15 फ़रवरी, 2010

चंद्रकांता संतति - 1

पहला बयान
नौगढ़ के राजा सुरेंद्र सिंह के लड़के वीरेंद्र सिंह की शादी विजयगढ़ के महाराज जय सिंह की लड़की चंद्रकांता के साथ हो गई। बारात वाले दिन तेज सिंह की आखिरी दिल्लगी के चलते चुनार के महाराज शिवदत्त को मशालची बनना पड़ा। बहुतों की राय हुई कि महाराज शिवदत्त का दिल अभी तक साफ नहीं हुआ, इसलिए अब उनको कैद ही में रखना मुनासिब है, मगर महाराज सुरेंद्र सिंह ने इस बात को नापसंद करके कहा - "महाराज शिवदत्त को हम छोड़ चुके हैं, इस वक्त जो तेज सिंह से उनकी लड़ाई हो गई, यह हमारे साथ बैर रखने का सबूत नहीं हो सकता। आखिर महाराज शिवदत्त क्षत्रिय हैं, जब तेज सिंह उनकी बेइज्जती करने पर उतारू हो गए तो यह वह कैसे बर्दाश्त कर सकते थे? मैं यह भी नहीं कह सकता कि महाराज शिवदत्त का दिल हम लोगों की तरफ से बिल्कुल साफ हो गया, क्योंकि अगर उनका दिल साफ ही हो जाता तो इस बात को छिपकर देखने के लिए आने की जरूरत क्या थी? तो भी यह समझकर कि तेज सिंह के साथ इनकी यह लड़ाई हमारी दुश्मनी का सबब नहीं कही जा सकती, हम फिर इनको छोड़ देते हैं। अगर अब भी यह हमारे साथ दुश्मनी करेंगे तो क्या हर्ज है, यह भी मर्द हैं और हम भी मर्द हैं, देखा जाएगा।"
महाराज शिवदत्त फिर छूटकर न मालूम कहां चले गए। वीरेंद्र सिंह की शादी होने के बाद महाराज सुरेंद्र सिंह और जय सिंह की राय से चपला की शादी तेज सिंह के साथ और चंपा की शादी देवी सिंह के साथ की गई। चंपा दूर के नाते में चपला की बहन होती थी।
बाकी सब ऐयारों की शादी हो चुकी थी। उन लोगों की घर-गृहस्थी चुनार में ही थी, अदल-बदल करने की जरूरत न पड़ी, क्योंकि शादी होने के थोड़े ही दिन बाद बड़े धूमधाम के साथ कुंवर वीरेंद्र सिंह चुनार की गद्दी पर बैठाए गए और कुंवर छोटे राजा कहलाने लगे। तेज सिंह उनके राज दीवान नियुक्त हुए और इसलिए सब ऐयारों को भी चुनार में ही रहना पड़ा। सुरेंद्र सिंह अपने लड़के को आंखों के सामने से हटाना नहीं चाहते थे, लाचार नौगढ़ की गद्दी फतेह सिंह के सुपुर्द कर वह भी चुनार ही रहने लगे। मगर राज्य का काम बिल्कुल वीरेंद्र सिंह के जिम्मे था, हां कभी-कभी राय दे देते थे। तेज सिंह के साथ जीत सिंह भी बड़ी आजादी के साथ चुनार में रहने लगे। महाराज सुरेंद्र सिंह और जीत सिंह में बहुत मोहब्बत थी। असल में जीत सिंह इसी लायक थे कि उनकी जितनी कदर की जाती, थोड़ी थी।

शादी के दो साल बाद चंद्रकांता को पुत्र रत्न की प्राप्ति हुई, जिसका नाम इंद्रजीत सिंह रखा गया। उसी साल चंपा और चपला को भी पुत्र हुए। तीन साल बाद चंद्रकांता ने दूसरे बेटे को जन्म दिया। चंद्रकांता के दूसरे बेटे का नाम आनंद सिंह रखा गया। चपला और चंपा के बेटों के नाम क्रमश: भैरों सिंह और तारा सिंह रखे गए।
शैशवावस्था में इन सभी बच्चों की शिक्षा-दीक्षा का इंतजाम किया गया, जिसकी जिम्मेदारी जीत सिंह को सौंपी गई। भैरों सिंह और तारा सिंह कुशाग्र बुद्धि थे, अत: ऐयारी के फन में माहिर निकले। जीत सिंह ने उनके इस गुण को पहचानते हुए उनके प्रशिक्षण के लिए खास इंतजाम किए। धीरे-धीरे दोनों इस फन में इतने माहिर हो गए कि उनके गुरु की कला भी उनके सामने फीकी पड़ने लगी।
भैरों सिंह और तारा सिंह में कौन बेहतर! यह आगे की कहानी में पता चल जाएगा। हां, इतना जरूर है कि भैरों सिंह को इंद्रजीत और तारा सिंह को आनंद सिंह ज्यादा प्रिय था।चारों लड़के अब किशोरावस्था की दहलीज पर आ चुके थे। चुनार राज्य की बात करें तो चहुंओर शांति थी। हालांकि, पुराने कष्ट और महाराज शिवदत्त की शैतानी एक बुरे सपने की तरह सभी के दिल में समाई हुई थी।
इंद्रजीत सिंह को शिकार का बहुत शौक था। जहां तक संभव हो, रोज निकल जाते शिकार के लिए। एक दिन किसी बनरखे ने बताया कि इन दिनों जंगल में मंगल हो रहा है। सभी जानवर मदमस्त हो जंगल में घूम रहे हैं। जानवरों की संख्या को देखें तो महीना-दो-महीना टिककर शिकार करें तो भी न खत्म हों। जब दोनों भाइयों ने यह सुना तो उनकी खुशी की सीमा न रही। उन्होंने राजा वीरेंद्र सिंह से आठ दिन के लिए शिकार करने जाने की इजाजत मांगी। इसके जवाब में राजा वीरेंद्र सिंह ने कहा, 'आठ दिन की अनुमति मैं नहीं दे सकता। अपने दादा से पूछो, अगर वह हुक्म दें तो मुझे कोई आपत्ति नहीं।'
यह सुनकर दोनों ने अपने दादा महाराज सुरेंद्र सिंह की ओर रुख किया। उन्होंने खुशी-खुशी मंजूरी दे दी और शिकार का पूरा इंतजाम करने का हुक्म दिया। साथ ही फौज के 500 सिपाहियों को भी भेजने का निर्देश दिया। मंजूरी मिलते ही इंद्रजीत सिंह और आनंद सिह बहुत खुश हुए और भैरों सिंह, तारा सिंह और फौज को साथ लेकर चुनार से रवाना हो गए। चुनार से पांच कोस दक्षिण की ओर घने जंगल में पहुंचकर उन्होंने पड़ाव डाला। शाम ढलने ही वाली थी, इसलिए तय किया गया कि आज आराम किया जाए और कल सवेरे शिकार के लिए निकला जाए।

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