गंगा बाबू से मेरा परिचय आज से कोई दस वर्ष पूर्व ही हुआ था। किन्तु मुझे सदा ऐसा लगता था, जैसे वर्षों से उन्हें जानती हूँ। मेरा एक संस्मरण पढकर, उन्होंने मुझे जब पत्र लिखा तो मैंने उन्हें कभी देखा भी नहीं था। किन्तु उस सरल पत्र की सहज-स्नेहपूर्ण भाषा ने जो चित्र उनका खींचकर रख दिया था, साक्षात्कार होने पर वे एकदम वैसे ही लगे। बूटा-सा कद, भारी-भरकम शरीर, सरल वेश-भूषा और गांभीर्य-मंडित चेहरे को उद्भासित करती स्नेही मुस्कान। उन्होंने मेरे लेख को सराहा, यह मेरा सौभाग्य था। उस पत्र में उन्होंने लिखा था, 'संस्मरण ऐसा हो कि जिसे कभी देखा भी न हो, उसकी साक्षात् छवि ही सामने आ जाए, उसका क्रोध, उसकी परिहास रसिकता, उसकी दयालुता, उसकी गरिमा, उसकी दुर्बलता, सब कुछ सशक्त लेखनी ऑंकती चली जाए, वही उसकी सच्ची तस्वीर है, वही सफल संस्मरण।
तब कभी सोचा भी नहीं था कि एक दिन उसी दुर्लभ व्यक्तित्व पर लेखनी का फोकस साधना पडेगा, जिसने कभी संस्मरण का ककहरा सिखाया था। स्वयं वे अनेकानेक दुर्लभ संस्मरणों के जीते-जागते कोश थे। मैंने उनसे एक दिन कहा था, 'आप ऐसे बेजोड संस्मरण सुनाते हैं, कभी लिखते क्यों नहीं? एक ऐसा कोश बनाइए, जिसमें आपकी यह दुर्लभ निधि, सदा के लिए सुरक्षित रहे- फिर आपके सुनाने का ढंग भी अनोखा है...
'देखो! वे गम्भीर होकर, सहसा शरारत-भरी मुस्कराहट में बिखर गए, 'जरूरी नहीं है कि जो संस्मरण सुनाने में माहिर हो, उसे लिखने में भी वैसा ही कमाल हासिल हो...
उन्होंने मुझे जब भी किसी गोष्ठी की अध्यक्षता या किसी अनुष्ठान में उपस्थिति का आग्रह किया, मैंने सदैव उनके आदेश को सिरमाथे लिया। मैं
बहुत कम बाहर जाती हूँ, किन्तु उनके पत्र में कुछ ऐसा आत्मीयतापूर्ण अभिजात्य रहता है कि मैं टाल नहीं पाती। एक बार आज से कोई आठ वर्ष
पूर्व उन्होंने मुझे लक्खी सराय के बालिका विद्यापीठ में 'कन्याओं की विदा के अनुष्ठान पर आमंत्रित किया।
'यह विद्यालय राजेन्द्र प्रसादजी की प्रिय शिक्षण संस्था रही है। यहाँ की शिक्षा पूर्ण करने पर जब कन्याएँ विदा लेती हैं, तो उन्हें उसी स्नेह से विदा किया जाता है, जैसे पुत्री को मायके से विदा किया जाता है। गत वर्ष महादेवीजी पधारी थीं। उनके हाथ का लगा वृक्ष जिस अहाते में है, हमारी विदा हो रही कन्याओं की हार्दिक इच्छा है कि उसी के पार्श्व में आपके हाथों लगा वृक्ष लहलहाये। यात्रा कठिन अवश्य है, आपको कष्ट भी होगा, क्योंकि रेलवे स्टेशन नहीं है, किन्तु हमारे सहयोगी कार लेकर किऊल उपस्थित रहेंगे। आपको आकर यह तो देखना ही है कि आपके प्रशंसक यहाँ भी कितनी बडी संख्या में हैं। साहस कर मैं गई तो रात को बारह बजे किऊल के जनहीन बीहड स्टेशन पर पहुँचते ही सहम गई। लोगों से सुन चुकी थी कि किऊल से लक्खी सराय का मोटर मार्ग निरापद नहीं है, डाके भी आए दिन होते रहते हैं, मुझे लेने गाडी आई थी। विद्यापीठ पहुँची तो अतिथिशाला और भी भयानक लगी। उस दिन बिजली भी चली गई थी। निराभरण कमरे में एक स्प्रिंग की
पलंग पडी थी। न कोई चौकीदार, न आसपास कोई मकान। थोडी देर में एक लम्बा-सा व्यक्ति, एक अधमरी लालटेन और एक मटके में पानी रख, तिरछा खडा होकर रहस्यमयी मुस्कराहट बिखेरता बोला, 'हम माली हैं। आप दरवाजा बंद कर आराम से सोइए, हम उहाँ उस कोठरी में रहते हैं- खिडकी-दरवज्जा बंद रखिएगा, कभी-कभी साला करैत घुस आता है।
अपनी दिव्य वाणी की मिठास घोल वह लम्बी-लम्बी डगें रखता, ऍंधेरे में खो गया तो मुझे लगा, हो न हो, वह सीधे परलोक से चला आ रहा यमालय का ही माली है। वह स्याह चेहरा, टेढी मुस्कान, खडे होने की तिर्यक् भंगिमा और वह स्वरभंग करती विचित्र हँसी! कुछ देर तो मैं भय से जड बनी बैठी ही रही। कहाँ फँसा दिया गंगा बाबू ने? रात को ही किसी अरक्षित छिद्र से रेंगे आए करैत ने डस लिया, तो मटके तक भी नहीं पहुँच पाऊँगी। किसी तरह खिडकी-दरवाजे बंद किए और रात-भर सो नहीं पाई। आधी रात से सियारों की जो संगीत सभा आरंभ हुई, शेष होने का नाम ही नहीं! एक दल की 'हुआ..हुआ समाप्त होती तो दूसरा दल जवाबी कीर्तन में डट जाता, उस पर दो-तीन उल्लू बारी-बारी से मेरा रक्तचाप बढाते रहे। 'राम-राम कर रात कटी, जब सुबह होते ही टेढा माली फिर वही टेढी मुस्कान लिए हाजिर, 'हाथ मुँह धो लिया जाए, गंगा बाबू आपको बुलाइन हैं।
मैं उसके साथ कई मेडें पार कर पहुँची तो गंगा बाबू हँसते-हँसते बढ आए, 'आइए, आइए शिवानी जी, कोई कष्ट तो नहीं हुआ, नींद आई ना?
मैं उनसे क्या कहती? उस समय तो मैं चुप रही, फिर मैंने उनसे दबे स्वर में मेरे कहीं और रहने की व्यवस्था करने का आग्रह किया, 'आपने कल ही कह दिया होता, आप हमारी विद्या बहन के साथ रहेंगी। वे स्वयं भी उन्हीं के अतिथि थे। फिर उन चार दिनों में उन्होंने जिस स्नेह से
मेरी देखभाल की, उससे मैं कभी भूल नहीं सकती। मैं चलने लगी तो उन्होंने मेरे साथ चिवडा, घर का घी, और न जाने कितनी सौगातें बाँध दी, जैसे पुत्री को विदा कर रहे हों।
उस गुरुकुल के-से वातावरण ने यात्रा की सारी थकान चार ही दिनों में मिटाकर रख दी। गंगा बाबू के कमरे में रात होते ही महफिल जम जाती -
ऐसे-ऐसे चुटकुले सुनाते, ऐसे-ऐसे संस्मरण कि जी में आता वे सुनाते ही चले जाएँ और हम सुनते ही रहें।
मैं पटना भी उन्हीं के आग्रह पर गई थी। बाबू राजेन्द्र प्रसाद की मूर्ति का अनावरण करने को ही गई थी। किन्तु गंगा बाबू के साथ न जाने कितनी
शिक्षण संस्थाओं की परिक्रमा की, यूनिवर्सिटी ले जाकर तत्काल एक अनौपचारित गोष्ठी आयोजित कर मुझे खींचकर मंच पर खडी कर दिया,
'आपको बोलना ही होगा।
मैं बोलते-बोलते देखती, उनकी ऑंखों से जैसे स्नेह झर रहा है। मैं भाषण समाप्त कर उनके पास आकर बैठती तो बिना कुछ कहे वे मेरी पीठ थपथपाते। उस मौन स्पर्श में वे कितना कुछ कह जाते! आज उसी मूक-मौन स्पर्श की स्मृति मुझे विह्वल कर रही है। अभी कुछ ही माह पूर्व, लखनऊ आये थे, 'हिन्दी संस्थान में कोई आयोजन था, मैंने देखा जैसे अचानक ही टूट-से गए हैं। चलने में भी सहारा लेना पड रहा था। शरीर अभी भी पूर्ववत् था, किन्तु स्वयं उन्हीं के शब्दों में 'शिवानी, अब भीतर से सब कुछ खोखला होता चला जा रहा है... अभी भी अस्पताल से भागकर आया हूँ- दिल्ली के डॉक्टर क्या किसी की सुनते हैं? बोले, 'आप कहीं नहीं जा सकते। बस, फिर हमने भी वही किया जो कभी बचपन में किया करते थे। डॉक्टर का राउण्ड खत्म हुआ तो बिस्तर में तकियों को रख ऐसे ढाँपा, जैसे हम सोए हों। शाम को फ्लाइट से आए, सुबह की फ्लाइट से पहुँच जाएँगे -फिर वही अस्पताल...
किन्तु इस बार वे डॉक्टरों को पक्का झाँसा देने में सफल रहे हैं, उनकी यह उडान अब पृथ्वी पर कभी नहीं उतरेगी...।
हिन्दी का यह सच्चा सफल सेनानी, कभी किसी प्रशस्ति या यश-ख्याति का भूखा नहीं रहा। आज हिन्दी ऐसे ही तप:पूत पूतों के पुण्यों से बची है, जो जीवन भर हिन्दी को समर्पित रहे, जिन्होंने हिन्दी के लिए सच्चे अर्थ में संघर्ष किया, किन्तु कभी भी अपने मुँह से अपने कृतित्व का प्रचार नहीं किया। शायद यही कारण है कि आज भी हिन्दी के ही क्षेत्र में कार्य करने वालों में अनेक ऐसे व्यक्ति हैं, जो यह भी नहीं जानते कि गंगा बाबू कौन थे। मुझे स्वयं एक बार ऐसी अनभिज्ञता से क्षुब्ध किया था, जब भोपाल की ही एक गोष्ठी में मैंने गंगा बाबू की चर्चा की तो वहीं के एक ऐसे साहित्यकर्मी ने, जो प्रतिवर्ष लाखों की साहित्यिक रेवडियाँ बाँटते हैं, दबंग स्वर में पूछा था, 'यह गंगा बाबू हैं कौन?
यही आज हमारा दुर्भाग्य है। हम हिन्दी के उत्तुंग सौध को देख उसे सराहते हैं, जिन मजदूरों ने बाँस की जानलेवा खपच्चियों में चढ गारे-मिट्टी की काँवरें ढो, उसके झरोखों की दर्शनीय जालियों को सँवारा है, उसके दरीचों की सीमेंटी चिलमनों में जालियों के नक्शे बुने हैं, उन्हें भला कौन याद करेगा? अब तो हम हिन्दी के आलमगीर शामियाने के तले खडे हो सगर्व हिन्दी का जयजयकार करने में विश्वास करते हैं, बहुत हुआ, तो एकाध शोकसभा कर ली, एकाध संपादकीय छप गए, जीवनकाल में किसी के कृतित्व को सराहना हमारी परंपरा के विरुध्द है। हमारे यहाँ तो भले ही जीवनकाल में बाप बेटे की अवहेलना सहता रहे, उसके श्राध्द-तर्पण में भारतीय बेटा कभी कार्पण्य नहीं बरतता, वही हम करते रहे हैं और करते रहेंगे- यही कारण है कि हम कभी- कभी ऐसा बेतुके प्रश्न पूछ बैठते हैं, 'ये गंगा बाबू हैं कौन?
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