24 फ़रवरी, 2010

चंद्रकांता संतति - भाग 15

रोशनी गायब हो गई, मगर अंदाज से टटोलते हुए ये दोनों भी उस गड्ढ़े के मुंह पर पहुंच गए जिसमें वह औरत उतर गई थी। उस पर एक पत्थर अटकाया हुआ था, लेकिन उन अनगढ़ पत्थर के अगल-बगल छोटे-छोटे ऐसे सुराख थे जिनके जरिए से गड्ढे़ के अंदर का हाल ये दोनों बखूबी देख सकते थे।
दोनों उसी जगल बैठ गए और सुराखों की राह से अंदर का हाल देखने लगे। भीतर रोशनी बखूबी थी। सामने की तरफ चट्टान पर बैठी वही औरत दिखाई पड़ी जिसने अभी तक अपने मुंह से नकाब नहीं उतारी थी और थकावट के सबब लम्बी सांस ले रही थी। उसके पास ही एक कमसिन खूबसूरत हब्शी छोकरी बड़ा-सा छुरा हाथ में लिए खड़ी थी, दूसरी तरफ एक बदसूरत हब्शी कुदाल से जमीन खोद रहा था, बीच में छत के सहारे एक उल्टी लाश लटक रही था, एक तरफ कोने में जल से भरा हुअा मिट्टी का घड़ा, एक लोटा और कुछ खाने का सामान पड़ा हुआ था।
कुछ देर बाद उस औरत ने अपने मुंह से नकाब उतारा। अहा, क्या खूबसूरत, गुलाब-सा चेहरा है, मगर गुस्से से आंखे ऐसी सुर्ख और भयानक हो रही हैं कि देखने से डर मालूम पड़ता है। वह औरत उठ खड़ी हुई और अपने पास वाली छोकरी के हाथ से छुरा ले उस लटकती हुई लाश के पास पहुंची और दो अंगुल गहरी एक लकीर उसके पीठ पर खींची।
हाय-हाय, ऐसी हसनी और इतनी संगदिली! इतनी बेदर्दी! अभी अभी एक खून किए चली आती है और यहां पहुंचकर फिर अपने राक्षसीपन का नमूना दिखला रही है! यह लाश किसकी है? कहीं यह भी कोई चुनार का खैरख्वाह तो नहीं।
पीठ पर जख्म खाते ही लाश फड़की। अब मालूम हुआ कि वह मुर्दा नहीं है, कोई जीता आदमी तकलीफ देने के लिए लटकाया गया है। जख्म खाकर लटका हुआ वह आदमी तड़पा और आह-भर बोला-
'हाय, मुझे क्यों तकलीफ देती हो, मैं कुछ नहीं जानता!'
औरत- नहीं, तुझे बताना ही होगा। तू खूब जानता है। (पीठ पर फिर गहरी छुरी चलाकर) बता बता!
उल्टा आदमी- हाय मुझे एक दफे क्यों नहीं मार डालती? मैं किसी का हाल क्या जानूं, मुझे इंद्रजीत सिंह से क्या वास्ता?
औरत- (फिर छुरी से काटकर) मैं खूब जानती हूं, तु बड़ा पाजी है, तुजे सब-कुछ मालूम है। बता, नहीं तो गोश्त काट-काटकर मैं जमीन पर गिरा दूंगी।
उल्टा आदमी- हाय, इंद्रजीत सिंह की बदौलत मेरी यह दशा!
अभी तक कुंवर आनंद सिंह और वह सिपाही छिपे सब कुछ देख रहे थे, मगर जब उस उल्टे हुए आदमी के मुंह से यह निकला कि 'हाय! इंद्रजीत सिंह की बदौलत मेरी यह दशा!' तब मारे गुस्से के उनकी आंखों में खून उतर आया। पत्थर हटा दोनों आदमी बेधड़क अंदर चले गए और उस बेदर्द छुरी चलाने वाली औरत के सामने पहुंच आनंद सिंह ने ललकारा-'खबरदार! रख दे छुरा हाथ से!'
औरत- (चौंककर) है, तुम यहां क्यों चले आए? खैर, अगर आ ही गए तो चुपचाप खड़े होकर तमाशा देखो। यह न समझो कि तुम्हारे धमकाने से मैं डर जाऊंगी (सिपाही की तरफ देखकर) तु्म्हारी आंखों में भी क्या धूल पड़ गई है? अपने हाकिम को नहीं पहचानते?
सिपाही- (खूब गौर से देखकर) हां, ठीक है, तुम्हारी सब बातें अनोखी होती हैं।
औरत- अच्छा तो आप दोनों आदमी यहां से जाइए और मेरे काम में हर्ज न डालिए।
सिपाही- (आनंद सिंह से) चलिए, इन्हें छोड़ दीजिए। जो चाहे सो करें, आपका क्या?
आनंद सिंह- (कमर से नीमचा निकालकर) वाह, क्या कहना है! मैं बिना इस आदमी को छुड़ाए कब टलने वाला हूं!
औरत- (हंसकर) मुंह धो लीजिए!
बहादुर वीरेंद्र सिंह के बहादुर लड़के आनंद सिंह को ऐसी बातों के सुनने का धैर्य कहां?
वह दो-चार आदमियों को समझते ही क्या थे? 'मुंह धो लीजिए' इतना सुनते ही जोश चढ़ आया। उछलकर एक हाथ नीमचे का लगाया जिससे वह रस्सी कट गई जो उस आमी के पैस से बंधी हुई थी और जिसके सहारे वह लटक रहा था, साथ ही फुर्ती से उस आदमी को सम्हाला और जोर से जमीन पर गिरने न दिया।
अब तो वह सिपाही भी आनंद सिंह का दुश्मन बन बैठा और ललकार कर बोला- 'यह क्या लड़कपन है!'
इस सुरंग में दो औरतें और एक हब्शी गुलाम हैं। अब वह सिपाही भी उनके साथ मिल गया और चारों ने आनंद सिंह को पकड़ लिया, मगर आनंद सिंह ने एक झटका दिया कि चारों दूर जा गिरे। इतने में बाहर से आवाज आई-'आनंद सिंह खबरदार! जो किया सो किया, अब आगे कुछ हौसला न करना, नहीं तो सजा पाओगे!'
आनंद सिंह से घबराकर बाहर की तरफ देखा तो एक योगिनी पर नजर पड़ी जो जटा बढ़ाए भस्म लगाए गेरुआ वस्त्र पहने दाहिने हाथ में त्रिशूल और बाएं हाथ में आग से भरा धधकता हुआ खप्पर जिसमें कोई खुशबूदार चीज चल रही थी और बहुत धुआं निकल रहा था, लिए हुए आ मौजूद हुई।
ताज्जुब में आकर सभी उसकी सूरत देखने लगे। थोड़ी देर में उस खप्पर से निकला हुआ धुआं सुरंग की खोटरी में भर गया और उसके असर से जितने वहां थे सभी बेहोश होकर जमीन पर गिर पड़े। बस, अकेली वह योगिनी होश में रही जिसने सभी को बेहोश देख कोने में पड़े हुए घड़े से जल निकाल खप्पर की आग बुझा दी।

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