ज़ेन-आश्रम में भूकम्प आया। ज़मीन कांपने लगी। आश्रम के कई छोटे-मोटे कुटीर तो ढह गए। कुछ देर बाद भूकम्प थम गया। सारे साधक घबराए हुए नज़र आ रहे थे। आश्रम के गुरु ने सबको पास बुलाया और कहा-
‘आज आप सबको यह देखने का मोका मिला कि एक सच्चा ज़ेन साधक संकटकाल में भी विचलित नहीं होता। आपने देखा होगा कि भूकम्प शुरू होते ही सब घबरा गए थे, पर मैंने अपना आत्मनियंत्रण ज़रा भी नहीं खोया। मैं शांत और स्थिर भाव से सब कुछ देख रहा था। हर क्षण पूरी तरह से जाग्रत था। मैंने ठंडे दिमाग़ से सोचा कि सबकी सुरक्षा के लिए क्या करना चाहिए और फिर सभी डरे-घबराए लोगों को इकट्ठा करके मैं आश्रम के रसोईघर में आ गया, क्योंकि रसोईघर की इमारत काफ़ी पक्की और मजबूत है, उसके गिरने का डर नहीं था। इसलिए रसोईघर में पहुंचते ही मैंने एक ग़िलास पानी पीया, जिसकी पूर्ण अविचलित अवस्था में मुझे जरूरत नहीं पड़ती।’
सारी बात सुनकर एक साधक मुस्करा दिया।
गुरु ने पूछा, ‘तुम्हें हंसी क्यों आ रही है?’
साधक ने कहा, ‘गुरुजी, वो पानी का नहीं, सिरके से भरा गिलास था।"
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