04 मार्च, 2010

कोई सूरत अपने सूरत-गर की बे-सूरत नहीं - ‘ज़ौक़’

इस गुलिस्ताने-जहां में क्या गुले-इश्रत नहीं
सैर के क़ाबिल है ये पर सैर की फ़ुरसत नहीं
कहते हैं मर जाएं, गर छुट जाएं ग़म के हाथ से
पर तिरे ग़म से हमें मरने की भी फ़ुरसत नहीं
दिल वो क्या जिसको नहीं तेरी तमन्ना-ए-विसाल
चश्म वो क्या जिसको तेरी दीद की हसरत नहीं
खाक होकर भी फ़लक के हाथ से हमको क़रार
एक साअत मिस्ले-रेगे-शीशा-ए-साअत नहीं
जौक़’ इस सुरत-कदे में हैं हजारों सूरतें
कोई सूरत अपने सूरत-गर की बे-सूरत नहीं



मायने
गुले-इश्रत= ऐश्वर्य रूपी फूल/विसाल=मिलन/ चश्म=आंख / दीद की= दर्शन की/ साअत=क्षण / मिस्ले-रेगे-शीशा-ए-साअत=शीशे की रेतघड़ी की रेत की तरह/ सुरत-कदे में=शक्लों के घर अर्थात संसार में/ सूरत-गर की=भगवान की



परिचय
1789 में दिल्ली में पैदा हुए ‘ज़ौक़’ उर्दू शायरी में अपना अहम मक़ाम रखते हैं। उनका पूरा नाम मोहम्मद इब्राहिम ज़ौक़ था। वे शायरी के उस्ताद माने जाते थे।

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