सादिक साम्राज्य की प्रजा ने विद्रोह के नारे लगाते हुए सम्राट का महल घेर लिया। सम्राट राजमहल की सीढ़ियों से उतरे। उनके एक हाथ में राजमुकुट और दूसरे में राजदंड था। उन्होंने प्रजा से कहा, यह राजमुकुट और राजदंड लो। अब हमारा राजा-प्रजा का संबंध समाप्त हुआ। मैं भी तुम्हीं लोगों में से एक बनकर रहूंगा। चलो हम सभी मिलकर खेतों में काम करें।
कुछ दिनों बाद प्रजा फिर असंतुष्ट हुई, क्योंकि शासक के अभाव में साम्राज्य की व्यवस्था भली प्रकार न चल सकी। पुन: सम्राट को गद्दीनशीन किया गया और उन्होंने न्यायपूर्वक शासन करने की शपथ ली। एक दिन सम्राट के पास कुछ लोग एक जागीरदार की शिकायत लेकर पहुंचे। वह अपने मजदूरों को दास समझता था। सम्राट ने उसे देश निकाले का दंड दिया।
इसके बाद पहाड़ी के पार रहने वाली एक रानी के अत्याचारों की दास्तान सम्राट के समक्ष आई। तत्काल सम्राट ने रानी को दरबार में तलब कर उसे राज्य से निकल जाने का आदेश दिया। इसी प्रकार उस पादरी को भी सम्राट ने देश निकाला दिया जिसने गिरजाघर बनाने वाले मजदूरों को मजदूरी नहीं दी। एक दिन फिर प्रजा महल के समक्ष एकत्रित हुई और सम्राट के प्रति कृतज्ञता ज्ञापित की।
तब सम्राट बोले, आप लोग अपने सम्राट स्वयं हैं। जिस समय आप मुझे, अयोग्य व निर्बल समझ रहे थे, वास्तव में उस समय आप स्वयं निर्बल व अयोग्य थे। अब जो राज्य का कार्य सुचारू रूप से चल रहा है तो इसका कारण आपकी ही दृढ़ भावना है। वस्तुत: राज्य में सुव्यवस्था के लिए शासक को विवेकपूर्ण दिशा में संचालित करना शासित का भी कर्तव्य है।
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बहुत अच्छा लगा आज पहली बार मिला
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