17 नवंबर, 2009

आंखों में फिर जज्ब हुआ इक दर्द का मंजर और - ग़ज़ल (ऩक्श इलाहाबादी)

18 मार्च 1941 को थरवई, इलाहाबाद में जन्मे ऩक्श इलाहाबादी को शायरी का शौक़ विरासत में ही मिला था। उनकी मां, जो ख़ुद भी एक उम्दा शायरा थीं, उनकी गुरु थीं। उनके कई ग़ज़ल संग्रह प्रकाशित हुए हैं। सन् 1976 में तत्कालीन राष्ट्रपति फ़ख़रुद्दीन अली अहमद द्वारा उन्हें सम्मानित किया गया था। 14 फरवरी 2008 को ऩक्श इलाहाबादी का देहांत हो गया।


आंखों में फिर जज्ब हुआ इक दर्द का मंजर और
आज एक ही बूंद में डूबा एक समंदर और


रब्त मेरा जब बाहर की दुनिया से टूटता है
इक संसार जनम लेता है मेरे अंदर और


फ़िक्र-ओ-घुटन बेव़क्त की दस्तक बेरब्त आवाजो
इसके अलावा देता भी क्या मुझको मेरा घर और


उसकी झुलसती रूह पे रख दो मेरे बदन की छांव
मेरे पिघलते जिस्म पे लिख दो एक दोपहर और


उसका आख़िरी तीर बचा है मेरी आख़िरी सांस
कहर बहर सूरत टूटेगा एक न इक पर और


सुब्ह की पहली किरन तलक मैं बन जाऊंगा ख्वाब
तू भी मुझमें कर ले बसेरा सिर्फ़ रात भर और


दस मन मिट्टी के नीचे तो दबा है मेरा जिस्म
क्या बिगड़ेगा, ला के लगा दो, दो इक पत्थर और


मायने:
रब्त=संबंध, दोस्ती, तआल्लुक/बेरब्त=बेढंगी, बेमेल /बहर=समुद्र

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