20 नवंबर, 2009

सन्नाटा - कहानी ( मालती जोशी )

दर्पण के सामने देर तक बैठने के बाद भी उसका मन नहीं भरा। मेक-अप की हल्की सी पर्त एक जादू सा कर गई थी, और वह अपने ही प्रतिबिम्ब पर मुग्ध हुई जा रही थी। कौन कहेगा कि वह पचास को छू रही है। सका कुछ भी तो नहीं बदला है। उम्र के साथ चेहरा थोडा भर गया है-बालों में इक्का-दुक्का रुपहले तार झलमला रहे हैं-बस, पर इन बातों ने तो उसके सौंदर्य को गरिमा ही प्रदान की है।

अब तो सारा दिन ही जैसे भागम-भाग में बीतता है। बिंदी लगाने भर को वह आईने में झाँक पाती है। नहीं तो एक समय वह भी था जब वह घंटों आईने के सामने बैठकर निहारा करती थी। उन दिनों कॉलेज भर में उसके रूप के चर्चे थे। इसी रूप जाल ने तो गिरीश को बाँधा था इसी के बल पर तो वह बिना किसी दान-दहेज के इतने बडे घर में आ गई थी।

बडा घर! याद आते ही उसका मन ऐसा कसैला हो उठा जैसे दाँतों नीचे कोई कडवी चीज आ गई हो। बीते दिनों की स्मृतियों ने कोई मधुर रागिनी नहीं छेडी, बल्कि मन में एक टीस-सी उठी। वह एक झटके के साथ उठी और कपडों की अल्मारी के सामने जाकर खडी हो गई। बेकार की बातों से वह इस समय अपना अच्छा-भला मूड बिगाडना नहीं चाहती थी।

साडी का चुनाव वाकई एक समस्या थी। अपनी रोजमर्रा की साडियों की ओर तो उसने झाँका भी नहीं। साल-दर-साल उन्हें ही पहनते वह ऊब चुकी थी। कुछ साडियाँ जो समारोहों के लिए खरीदीं गई थीं। पर हर कपडा हर मौके पर खिलता थोडे ही है। साडी ऐसी हो जो अवसर विशेष के अनुकूल हो-और उसकी सौम्य, सोबर इमेज भी बनाए रखे।

कपडों को उलट-पलट करते हुए उत्तरा को निशि बेतरह याद हो आई। वह होती तो क्या उसे इतना सोचना पडता। वह तो पता नहीं कब से मुनासिब-सी साडी, मैचिंग चूडियाँ, पर्स, चप्पलें-सबकुछ निकाल कर रख चुकी होती। उसके रहते मजाल थी कि मम्मी उल्टा-सीधा पहनकर या बेतरतीबी से बाल लपेटकर बाहर चली जाएँ।

कपडे ही नहीं, उसका तो घर की हर समस्या पर अधिकार था। कोई भी काम उस पर छोडकर निश्चिंत हुआ जा सकता था। उसके रहते घर कैसा भरा-भरा-सा लगता था। इस तरह द्वीपों में बँटा हुआ नहीं था।

उत्तरा को पी.एच.डी. मिली थी तब निशि मुश्किल से सोलह की रही होगी। स्टॉफ मेम्बर्स पार्टी के लिए इसरार कर रहे थे। उत्तरा ने सोचा था- वहीं कैंटीन में कुछ खिला-पिला देगी। पर निशि अड गई :

'कॉलेज में क्यों मम्मी, क्या तुम्हारा घर नहीं है? और पार्टी का सारा प्रबंध उसने अकेले ही किया। खाना तो खैर बनवाया गया था, पर प्लेंटें, चम्मच, नैपकिंस, बर्फ यहाँ तक कि पान-सुपारी और जर्दे की व्यवस्था भी उसने इतनी सुघडता से की थी कि सब चकित रह गए। लोग अब फिर पार्टी माँग रहे हैं, पर अब उत्तरा की हिम्मत टूट गई है।

यों कहने को तो घर में आशु भी है पर..
'आशु! उसने आवाज दी। पर जैसा कि वह जानती थी कोई जवाब नहीं आया। आजकल तो वह बस अपने पापा के आसपास ही मँडराया करती है। निशि भी थी तो आशु उसके साथ लगी रहती थी। उसकी शादी क्या हुई -दोनों ही लडकियाँ हाथ से निकल गईं।

'आशु! इस बार आवाज थोडी ऊँची थी और तल्ख भी।

'क्या है मम्मी? मूर्तिमान बेजारी बनकर आशु सामने आकर खडी हो गई।

उसके लहजे से उत्तरा का पारा चढ गया। वह भूल-सी गई कि क्यों बुलाया था। रूखे स्वर में पूछा, 'तुम अभी तक तैयार नहीं हुई। चलना नहीं है क्या?

'कहाँ?..ओह! आज आपका फंक्शन है न।..सॉरी मम्मी, मेरा जाना नहीं हो सकेगा।

'क्यों?

'पापा को बुखार है।

'कोई नयी बात है?

'नयी न सही, पर ऐसी स्थिति में उन्हें अकेला तो नहीं छोडा जा सकता न।

'दो घंटे महादेव उनके पास बैठ सकता है।

'सो तो है, पर मम्मी, वहाँ सारी साहित्यिक बातें होंगी। मेरी समझ में तो कुछ आएगा नहीं, वैसे ही बोर हो जाऊँगी।

'ठीक है। उत्तरा ने विषय समाप्त करते हुए कहा।
आशु जैसे प्रतीक्षा ही कर रही थी। तुरंत पलटकर चल दी। उत्तरा देर तक उसे देखती रही। इन दिनों वह एकदम अपनी माँ की प्रतिकृति सी बनती जा रही है। पर मन से कितनी दूर फिंक गई है। इसके विपरीत निशि एकदम अपने पापा पर गई है। पर बचपन से ही वह मम्मी की बेटी रही है। पिछले दिनों से तो वह बेटी से भी ज्यादा सखी बन गई थी। कोई भी बात उससे निस्संकोच कहकर वह हल्का हो लेती थी। निशि बडी बहन की तरह से सांत्वना देती, धीरज बँधाती। कभी-कभी तो उसका पक्ष लेकर पापा से भिड भी जाती थी।

शादी होते ही लडकियाँ कितना बदल जाती हैं। सारी माया-ममता पता नहीं कहाँ खो जाती है। अब तो बस निखिल और मंटू-निशि की दुनिया इन दोनों में सिमट कर रह गई है।

'मम्मी! दुबारा अपनी बेजारी जताते हुए, आशु सामने खडी हो गई थी, वो लोग आ गए हैं।

'अरे, चार बज गए क्या? उसने चौंककर घडी देखी, 'आशु, उन्हें बिठाओ, पानी-वानी पिलाओ। मैं बस आ ही रही ँ।

अपने को आखिरी बार आईने में देखने के लिए वह मुडी तो उसमें निशि का खिंचा-खिंचा सा चेहरा ही परिलक्षित हुआ। उत्तरा जल-भुनकर रह गई। 'मेरे मेहमानों को एक गिलास पानी पिलाने में इसका जान जाती है। पापा के लिए हर आधा घंटा बाद चाय बनाते समय इसके हाथ नहीं थकते। वह बुदबुदाई पर सारा गुस्सा भीतर ही भीतर पी गई। इस समय वह अपना मन एकदम प्रसन्न रखना चाहती थी।
'हलो, एवरीबडी। उसने बडे खुशनुमा अंदाज में कहते हुए हाल में प्रवेश किया। पर वहाँ सतीश मेहता अकेला बैठा अखबार पढ रहा था। सामने ट्रे में पानी से भरा गिलास अनछुआ रखा था।

'चलो! उसने कहा।

'बाय आल मीन्स, मैडम। कहते हुए वह खडा हो गया, पर एकदम ठिठक गया।

'अंकल नहीं चलेंगे?

दरवाजे तक पहुँच गई थी उत्तरा, पर देखा कि सतीश अभी वहीं खडा है।

'नहीं, अंकल नहीं चलेंगे। उनकी तबीयत ठीक नहीं है। स्वर को यथासाध्य तल्ख बनाते हुए उसने कहा।

'और आशुजी? सतीश ने अस्फुट किंतु उत्सुक स्वर में पूछा।

'नहीं वह कैसे आ सकती है? उनके पास भी तो कोई चाहिए। वैसे तो मेरा जाना भी मुश्किल ही था, पर अब तुम लोगों ने इतना बडा आयोजन कर रखा है और...। यह कहते हुए वह खटाखट सीढियाँ उतरकर गाडी के पास जाकर खडी हो गयी। मेहता को मजबूरन साथ आना ही पडा। पर उसके लिए दरवाजा खोलते हुए, अपनी सीट पर बैठते हुए और गाडी स्टार्ट करते हुए उसकी ऑंखें बराबर बंद दरवाजे पर खिडकियों के परदों पर लगी रहीं। पर उन्हें निराशा ही हाथ लगी।

'बेचारा सतीश! उत्तरा को उस पर दया हो आई, बेचारा जान छिडकता है आशु पर। पर वह लडकी है कि एक मिनट पापा को ऑंखों की ओट नहीं करना चाहती। साथ नहीं आई न सही, पर गुडलक कहने दरवाजे तक तो आ ही सकती थी।...

'गुस्सा तो उसके पापा पर आता है। ऐसे नाजुक मिजाज हैं कि हर पल किसी का ऑंचल थामे रहना चाहते हैं। पाँच बहनों में अकेले भाई हैं-खूब लाड-प्यार पाया है। अम्माँजी ने तो एकदम ऑंख की पुतली की तरह सहेजा है उन्हें। तभी तो यथार्थ की धरती पर पैर रखते ही उनका दम फूल जाता है।..

जिस बीमारी का आशु इतना हौआ बना रही है उसकी नब्ज निशि ने खूब पकड ली थी, 'कुछ नहीं मम्मी, यह सब जॉब सिकनेस है। जिम्मेदारियों से भागने के बहाने हैं। इन्हें सारी झंझटों से मुक्ति दे दीजिए। फिर देखिए इन्हें कुछ नहीं होगा।

बात एकदम सही थी-चाहे बिजली का बिल भरना हो या हाउसटैक्स, बच्चों का एडमिशन करवाना हो या खेत से गेँ लदवाना हो-गिरीश को कल्पना से ही बुखार होने लगता। बुखार न आता तो पीठ अकड जाती या सिर दर्द से फटने लगता। बच्चों की हारी-बीमारी में भी कभी उनका सहारा न मिला। निशि की सगाई के समय तो वे अस्पताल में ही भरती थे।

बच्चों की दादी जब तक रहीं, बेटे की बीमारी में घर सिर पर उठा लेतीं। उनकी इस हाय-तौबा में मूल प्रश्न जाने कहाँ बिला जाता। ब को बार-बार कोसतीं, 'अकेला आदमी, बेचारा कहाँ तक बोझा ढोता फिरेगा, एक लडका ही अगर हो जाता...।

यह बात वे कुछ इस अंदाज में कहतीं मानो बेटा होता तो सीधा झूले से उतरकर बाप का हाथ बँटाने पहुँच जाता।
अम्माँजी की मृत्यु के बाद तो गिरीश एकदम जैसे निराश्रित हो गए। पहले तो उन्होंने उत्तरा का सहारा लेना चाहा। पर वैसी संवेदनशील सेवा वह कैसे करती? कब करती? आखिर बच्चे भी तो उसी को पालने थे। नौकरी भी अब उसके लिए शौकिया नहीं रही थी। वह जीवन की अनिवार्य आवश्यकता बन गई थी। बडा घर मात्र एक छलावा था। सारे सब्ज बाग दूर के ढोल निकले। वकालत की एक तख्ती जरूर टँग रही थी दरवाजे पर ताकि कोई यह न कहे कि निठल्ले हैं बीवी की कमाई खाते हैं। शेष तो बस उत्तरा ही जानती है, या उसका ईश्वर।

पत्नी से निराश होकर अब उन्होंने आशु का दामन थाम लिया है। उन्हें इस बात का अहसास नहीं है कि इस तरह वे लडकी को तबाह कर रहे हैं। पता नहीं कैसे उसके मन में यह भय बैठ गया है कि उसकी शादी होते ही पापा एकदम अकेले पड जाएँगे।

अकेलापन क्या इतना भयानक होता है? आखिर उत्तरा भी तो जी रही है। वह तो बरसों से भीड के बीच अकेलापन झेल रही है।

उसने तो कभी शिकायत नहीं की।

'मैडम!
वह जैसे हडबडाकर तन्द्रा से जागी। गाडी मछली की तरह फिसलती हुई कब कॉलेज पहुँच गई, उसे पता ही नहीं चला। पोर्च में उसके कुछ कनिष्ठ सहयोगी और विभाग के छात्र-छात्राएँ स्वागत के लिए खडे थे।

गाडी से उतरते समय उसकी मन:स्थिति बडी अजीब-सी थी। अपने ही कॉलेज में इस तरह मेहमान बनकर आना उसे अटपटा लग रहा था। वह तो बार-बार मना करती रही। पर बच्चे नहीं माने। उसका गौरव, उसका सम्मान जैसे सबका हो गया था। इसे वे कैसे व्यर्थ होने देते।

यह सब कुछ इतना अनपेक्षित था कि उत्तरा स्वयं हैरान रह गई थी। वर्षों के अध्ययन और परिश्रम के बाद उसने एक भारी-भरकम पुस्तक लिख डाली थी : 'भारतीय नारी की सामाजिक चेतना उदय और विकास।

बडी मुश्किल से तो वह प्रकाशक जुटा पाई थी। उसने उस समय बस यही आशा की थी कि शिक्षा मंत्रालय द्वारा खरीद ली गई तो पुस्तक कॉलेज के पुस्तकालयों में पहुँच जाएगी। चार लोग इसे पढेंगे तो उसका श्रम सार्थक हो जाएगा। पर आश्चर्य! पुस्तक तो अकादमी पुरस्कार जीत लाई।

उसे तो सुनकर कानों पर विश्वास ही नहीं आया था। उसके छात्र जगत में तो आनंद की लहर दौड गई थी। पुरस्कार समारोह तो राजधानी में अगले महीने होना था। पर उन लोगों ने कॉलेज में उससे पहले ही एक सम्मान समारोह आयोजित कर डाला।

उसे हमेशा अपने विद्यार्थियों से आदर और स्नेह मिलता रहा है कि छात्र अनुशासनहीनता की पुकार मचाने वाले उसके सहयोगी अक्सर उससेर् ईष्या करने लगते हैं।

फैकल्टी का वह छोटा सा हॉल बडे कलात्मक ढंग से सजाया गया था। हॉल में प्रवेश करते ही स्वयं प्राचार्य ने उठकर उसका स्वागत किया तो वह संकोच से गड ही गई।

उसे पहले तो फूल-मालाओं से लाद दिया गया। फिर भाषणों का दौर प्रारंभ हुआ। छात्र तो उसकी इस उपलब्धि पर गद्गद् थे ही, पर कुछ सहकर्मियों ने भी जब उसकी प्रशंसा के पुल बाँध दिए तो उसे सुखद आश्चर्य हुआ। प्राचार्य महोदय ने भी दो शब्द बोले। उत्तरा के कारण उनका यह कस्बाई कॉलेज देश के नक्शे पर आ गया था। प्रमुख अतिथि थे जिलाधीश महोदय। उसे सम्मान का प्रतीक वीणापाणि की मूर्ति भेंट करते हुए उन्हें भी औपचारिकतावश स्तुति में दो शब्द कहने ही पडे।

वह सुनती रही और सोचती रही। काश! आशु यहाँ होती, उसके पापा होते। वे लोग जरा देख तो लेते कि घर के बहार उसे कितनी इज्जत मिलती है, प्यार मिलता है।

पर वे यहाँ आते ही क्यों। पत्नी की गौरव-गाथा निस्पृह भाव से सुनने की सामर्थ्य उनमें कहाँ है। तभी न बुखार हो आया है।

उस दिन जब कुछ लोग यह सुसंवाद लेकर घर पहुँचे थे, तब भी तो वे सहज भाव से उसे झेल नहीं पाए थे। कैसी रोनी सी आवाज में बोले थे, 'भई, हमने तो उन्हें पूरी स्वतंत्रता दे रखी है। जितना समय मिलता है, अपने विषय को दो। घर-बार की चिंता छोड दो। उसे हम सम्हाल लेंगे। अपन कोई बडे विद्वान नहीं हैं। बस इतना योगदान दे सकते हैं।

उनके हर शब्द से झाँकते हीनताबोध ने उसे उतना नहीं कचोटा जितना उनके झूठ ने। मन हुआ, सबके सामने उन्हें बेनकाब कर दे। बता दे कि वे कितना घर-द्वार देखते हैं पर चुप बनी रही।

कभी-कभी सुखी गृहस्थी का नाटक भी कितना जरूरी हो जाता है।

इस समय भी वह प्रसंग याद आते ही उसका मन फुफकार उठा। सम्मान की सारी खुशी, सारा उत्साह ठंडा पड गया। रात-भर जागकर एक आलेख तैयार किया था। पर बोलने के लिए खडी हुई तो एक भी शब्द याद नहीं आया। पहली बार कागज की जरूरत महसूस हुई। सुनने वालों ने समझा भाव विह्वल हो जाने से सकी वाणी अवरुध्द हो गयी है। नहीं तो वह साक्षात सरस्वती है। लौटते समय आधा दर्जन लोग साथ थे। फूल-मालाएँ और भेंट सामग्री उन्हीं के हाथ में थ।

दरवाजा वैसा ही बंद था। चलते समय न तो किसी ने विदा किया था, न वहाँ अब कोई स्वागत में खडा था।
'अब चलेंगे मैडम! किसी ने कहा तो लगा मन पर हथौडे की चोट पडी है। इतने बडे हंगामे के बाद ये लोग उसे एकदम अकेला करके चले जाएँगे? कल्पना से ही वह सिहर उठी।

'ऐसे कैसे चले जाओगे? उसने कहा, 'एक-एक कप कॉफी तो पीते जाओ।

और फिर उसने दरवाजे की घंटी जोर से दबा दी। इतने जोर से कि उसकी आवाज से सन्नाटे की धज्जियाँ उड गई।

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