20 मार्च, 2010
शादी
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बंतानी पार्क में बेंच पर बैठी थी।
भिखारी बंता: हाय डार्लिग!
बंतानी (नाराजगी से): मुझे डार्लिग कहने की तुम्हारी हिम्मत कैसे हुई?
भिखारी संता: तो फिर तुम मेरे इस ‘बिस्तर’ पर क्या कर रही हो?
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प्रतिभाशाली वैज्ञानिक संता ने न्यूटन के गति के तीन नियमों में एक और नियम जोड़ा है: ‘लूज मोशन कभी भी स्लो मोशन में नहीं हो सकता।’
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वेटर बंता ने संता को खाने का बिल दिया।
संता: ये लो, मेरे कार्ड में से ले लो।
बंता: पर सर, यह तो राशन कार्ड है।
संता: अबे स्साले, तो फिर बाहर क्यों लिख रखा है कि ‘सभी तरह के कार्ड स्वीकार किए जाते हैं।’
चिट्ठी
मिसेज संता- तुम्हारी मां ने मेरी इंसल्ट की है।
मिस्टर संता- कैसे! वह बेचारी तो 500 किमी दूर मेरे छोटे भाई के साथ रह रही हैं।
मिसेज संता- उन्होंने आपके नाम एक चिट्ठी भेजी थी, जिसे मैंने दोपहर में खोलकर पढ़ लिया।
मिस्टर संता- तो?
मिसेज संता- तुम्हारी मां ने चिट्ठी के आखिर में लिखा था- तुमने तो चिट्ठी पढ़ ली, अब इसे मेरे बेटे को दिखाना मत भूलना!
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संता ने बंता को बताया- मैं तो उसी से शादी करूंगा, जो मेहनती हो, सादगी से रहे, घर को संवारकर रखे और जो मेरे इशारों पर चले।
बंता ने कहा- यार, घर आकर मेरी नौकरानी से मिल लेना। उसमें ये सभी गुण हैं।
दौड़
संता बुझक्कड़ ने पास खड़े युवक बंता बोस पूछा- भैया यहां क्या हो रहा है?
बंता बोस ने कहा- बाबा, यहां दौड़ हो रही है।
संता बुझक्कड़- ये क्यों दौड़ रहे हैं?
बंता बोस- बाबा, ये कप पाने के लिए दौड़ रहे हैं।
संता बुझक्कड़- कप किसको मिलेगा?
बंता बोस- जो जीतेगा, उस व्यक्ति को मिलेगा।
संता बुझक्कड़- फिर ये बाकी क्यों दौड़ रहे हैं?
कामचोर
संता सिम्मी ने दांत किसकिसाते हुए कहा- हक़ीक़त में वह बेहद कामचोर था और मुंहजोरी करता था। मैंने उसे सबक सिखाने का सोचा था। तभी मुझे यह आइडिया आया और मैंने..
दुनिया रंग-बिरंगी
बंतानी ने बताया: 27 साल पहले यह मुझे भी देखने आया था।
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संता: आपका बहुत-बहुत शुक्रिया, आपने मेरे बेटे के गले में फंसा एक रुपए का सिक्का निकाल दिया। बाइ द वे, क्या आप डॉक्टर हैं?
बंता: नहीं, मैं इन्कम टैक्स अफ़सर हूं।
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पापा संता: नालायक, फेल हो गया। पड़ोस की लड़की को देख, क्लास में फस्र्ट आई है।
बेटा बंता: पिताजी, सालभर सिर्फ़ उसी को तो देखता रहा..।
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संता कॉलेज में एडमिशन के लिए पहुंचा। पहले तो यहां वहां घूमा, पर आख़िर में उसने वाचमैन से ही पूछ लिया: यह कॉलेज अच्छा तो है न?
वाचमैन बंता: बहुत अच्छा है जी। मैंने यहीं से एमबीए किया, और देखो, मुझे यही नौकरी भी मिल गई।
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कॉलेज में छात्र संता चाकू लेकर घूम रहा था।
बंता सर ने पूछा: यह चाकू लिए क्यों घूम रहा है?
संता: ग़रीब हूं सर, रिवाल्वर कहां से लाऊं?
आपकी टांग
संता वर्मा- डॉक्टर साहब, अगर दर्द आपकी टांग में होता, तो मेरे लिए भी चिंता की कोई बात न होती।
नेता
संता दयाल काफी देर से माइक पर बोले जा रहे थे। आखिर घंटा भर बाद उन्होंने माइक छोड़ा। सामने की कुर्सी पर बैठा एक विदेशी अपनी बगल में बैठे बंता कुमार से बोला- आपके यहां के नेता तो बहुत लंबा भाषण देते हैं। बंता कुमार ने जवाब दिया- नेता? अरे ये तो साउंड सर्विस का कर्मचारी संता था, माइक चेक कर रहा था!
पुलिस का कुत्ता
इंस्पेक्टर संता बोले- आवारा नहीं पुलिस का कुत्ता है।
बंता गोयल- पुलिस का? पर लगता तो नहीं है।
इंस्पेक्टर संता- कैसे लगेगा, यह गुप्तचर विभाग में जो है।
आज मैंने - फ़रनांदो पेसोआ
एक रहस्यवादी कवि की किताब से
और मैं उस व्यक्ति की तरह हंसा जो बस रोता रहा हो
बीमार दार्शनिक होते हैं रहस्यवादी कवि
और दार्शनिक पागल होते हैं
क्योंकि रहस्यवादी कवि कहते हैं कि
फूलों को अहसास होता है
वे कहते हैं कि पत्थरों में आत्मा होती है
और नदियों को चांदनी में उद्दाम प्रसन्नता होती है
लेकिन फूलों को अहसास होने लगे तो वे फूल नहीं रह जाएंगे-
वे लोग हो जाएंगे
और अगर पत्थरों के पास आत्मा होती
तो वे जीवित लोग होते, पत्थर नहीं
और अगर नदियों को होती उद्दाम प्रसन्नता चांदनी में
तो वे बीमार लोगों जैसी होतीं
आप फूलों, पत्थरों, नदियों की
भावनाओं की बात तभी कर सकते हैं
जब आप उन्हें नहीं जानते
फूलों, पत्थरों और नदियों की आत्माओं की बात करना
अपने बारे में बात करना है- अपने संदेहों के बारे में
शुक्र है ख़ुदा का पत्थर बस पत्थर है
और नदियां बस नदियां
और कुछ नहीं
फूल बस फूल
जहां तक मेरा सवाल है
मैं लिखता हूं अपनी कविताओं का गद्य
और मैं संतुष्ट हूं
क्योंकि मैं जानता हूं
कि मैं प्रकृति को बाहर से समझता हूं
मैं उसे भीतर से नहीं समझता
क्योंकि पृथ्वी के भीतर कुछ नहीं होता
वरना वह प्रकृति ही नहीं रह जाएगी
(पुर्तगाल के कवि पेसोआ (1888-1935) बीसवीं सदी के सबसे चर्चित कवियों में से एक। ये एक साथ कई नामों से कविताएं लिखा करते थे।)
खाक होकर भी - ‘जौक़’
सैर के क़ाबिल है ये पर सैर की फ़ुरसत नहीं
कहते हैं मर जाएं, गर छुट जाएं ग़म के हाथ से
पर तिरे ग़म से हमें मरने की भी फ़ुरसत नहीं
दिल वो क्या जिसको नहीं तेरी तमन्ना-ए-विसाल
चश्म वो क्या जिसको तेरी दीद की हसरत नहीं
खाक होकर भी फ़लक के हाथ से हमको क़रार
एक साअत मिस्ले-रेगे-शीशा-ए-साअत नहीं
‘जौक़’ इस सुरत-कदे में हैं हजारों सूरतें
कोई सूरत अपने सूरत-गर की बे-सूरत नहीं
मायने:
गुले-इश्रत= ऐश्वर्य रूपी फूल/विसाल=मिलन/ चश्म=आंख / दीद की= दर्शन की/ साअत=क्षण / मिस्ले-रेगे-शीशा-ए-साअत=शीशे की रेतघड़ी की रेत की तरह/ सुरत-कदे में=शक्लों के घर अर्थात संसार में/ सूरत-गर की=भगवान की
अस्मत - डॉ. बशीर बद्र
सर से चादर, बदन से क़बा ले गई
जिंदगी हम फ़क़ीरों से क्या ले गई
ख़ुशबुओं को उड़ाकर हवा ले गई
मैं समंदर के सीने में चट्ठान था
रात इक मौज आई बहा ले गई
एक लड़की तुम्हारा पता ले गई
मेरी शोहरत सियासत से महफ़ूज है
ये तवायफ़ भी अस्मत बचा ले गई
मायने:
कबा= अंगरखा, गाउन/मौज= तरंग, लहर / सियासत= छल, फ़रेब/ महफ़ूज=सुरक्षित
डॉ. बशीर बद्र को उर्दू का वह शायर माना जाता है, जिसने कामयाबी की बुलंदियां हासिल कर लोगों के दिलों की धड़कनों को अपनी शायरी में उतारा है। वे मुहब्बत के शायर हैं। उन्होंने उर्दू ग़ज़ल को एक नया लहजा दिया। यही वजह है कि उन्होंने श्रोता और पाठकों के दिलों में भी अपनी ख़ास जगह बनाई।
नियति
राजा को गुप्तचरों ने सूचना दी कि पड़ोसी राज्य की सेनाएं उस राज्य पर धावा बोलने के लिए निकल चुकी हैं। उसने सेनापति को उन्हें राज्य की सीमा पर रोक देने का आदेश दिया। सेनापति अपनी सफलता को लेकर आश्वस्त था, क्योंकि उनके पास कहीं ज्यादा बड़ी सेना थी। लेकिन उसके सैनिकों को अपनी जीत पर संदेह था।
सेनापति ने कई तरह से समझाया, दोनों सेनाओं की तुलना के ढेर सारे तथ्य बताए, पर सैनिकों के मन में अकारण बैठ गया था कि हमारी हार ही होनी है। बावजूद इसके सेनापति सेना लेकर निकल पड़ा, पड़ोसी सेना को सीमा पर ही रोक देने के लिए। रास्ते में एक मंदिर था। परंपरा के अनुसार वे वहां पूजा के लिए रुके। सैनिकों ने अपनी जीत की कामना की, पर उन्हें अब भी जीत का भरोसा नहीं था। तभी सेनापति ने अपने सैनिकों को संबोधित करना शुरू किया। उसने कहा, ‘हम यह सिक्का उछालकर देखेंगे कि नियति में क्या लिखा है। अगर चित आया, तो हमारी जीत होगी और पट आया, तो हार।’ सैनिक उत्सुकता से देखने लगे। सेनापति ने सिक्का उछाला और यह चित था। सैनिकों में ख़ुशी की लहर दौड़ पड़ी। कहना न होगा कि उन्होंने पड़ोसी राज्य की सेना को न सिर्फ़ अपनी सीमा पर रोक दिया, बल्कि काफ़ी दूर तक खदेड़ भी आए। बाद में एक युवा सैनिक ने सेनापति से कहा, ‘सचमुच, जो नियति में लिखा होता है, वही होता है।’ सेनापति ने जवाब देने की बजाय उसे वह सिक्का दिखा दिया। उस सिक्के के दोनों तरफ़ चित वाला ही निशान था। फिर क्या था, सैनिक वहीं अपना माथा पकड़कर बैठ गया।सबक : भाग्य में जो लिखा है, वह तो होगा ही, लेकिन भाग्य में क्या लिखा, यह नियति रचने वाले, यानी ईश्वर के अलावा और कोई भी सही-सही नहीं बता सकता।
05 मार्च, 2010
मुम्बई का डॉन कौन ?
इधर अपून नक्की करके दियेला है कि चौपाटी पर दरियाव का लाट का जो आवाज आता है वो भी मराठी मेंइच आने कू मँगता है। उधर गेटवे ऑफ इन्डिया पर कबूतर लोग का लो फड़फड़-फड़फड़, गूटरगू-गूटरगू का आवाज आता है वो भी मराठी मेंइच मँगता है। मिल का भोंपू, लोकल ट्रेन का खड़-खड-खड़:फड़-फड़-फड़, मोटार, गाड़ी, ऐटो, विमान सबका आवाज मराठी में आने कोइच मँगता है। नई आएगा तो अपून अख्खा मुम्बई को आग लगा डालेगा।
ये सब जो फाईस्टार में फैशन शो वगैरा में सब अउरत लोग नागड़ेपना चलाता है, अइसा अभी हम लोग बर्दाश्त नहीं करेगा। फैशन शो करने का है तो खूब करो पन लड़की लोग मराठी बाई के जैसा नउवारी लुगड़ा डालकर रेंप पर चलने कू मँगता है। उधर बिल्कुल गजरा-बिजरा डालकर रापचिक मराठी कल्चर दिखने कू मँगता है।
भाईगिरी, गुंडागिरी, टपोरीगिरी, मवालीगिरी जितना मर्जी करो वांदा नई, पन ये सब अगर हिन्दी भाषे में किया तो खबरदार! अख्खा मुम्बई का सेठ लोग कू जो मर्जी वो करने का, मिल खोलने का, शट डाउन-तालाबंदी करने का, गरीब मजदूर लोग का खून चूसने का, जोर-जुलुम सब करने का, पन ये सब हिन्दी में बिल्कुल चलने को नई मँगता। कोई भी मजदूर का हक अगर ‘हिन्दी’ में मारा तो हम उसको ‘मराठी’ में मार-मारकर हाथ-पाँव तोड़ डालेगा।सब च्यॉनल वाला प्रोग्राम, नेशनल टी.व्ही. च्यॉनल, ऑल इंडिया रेडियो सब हमकू मराठी में दिखने-सुनने कू मँगता है। कुछ भी करने का, इन्टरप्रेटर लगाने का, ट्रांसलेटर लगाने का, स्टूडियों में भलेइच आवाज हिन्दी में एयर होए मगर इधर मुम्बई में आकर मराठी मेंइच सुनाई देने को मँगता है।
अख्खा शाइर लोग, पोएट अउर रायटर लोग मुंबई में अड्डा जमाके, मराठी का खाके, मराठी का पीके, मराठी हवा में श्वास लेके हलकट, हिन्दी में लिखता है। अभी हम बोलता है सब साला मराठी में लिखना शुरु करने का। हिन्दी पोयट्री, कहानी, कादम्बरी सब मराठी में लिखने का। गझल मराठी में बोलने का। इधर राजभाषा का अख्खा कारीक्रम हिन्दी में कर-करके तुम लोग दिमाग का दही करके रखेला है। अभी अइसा नहीं चलने कू मँगता है। हिन्दी डे का पखवाड़ा का सब प्रोग्राम मराठी में करने को मँगता है, नई तो मराठी में मार खाने कू तैयार रहने कू मँगता है।अभी सब हिन्दी साइडर लोग को फायनल बोलता है, अख्खा इंडिया होएगा तुम्हारा राष्ट्र, अपून का राष्ट्र बोले तो महाराष्ट्र! हिन्दी होयेगा तुम्हारा राष्ट्रभाषा अपून का राष्ट्रभाषा बोले तो मराठी है। अभी अपून को अभी के अभीच्च राष्ट्रगान मराठी में ट्रांसलेट करके मँगता है, तिरंगा भी अख्खा के अख्खा मराठी कलर में तैयार करके मँगता है। जब ‘हमारा’ तिरंगा झेंडा मराठी में फर्र-फर्र बोलके फहराएगा तो हम सब मराठी मानूस लोग एक स्वर में अपना राष्ट्रगान मराठी में गाएँगा - ज़न गण मन अधिनायक……॥ और तुम सब हिन्दी साइडर लोग अगर मराठी का जागा में हिन्दी में सूर मिलाया तो कान के नीचे एक रखके देगा, फिर बोम मारते बैठने का हिन्दी मेंइच। मुम्बई का डॉन कौन ? अपून ! एक एक को बोल के रखता है भंकस नई करने का।
प्रमोद ताम्बट
मोहब्बत है क्या चीज!
जमाने के साथ इश्क़ के अंदाज भी बदले हैं। लेखिका नासिरा शर्मा ने मोहब्बत के जिस एहसास को जिया है, उसे अभिनेत्री विद्या बालन शायद बिल्कुल अलग ढंग से देखें। प्रेम पर दो पीढ़ियों की सोच और अनुभव कितने जुदा हैं, व्यापक परिप्रेक्ष्य में बता रही हैं ये ..
स दौर में हमारे सामने एक बड़ा सवाल है कि हालात की मार से मानवीय संवेदनाएं सूखती जा रही हैं, इसका अंत कहां जाकर होगा? आपको यक़ीन होने लगता है कि दुनिया में मोहब्बत जैसी शै नहीं बची है, लेकिन यकायक किसी दिन आप ऐसी घटना से टकराते हैं कि यह धारणा चूर-चूर हो जाती है। नहीं, मोहब्बत अभी इंसानी बस्ती में अपना वजूद रखती है। लेकिन जमाने के साथ उसका मिजाज बदला है। पहले पर्दानशीं इश्क़ होता था, क्योंकि ‘जज्बा’ महत्वपूर्ण था, हाड़-मांस का व्यक्ति नहीं।
जमाना बदला, इंसान की चाहतें बदलीं, उसका नजरिया बदला। डिस्पोजेबल नैपकिन बाजार में आई, तो रूमाल धो कर फैलाने की झंझट से निजात मिली। उसी तरह सहूलियतों ने बहुत-सी जिम्मेदारियों से मुक्ति दे दी कि जाओ, उड़ो, ख़ूब ऊंची पेंगें लो और जब मौसम बदले, तो अपने साथी भी बदल लेना- घर के पर्दे और फर्नीचर की तरह!
कहते हैं लोग कि पहले इश्क़ पर्दानशीं होता था। लैला को देखे बिना उन्स पैदा हो जाता था। क्योंकि तब जज्बा अहम था, अब उपहार है- ख़ासतौर पर वैलेंटाइन के दिन, जिसका वास्तविक अर्थ बाजार ने अपनी जरूरत के मुताबिक़ बदल डाला है। लेकिन कुछ बातें नहीं बदली हैं। अफ़गानिस्तान की कवयित्री राबिया बल्खी के शेरों में इश्क़ की तपिश ने उसे ऐसा बदनाम किया कि भाई ने उसकी कलाई की नस काट उसे गर्म हमामख़ाने में बंद कर दिया, जहां वह ख़ून की स्याही से हमामख़ाने की दीवारों पर शेर लिखती रही। कुछ ऐसा ही बर्ताव विरासत में कुछ इलाकों को मिला है, जहां मोहब्बत करना अपराध समझा जाता है, प्रेमी फौरन फ़ांसी पर लटका दिए जाते हैं। कहीं पर प्यार की नाकामी आत्महत्या के लिए भी मजबूर कर देती है। घटनाओं-दुर्घटनाओं को देखें, टूटे दिलों के एकतरफ़ा क़िस्से सुनें, लांछन और आरोपों के बयान पढ़ें, तो अक्सर महसूस होता है कि इतने सारे हादसे, वे भी विभिन्न कारणों और अनेक प्रवृत्तियों के, एक विशेष कालखंड में एक साथ कैसे वजूद में आते हैं? क्या इसका कारण सहज आकर्षण को इश्क़ समझ लेना है? या फिर साथ-साथ मरने-जीने की जल्दबाजी में शादी के बंधन में बंध कुछ वर्षो बाद तलाक़ की अर्जी देना.. या फिर बाजार की चकाचौंध से चौंधियाई आंखों से उन सारे प्रोडक्ट से लैस बंदे को देख लेना, जिसकी धूम विज्ञापनों द्वारा टीवी, रेडियो और तमाम पोस्टर पहाड़े की तरह रटते रहते हैं? मेरा अपना ख्याल है कि जमाना जो भी हो, हमारा या आपका, उसमें जज्बे का नैसर्गिक प्रस्फुटन ही एहसास दिलाता है कि आपके साथ कुछ अनूठा घटा है। जिस तरह अंगूर शराब और किशमिश में बदल एक नई ख़ासियत में ढलता है, उसी तरह एहसास को भी समय चाहिए। और इसी कारण स्नेह, प्रेम, मोहब्बत, इश्क़ और उन्स की कैफ़ियतें अलग-अलग होती हैं। पहले लोगों को इश्क़ होता था। वह एक दायमी कैफ़ियत (स्थायी आनंद) थी, जो जुनून बनकर चढ़ती थी। उसी हाल में आपको रखती थी। मगर अब इश्क़ बहुत कम होता है। चाहतें अपना चोला बदल लेती हैं, इसलिए युवा आज सिर्फ़ प्यार और मोहब्बत करते हैं। उसमें रिश्तों का स्नेह गहरा हो या नहीं, मगर प्रेम का उबाल जरूर होता है। तभी अभिव्यक्ति के नित नए अंदाज फिल्मों में और मोहब्बत करने के अंदाज लेखों द्वारा युवाओं को सिखाए और पढ़ाए जाते हैं।जो अक्सर क्या, पेशतर हालात में फेल हो जाते हैं। फिर, टूटे दिलों को कैसे संभालें जैसे कुछ नुस्खे उन्हें मिल जाते हैं। और वे अपने को जानने व समझने की जगह दूसरों के अनुभवों और बताए उपायों में फंसते चले जाते हैं। इस तरह वे असली शहद की तरह सच्ची मोहब्बत को कभी भी चख नहीं पाते और इश्क़ का मजा जो धीमे-धीमे सुलगने में, इंतजार की तड़प में, त्याग और धीरज में है, उसे समझ ही नहीं पाते। बल्कि गोली, तेजाब और चाकू का प्रयोग कर बैठते हैं।
हमारे दौर में इंसानी रिश्तों के बीच जिस भाव ने सबसे ज्यादा जगह बना ली है, वह है बनावटीपन। बनावटी मोहब्बत, बनावटी चेहरा, बनावटी बातें, बनावटी क़समें- ये हर उस आदमी का नशा उतार रही हैं, जो जख्म खाता है। जो इस हुनर में माहिर है, वह धन, प्यार, शोहरत और आराम तो पा रहा है, मगर इज्जत और सुकून नहीं। नींद भी उसे गोली की मदद से आती है और मोहब्बत भी उसे ख़रीदी हुई जीनी पड़ती है। इस स्थिति में आज के इंसान को लाने वाली ख़ुद उसकी उपलब्धियां हैं।
आख़िर बाजार की चमक-दमक तो उसी ने बनाई है, जहां पहुंचकर इंसान फीका लगता है। अब औरत-मर्द को एक-दूसरे की मासूमियत और चरित्र आकर्षित नहीं करते हैं, बल्कि प्रोडक्शन का कोई नया मॉडल, नया मेकअप उन्हें अपनी ओर बरबस खींचता है। यही पाठ हमारी नई पीढ़ी को विज्ञापनों द्वारा रोज पढ़ाया जा रहा है कि इंसान से ज्यादा महत्व प्रोडक्ट और एहसास से ज्यादा महत्व पैसे का है। किसी के दिल में रहो ना रहो, मगर कमाते जाओ। अब ऐसे में इश्क़ का अनुभव कौन करना चाहेगा, जिसमें दर्द, कसक, टीस, विरह, तपन और घुलन है?
हमने किया है फर्ते जुनूं में भी ज्ब्ते इश्क़
ये क़ैस से हुआ न तो फ़रहाद से हुआ
ज़िम्मेदारी - जेन कथा
जेन गुरु रयोकान को उनकी बहन ने कोई जरूरी बात करने के लिए अपने घर आने का निमंत्रण दिया। वहां पहुंचने पर रयोकान की बहन ने उनसे कहा, ‘अपने भांजे को कुछ समझाओ। वह कोई काम नहीं करता। अपने पिता के धन को वह मौज-मस्ती में उड़ा देगा। केवल आप ही उसे राह पर ला सकते हो।’
रयोकान अपने भांजे से मिले। वह भी अपने मामा से मिलकर बहुत प्रसन्न था। रयोकान के जेन मार्ग अपनाने से पहले दोनों ने बहुत समय साथ में गुजरा था। भांजा यह समझ गया था कि रयोकान उसके पास क्यों आए थे। उसे यह आशंका थी कि रयोकान उसकी आदतों के कारण उसे अच्छी डांट पिलाएंगे।
लेकिन रयोकान ने उसे कुछ भी न कहा। अगली सुबह जब उनके वापस जाने का समय हो गया, तब वह अपने भांजे से बोले, ‘क्या तुम मेरी जूतियों के तसमे बांधने में मेरी मदद करोगे? मुझसे अब झुका नहीं जाता और मेरे हाथ कांपने लगे हैं।’
भांजे ने बहुत ख़ुशी-ख़ुशी रयोकान की जूतियों के तसमे बांध दिए। ‘शुक्रिया’ रयोकान ने कहा- ‘दिन प्रतिदिन आदमी बूढ़ा और कमजोर होता जाता है। तुम्हें याद है, मैं कभी कितना बलशाली और कठोर हुआ करता था?’
‘हां’- भांजे ने कुछ सोचते हुए कहा, ‘अब आप बहुत बदल गए हैं।’ भांजे के भीतर कुछ जाग रहा था। उसे अनायास यह लगने लगा कि उसके रिश्तेदार, उसकी मां और उसके सभी शुभचिंतक लोग अब बुजुर्ग हो गए थे। उन सभी ने उसकी बहुत देखभाल की थी और अब उनकी देखभाल करने की जिम्मेदारी उसकी थी। उस दिन से उसने सारी बुरी आदतें छोड़ दीं और सबके साथ-साथ अपने भले के लिए काम करने लगा।
04 मार्च, 2010
रुपए ख़र्च करने का शौक़
यह अहमद बशीर हैं, अग्रेज़ी में सोचते है, पंजाबी बोलते और उर्दू में लिखते हैं। वह मां बोली का संजीदगी से एहतराम करते हैं। उनका कहना है कि लिखो बेशक जिस ज़बान में, बोलो तो अपनी ज़बान..
देश विभाजन के बाद मैं लाहौर गया, तो माहनामा ‘तख़लीक’ के संपादक अजहर जावेद ने मेरी मुलाकात कहानीकार यूनस जावेद से कराई और फिर यूनस जावेद के माध्यम से मैं अहमद बशीर से मिला। अहमद बशीर अब इस दुनिया में नही हैं। मैं जब-जब भी पाकिस्तान जाता हूं, तो उनकी अफ़सानानिगार बेटी नीलम बशीर से मुलाक़ात होती है। पिछले दिनों मैं लाहौर गया, तो बुशरा को रहमान द्वारा दी गई दावत में यूनस जावेद, नीलम बशीर और अहमद बशीर को नज़दीक से जानने वाले कई लोग मिल गए।
बातों का केंद्र अहमद ही थे। और यूनस जावेद बता रहे थे कि मैं और अहमद बशीर कृष्णा नगर (लाहौर) के एक मकान में साथ-साथ रहते थे। बीए करने के बाद अहमद बशीर को पहली नौकरी फ़ौज में मिली, जहां से वह भगौड़ा हो गए। उन्हें दूसरी नौकरी कपड़ा इंसपैक्टर की मिली, जो रास नहीं आई। एक रोज़ मैंने बस यूं ही कह दिया कि तुम पत्रकार क्यों नही बन जाते और उन्होंने संज़ीदगी से पत्रकार बनने का फ़ैसला कर लिया और दैनिक अख़बार ‘इमरोज़’ के संपादक मौलाना चिराग़ हसन हसरत के पास नौकरी के लिए जा पहुंचे। मौलाना ने उनकी बात सुनी, कहा, इस समय कोई जगह ख़ाली नही है, फिर पूछा, कलर्की करोगे?
अहमद बशीर ने कहा-‘नहीं’। सवाल हुआ अनुवाद कर सकते हो? जवाब ‘हां’ था। मौलाना ने पूछा-आजकल क्या करते हो? अहमद बशीर ने कहा कुछ भी नहीं। प्रश्न हुआ कि गुज़ारा कैसे होता है? उत्तर मिला कि रोटी एक दोस्त खिला देता है, कपड़े उसकी बीवी धुलवा देती है, सिग्रेट इधर-उधर से पी लेता हूं। चाय की आदत नहीं। मौलाना की भवे सिमटीं, फैलीं और फिर सिमट गईं तथा कुछ सोचते हुए बोले-‘अगर आपको नौकरी पर रख लिया जाए, तो कितने रुपयों की जरूरत होगी?’
अहमद बशीर ने तुरंत उत्तर दिया-‘पांच सौ। मुझे रुपए ख़र्च करने का शौक़ है।’ अहमद बशीर की बात सुनकर मौलाना बोले- ‘पांच सौ रुपए तो मुझे मिलते हैं। आप को कैसे दे सकते हैं। बशीर ने कहा, ‘तो न दें। आपने पूछा, मैंने बता दिया।’ हैरत ने मौलाना का संतुलन हिला दिया। कुछ देर ख़ामोशी और फिर बात आगे बड़ी, आधे घंटे के बाद दोनों ‘स्टेफ़लो’ में बैठे पी रहे थे। मौलाना को अहमद बशीर का अज़ीब होना और बशीर को मौलाना की मासूमियत पंसद आई थी। एक घंटे बाद दोनों खुल गए। मौलाना ने बागेशरी का अलाप सुनाया, बशीर ने फ़हश बोलिया सुनाईं॥ और यूं अहमद बशीर सहाफ़ी बन गए।
कोई सूरत अपने सूरत-गर की बे-सूरत नहीं - ‘ज़ौक़’
इस गुलिस्ताने-जहां में क्या गुले-इश्रत नहीं
सैर के क़ाबिल है ये पर सैर की फ़ुरसत नहीं
कहते हैं मर जाएं, गर छुट जाएं ग़म के हाथ से
पर तिरे ग़म से हमें मरने की भी फ़ुरसत नहीं
दिल वो क्या जिसको नहीं तेरी तमन्ना-ए-विसाल
चश्म वो क्या जिसको तेरी दीद की हसरत नहीं
खाक होकर भी फ़लक के हाथ से हमको क़रार
एक साअत मिस्ले-रेगे-शीशा-ए-साअत नहीं
जौक़’ इस सुरत-कदे में हैं हजारों सूरतें
कोई सूरत अपने सूरत-गर की बे-सूरत नहीं
मायने
गुले-इश्रत= ऐश्वर्य रूपी फूल/विसाल=मिलन/ चश्म=आंख / दीद की= दर्शन की/ साअत=क्षण / मिस्ले-रेगे-शीशा-ए-साअत=शीशे की रेतघड़ी की रेत की तरह/ सुरत-कदे में=शक्लों के घर अर्थात संसार में/ सूरत-गर की=भगवान की
परिचय
1789 में दिल्ली में पैदा हुए ‘ज़ौक़’ उर्दू शायरी में अपना अहम मक़ाम रखते हैं। उनका पूरा नाम मोहम्मद इब्राहिम ज़ौक़ था। वे शायरी के उस्ताद माने जाते थे।
दीपक से अधिक मूल्यवान प्रकाश
दीपक से अधिक मूल्यवान होता है प्रकाश
पांडुलिपियों से अधिक मूल्यवान
होती हैं कविताएं
और अधरों से अधिक मूल्यवान होते हैं
उन पर रचे गए चुंबन।
***
तुमसे ..
मुझसे..
हम दोनों से..
बहुत अधिक मूल्यवान हैं मेरे प्रेमपत्र।
वे ही तो हैं वे दस्तावेज
जिनसे आने वाले समय में
जान पाएंगे लोगबाग
कि कैसा रहा होगा तुम्हारा सौंदर्य
और कितना मूल्यवान रहा होगा मेरा पागलपन।
तुम्हें जब कभी
जब भी कभी
तुम्हें मिल जाए वह पुरुष
जो परिवर्तित कर दे
तुम्हारे अंग-प्रत्यंग को कविता में।
वह जो कविता में गूंथ दे
तुम्हारी केश राशि का एक-एक केश।
जब तुम पा जाओ कोई ऐसा
ऐसा प्रवीण कोई ऐसा निपुण
जैसे कि इस क्षण मैं
कर रहा हूं कविता के जल से तुम्हें स्नात
और कविता के आभूषणों से ही कर रहा हूं
तुम्हारा श्रंगार।
अगर ऐसा हो कभी
तो मान लेना मेरी बात
अगर सचमुच ऐसा हो कभी
मान रखना मेरे अनुनय का
तुम चल देना उसी के साथ बेझिझक निस्संकोच।
महत्वपूर्ण यह नहीं है
कि तुम मेरी हो सकीं अथवा नहीं
महत्वूपूर्ण यह है
कि तुम्हें होना है कविता का पर्याय।
निजार क़ब्बानी (1923-1998) : सीरिया के महान कवि। उनकी प्रेम कविताएं अरब दुनिया में लोकगीतों की तरह गाई जाती हैं।
छूटी हुई लिपस्टिक
तलाशती हैं अपनी छूटी हुई लिपस्टिक
और यक़ीन करती हैं, तबाह होती हैं
वे चली जाना चाहती हैं
और लौट आना भी,
वे किसी गहरे रंग की पतंग पर बैठकर
परी या मां बनने को
गायब हो जाना चाहती हैं दरअसल
और तुम उन्हें बताते हो कि
उन्हें डॉक्टर बन जाना चाहिए
और उस उजड़ी हुई महानता में
तुम उन्हें ख़ूबसूरती से धकेलते हो बार-बार
जहां तुम बीमार हो
और तुम्हें खेलना है उनकी लटों से,
शिकायतें करनी हैं
और तुतलाना है।
एक उदास रात में
तुम खोलते हो अपने काले रहस्य
और अपनी अनिद्रा के चुम्बनों से
उन्हें जला डालते हो,
फिर एक सुबह तुम घर से निकलते हो
पूर्व के जंगलों की ओर
और महान हो जाते हो।
वे अकेली जलाती हैं चूल्हे,
काली पड़ती हैं
और मां हो जाती हैं।
हमारा क्या दोष?
एक नौजवान जोड़ा किसी हिल स्टेशन में हनीमून के लिए गया। होटल में खाने के रेट वगैरह तय हो गए। संयोग कुछ ऐसा हुआ कि वे रोज बाहर घूमने जाते, तो रात का खाना बाहर ही खाकर आते तथा इस दौरान वे होटल वालों को मना भी नहीं कर पाते कि वे रात का खाना नहीं खाएंगे।
होटल से चलते समय जब बिल मिला, तो उसमें डिनर के पैसे जुड़े थे। पति बोला- ‘भई डिनर तो हमने कभी लिया नहीं।
यह डिनर के पैसे कैसे जोड़ दिए?’
मालिक बोला- ‘आपने तो मना भी नहीं किया। हम रोज बनाते रहे कि हमारे ग्राहक भूखे न रहें। आपके लिए खाना तो तैयार था। आप न खाएं, तो हमारा क्या दोष?’ पैसे तो डिनर के बिल में जुड़ेंगे।
आदमी ने पैसे दे दिए। सूटकेस उठाकर बाहर की तरफ़ चलने लगा।
अचानक उसने होटल मालिक की गरदन पकड़ ली।
बोला, ‘तुमने मेरी बीवी को छेड़ा कैसे? पांच हज़ार रुपए दो तुरंत, नहीं तो पुलिस को रिपोर्ट करता हूं।’
होटल वाला बोला, ‘मैंने कहां छेड़ा? मैंने तो उसकी तरफ़ आंख उठाकर भी नहीं देखा।’ पति गरदन दबाते हुए बोला- ‘तुमसे उसे छेड़ा नहीं तो इसमें उसकी या ग़लती? वो तो तैयार थी!’
जानेजां ढूंढ़ता फिर रहा..- हास्य-व्यंग्य (प्रेम जनमेजय)
मैं बहुत दिनों से वसंत को ढूंढ़ रहा था। पता चला कि इस बार वो 20 जनवरी को दिखा था, पर उसके बाद पता नहीं कहां चला गया। वसंत ने तो मुझसे उधार भी नहीं लिया है कि वो मुझसे मुंह चुराए। मैं किसी क्रेडिट कार्ड बनवाने वाली, उधार देने वाली, बीमा करने वाली या फिर मकान बेचने वाली कंपनी के कॉल सेंटर में काम भी नहीं करता हूं कि वो मुझसे बचकर चले। वसंत किसी मल्टीनेशनल कंपनी में तो काम करने नहीं लग गया है। मल्टीनेशनल कंपनी में काम करने वाले युवक कब घर आते हैं और कब द़फ्तर जाते हैं, मोहल्ले की क्या औकात, मां-बाप तक को पता ही नहीं चलता है। हो सकता है, किसी कंपनी ने वसंत का अपने नाम पेटेंट करवा लिया हो और वो बेचारा हाथ बांधे अपने मालिक की सेवा में खड़ा हो।
पिछले वर्ष, एक दिन वसंत रास्ते में मिल गया, पर मैं पहचान नहीं सका। उसके चेहरे पर पतझड़ का वैसा ही सूखापन था, जैसा सूखापन आजकल राजनीति में नैतिकता का है। उसका चेहरा किसी भूखे के पेट की तरह सख़्त था और आंखों से किसी ग़रीब के जीवन का सूनापन झांक रहा था। होली के आसपास कौन एेसे वसंत को पहचान सकता है। पर हो सकता है, इस बार उसका चेहरा बदल गया हो। पिछले साल तो मंदी थी, इस बार तो तेजी आने वाली है।मैंने तय कर लिया कि इस बार तो वसंत को ढूंढ़ ही निकालूंगा। महात्मा बुद्ध ज्ञान की खोज में महलों का सुख त्यागकर रात को निकले थे, मैं दिन में ही, कॉलेज में पढ़ाने का सुख त्यागकर निकल पड़ा। कॉलेज में पढ़ाने का सुख, महलों के सुख से कम नहीं है। आप पढ़ाते नहीं, पर फिर भी माना जाता है कि आप पढ़ाते हैं।
वसंत की खोज में निकला ही था कि देखा नुक्कड़ के मकान के बाहर पत्नी अपने पति को तिलक करते हुए कह रही है, ‘जाओ प्रिय, चार माह के लिए तुम देश सेवा के लिए जाओ। चाहे मेरे घर का जितना भी बजट बिगड़ जाए, तुम तो देश का बजट बनाकर आओ। राष्ट्रहित में मैं चार महीने के विरह का पतझड़ सह लूंगी।’जहां दीया तले अंधेरा होता है, वहां दीये ऊपर उजाला होता है, जहां विरह का पतझड़ होता है, वहां मिलन का वसंत भी होता है। यह सोचकर मैंने पूछा, ‘हे देवी, आप विरह का पतझड़ क्यों सह रही हैं?’ ‘मेरे पति बजट-बाबू हैं। इन्हें देश का बजट बनाने वित्त मंत्रालय की क़ैद में जाना है। जब तक बजट नहीं बनेगा, मेरे जीवन में विरह का पतझड़ छाया रहेगा।’ मैंने बजट-बाबू से कहा, ‘आपकी पत्नी के जीवन में तो विरह का पतझड़ छाया होगा और आपके जीवन में बजट का वसंत छाएगा। इसका मतलब वसंत आपके साथ कमरे में बंद रहता है।’
- ‘वसंत, हमारे साथ कमरे में! वो तो हमसे डरता है, हमारे पास फटकता नहीं कि कहीं हम उस पर सर्विस टैक्स न लगा दें। वित्त मंत्री के तीरों से अच्छे-अच्छे घबराते हैं, वसंत किस खेत की मूली है। जाओ, उसे किसी मॉल में ढूंढ़ो।’
मैं वसंत को ढूंढ़ने निकल पड़ा। मुझे लगा कि कहीं वो दाल और चीनी की तरह बाजार से तो ग़ायब नहीं हो गया। पर दाल और चीनी की तो ग़रीब को आवश्यकता होती है, वसंत की नहीं, वसंत की तो अमीरों को आवश्यकता होती है। उनके जीवन में तो बारहमासी वसंत छाया रहता है, नहीं छाता है, तो बाजार से ख़रीदकर छवा लेते हैं। वो सारी चीजें, जिनकी आवश्यकता अमीरों को होती है, वो कभी बाजार से ग़ायब नहीं होती हैं। फ्रिज, टीवी, एसी, बड़ी-बड़ी कारें, साधनसंपन्न कोठियां, बेईमानी, भ्रष्टाचार, अनैतिकता आदि आपने कभी ग़ायब होते देखे हैं? ये तो ‘बाय वन गेट वन फ्री’, यानी एक के साथ दूसरा मु़फ्त पाओ की शैली में मिलते हैं।
मैंने कृषि-मंत्री से पूछा, ‘आपने वसंत को देखा है? कहीं मिल नहीं रहा है।’
-‘कौन वसंत ?’
-‘वसंत, अपना वसंत।’
-‘अपना मराठी मानुस! उसके बारे में अप्पन खुलके बात नहीं करेंगा। उसका खुल्लमखुल्ला ठेका तो साहेब के पास है, हमारा अंडरस्टैंडिंग तो बस छुपमछिपाई का..’
- ‘नहीं मराठी मानुस वाला वसंत ग़ायब नहीं हुआ है, वो तो जैसे दाल और चीनी गायब हुए हैं..’
- ‘ओ अच्छा, वसंत नाम का कोई किसान ग़ायब हो गया है। वो ग़ायब नहीं हुआ होगा, उसने आत्महत्या कर ली होगी, उसे ढूंढ़ना बंद ही कर दो।’ इस शोक में उन्होंनें बिना चीनी के चाय पी और बोले, ‘देख लेना, कहीं वसंत का निर्यात तो नहीं हो गया।’ यह कहकर उन्होंने हाथ में क्रिकेट की बॉल पकड़ ली और उससे कैच-कैच खेलने लगे। मुझे लग गया कि यहां वसंत का पता नहीं मिलेगा, यहां तो कैच होने वाली वो बॉलें दिखेंगी, जो स्विस बैंक में जमा करने लायक़ होती हैं।
-‘न, हम तो कल ही गांव से शहर आए हैं, कोई सवारी नहीं मिली है, आप ही बता दो कहां चलना है और जो चाहे दे दो।’
-‘वसंत किसी मोहल्ले का नाम नहीं है, वसंत तो मौसम का नाम है। तुमने देखा होगा, वसंत आता है तो कोयल कूकने लगती है और बागों में फूल खिल जाते हैं।’
-‘बाबू हम तो जब से आए हैं, कार-स्कूटरों की चिल्लपों ही सुनी है। कोयल की कूक तो गांव में सुनी थी। बाबू जब पेट में भूख लगी हो, तो फूल कहां दिखाई देते हैं। और फिर हमें तो चारों ओर बिल्डिंग ही बिल्डिंग नजर आती हैं, इन पत्थरों में फूल कहां खिलेंगे? बाबू, आप कार-स्कूटर में बहुत बार वसंत को ढूंढ़ते होंगे, आज मेरे रिक्शे पर ही ढूंढ़ लें। आपका ढूंढ़ना हो जाएगा और मेरे पेट को दो रोटी मिल जाएंगी।’ मुझे समझ आ गया कि मैंने ग़लत दरवाजा खटखटा दिया है। भूखे पेट तो गोपाल का भजन नहीं हो सकता, वसंत की कौन कहे। गंवई गंवार कहीं का..बंदर क्या जाने अदरक का स्वाद..अनाड़ी भूखा क्या जाने शेयर बाजार का सैंसेक्स या देश की जीडीपी!
सुना है कि वसंत वीआईपी हो गया। वो आतंकवदियों की हिटलिस्ट में है। उसके चारों ओर सुरक्षा का घेरा है, इसलिए वो आम जनता से नहीं मिलता है, किसी की पहुंच में नहीं है। कभी-कभी वो झोपड़ी में भी घुस जाता है तथा झोपड़ी पूरा जीवन इस आशा में बिता देती है कि वसंत फिर आएगा। जैसे दीये तले अंधेरा होता है, वैसे ही वसंत के तले पतझड़ होता है और वो पतझड़ झोपड़े में छूट जाता है।अब वसंत भी थोड़ी-बहुत राजनीति जान गया है, उसने भी रूप बदल लिया है । वसंत बहरूपिया हो गया है। वसंत ऐय्यार हो गया है। वह रीमिक्स बनकर आने लगा है। वसंत जब वसंत में नहीं आ सकता, तो वह दूसरे रूपों में आने लगा है। कभी वो राष्ट्रमंडल खेलों का बजट बनकर आता है, कभी हाथी की मूर्तियों के रूप में आता है, कभी हिंदी पखवाड़ा बनकर आता है और कभी..
किसी के जीवन में समस्त जीवन वसंत ही वसंत रहता है और किसी के जीवन में वसंत कभी नहीं आता है, ऐसे में वो चिल्लाता है- वसंत तुम कहां हो?
होली के पेच
किसी ने हम से पूछा-
होली के त्योहार पर
क्यों गोरे तेरे गाल।
हमने हंस कर कहा-
महंगाई में डूब चुका
सारा बाजार
हम पर ख़र्च कौन करे
फिर आधा किलो गुलाल।
2.
रंगों में घुला मुखड़ा लाल गुलाबी है
जो भी देखे, कहे चाल शराबी है
पिछले बरस तूने जो भिगोया था होली में
अब तक निशानी वो रुमाल गुलाबी है।
3.
उड़ते पेचों-खम ने दीवाना बना दिया।
इक बात क्या कही कि अफ़साना बना दिया।
शमां की तरह हुस्न निखर बिखर रहा,
जलने की आरजू में परवाना बना दिया।
जिंदगी के सबक
एक आदमी तोता ख़रीदने गया था। दुकानदार ने बताया कि यह तोता पंजाबी, अंग्रेजी और हिंदी- ये तीन भाषाएं बोलता है। आदमी को यक़ीन नहीं हुआ। सो, उसने परीक्षा लेने के लिए पूछा, ‘तु कौन ऐ?’ तोते ने बड़ी शालीनता से जवाब दिया, ‘मैं इक तोता वां।’ दूसरा सवाल, ‘हू आर यू?’ तोता, ‘आय’म अ पैरट।’ फिर उस आदमी ने पूछा, ‘तुम कौन हो?’ तोते ने कहा, ‘तेरी ऐसी की तैसी, कितनी बार बताऊं कि मैं तोता हूं, तोता हूं।
सबक़: सवाल पूछना भी अक्लमंदी है।
एक मच्छर जिंदगी में पहली बार ख़ून चूसने के लिए निकला था। वह ख़ून तो नहीं पी पाया, उल्टे बड़ी मुश्किल से अपनी जान बचाकर लौटा। मच्छर के बाप ने पूछा, ‘बेटे, कैसा रहा पहला सफ़र?’ युवा मच्छर ने बड़े गर्व से जवाब दिया, ‘बहुत बढ़िया डैड, हर कोई मेरी उड़ान देखकर ताली बजा रहा था।’
सबक़: हर बात में सकारात्मकता देखें।
एक मेंढक ने ज्योतिषी से भविष्य पूछा। ज्योतिषी ने बताया कि बहुत जल्दी तुम्हें एक सुंदरी के हाथों का स्पर्श मिलेगा। मेंढक बहुत ख़ुश हुआ। कुछ दिनों बाद प्रयोगशाला की टेबल पर एक छात्रा उस मेंढक की चीर-फाड़ कर रही थी।
सबक़: भविष्य कहना भी एक कला है।
एक आदमी बकरा ख़रीदने गया, तो दुकानदार ने क़ीमत बताई 500 रुपए। आदमी, ‘इतना सस्ता क्यों?’ दुकानदार, ‘चीनी बकरा है। कोई गारंटी नहीं, कल को भौंकना शुरू कर दे।’
सबक़: गारंटी की इच्छा न करें।
सबक : इन सब कहानियों का सबक़ यह है कि जीवन में हमेशा गंभीर सबक़ की आशा न रखें। हो सकता है कि कोई बात पहले तो हंसाए, फिर कुछ काम की बात कह जाए।
रंग-दंग-भंग - अशोक चक्रधर की फुलझड़ियाँ
होरी सर र र र!
कुछ मुद्दे ऐसे होते हैं जो कभी बासी नहीं होते, अच्छे-ख़ासे बने रहते हैं। पैंतीस साल पहले जब मैं डीटीसी की बसों में झोला कंधे पर टांगे यात्रा किया करता था, उन दिनों भी महंगाई बढ़ रही थी। आज भी उसकी बढ़त जारी है। बस में चढ़ते समय एक विचार जेहन में आया था और कुछ लाइनें मैंने बस में ही गढ़ ली थीं—
बड़ी देर के बाद जब बस आई
तो सारी भीड़
दरवाजे की तरफ धाई।
सब कोशिश कर रहे थे
इसलिए कोई नहीं चढ़ पा रहा था
और पीछे खड़े एक आदमी को
बड़ा ग़ुस्सा आ रहा था।
बोला- अरे क्यों शर्माते हो
लुगाई की तरह/ चढ़ जाओ
चढ़ जाओ
महंगाई की तरह।
बस में धक्के खाते और धकियाते हुए तेजी से चढ़ना उस समय एक कौशल हुआ करता था, और महंगाई भी बड़े कौशल से चढ़ रही थी। अलग-अलग समय पर अलग चीजों के दाम बढ़ते रहे। मुई प्याज के बढ़ते दामों के कारण तो दिल्ली में सरकार ही बदल गई थी। उन दिनों मैंने प्याज का एक पहाड़ा लिखा था—
जिस प्याज को हम समझते थे मामूलीप्याज एकम प्याज
प्याज एकम प्याज।
प्याज दूनी दिन दूनी
कीमत इसकी दिन दूनी।
प्याज तीया कुछ ना कीया,
रोई जनता कुछ ना कीया।
प्याज चौके खाली
सबके चौके खाली।
प्याज पंजे गर्दन कस
पंजे इसके गर्दन कस।
प्याज छक्के छूटे
सबके छक्के छूटे।
प्याज सत्ते सत्ता कांपी
इस चुनाव में सत्ता कांपी।
प्याज़ अट्ठे कट्टम अट्ठे
ख़ाली बोरे ख़ाली कट्टेप्याज निम्मा किसका जिम्मा
कसका जिम्मा किसका जिंम्मा
प्याज धाम बढ़ गए दाम,
बढ़ गए दाम बढ़ गए दाम।
उससे बहुत पीछे छूट गए सेब, संतरा, बैंगन, मूली
प्याज ने बता दिया कि
जनता नेता सब उसके बस में हैं आज,
बहुत भाव खा रही है/ इन दिनों प्याज।
प्याज के साथ घर में सब्जियों में भी कटौती होने लगी। पप्पू अपने टिफिन के लिए परेशान रहने लगा कि कहां तो मम्मी चार-चार तरह की चीजें रखकर स्कूल भेजा करती थीं, अब अचार रखने में भी समस्या आने लगी। जो नजारा सामने आया वह एक कुंडलिया छंद में बदल गया—
मम्मी से कहने लगा, पप्पू हो लाचार,
तुमने मेरे टिफिन में रक्खा नहीं अचार।
रक्खा नहीं अचार, रोटियां दोनों रूखी,
उतरी नहीं गले से मेरे, सब्जी सूखी।
होली पर मां की आंखों में आई नम्मी,
टिफिन चाट गई सुरसा महंगाई की, मम्मी।
जब-जब सरकार को नीचा दिखाना होता है या चुनाव आना होता है, तब महंगाई एजेंडे में कूदकर सबसे ऊपर जा बैठती है। बढ़ी महंगाई के कारण आम आदमी को राहत देने के लिए लुभावने बजट बनाए जाते हैं। वह मौक़ा भी होली का था, जब मैंने पिछली सरकार के रहते चुनावों और बजट के समय एक कुंडलिया छंद बनाया था-
गाई सबने आरती, हो गई जय जयकार,
दोऊ हाथ उलीच कर, खूब किया उपकार।
खूब किया उपकार, बजट है वोट-बटोरू,
ढोल नगाड़ों में गुमसुम ग़रीब की जोरू।
क्या कर लेंगे यदि अपनी सरकार न आई,
अगली गवरमैंट ही झेलेगी महंगाई।
बहरहाल फिर होली आ गई है। किस तरह का रोना? होली का त्योहार है कुछ ऐसी स्थितियों का होना, जिसमें दुख में सुख मनाओ, रोते-रोते भी गाओ। मौका एेसा है कि जिसे भी गरियाना हो, गाते हुए गालियां सुनाओ/ सर र र र करती हुई गालियां उसके कान में अर र र र कर देंगी। सोचने को मजबूर तो करेंगी। तो आइए, बैठ जाइए। गाइए हमारे साथ सर र र र। ये सर र र र कहीं जोगीड़ा के रूप में, कहीं कबीरा के रूप में पूरे हिंदी अंचलों में गाई जाती है। उठाइए ढोलक और हो जाइए तैयार। समझिए स्वयं को नारी। चलिए गाते हैं-
दीखै उजलौ उजलौ अभी, निगोड़े पर र र र,
दूंगी सान कीच में कान-मरोड़े अर र र र।
कै होरी सर र र र।
बन गई महंगाई इक लाठी
तन पै कस कै मारी रे,
बढ़ि गए दाम सबहि चीजन के
म्हौं ते निकसैं गारी रे।
होरी पै महंगाई आज, दुखी है घर र र र।
कै होरी सर र र र।
महंगाई बढ़ती है, तो बाई प्रोडक्ट के रूप में दूसरी चीजें भी बढ़ जाती हैं। दहेज के रेट अकल्पनीय रूप से बढ़ रहे हैं। हमारे पास तो गाली गाने का मौका है—
दूल्हा बेच, रुपैया खैंचे, जामें हया न आई रे,
छोरी बारे के बारे में, जामें दया न आई रे।
पीटौ खूब नासपीटे कूं, बोलै गर र र र,
कै होरी सर र र र।
महंगाई ही बढ़ाती है जात-पांत की भावना। आप पूछेंगे ऐसा कैसे? हम बताते हैं आपको कि ऐसे—
डारौ जात-पांत कौ जहर, भंग जो तैनें घोटी रे,
नंगे कू नंगौ का करैं, खुल गई तेरी लंगोटी रे।
नेता बन मेंढक टर्रायं, टेंटुआ टर र र र,
कै होरी सर र र र।
सामाजिक संबंधों के साथ-साथ प्रेम संबंध भी दरकने लगते हैं। कभी प्रेमिका, तो कभी प्रेमी दूसरी तरफ सरकने लगते हैं। ऐसे सरकने वाले तू भी सुन ले—
छेड़ै भली कली गलियन में
जानैं भली चलाई रे,
तोकूं छोड़ गैर के संग, भग गई तेरी लुगाई रे।
डारै दूजी कोई न घास, धूर में चर र र र,
कै होरी सर र र र।
उधार लेना बन जाता है मजबूरी, लेकिन चुकाना थोड़े ही है जरूरी। होलिका दहन के समय लाला के बहीखाते किस काम आएंगे। पहले ही बता दिया है, लाला सुन ले—
भूली मूल, ब्याज भई भूल, दई दिन दून कमाई रे,
लाला ये लै ठैंगा देख, कि दिंगे एक न पाई रे।
बही-खातौ होरी में डार, चाहे जो भर र र र,
कै होरी सर र र र।
अब अकेले की आमदनी से काम नहीं चलता। घर की नारियों को भी काम पर जाना होता है। बहू घर से निकलती है, तो सासू का मनुआ रोता है। सासू तेरे लिए भी कुछ मीठे बोल हैं—
सासू बहू है गई धांसू, आंसू मती बहावै री,
घर ते भोर भए की खिसकी
खिसकी तेरी उड़ावै री।
बल बच गए, मगर रस्सी तौ गई जर र र र,
कै होरी सर र र र।
नारी काम पर जाए और नर घर बैठ कर मौज करे, ऐसे नजरे भी कम नहीं हैं। ऐसे लोगों की गाली पाचन शक्ति बड़ी प्रबल होती है, फिर भी कहने में क्या हर्ज है—
गारी हजम करीं हलुआ सी
ललुआ लाज न आई रे,
तोकूं बैठी रोट खबाय, बहुरिया आज न आई रे।
नारी सच्चेई आज अगारी, पिट गए नर र र र।
कै होरी सर र र र।
महंगाई स्वयं एक नारी है, पिटेगी कैसे? महिला सशक्तीकरण के दौर में महंगाई से घबराना नहीं है। दो ही तरीके हैं या तो लड़ो या ज्यादा काम करो।
जो मेहनत करी, तेरा पेशा रहेगा,
न रेशम सही, तेरा रेशा रहेगा।
अभी करले पूरे, सभी काम अपने,
तू क्या सोचता है, हमेशा रहेगा।
और प्यारे जब तू ही नहीं रहेगा, तो महंगाई कहां रहेगी, इसलिए अच्छा ये है कि तू भी रह और महंगाई को भी रहने दे।