जोश मलीहाबादी उर्दू के इंक़लाबी शायर थे तथा तबीयत से बेबाक भी। उनकी बेबाकी की एक घटना भारत में लोकतंत्र की स्थापना के अवसर पर हुए जश्न-ए-जमहूरियत समारोह में उद्घाटन के समय की है। इसमें भारत के प्रथम प्रधानमंत्री पंडित जवाहरलाल नेहरू समारोह के चीफ़गैस्ट थे, सिने गायक मोहम्मद रफ़ी और मुकेश का गायन था तथा जोश साहिब को अपना क़लाम सुनाना था। सप्ताह भर चलने वाले इस कार्यक्रम के आयोजक कुंवर महेंद्र सिंह बेदी थे। कार्यक्रम के अंत में लाल क़िला दिल्ली के दीवान-ए-ख़ास में जोश मलीहाबादी ने नशाबंदी के ख़िलाफ़ नेहरूजी की तरफ़ इशारा करते हुए ये शेर सुनाए—
आते नहीं जिनको और धंदे साक़ीअदहाम के वो बुनते हैं फंदे साक़ी
जिस मय (शराब) को छुड़ा सका न अल्लाह अब तक
उस मय को छुड़ा रहे हैं बंदे साक़ी
जोश साहिब की दूसरी रुबाई इस तरह थी-
ख़ुम को तोड़ेंगे ये खिलौने देखो
चेहरे जैसे फटे बिछौने देखो
जिस कोहसे गिर चुके हैं लंका वाले
उस कोह पे चढ़ रह हैं
बौने देखो
सुबह हुई, तो जोश साहिब ने महसूस किया कि सचमुच ही रात उनसे ज्यादती हो गई। बेदी साहिब को साथ लेकर वह नेहरू जी से खेद व्यक्त करने उनकी कोठी पहुंच गए। अंदर सूचना दी। उन्हें नेहरू जी ने भीतर बुला लिया। वह अपने कमरे में बैठे कोई फ़ाइल देख रहे थे तथा अंदर पहुंचकर एक ओर खड़े हुए उन दोनों पर उन्होंने कोई ध्यान नहीं दिया। कुछ देर बाद नेहरू जी ने चपरासी को आवाज़ देकर कहा कि विजय लक्ष्मी, इंदिरा तथा सबको यहां बुला लाओ। जोश साहिब और बेदी साहिब की मौजूदगी का उन्होंने कोई नोटिस नहीं लिया। जब सब आ गए, तो पंडित जी ने जोश साहिब को भी बैठने को कहा तथा उनसे फ़रमायश की कि वही रुबाइयां यहां फिर सुनाएं, जो कल रात नशाबंदी पर सुनाई थीं।
जोश साहिब लाख कहते रहे कि मुझसे भूल हो गई। रात नशे में न जाने क्या कह गया, आप उसे भूल जाएं। पंडित जी मुस्कुराए और बोले, ‘जोश साहिब, हम एक लोकतंत्र देश के शहरी हैं। हर किसी को अपनी बात कहने का हक़ है। वैसे भी मैं आपसे सहमत हूं। लेकिन नशाबंदी हुकूमत की पॉलिसी है। आप इन बातों को भूलकर रात वाला क़लाम सुनाएं। इन सब लोगों ने वह नहीं सुना।’ जोश साहिब ने उसी बेबाकी से अपना क़लाम पेश किया और पंडितजी ने ख़ूब दाद दी।
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