खुलके बात नहीं करेंगा। उसका खुल्लमखुल्ला ठेका तो साहेब के पास है, हमारा अंडरस्टैंडिंग तो बस छुपमछिपाई का..’
- ‘नहीं मराठी मानुस वाला वसंत ग़ायब नहीं हुआ है, वो तो जैसे दाल और चीनी गायब हुए हैं..’
- ‘ओ अच्छा, वसंत नाम का कोई किसान ग़ायब हो गया है। वो ग़ायब नहीं हुआ होगा, उसने आत्महत्या कर ली होगी, उसे ढूंढ़ना बंद ही कर दो।’ इस शोक में उन्होंनें बिना चीनी के चाय पी और बोले, ‘देख लेना, कहीं वसंत का निर्यात तो नहीं हो गया।’ यह कहकर उन्होंने हाथ में क्रिकेट की बॉल पकड़ ली और उससे कैच-कैच खेलने लगे। मुझे लग गया कि यहां वसंत का पता नहीं मिलेगा, यहां तो कैच होने वाली वो बॉलें दिखेंगी, जो स्विस बैंक में जमा करने लायक़ होती हैं।

मैंने रिक्शेवाले से पूछा, ‘ये वसंत कहां है, पता है?’

-‘न, हम तो कल ही गांव से शहर आए हैं, कोई सवारी नहीं मिली है, आप ही बता दो कहां चलना है और जो चाहे दे दो।’
-‘वसंत किसी मोहल्ले का नाम नहीं है, वसंत तो मौसम का नाम है। तुमने देखा होगा, वसंत आता है तो कोयल कूकने लगती है और बागों में फूल खिल जाते हैं।’



-‘बाबू हम तो जब से आए हैं, कार-स्कूटरों की चिल्लपों ही सुनी है। कोयल की कूक तो गांव में सुनी थी। बाबू जब पेट में भूख लगी हो, तो फूल कहां दिखाई देते हैं। और फिर हमें तो चारों ओर बिल्डिंग ही बिल्डिंग नजर आती हैं, इन पत्थरों में फूल कहां खिलेंगे? बाबू, आप कार-स्कूटर में बहुत बार वसंत को ढूंढ़ते होंगे, आज मेरे रिक्शे पर ही ढूंढ़ लें। आपका ढूंढ़ना हो जाएगा और मेरे पेट को दो रोटी मिल जाएंगी।’ मुझे समझ आ गया कि मैंने ग़लत दरवाजा खटखटा दिया है। भूखे पेट तो गोपाल का भजन नहीं हो सकता, वसंत की कौन कहे। गंवई गंवार कहीं का..बंदर क्या जाने अदरक का स्वाद..अनाड़ी भूखा क्या जाने शेयर बाजार का सैंसेक्स या देश की जीडीपी!

सुना है कि वसंत वीआईपी हो गया। वो आतंकवदियों की हिटलिस्ट में है। उसके चारों ओर सुरक्षा का घेरा है, इसलिए वो आम जनता से नहीं मिलता है, किसी की पहुंच में नहीं है। कभी-कभी वो झोपड़ी में भी घुस जाता है तथा झोपड़ी पूरा जीवन इस आशा में बिता देती है कि वसंत फिर आएगा। जैसे दीये तले अंधेरा होता है, वैसे ही वसंत के तले पतझड़ होता है और वो पतझड़ झोपड़े में छूट जाता है।

अब वसंत भी थोड़ी-बहुत राजनीति जान गया है, उसने भी रूप बदल लिया है । वसंत बहरूपिया हो गया है। वसंत ऐय्यार हो गया है। वह रीमिक्स बनकर आने लगा है। वसंत जब वसंत में नहीं आ सकता, तो वह दूसरे रूपों में आने लगा है। कभी वो राष्ट्रमंडल खेलों का बजट बनकर आता है, कभी हाथी की मूर्तियों के रूप में आता है, कभी हिंदी पखवाड़ा बनकर आता है और कभी..
किसी के जीवन में समस्त जीवन वसंत ही वसंत रहता है और किसी के जीवन में वसंत कभी नहीं आता है, ऐसे में वो चिल्लाता है- वसंत तुम कहां हो?

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