प्रसिद्ध शायर मजरूह सुल्तानपुरी का असल नाम असरार उल हसन ख़ान था। सन् 1919 में उप्र के सुल्तानपुर कस्बे में पैदा हुए। उर्दू, अरबी और फारसी के जानकार थे। 1945 में निर्माता एआर कारदार उन्हें फिल्मी दुनिया में ले गए। ग़ालिब अवार्ड, वली अवार्ड, इक़बाल सम्मान, दादा साहेब फालके अवार्ड, फिल्म फेयर अवार्ड से नवाजे गए मजरूह सुल्तानपुरी का एकमात्र ग़ज़ल संग्रह ‘ग़जल’ प्रकाशित हुआ। 24 मई 2000 को मजरूह सुल्तानपुरी का इंतकाल हो गया।
आहे-जांसोजा की महरूमी-ए-तासीर न देख,
हो ही जाएगी, कोई जीने की तदबीर न देख।
हादिसे और भी गुजारे हैं तेरी मुहब्बत के सिवा,
हां, मुझे देख, मुझे, अब मेरी तस्वीर न देख।
ये जरा दूर पे मंजिल, ये उजाला, ये सुकूं,
ख्वाब को देख अभी, ख्वाब की ताबीर न देख।
देख जिंदा से परे, रंगे-चमन, जोशे-बहार,
रक्स करना है तो फिर पांव की जंजीर न देख।
कुछ भी हूं, फिर भी, दुखे दिल की सदा हूं नासेह,
मेरी बातों को समझ, तल्ख़ी-ए-तकरीर न देख।
वही ‘मजरूह’, वही शायरे-आवारा-मिजाज,
कौन उट्ठा है तेरी बज्म से दिलगीर, न देख।
मायने
आहे-जां सोज=दिलजले का रुदन/महरूमी-ए-तासीर=असर के न होने को/तदबीर=तरीक़ा, युक्ति/ताबीर=अंत,परिणति/जिंदां=बंदीगृह/
रक्स= नृत्य सदा= आवाज/नासेह=धर्मोपदेशक/ तल्ख़ीए-तकरीर=कटु वार्ता/दिलगीर= दुखित
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